Tafseer Surah Al-Taubah from Kanzul Imaan

सूरए तौबह – पहला रूकू

सूरए तौबह – पहला रूकू

(1) सूरए तौबह मदीना में उतरी, इसमें 129 आयतें और 16 रूकू हैं.
बेज़ारी का हुक्म सुनाना है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से उन मुश्रिकों को जिनसे तुम्हारा मुआहिदा था और वो क़ायम न रहे (2){1}
तो चार महीने ज़मीन पर चलो फिरो और जान रखो कि तुम अल्लाह को थका नहीं सकते(3)
और यह कि अल्लाह काफ़िरों को रूस्वा करने वाला है (4){2}
और मुनादी पुकार देना है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से सब लोगों में बड़े हज के दिन (5)
कि अल्लाह बेज़ार है मुश्रिकों से और उसका रसूल तो अगर तुम तौबह करो(6)
तो तुम्हारा भला है और अगर मुंह फेरो(7)
तो जान लो कि तुम अल्लाह को न थका सकोगे (8)
और काफ़िरों को ख़ुशख़बरी सुनाओ दर्दनाक अज़ाब की{3} मगर वो मुश्रिक जिनसे तुम्हारा मुआहिदा था फिर उन्होंने तुम्हारे एहद में कुछ कमी नहीं की(9)
और तुम्हारे मुक़ाबिल किसी को मदद न दी तो उनका एहद ठहरी हुई मुद्दत तक पूरा करो, बेशक अल्लाह परहेज़गारों को दोस्त रखता है {4} फिर जब हुरमत वाले महीने निकल जाएं तो मुश्रिकों को मारो (10)
जहाँ पाओ (11)
और उन्हें पकड़ो और क़ैद करो और हर जगह उनकी ताक में बैठो फिर अगर वो तौबह करें (12)
और नमाज़ क़ायम रखें और ज़कात दें तो उनकी राह छोड़ दो, (13)
बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {5} और ऐ मेहबूब अगर कोई मुश्रिक तुमसे पनाह मांगे(14)
तो उसे पनाह दो कि वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे उसकी अम्न की जगह पहुंचा दो (15)
यह इसलिये कि वो नादान लोग हैं(16){6}

तफ़सीर
सूरए तौबह – पहला रूकू
(1) सूरए तौबह मदनी है मगर इसके आख़िर की आयतें “लक़द जाअकुम रसूलुन” से आख़िर तक, उनको कुछ उलमा मक्की कहते हैं. इस सूरत में सौलह रूकू, 129 आयतें, चार हज़ार अठहत्तर कलिमे और दस हज़ार चार सौ अठासी अक्षर हैं. इस सूरत के दस नाम हैं इनमें से तौबह और बराअत दो नाम ख़ास हैं. इस सूरत के अव्वल में बिस्मिल्लाह नहीं लिखी गई. इसकी अस्ल वजह यह है कि जिब्रील अलैहिस्सलाम इस सूरत के साथ बिस्मिल्लाह लेकर नाज़िल ही नहीं हुए थे और नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बिस्मिल्लाह लिखने का हुक्म नहीं फ़रमाया. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि बिस्मिल्लाह अमान है और यह सूरत तलवार के साथ अम्न उठा देने के लिये उतरी.

(2) अरब के मुश्रिकों और मुसलमानों के बीच एहद था. उनमें से कुछ के सिवा सब ने एहद तोड़ा तो इन एहद तोड़ने वालों का एहद ख़त्म कर दिया गया और हुक्म दिया गया कि चार महीने वो अम्न के साथ जहाँ चाहें गुज़ारें, उनसे कोई रोक टोक न की जाएगी. इस अर्से में उन्हें मौक़ा है, ख़ूब सोच समझ लें कि उनके लिये क्या बेहतर है. और अपनी एहतियातें कर लें और जान लें कि इस मुद्दत के बाद इस्लाम कुबूल करना होगा या क़त्ल. यह सूरत सन नौ हिजरी में मक्का की विजय से एक साल बाद उतरी. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने इस सन में हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो को अमीरे हज मुक़र्रर फ़रमाया था और उनके बाद अली मुर्तज़ा को हाजियों की भीड़ में यह सूरत सुनाने के लिये भेजा. चुनांचे हज़रत अली ने दस ज़िलहज को बड़े शैतान के पास खड़े होकर निदा की, ऐ लोगो, मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह के रसूल का भेजा हुआ आया हूँ. लोगों ने कहा, आप क्या पयाम लाए हैं ? तो आपने तीस या चालीस आयतें इस मुबारक सूरत की पढ़ीं. फिर फ़रमाया, मैं चार हुक्म लाया हूँ (1) इस साल के बाद कोई मुश्रिक काबे के पास न आए (2) कोई शख़्स नंगा होकर काबे का तवाफ़ न करें (3) जन्नत में ईमान वाले के अलावा कोई दाख़िल न होगा. (4) जिसका रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ एहद है वह एहद अपनी मुद्दत तक रहेगा और जिसकी मुद्दत निर्धारित नहीं है उसकी मीआद चार माह पर पूरी हो जाएगी. मुश्रिकों ने यह सुनकर कहा कि ऐ अली, अपने चचा के बेटे को ख़बर दो कि हमने एहद पीठ पीछे फैंक दिया हमारे उनके बीच कोई एहद नहीं है, सिवाय नेज़े बाज़ी और तलवार बाज़ी के. इस वाक़ए में हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ की ख़िलाफ़त की तरफ़ लतीफ़ इशारा है कि हुज़ूर ने हज़रत सिद्दीक़े अकबर को तो अमीरे हज बनाया और हज़रत अली को उनके पीछे सूरए बराअत पढ़ने के लिये भेजा, तो हज़रत अबू बक्र इमाम हुए और हज़रत अली मुक़तदी. इससे हज़रत अबू बक्र की हज़रत अली पर फ़ज़ीलत साबित हुई.

(3) और इस मोहलत के बावुज़ूद उसकी पकड़ से बच नहीं सकते.

(4) दुनिया में क़त्ल के साथ और आख़िरत में अज़ाब के साथ.

(5) हज को हज्जे अकबर फ़रमाया इसलिये कि उस ज़माने में उमरे को हज्जे असग़र कहा जाता था. एक क़ौल यह भी है कि इस हज को हज्जे अकबर इसलिये कहा गया कि उस साल रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज फ़रमाया था और चूंकि यह जुमए को वाक़े हुआ था इसलिये मुसलमान उस हज को, जो जुमए के दिन हो, हज्जे वदाअ जैसा जान कर हज्जे अकबर कहते हैं.

(6) कुफ़्र और उज्र से.

(7) ईमान लाने और तौबह करने से.

(8) यह बड़ी चुनौती है और इसमें यह ललकार है कि अल्लाह तआला अज़ाब उतारने पर क़ादिर और सक्षम है.

(9) और उसको उसकी शर्तों के साथ पूरा किया. ये लोग बनी ज़मरह थे जो कनाना का एक क़बीला है. उनकी मुद्दत के नौ माह बाक़ी रहे थे.

(10) जिन्हों ने एहद तोड़ा.

(11) हरम से बाहर या हरम में, किसी वक़्त या स्थान का निर्धारण नहीं है.

(12) शिर्क और कुफ़्र से, और ईमान क़ुबूल कर लें.

(13) और क़ैद से रिहा कर दो और उनके साथ सख़्ती न करो.

(14) मोहलत के महीने, गुज़रने के बाद, ताकि आप से तौहीद के मसअले और क़ुरआन शरीफ़ सुनें जिसकी आप दावत देते हैं.

(15) अगर ईमान न लाए. इस से साबित हुआ कि मोहलत दिये गए शख़्स को तकलीफ़ न दी जाए और मुद्दत गुज़रने के बाद उसको दारूल इस्लाम में ठहरने का हक़ नहीं.

(16) इस्लाम और उसकी हक़ीक़त को नहीं जानते, तो उन्हें अम्न देना ख़ास हिकमत है ताकि कलामुल्लाह सुनें और समझें.

सूरए तौबह – दूसरा रूकू

सूरए तौबह – दूसरा रूकू

मुश्रिकों के लिये अल्लाह और उसके रसूल के पास कोई एहद क्यों कर होगा (1)
मगर वो जिनसे तुम्हारा मुआहिदा मस्जिदे हराम के पास हुआ, (2)
तो जबतक वो तुम्हारे लिये एहद पर क़ायम रहें तुम उनके लिये क़ायम रहो बेशक परहेज़गार अल्लाह को ख़ुश आते हैं{7} भला किस तरह (3)
उनका हाल तो यह है कि तुमपर क़ाबू पाएं तो न क़राबत का लिहाज़ करें न एहद का, अपने मुंह से तुम्हें राज़ी करते हैं(4)
और उनके दिलों में इन्कार है और उनमें अक्सर बेहुक्म हैं (5){8}
अल्लाह की आयतों के बदले थोड़े दाम मोल लिये (6)
तो उसकी राह से रोका (7)
बेशक वो बहुत ही बुरे काम करते हैं {9} किसी मुसलमान में न क़राबत का लिहाज़ करें न एहद का (8)
और वही सरकश है{10} फिर अगर वो (9)
तौबह करें और नमाज़ क़ायम रखें और ज़कात दें तो वो तुम्हारे दीनी भाई हैं, (10)
और हम आयतें मुफ़स्सल बयान करते हैं जानने वालों के लिये (11){11}
और अगर एहद करके अपनी क़समें तोड़े और तुम्हारे दीन पर मुंह आएं तो कुफ़्र के सरग़नों से लड़ों (12)
बेशक उनकी क़समें कुछ नहीं इस उम्मीद पर कि शायद वो बाज़ आएं (13){12}
क्या उस क़ौम से न लड़ोगे जिन्होंने अपनी क़समें तोड़ीं (14)
और रसूल के निकालने का इरादा किया (15), 
हालांकि उन्हीं की तरफ़ से पहल हुई है, क्या उनसे डरते हो, तो अल्लाह इसका ज़्यादा मुस्तहक़ है कि उससे डरो अगर ईमान रखते हो {13} तो उनसे लड़ो अल्लाह उन्हें अज़ाब देगा तुम्हारे हाथों और उन्हें रूस्वा करेगा (16)
और तुम्हें उनपर मदद देगा (17)
और ईमान वालों का जी ठण्डा करेगा{14} और उनके दिलों की घुटन दूर फ़रमाएगा (18),
और अल्लाह जिसकी चाहे तौबह कुबूल फ़रमाएगा (19)
और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {15} क्या इस गुमान में हो यूंही छोड़ दिये जाओगे, और अभी अल्लाह ने पहचान न कराई उनकी जो तुम में से जिहाद करेंगे(20)
और अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमानों के सिवा किसी को अपना राज़दार न बनाएंगे(21)
और अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़बरदार है {16}

तफ़सीर सूरए तौबह – दूसरा रूकू

(1) कि वो बहाना बाज़ी और एहद-शिकनी किया करते हैं.

(2) और उनसे कोई एहद-शिकनी ज़ाहिर न हुई जैसा कि बनी कनाना और बनी ज़मरह ने की थी.

(3) एहद पूरा करेंगे और कैसे क़ौल पर क़ायम रहेंगे.

(4) ईमान और एहद पूरा करने के वादे करके.

(5) एहद तोड़ने वाले कुफ़्र में सरकश, बे मुरव्वत, झूट से न शर्माने वाले. उन्होंने….

(6) और दुनिया के थोड़े से नफ़े के पीछे ईमान और क़ुरआन छोड़ बैठे, और जो रसूले करीम सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से एहद किया था वह अबू सुफ़ियान के थोड़े से लालच देने से तोड़ दिया.

(7) और लोगों को दीन इलाही में दाख़िल होने से तोड़ दिया.

(8) जब मौक़ा पाएं क़त्ल कर डालें, तो मुसलमानों को भी चाहिये कि जब मुश्रिकों पर पकड़ मिल जाए तो उनसे दरगुज़र न करें.

(9) कुफ़्र और एहद तोड़ने से बाज़ आएं और ईमान क़ुबूल करके.

(10) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इस आयत से साबित हुआ कि क़िबला वालों के ख़ून हराम है.

(11) इससे साबित हुआ कि आयतों की तफ़सील पर जिसकी नज़र हो, वह आलिम है.

(12) इस आयत से साबित हुआ कि जो काफ़िर ज़िम्मी दीने इस्लाम पर ज़ाहिर तअन करे उसका एहद बाक़ी नहीं रहता और वह ज़िम्मे से ख़ारिज हो जाता है, उसको क़त्ल करना जायज़ है.

(13) इस आयत से साबित हुआ कि काफ़िरों के साथ जंग करने से मुसलमानों की ग़रज़ उन्हें कुफ़्र और बदआमाली से रोक देना है.

(14) और सुलह हुदैबिया का एहद तोड़ा और मुसलमानों के हलीफ़ क़ुज़ाआ के मुक़ाबिल बनी बक्र की मदद की.

(15) मक्कए मुकर्रमा से दारून नदवा में मशवरा करके.

(16) क़त्ल व क़ैद से.

(17) और उनपर ग़लबा अता फ़रमाएगा.

(18) यह तमाम वादे पूरे हुए, और नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़बरें सच्ची हुई और नबुव्वत का सुबूत साफ़ से साफ़तर हो गया.

(19) इसमें ख़बर है कि कुछ मक्का वाले कुफ़्र से बाज़ आकर तौबह कर लेंगे. यह ख़बर भी ऐसी ही वाक़े हुई. चुनांचे अबू सुफ़ियान और इकरिमा बिन अबू जहल और सुहैल बिन अम्र ईमान से मुशर्रफ़ हुए.

(20) इख़्लास के साथ अल्लाह की राह में.

(21) इससे मालूम हुआ कि मुख़लिस ग़ैर-मुख़लिस में इम्तियाज़ कर दिया जाएगा और तात्पर्य इससे मुसलमानों को मुश्रिकों के साथ उठने बैठने और उनके पास मुसलमानों के राज़ पहुंचाने से मना करना है.

सूरए तौबह – तीसरा रूकू

सूरए तौबह – तीसरा रूकू

मुश्रिकों को नहीं पहुंचता कि अल्लाह की मस्जिदें आबाद करें (1)
ख़ुद अपने कुफ़्र की गवाही देकर (2)
उनका तो सब किया-धरा अकारत है, और वो हमेशा आग में रहेंगे (3){17}
अल्लाह की मस्जिदें वही आबाद करते हैं जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाते और नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात देते हैं (4)
और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते,(5)
तो क़रीब है कि ये लोग हिदायत वालों में हों {18} तो क्या तुमने हाजियों की सबील (प्याऊ) और मस्जिदे हराम की ख़िदमत उसके बराबर ठहराली जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाया और अल्लाह की राह में जिहाद किया, वो अल्लाह के नज़दीक बराबर नहीं, और अल्लाह ज़ालिमों को राह नहीं देता (6) {19}
वो जो ईमान लाए और हिजरत की और अपने माल जान से अल्लाह की राह में लड़े अल्लाह के यहाँ उनका दर्जा बड़ा है, (7)
और वही मुराद को पहुंचे (8){20}
उनका रब उन्हें ख़ुशी सुनाता है अपनी रहमत और अपनी रज़ा की (9)
और उन बाग़ों की जिनमें उन्हें सदा की नेअमत है {21} हमेशा हमेशा उनमें रहेंगे, बेशक अल्लाह के पास बड़ा सवाब है {22} ऐ ईमान वालो अपने बाप और अपने भाईयों को दोस्त न समझो अगर वो ईमान पर कुफ़्र पसन्द करें, और तुम में जो कोई उनसे दोस्ती करेगा तो वही ज़ालिम हैं (10){23}
तुम फ़रमाओ अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी औरतें और तुम्हारा कुटुम्ब और तुम्हारी कमाई के माल और वह सूद जिसके नुक़सान का तुम्हें डर है और तुम्हारी पसन्द का मकान ये चीज़ें अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में लड़ने से ज़्यादा प्यारी हो तो रास्ता देखों यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म लाए (11)
और अल्लाह फ़ासिक़ों को राह नहीं देता {24}
तफ़सीर
सूरए तौबह – तीसरा रूकू

(1) मस्जिदों से मस्जिदे हराम काबए मुअज़्ज़मा मुराद है. इसको बहुवचन से इसलिये ज़िक्र फ़रमाया कि वह तमाम मस्जिदों का क़िबला और इमाम है. उसका आबाद करने वाला ऐसा है जैसे तमाम मस्जिदों का आबाद करने वाला. बहुवचन लाने की यह वजह भी हो सकती है कि मस्जिदे हराम का हर कोना मस्जिद है, और यह भी हो सकती है कि मस्जिदों से जिन्स मुराद हो और काबए मुअज़्ज़मा इसमें दाख़िल हो क्योंकि वह उस जिन्स का सदर है. क़ुरैश के काफ़िरों के सरदारों की एक जमाअत जो बद्र में गिरफ़्तार हुई और उनमें हुज़ूर के चचा हज़रत अब्बास भी थे, उनको सहाबा ने शिर्क पर शर्म दिलाई और अली मुर्तज़ा ने तो ख़ास हज़रत अब्बास को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुक़ाबिल आने पर बहुत सख़्त सुस्त कहा. हज़रत अब्बास कहने लगे कि तुम हमारी बुराईयाँ तो बयान करते हो और हमारी खूबियाँ छुपाते हो. उनसे कहा गया, क्या आपकी कुछ ख़ूबियाँ भी हैं. उन्होंने कहा, हाँ हम तुम से अफ़ज़ल हैं, हम मस्जिदे हराम को आबाद करते हैं, काबे की खिदमत करते हैं, हाजियों को सैराब करते हैं, असीरों को रिहा कराते हैं. इसपर यह आयत उतरी कि मस्जिदों का आबाद करना काफ़िरों को नहीं पहुंचता क्योंकि मस्जिद आबाद की जाती है अल्लाह की इबादत के लिये, तो जो ख़ुदा ही का इन्कारी हो, उसके साथ कुफ़्र करे, वह क्या मस्जिद आबाद करेगा. आबाद करने के मानी में भी कई क़ौल हैं, एक तो यह कि आबाद करने से मस्जिद का बनाना, बलन्द करना, मरम्मत करना मुराद है. काफ़िर को इससे मना किया जाएगा. दूसरा क़ौल यह है कि मस्जिद आबाद करने से उसमें दाख़िल होना बैठना मुराद है.

(2) और बुत परस्ती का इक़रार करके, यानी ये दोनों बातें किस तरह जमा हो सकती हैं कि आदमी काफ़िर भी हो और ख़ास इस्लामी और तौहीद के इबादत ख़ाने को आबाद भी करे.

(3) क्योंकि कुफ़्र की हालत के कर्म मक़बूल नहीं, न मेहमानदारी न हाजियों की ख़िदमत, न क़ैदियों का रिहा कराना, इसलिये कि काफ़िर का कोई काम अल्लाह के लिये तो होता नहीं, लिहाज़ा उसका अमल सब अकारत है, और अगर वह उसी कुफ़्र पर मरजाए तो जहन्नम में उनके लिये हमेशा का अज़ाब है.

(4) इस आयत में यह बयान किया गया कि मस्जिदों के आबाद करने के मुस्तहिक़ ईमान वाले हैं. मस्जिदों के आबाद करने में ये काम भी दाख़िल हैं, झाडू देना, सफ़ाई करना, रौशनी करना और मस्जिदों को दुनिया की बातों से और ऐसी चीज़ों से मेहफ़ूज़ रखना जिनके लिये वो नहीं बनाई गई. मस्जिदे इबादत करने और ज़िक्र करने के लिये बनाई गई हैं और इल्म का पाठ भी ज़िक्र में दाख़िल है.

(5) यानी किसी की रज़ा को अल्लाह की रज़ा पर किसी अन्देशे से भी प्राथमिकता नहीं देते. यही मानी हैं अल्लाह से डरने और ग़ैर से न डरने के.

(6) मुराद यह है कि काफ़िरों को ईमान वालों से कुछ निस्बत नहीं, न उनके कर्मों को उनके कर्मों से, क्योंकि काफ़िर के कर्म व्यर्थ हैं चाहे वो हाजियों के लिये सबील लगाएं या मस्जिदे हराम की ख़िदमत करें, उनके आमाल को ईमान वालों के आमाल के बराबर क़रार देना ज़ुल्म है. बद्र के दिन जब हज़रत अब्बास गिरफ़्तार होकर आए तो उन्होंने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा से कहा कि तुमको इस्लाम और हिजरत और जिहाद में सबक़त हासिल है. तो हमको भी मस्जिद हराम की ख़िदमत और हाजियों के लिये सबीलें लगाने का गौरव प्राप्त है. इस पर यह आयत उतरी और ख़बरदार किया गया कि जो अमल ईमान के साथ न हों वो बेकार हैं.

(7) दूसरों से.

(8) और उन्हीं को दुनिया और आख़िरत की ख़ुशनसीबी मिली.

(9) और यह सबसे बड़ी ख़ुशख़बरी है, क्योंकि मालिक की रहमत और ख़ुशनूदी बन्दे का सबसे बड़ा मक़सद और प्यारी मुराद है.

(10) जब मुसलमानों को मुश्रिकों के साथ मिलने जुलने, उठने बैठने और हर तरह के सम्बन्ध तोड़ने का हुक्म दिया गया तो कुछ लोगों ने कहा यह कैसे सम्भव है कि आदमी अपने बाप भाई वग़ैरह रिश्तेदारों से सम्बन्ध तोड़ दे. इस पर यह आयत उतरी और बताया गया कि काफ़िरों से सहयोग जायज़ नहीं चाहे उनसे कोई भी रिश्ता हो. चुनांचे आगे इरशाद फ़रमाया.

(11) और जल्दी आने वाले अज़ाब में जकड़े या देर में आने वाले में. इस आयत से साबित हुआ कि दीन के मेहफ़ूज़ रखने के लिये दुनिया की मशक़्क़त बरदाश्त करना मुसलमान पर लाज़िम है और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी के मुक़ाबिले दुनिया के ताल्लुक़ात की कुछ हैसियत नहीं और ख़ुदा व रसूल की महब्बत ईमान की दलील है.

सूरए तौबह – चौथा रूकू

सूरए तौबह – चौथा रूकू

बेशक अल्लाह ने बहुत जगह तुम्हारी मदद की (1)
और हुनैन के दिन जब तुम अपनी कसरत (ज़्यादा नफ़री) पर इतरा गए थे तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई(2)
और ज़मीन इतनी वसाऐ (विस्तृत) होकर तुम पर तंग हो गई(3)
फिर तुम पीठ देकर फिर गए {25} फिर अल्लाह ने अपनी तसकीन उतारी अपने रसूल पर (4)
और मुसलमानों पर (5)
और वो लश्कर उतारे जो तुम ने न देखे(6)
और काफ़िरों को अज़ाब दिया(7)
और इन्कार करने वालों की यही सज़ा है {26} फिर उसके बाद अल्लाह जिसे चाहेगा तौबह देगा(8)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {27},
ऐ ईमान वालो मुश्रिक निरे नापाक हैं (9)
तो इस सब के बाद वो मस्जिदे हराम के पास न आने पाएं (10)
और अगर तुम्हें मोहताजी (दरिद्रता) का डर है (11)
तो बहुत जल्द अल्लाह तुम्हें धनवान कर देगा अपने फ़ज़्ल से अगर चाहे(12)
बेशक अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {28} लड़ो उनसे जो ईमान नहीं लाते अल्लाह पर और क़यामत पर (13)
और हराम नहीं मानते उस चीज़ को जिसको हराम किया अल्लाह और उसके रसूल ने(14)
और सच्चे दीन (15)
के ताबे (अधीन) नहीं देते यानी वो जो किताब दिये गए जब तक अपने हाथ से जिज़िया न दें ज़लील होकर(16){29}

तफ़सीर
सूरए तौबह – चौथा रूकू

(1) यानी रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ग़ज़वात यानी लड़ाईयों में मुसलमानों को काफ़िरों पर ग़लबा अता फ़रमाया, जैसा कि बद्र और क़ुरैज़ा और नुज़ैर और हुदैबिया और मक्का की विजय में.

(2) हुनैन एक घाटी है ताइफ़ के क़रीब, मक्कए मुकर्रमा से चन्द मील के फ़ासले पर, यहाँ मक्का की विजय से थोड़े ही रोज़ बाद क़बीलए हवाज़िन व सक़ीफ़ से जंग हुई. इस जंग में मुसलमानों की संख्या बहुत ज़्यादा, बारह हज़ार या इससे अधिक थी और मुश्रिक चार हज़ार थे. जब दोनों लश्कर आमने सामने हुए तो मुसलमानों में से किसी ने अपनी कसरत यानी बड़ी संख्या पर नज़र करके कहा कि अब हम हरगिज़ नहीं हारेंगे. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बहुत बुरा लगा. क्योंकि हुज़ूर हर हाल में अल्लाह पर भरोसा फ़रमाते थे और तादाद के कम या ज़्यादा होने पर नज़र न रखते थे. जंग शुरू हुई और सख़्त लड़ाई हुई. मुश्रिक भागे और मुसलमान ग़नीमत का माल लेने में व्यस्थ हो गए तो भागे हुए लश्कर ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया और तीरों की बारिश शुरू कर दी. और तीर अन्दाज़ी में वो बहुत माहिर थे. नतीजा यह हुआ कि इस हंगामे में मुसलमानों के क़दम उखड़ गए, लश्कर भाग पड़ा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास सिवाय हुज़ूर के चचा हज़रत अब्बास और आपके चचाज़ाद अबू सुफ़ियान बिन हारिस के और कोई बाक़ी न रहा. हुज़ूर ने उस वक़्त अपनी सवारी को काफ़िरों की तरफ़ आगे बढ़ाया और हज़रत अब्बास को हुक्म दिया कि वह बलन्द आवाज़ में अपने साथियों को पुकारें. उनके पुकारने से वो लोग लब्बैक लब्बैक कहते हुए पलट आए और काफ़िरों से जंग शुरू हो गई. जब लड़ाई ख़ूब गर्म हुई. तब हुज़ूर ने अपने दस्ते मुबारक में कंकरियाँ लेकर काफ़िरों के मुंहों पर मारीं और फ़रमाया, मुहम्मद के रब की क़सम, भाग निकले. कंकरियों का मारना था कि काफ़िर भाग पड़े और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनकी ग़निमतें मुसलमानों को तक़सीम फ़रमा दीं. इन आयतों में इसी घटना का बयान है.

(3) और तुम वहाँ ठहर न सके.

(4)  कि इत्मीनान के साथ अपनी जगह क़ायम रहे.

(5) कि हज़रत अब्बास रदियल्लाहो अन्हो के पुकारने से नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में वापस आए.

(6) यानी फ़रिश्ते जिन्हें काफ़िरों ने चितकबरे घोड़ों पर सफ़ेद लिबास पहने अमामा बांधे देखा. ये फ़रिश्ते मुसलमानों की शौकत बढ़ाने के लिये आए थे. इस जंग में उन्होंने लड़ाई नहीं की. लड़ाई सिर्फ़ बद्र में की थी.

(7) कि पकड़े गए, मारे गए, उनके अयाल और अमवाल मुसलमानों के हाथ आए.

(8) और इस्लाम की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएगा, चुनांचे हवाज़िन के बाक़ी लोगों को तौफ़ीक़ दी और वो मुसलमान होकर रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और हुज़ूर ने उनके क़ैदियों को रिहा फ़रमा दिया.

(9) कि उनका बातिन ख़बीस है और वो न तहारत करते हैं न नापाकियों से बचते हैं.

(10) न हज के लिये, न उमरे के लिये. और इस साल से मुराद सन नौ हिजरी है. और मुश्रिकों के मना करने के मानी ये हैं कि मुसलमान उनको रोकें.

(11) कि मुश्रिकों को हज से रोक देने से व्यापार को नुक़सान पहुंचेगा और मक्का वालों को तंगी पेश आएगी.

(12) इकरिमा ने कहा, ऐसा ही हुआ. अल्लाह तआला ने उन्हें ग़नी कर दिया. बारिशें ख़ूब हुई. पैदावार कसरत से हुई. मक़ातिल ने कहा कि यमन प्रदेश के लोग मुसलमान हुए और उन्होंने मक्का वालों पर अपनी काफ़ी दौलत ख़र्च की. अगर चाहे फ़रमाने में तालीम है कि बन्दे को चाहिये कि अच्छाई और भलाई की तलब और आफ़तों के दूर होने के लिये हमेशा अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जह रहे और सारे कर्मो को उसी की मर्ज़ी से जुड़ा जाने.

(13) अल्लाह पर ईमान लाना यह है कि उसकी ज़ात और सारी सिफ़ात और विशेषताओं को माने और जो उसकी शान के लायक़ न हो, उसकी तरफ़ निस्बत न करे. कुछ मफ़स्सिरों ने रसूलों पर ईमान लाना भी अल्लाह पर ईमान लाने में दाख़िल क़रार दिया है. तो यहूदी  ईसाई अगरचे अल्लाह पर ईमान लाने का दावा करते हैं लेकिन उनका यह दावा बिल्कुल ग़लत है क्योंकि यहूदी अल्लाह के लिये जिस्म और तश्बीह के, और ईसाई अल्लाह के हज़रत ईसा के शरीर में प्रवेश कर जाने को मानते हैं. तो वो किस तरह अल्लाह पर ईमान लाने वाले हो सकते हैं. ऐसे ही यहूदियों में से जो हज़रत उज़ैर को और ईसाई हज़रत मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते हैं, तो उनमें से कोई भी अल्लाह पर ईमान लाने वाला न हुआ. इसी तरह जो एक रसूल को झुटलाए, वह अल्लाह पर ईमान लाने वाला नहीं. यहूदी और ईसाई बहुत से नबियों को झुटलाते हैं लिहाज़ा वो अल्लाह पर ईमान लाने वालों में नहीं. मुजाहिद का क़ौल है कि यह आयत उस वक़्त उतरी जबकि नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को रोम से जंग करने का हुक्म दिया गया, और इसीके नाज़िल होने के बाद ग़ज़वए तबूक हुआ. कल्बी का क़ौल है कि यह आयत यहूदियों के क़बीले क़ुरैज़ा और नुज़ैर के हक़ में उतरी. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे सुलह मंजूर फ़रमाई और यही पहला जिज़िया है जो मुसलमानों को मिला और पहली ज़िल्लत है जो काफ़िरों को मुसलमानों के हाथ से पहुंची.

(14) क़ुरआन और हदीस में, और कुछ मु़फ़स्सिरों का क़ौल है कि मानी ये हैं कि तौरात व इंजील के मुताबिक अमल नहीं करते, उनमें हेर फेर करते हैं, और अहकाम अपने दिल से घड़ते है.

(15) इस्लाम दीने इलाही.

(16) एहद में बन्धे किताब वालों से जो ख़िराज लिया जाता है उसका नाम जिज़िया है. यह जिज़िया नक़द लिया जाता है. इसमें उधार नहीं. जिज़िया देने वाले को ख़ुद हाज़िर होकर देना चाहिये. पैदल हाज़िर हो, खड़े होकर पेश करे. जिज़िया क़ुबूल करने में तुर्क व हिन्दू किताब वालों के साथ जुड़े हैं सिवा अरब के मुश्रिकों के, कि उनसे जिज़िया क़ुबूल नहीं. इस्लाम लाने से जिज़िया मुक़र्रर करने की हिकमत यह है कि काफ़िरों को मोहलत दी जाए ताकि वो इस्लाम की विशेषताओं और दलीलों की शक्ति देखें और पिछली किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़बर और हुज़ूर की तारीफ़ देखकर इस्लाम लाने का मौक़ा पाएं.

सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

और यहूदी बोले उज़ैर अल्लाह का बेटा है(1)
और नसरानी (ईसाई) बोले मसीह अल्लाह का बेटा है, ये बातें वो अपने मुंह से बकते हैं(2)
अगले काफ़िरों की सी बात बनाते हैं अल्लाह उन्हें मारे, कहाँ औंधे जाते हैं (3){30}
उन्होंने अपने पादरियों और जोगियों को अल्लाह के सिवा ख़ुदा बना लिया(4)
और मरयम के बेटे मसीह को(5)
और उन्हें हुक्म न था(6)
मगर यह कि एक अल्लाह को पूजें उसके सिवा किसी की बन्दगी नहीं उसे पाकी है उनके शिर्क से{31}चाहते हैं कि अल्लाह का नूर (7)
अपने मुंह से बुझा दें और अल्लाह न मानेगा मगर अपने नूर का पूरा करना (8)
पड़े बुरा मानें काफ़िर{32} वही हैं जिसने अपना रसूल (9)
हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा कि उसे सब दीनों पर ग़ालिब करे(10)
पड़े बुरा माने मुश्रिक {33} ऐ ईमान वालों बेशक बहुत पादरी और जोगी लोगों का माल नाहक़ खा जाते हैं (11)
और अल्लाह की राह से (12)
रोकते हैं और वो कि जोड़ कर रखते हैं सोना और चांदी और उसे अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते (13)
उन्हें ख़ुशख़बरी सुनाओ दर्दनाक अज़ाब की {34} जिस दिन वह तपाया जाएगा जहन्नम की आग में(14)
फिर उससे दाग़ेंगे उनकी पेशानियाँ और कर्वटें और पीठें (15)
यह है वह जो तुमने अपने लिये जोड़ कर रखा था तो अब चखो मज़ा उस जोड़ने का{35} बेशक महीनों की गिनती अल्लाह के नज़दीक बारह महीने हैं (16)
अल्लाह की किताब (17)
जब से उसने आसमान और ज़मीन बनाए उनमें से चार हुरमत (धर्मनिषेध) वाले हैं, (18)
यह सीधा दीन है तो इन महीनों में (19)
अपनी जान पर ज़ुल्म न करो और मुश्रिकों से हर वक़्त लड़ो जैसा वो तुम से हर वक़्त लड़ते हैं, और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है (20) {36}
उनका महीने पीछे हटाना नहीं मगर और कुफ़्र में बढ़ना (21)
इससे काफ़िर बहकाये जाते हैं एक बरस उसे (22)
हलाल ठहराते हैं और दूसरे बरस उसे हराम मानते हैं कि उस गिनती के बराबर हो जाएं जो अल्लाह ने हराम फ़रमाई(23)
और अल्लाह के हराम किये हुए हलाल कर लें उनके बुरे काम उनकी आँखों में भले लगते हैं, और अल्लाह काफ़िरों को राह नहीं देता {37}

तफ़सीर
सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

(1) किताब वालों की बेदीनी का जो ऊपर ज़िक्र फ़रमाया गया यह उसकी तफ़सील है कि वो अल्लाह की जनाब में ऐसे ग़लत अक़ीदे रखते हैं और मख़लूक़ को अल्लाह का बेटा बनाकर पूजते हैं. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में यहूदियों की एक जमाअत आई. वो लोग कहने लगे कि हम आपका अनुकरण कैसे करें, आपने हमारा क़िबला छोड़ दिया और आप उज़ैर को ख़ुदा का बेटा नहीं समझते. इस पर यह आयत उतरी.

(2) जिन पर न कोई दलील न प्रमाण, फिर अपनी जिहालत से इस खुले झुट को मानते भी हैं.

(3) और अल्लाह तआला के एक होने पर, तर्क क़ायम होने और खुले प्रमाण मिलने के बावुजूद, इस कुफ़्र में पड़ते हैं.

(4) अल्लाह के हुक्म को छोड़कर उनके हुक्म के पाबन्द हुए.

(5) कि उन्हें भी ख़ुदा बनाया और उनकी निस्बत यह ग़लत अक़ीदा रखा कि वो ख़ुदा या ख़ुदा के बेटे हैं या ख़ुदा ने उनके अन्दर प्रवेश किया है.

(6) उनकी किताबों में, न उनके नबियों की तरफ़ से.

(7) यानी इस्लाम या सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत की दलीलें.

(8) और अपने दीन को ग़लबा देना.

(9) मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(10) और उसकी हुज्जत मज़बूत करे और दूसरे दीनों को उससे स्थगित करे. चुनांचे ऐसा ही हुआ. ज़ुहाक का क़ौल है कि यह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने नुज़ूल के वक़्त ज़ाहिर होगा जबकि कोई दीन वाला ऐसा न होगा जो इस्लाम में दाख़िल न हो जाए. हज़रत अबू हुरैरा की हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के ज़माने में इस्लाम के सिवा हर मिल्लत हलाक हो जाएगी.

(11) इस तरह कि दीन के आदेश बदल कर लोगों से रिश्वतें लेते हैं और अपनी किताबों में, सोने के लालच में, हेर फेर करते हैं और पिछली किताबों की जिन आयतों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और विशेषताएं दर्ज हैं, माल हासिल करने के लिये उनमें ग़लत व्याख्याएं और फेर बदल करते हैं.

(12) इस्लाम से, और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने से.

(13) कंजूसी करते हैं और माल के हुक़ूक़ अदा नहीं करते. ज़कात नहीं देते. सदी का क़ौल है कि यह आयत ज़कात का इन्कार करने वालों के बारे में उतरी जबकि अल्लाह तआला ने पादरियों और राहिबों के लालच का बयान फ़रमाया, तो मुसलमानों को माल जमा करने और उसके हुक़ूक़ अदा न करने से डराया. हज़रत इब्ने उमर रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि जिस माल की ज़कात दी गई वह ख़ज़ाना नहीं, चाहे दफ़ीना ही हो. और जिसकी ज़कात न दी गई, वह ख़ज़ाना है जिसका ज़िक्र क़ुरआन में हुआ कि उसके मालिक को उससे दाग़ दिया जाएगा. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से सहाबा ने अर्ज़ किया कि सोने चांदी का तो यह हाल मालूम हुआ फिर कौन सा माल बेहतर है जिसको जमा किया जाए. फ़रमाया, ज़िक्र करने वाली ज़बान और शुक्र करने वाला दिल, और नेक बीबी जो ईमानदार की उसके ईमान पर मदद करें यानी परहेज़गार हो कि उसकी सोहबत से ताअत व इबादत का शौक़ बढ़े. (तिरमिज़ी). माल का जमा करना मुबाह है, मज़मूम नहीं जब कि उसके हुक़ूक़ अदा किये जाएं. हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ और हज़रत तलहा वग़ैरह सहाबा मालदार थे और जो सहाबा कि माल जमा करने से नफ़रत रखते थे वो उन पर ऐतिराज़ न करते थे.

(14) और गर्मी की सख़्ती से सफ़ेद हो जाएगा.

(15) जिस्म के चारों तरफ़, और कहा जाएगा.

(16) यहाँ यह बयान फ़रमाया गया कि शरीअत के एहकाम चाँद के महीनों पर हैं.

(17) यहाँ अल्लाह की किताब से, यह लौहे मेहफ़ूज़ मुराद है या क़ुरआन, यह वह हुक्म जो उसने अपने बन्दों पर लाज़िम किया.

(18) तीन जुड़े ज़ुलक़ादा, ज़िलहज व मुहर्रम और एक अलग रजब. अरब लोग जिहालत के दौर में भी इन महीनों का आदर करते थे और इनमें लड़ाई क़त्ल और ख़ून हराम जानते थे. इस्लाम में इन महीनों की हुरमत और अज़मत और ज़्यादा की गई.

(19) गुनाह और नाफ़रमानी से.

(20) उनकी मदद फ़रमाएगा.

(21) नसी शब्दकोष में समय के पीछे करने को कहते हैं और यहाँ शहरे हराम (वर्जित महीने) की हुरमत का दूसरे महीने की तरफ़ हटा देना मुराद है. जिहालत के दौर में अरब, वर्जित महीनों यानी ज़ुलक़अदा व ज़िलहज व मुहर्रम व रजब की पाकी और महानता के मानने वाले थे. तो जब कभी लड़ाई के ज़माने में ये वर्जित महीने आजाते तो उनको बहुत भारी गुज़रते. इसलिये उन्होंने यह किया कि एक महीने की पाकी दूसरे की तरफ़ हटाने लगे. मुहर्रम की हुरमत सफ़र की तरफ़ हटा कर मुहर्रम में जंग जारी रखते और बजाय इसके सफ़र को माहे हराम बना लेते और जब इससे भी हुरमत हटाने की ज़रूरत समझते तो उसमें भी जंग हलाल कर लेते और रबीउल अव्वल को माहे हराम क़रार देते इस तरह हुरमत साल के सारे महीनों में घूमती और उनके इस तरीक़े से वर्जित महीनों की विशेषता ही बाक़ी न रही. इसी तरह हज को मुख्तलिफ़ महीनों में घुमाते फिरते थे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज्जतुल वदाअ में ऐलान फ़रमाया कि नसी के महीने गए गुज़रे हो गए, अब महीनों के औक़ात जो अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किये गए हैं, उनकी हिफ़ाजत की जाए और कोई महीना अपनी जगह से न हटाया जाए. इस आयत में नसी को वर्जित क़रार दिया गया और कुफ़्र पर कुफ़्र की ज़ियादती बताया गया, क्योंकि इसमें वर्जित महीनों में जंग की हुरमत को हलाल जानना और ख़ुदा के हराम किये हुए को हलाल कर लेना पाया जाता है.

(22) यानी वर्जित महीने को या इस हटाने को.

(23) यानी वर्जित महीने चार ही रहें, इसकी तो पाबन्दी करते है, और उनकी निश्चितता तोड़ कर अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफ़त. जो महीना हराम था उसे हलाल कर लिया, उसकी जगह दूसरे को हराम क़रार दे दिया.

सूरए तौबह – छटा रूकू

सूरए तौबह – छटा रूकू

ऐ ईमान वालों तुम्हें क्या हुआ जब तुम से कहा जाए कि ख़ुदा की राह में कूच करो तो बोझ के मारे ज़मीन में बैठ जाते हो (1)
क्या तुमने दुनिया की ज़िन्दगी आख़िरत के बदले पसन्द कर ली और जीती दुनिया का असबाब आख़िरत के सामने नहीं मगर थोड़ा(2) {38}
अगर न कूच करोगे तो (3)
तुम्हें सख़्त सज़ा देगा और तुम्हारी जगह और लोग ले आएगा (4)
और तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे, और अल्लाह सब कुछ कर सकता है {39} अगर तुम मेहबूब की मदद न करो तो बेशक अल्लाह ने उनकी मदद फ़रमाई जब काफ़िरों की शरारत से उन्हें बाहर तशरीफ़ लेजाना हुआ(5)
सिर्फ़ दो जान से जब वो दानों (6)
ग़ार में थे जब अपने यार से (7)
फ़रमाते थे ग़म न खा बेशक अल्लाह हमारे साथ है तो अल्लाह ने उसपर अपना सकीना उतारा (8)
और उन फ़ौजों से उसकी मदद की जो तुमने न देखीं (9)
और काफ़िरों की बात नीचे डाली (10)
अल्लाह ही का बोल बाला है, और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है {40} कूच करो हलकी जान से चाहे भारी दिल से (11)
और अल्लाह की राह में लड़ों अपने माल व जान से यह तुम्हारे लिये बेहरत है अगर जानों (12) {41}
अगर कोई क़रीब माल या मुतवस्सित (दरमियानी) सफ़र होता (13)
तो ज़रूर तुम्हारे साथ जाते (14)
मगर उनपर तो मशक्क़त (मेहनत) का रास्ता दूर पड़ गया और अब अल्लाह की क़सम खाएंगे (15)
कि हमसे बन पड़ता तो ज़रूर तुम्हारे साथ चलते, (16)
अपनी जानों को हलाक करते हैं (17)
और अल्लाह जानता है कि वो बेशक ज़रूर झूटे हैं {42}

तफ़सीर
सूरए तौबह – छटा रूकू

(1) और सफ़र से घबराते हो. यह आयत ग़जवए तबूक की तरग़ीब में नाज़िल हुई. तबूक एक जगह है शाम के आस पास, मदीनए तैय्यिबह से चौदह मंज़िल दूरी पर. रजब सन नौ हिजरी में ताइफ़ से वापसी के बाद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को ख़बर पहुंची कि अरब के ईसाईयों की तहरीक और प्रेरणा से हरक़ल रूएम के बादशाह ने रूएमियों और शामियों का एक भारी लश्कर तैयार किया है और वह मुसलमानों पर हमले का इरादा रखता है. तो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुसलमानों को जिहाद का हुक्म दिया. यह ज़माना अत्यन्त तंगी, दुष्काल और सख़्त गर्मी का था. यहाँ तक कि दो दो आदमी एक एक खजूर पर बसर करते थे. सफ़र दूर का था. दुश्मन बड़ी तादाद में और मज़बूत थे. इसलिये कुछ क़बीले बैठ रहे और उन्हें उस वक़्त जिहाद में जाना भारी मालूम हुआ. इस ग़ज़वे में बहुत से मुनाफ़िक़ों का पर्दा फ़ाश और हाल ज़ाहिर हो गया. हज़रत उस्मान गनी रदियल्लाहो अन्हो ने इस ग़ज़वे में बड़ा दिल खोल कर ख़र्च किया. दस हज़ार मुजाहिदों को सामान दिया और दस हज़ार दीनार इस ग़ज़वे पर ख़र्च किये. नौ सौ ऊंट और सौ घोड़े साज़ सामान समेत इसके अलावा हैं. और सहाबा ने भी ख़ूब ख़र्च किया. उनमें सबसे पहले हज़रत अबूबक्र सिद्दीक रदियल्लाहो अन्हो हैं जिन्हों ने अपना कुल माल हाज़िर कर दिया, जिसकी मिक़दार चार हज़ार दिरहम थी. और हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने अपना आधा माल हाज़िर किया. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तीस हज़ार की लश्कर लेकर रवाना हुए. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो को मदीनए तैय्यिबह में छोड़ा. अब्दुल्लाह बिन उबई और उसके साथी मुनाफ़िक़ सनीयतुल वदाअ तक साथ चलकर रह गए. जब इस्लामी लश्कर तबूक में उतरा तो उन्होंने देखा कि चश्मे में पानी बहुत थोड़ा है. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसके पानी से उसमें कुल्ली फ़रमाई जिसकी बरकत से पानी जोश में आया और चश्मा भर गया. लश्कर और उसके सारे जानवर अच्छी तरह सैराब हुए. हज़रत ने काफ़ी अरसा यहाँ क़याम फ़रमाया. हरक़ल अपने दिल में आपको सच्चा नबी जानता था, इसलिये उसे डर हुआ और उसने आप से मुक़ाबला न किया. हज़रत ने आस पास के इलाक़ों में लश्कर भेजे. चुनांचे हज़रत ख़ालिद को चार सौ से ज़्यादा सवारों के साथ दोम्मतुल जुन्दल के हाकिम अकीदर के मुक़ाबिल भेजा और फ़रमाया कि तुम उसको नील गाय के शिकार में पकड़ लो. चुनांचे ऐसा ही हुआ. जब वह नील गाय के शिकार के लिये क़िले से उतरा तो हज़रत ख़ालिद बिन वलीद रदियल्लाहो अन्हो उसको गिरफ़्तार करके हुज़ूर की ख़िदमत में लाए. हुज़ूर ने जिज़िया मुक़र्रर फ़रमाकर उसको छोड़ दिया. इसी तरह ईला के हाकिम पर इस्लाम पेश किया और जिज़िया पर सुलह फ़रमाई. वापसी के वक़्त जब हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीने के क़रीब तशरीफ़ लाए तो जो लोग जिहाद में साथ होने से रह गए थे, वो हाज़िर हुए. हुज़ूर ने सहाबा से फ़रमाया कि उनमें से किसी से कलाम न करें और अपने पास न बिठाएं जब तक हम इजाज़त न दें. तो मुसलमानों ने उनसे मुंह फेर लिया, यहाँ तक कि बाप और भाई की तरफ़ भी तवज्जह न की. इसी बारे में ये आयतें उतरीं.

(2) कि दुनिया और उसकी सारी माया नश्वर है और आख़िरत और उसकी सारी नेअमतें बाक़ी रहने वाली हैं.

(3) ऐ मुसलमानों, रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुक्म के मुताबिक़ अल्लाह तआला.

(4) जो तुम से बेहतर और फ़रमाँबरदारी होंगे. तात्पर्य यह है कि अल्लाह तआला अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की विजय और उनके दीन को इज़्ज़त देने का ख़ुद ज़िम्मेदार है. तो अगर तुम रसूल की आज्ञा का पालन करने में जल्दी करोगे तो यह सआदत तुम्हें नसीब होगी और अगर तुमने सुस्ती की तो अल्लाह तआला दूसरों को अपने नबी की ख़िदमत की नेअमत से नवाज़ेगा.

(5) यानी हिजरत के वक़्त मक्कए मुकर्रमा से, जबकि काफ़िरों ने कमेटी घर में हुज़ूर के क़त्ल और क़ैद वग़ैरह के बुरे बुरे मशवरे किये थे.

(6) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो.

(7) यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत सिद्दीक़ अकबर रदियल्लाहो रदियल्लाहो अन्हो से. हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो का सहाबी होना इस आयत से साबित है. हसन बिन फ़ज़्ल ने फ़रमाया जो शख़्स हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ के सहाबी होने का इनकार करे वह क़ुरआनी आयत का इन्कारी होकर काफ़िर हुआ.

(8) और दिल को इतमीनान अता फ़रमाया.

(9) उनसे मुराद फ़रिश्तों की फ़ौज़ें हैं जिन्होंने काफ़िरों के मुंह फेर दिए और वो आपको देख न सके और बद्र व अहज़ाब व हुनैन में भी उन्ही ग़ैबी फ़ौज़ों से मदद फ़रमाई.

(10) कुफ़्र और शिर्क की दावत को पस्त फ़रमाया.

(11) यानी ख़ुशी से या भारी दिल से. और एक क़ौल यह है कि क़ुव्वत के साथ, या कमज़ोरी के साथ और बे सामानी से या भरपूर साधनों के साथ.

(12) कि जिहाद का सवाब बैठ रहने से बेहतर है. तो मुस्तइदी के साथ तैयार हो और आलस्य न करो.

(13) और दुनियावी नफ़े की उम्मीद होती और सख़्त मेहनत और मशक़्क़त का अन्देशा न होता.

(14) यह आयत उन मुनाफ़िक़ों की शान में उतरी जिन्होंने ग़ज़वए तबूक में जाने से हिचकिचाहट दिखाई थी.

(15) ये मुनाफ़िक़ और इस तरह विवशता दिखाएंगे.

(16) मुनाफ़िक़ों की इस विवशता और बहाने बाज़ी से पहले ख़बर दे देना ग़ैबी ख़बर और नबुव्वत की दलीलों में से है, चुनांचे जैसा फ़रमाया था वैसा ही पेश आया और उन्होंने यही बहाने बाज़ी की और झूठी क़समें खाई.

(17) झूठी क़सम खाकर. इस आयत से साबित हुआ कि झूठी क़सम खाना हलाकत का कारण है.

सूरए तौबह – सातवाँ रूकू

सूरए तौबह – सातवाँ रूकू

अल्लाह तुम्हें माफ़ करे(1)
तुमने उन्हें क्यों इज़्न (आज्ञा) दे दिया जब तक खुले न थे तुम पर सच्चे और ज़ाहिर न हुए थे झूटे {43} और वो जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखते हैं तुमसे छुट्टी न मांगेंगे उससे कि अपने माल और जान से जिहाद करें और अल्लाह ख़ूब जानता है परहेज़गारों को {44} तुमसे यह छुट्टी वही माँगते है जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान नहीं रखते(2)
और उनके दिल शक में पड़े हैं तो वो अपने शक में डांवाडोल है(3){45}
उन्हें निकलना मंजूर होता (4)
तो उसका सामान करते मगर ख़ुदा ही को उनका उठना नापसन्द हुआ तो उनमें काहिली भर दी(5)
और फ़रमाया गया कि बैठे रहो बैठे रहनेवालों के साथ(6){46}
अगर वो तुम में निकलते तो उनसे सिवा नुक़सान के तुम्हें कुछ न बढ़ता और तुम में फ़ितना डालने को तुम्हारे बीच में ग़ुराबें (कौए) दौड़ाते(7)
और तुम में उनके जासूस मौजूद हैं,(8)
और अल्लाह ख़ूब जानता है ज़ालिमों को {47} बेशक उन्होंने पहले ही फ़ितना चाहा था (9)
और ऐ मेहबूब तुम्हारे लिये तदबीरें उलटी पलटीं(10)
यहां तक कि हक़ आया(11)
और अल्लाह का हुक्म ज़ाहिर हुआ(12)
और उन्हें नागवार था{48} और उनमें कोई तुमसे यूं अर्ज़ करता है कि मुझे रूख़सत दीजिये और फ़ितने में न डालिये(13)
सुन लो वो फ़ितने ही में पड़े (14)
और बेशक जहन्नम घेरे हुए है काफ़िरों को {49} अगर तुम्हें भलाई पहुंचे (15)
तो उन्हें बुरा लगे और अगर तुम्हें कोई मुसीबत पहुंचे (16)
तो कहें(17)
हमने अपना काम पहले ही ठीक कर लिया था और ख़ुशियां मनाते फिर जाएं {50} तुम फ़रमाओ हमें न पहुंचेगा मगर जो अल्लाह ने हमारे लिये लिख दिया, वह हमारा मौला है, और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा चाहिये {51} तुम फ़रमाओ तुम हमपर किस चीज़ का इन्तिज़ार करते हो मगर दो ख़ूबियों में से एक का (18)
और हम तुमपर इस इन्तिज़ार में हैं कि अल्लाह तुमपर अज़ाब डाले अपने पास से (19)
या हमारे हाथों (20)
तो अब राह देखो हम भी तुम्हारे साथ राह देख रहे हैं (21){52}
तुम फ़रमाओ कि दिल से ख़र्च करो या नागवारी से तुमसे हरगिज़ क़ुबूल न होगा (22)
बेशक तुम बेहुक्म लोग हो {53} और वो जो ख़र्च करते हैं उसका क़ुबूल होना बन्द न हुआ मगर इसीलिये कि वो अल्लाह और रसूल के इन्क़ारी हुए और नमाज़ को नहीं आते मगर जी हारे और ख़र्च नहीं करते मगर नागवरी से (23{54}
तो तुम्हें उनके माल और उनकी औलाद का अचंभा न आए अल्लाह यही चाहता है कि दुनिया की ज़िन्दगी में इन चीज़ों से उनपर वबाल डाले और कुफ़्र ही पर उनका दम निकल जाए (24){55}
और अल्लाह की क़समें खाते हैं (25)
कि वो तुम में से हैं (26)
और तुम में से नहीं (27)
हाँ वो लोग डरते हैं (28){56}
और अगर पाएं कोई पनाह या ग़ार (ख़ोह) या समा जाने की जगह तो रस्सियां तुड़ाते उधर फिर जाएंगे(29){57}
और उनमें कोई वह है कि सदक़े (दान) बाँटने में तुमपर तअना करता है (30)
तो अगर उसमें (31)
से कुछ मिले तो राज़ी हो जाएं और न मिले तों जभी वो नाराज़ हें {58} और क्या अच्छा होता अगर वो इस पर राज़ी होते जो अल्लाह व रसूल ने उनको दिया और कहते हमें अल्लाह काफ़ी है अब देता है हमें अल्लाह अपने फ़ज़्ल से और अल्लाह का रसूल हमें अल्लाह ही की तरफ़ रग़बत (रूचि) है (32){59}

तफ़सीर
सूरए तौबह – सातवाँ रूकू

(1) ” अल्लाह तुम्हें माफ़ करे” से कलाम की शुरूआत सम्बोधित व्यक्ति के आदर और सम्मान को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने के लिये है. और अरब की भाषा में यह आम बात है कि सामने वाले की ताज़ीम और इज़्ज़त के लिये ऐसे कलिमें बोले जाते हैं. क़ाज़ी अयाज़ रहमतुल्लाह अलैह ने शिफ़ा शरीफ़ में फ़रमाया, जिस किसी ने इस सवाल को प्रकोप क़रार दिया उसने ग़लती की, क्योंकि ग़ज़वए तबूक में हाज़िर न होने और घर रह जाने की इजाज़त माँगने वालों को इजाज़त देना न देना दोनों हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के इख़्तियार में था और आप इसमें मुख़्तार थे. चुनांचे अल्लाह तआला ने फ़रमाया “फ़ाज़न मिलन शिअता मिन्हुम” आप उनमें से जिसे चाहे इजाज़त दीजिये. तो “लिम अज़िन्ता लहुम (तुमने उन्हें क्यों इज़्न दे दिया) फ़रमाया, ग़ुस्से के लिये नहीं बल्कि यह इज़हार है कि अगर आप उन्हें इजाज़त न देते तो भी वो जिहाद में जाने वाले न थे. और “अल्लाह तुम्हें माफ़ करे” के मानी ये हैं कि अल्लाह तआला माफ़ करे, गुनाह से तो तुम्हें वास्ता ही नहीं. इस में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की भरपूर इज़्ज़त अफ़ज़ाई और तस्कीन व तसल्ली है कि मुबारक दिल पर “तुमने उन्हें क्यों इजाज़त दे दी” फ़रमाने से कोई बोझ न हो.

(2) यानी मुनाफ़िक़ लोग.

(3) न इधर के हुए न उधर के हुए. न काफ़िर के साथ रह सके न ईमान वालों का साथ दे सके.

(4) और जिहाद का इरादा रखते.

(5) उनके इजाज़त चाहने पर.

(6) बैठ रहने वालों से औरतें बच्चे बीमार और अपंग लोग मुराद है.

(7) और झूठी झूठी बातें बनाकर फ़साद फैलाते.

(8) जो तुम्हारी बातें उनतक पहुंचाएं.

(9) और वो आपके सहाबा को दीन से रोकने की कोशिश करते जैसा कि अब्दुल्लाह बिन उबई सलोल मुनाफ़िक़ ने उहद के दिन किया कि मुसलमानों को बहकाने के लिये अपनी जमाअत लेकर वापस हो गया.

(10) और उन्होंने तुम्हारा काम बिगाड़ने और दीन में फ़साद डालने के लिये बहुत छल कपट किये.

(11) यानी अल्लाह तआला की तरफ़ से सहायता और मदद.

(12) और उसका दीन ग़ालिब रहा.

(13) यह आयत जद बिन क़ैस मुनाफ़िक़ के बारे में उतरी जब नबीये करीम सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ग़ज़वए तबूक के लिये तैयारी फ़रमाई तो जद बिन क़ैस ने कहा, या रसूलल्लाह, मेरी क़ौम जानती है कि मैं औरतों का बड़ा शैदाई हूँ, मुझे डर है कि मैं रूएम की औरतों को देखूंगा तो मुझसे सब्र न हो सकेगा. इसलिये आप मुझे यहीं ठहरने की इजाज़त दीजिये और उन औरतों में फ़ितना न डालिये. मैं आपकी माल से मदद करूंगा. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा फ़रमाते हैं कि यह उसका बहाना था और उसमें दोहरी प्रवृत्ति के सिवा कोई बुराई न थी. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसकी तरफ़ से मुंह फेर लिया और उसे ठहर जाने की इजाज़त दे दी. उसके बारे में यह आयत उतरी.

(14) क्योंकि जिहाद से रूक रहना और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुक्म का विरोध बहुत बड़ा फ़ितना है.

(15) और तुम दुश्मन पर विजयी हो और ग़नीमत तुम्हारे हाथ आए

(16) और किसी तरह की सख़्ती पेश आए.

(17) मुनाफ़िक़, कि चालाकी से जिहाद में न जाकर.

(18) या तो विजय और ग़नीमत मिलेगी या शहादत और मग़फ़िरत, क्योंकि मुसलमान जब जिहाद में जाता है तो वह अगर ग़ालिब हो जब तो विजय और माल और बड़ा इनाम पाता है और अगर अल्लाह की राह में मारा जाए तो उसको शहादत हासिल होती है, जो उसकी सबसे बड़ी मुराद है.

(19) और तुम्हें आद व समूद की तरह हलाक करे.

(20) तुमको क़त्ल और क़ैद के अज़ाब में गिरफ़्तार करे.

(21) कि तुम्हारा क्या अंजाम होता है.

(22) यह आयत जद बिन क़ैस मुनाफ़िक़ के जवाब में उतरी जिसने जिहाद में न जाने की इजाज़त तलब करने के साथ यह कहा था कि मैं अपने माल से मदद करूंगा. इस पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि तुम ख़ुशी से दो या नाख़ुशी से, तुम्हारा माल क़ुबूल न किया जाएगा. यानी रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उसको न लेंगे क्योंकि यह देना अल्लाह के लिये नहीं है.

(23) क्योंकि उन्हें अल्लाह की रज़ा और ख़ुशी मंज़ूर नहीं.

(24) तो वह माल उनके हक़ में राहत का कारण न हुआ बल्कि वबाल हुआ.

(25) मुनाफ़िक़ लोग इस पर.

(26) यानी तुम्हारे दीन व मिल्लत पर हैं, मुसलमान हैं.

(27) तुम्हें धोखा देते और झूठ बोलते हैं.

(28) कि अगर उनकी दोग़ली प्रवृत्ति ज़ाहिर हो जाए तो मुसलमान उनके साथ वही मामला करेंगे जो मुश्रिकों के साथ करते हैं. इसलिये वो तक़ैय्या (सामने कुछ और अन्दर कुछ) करके अपने आपको मुसलमान ज़ाहिर करते हैं.

(29) क्योंकि उन्हें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और मुसलमानों से इन्तिहा दर्जे की दुशमनी है.

(30) यह आयत ज़ुल-ख़ुवैसिरह तमीमी के बारे में उतरी. इस शख़्स का नाम हरक़ूस बिन ज़ुहैर है और यही ख़ारिजियों की अस्ल और बुनियाद है. बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ग़नीमत का माल बाँट रहे थे तो ज़ुल-ख़ुवैसिरह ने कहा, या रसूलल्लाह इन्साफ़ कीजिये. हुज़ूर ने फ़रमाया, तुझे ख़राबी हो, मैं न इन्साफ़ करूंगा तो कौन करेगा. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हों ने अर्ज़ किया, मुझे इजाज़त दीजिये कि इस मुनाफ़िक़ की गर्दन मार दूँ. हुज़ूर ने फ़रमाया कि इसे छोड़ दो. इसके और भी साथी हैं कि तुम उनकी नमाज़ों के सामने अपनी नमाज़ों को और उनके रोज़ों के सामने अपने रोज़ों को हक़ीर देखोगे. वो क़ुरआन पढ़ेंगे और उनके गलों से न उतरेगा. वो दीन से ऐसे निकल जाएंगे जैसे तीर शिकार से.

(31) सदक़ात और दीन.

(32) कि हम पर अपना फ़ज़्ल और फैलाए और हमें लोगों के मालों से बेपर्वाह करदे, बे नियाज़ कर दे.

सूरए तौबह – आठवाँ रूकू

सूरए तौबह – आठवाँ रूकू

ज़क़ात तो उन्हीं लोगों के लिये है(1)
मोहताज और निरे नादार और जो उसे तहसील (ग्रहण) करके लाएं और जिनके दिलों को इस्लाम से उलफ़त दी जाए और गर्दनें छुड़ाने में और कर्ज़दारों को और अल्लाह की राह में और मुसाफ़िर को, यह ठहराया हुआ है अल्लाह का और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {60} और उनमें कोई वो हैं कि उन ग़ैब की ख़बरें देने वाले को सताते हैं (2)
और कहते हैं वो तो कान हैं तुम फ़रमाओ तुम्हारे भले के लिये कान हैं अल्लाह पर ईमान लाते हैं और मुसलमानों की बात पर यक़ीन करते हैं (3)
और जो तुम में मुसलमान हैं उनके वास्ते रहमत हैं और जो रसूलुल्लाह को ईज़ा देते हैं उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है{61} तुम्हारे सामने अल्लाह की क़सम खाते हैं (4)
कि तुम्हें राज़ी कर लें (5)
और अल्लाह व रसूल का हक़ ज़्यादा था कि उसे राज़ी करते अगर ईमान रखते थे {62} क्या उन्हें ख़बर नहीं कि जो ख़िलाफ़ करे अल्लाह और उसके रसूल का तो उसके लिए जहन्नम की आग है कि हमेशा उसमें रहेगा, यही बड़ी रूसवाई है {63} मुनाफ़िक़ डरते हैं कि इन (6)
पर कोई सूरत ऐसी उतरे जो (7)
उनके दिलों की छुपी (8)
जता दे, तुम फ़रमाओ हंसे जाओ, अल्लाह को ज़रूर ज़ाहिर करना है जिसका तुम्हें डर है {64} और ऐ मेहबूब अगर तुम उनसे पूछो तो कहेंगे कि हम तो यूंही हंसी खेल में थे, (9)
तुम फ़रमाओ क्या अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल से हंसते हो{65} बहाने न बनाओ तुम काफ़िर हो चुके मुसलमान होकर, (10)
अगर हम तुम में से किसी को माफ़ करें (11)
तो औरों को अज़ाब देंगे इसलिये कि वो मुजरिम थे(12){66}

तफ़सीर
सूरए तौबह – आठवाँ रूकू

(1) जब मुनाफ़िक़ों ने सदक़ात के बँटवारें में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर तअना कसा तो अल्लाह तआला ने इस आयत में बयान फ़रमा दिया कि सदक़ात के मुस्तहिक़ सिर्फ़ यही आठ क़िस्म के लोग हैं, इन्हीं पर सदक़े ख़र्च किये जाएंगे. इसके सिवा और कोई मुस्तहिक़ नहीं और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को सदक़े के माल से कोई वास्ता ही नहीं. आप पर और आपकी औलाद पर सदक़ा हराम है तो तअना करने वालों को ऐतिराज़ का क्या मौक़ा. सदक़े से इस आयत में ज़कात मुराद है. ज़कात के मुस्तहिक़ आठ क़िस्म के लोग क़रार दिये गए हैं. इनमें से मुअल्लिफ़तुल क़ुलूब बिइजमाए सहाबा साक़ित हो गए क्योंकि जब अल्लाह तबारक व तआला ने इस्लाम को ग़लबा दिया तो अब इसकी हाजत न रही. यह इजमाअ ज़मानए सिद्दीक़ में मुनअक़िद हुआ. फ़क़ीर वह है जिसके पास अदना चीज़ हो और जबतक उसके पास एक वक़्त के लिये कुछ हो उसको सवाल हलाल नहीं. मिस्कीन वह है जिसके पास कुछ न हो, वह सवाल कर सकता है. आमिलीन वो लोग हैं जिन को इमाम ने सदक़े वसूल करने पर रखा हो. उन्हें इमाम इतना दे जो उनके और उनके सम्बन्धियों के लिये काफ़ी हो. अगर आमिल ग़नी हो तो भी उसको लेना जायज़ है. आमिल सैयद या हाशमी हो तो वह ज़कात में से न ले. गर्दनें छुड़ाने से मुराद यह है कि जिन ग़ुलामों को उनके मालिकों ने मकातिब कर दिया हो और एक मिक़दार माल की मुक़र्रर कर दी हो कि इस क़द्र वो अदा करें तो आज़ाद हैं, वो भी मुस्तहिक़ हैं. उनको आज़ाद कराने के लिये ज़कात का माल दिया जाए. क़र्ज़दार जो बग़ैर किसी गुनाह के क़र्ज़ में जकड़े गए हों और इतना माल न रखतों हों जिससे क़र्ज़ अदा करें तो उन्हें क़र्ज़ की अदायगी के लिये ज़कात के माल से मदद दी जाए. अल्लाह की राह में ख़र्च करने से बेसामान मुजाहिदो और नादार हाजियों पर ख़र्च करना मुराद है. इब्ने सबील से वो मुसाफ़िर मुराद हैं जिनके पास माल न हो. ज़कात देने वाले को यह भी जायज़ है कि वह इन तमाम क़िस्मों के लोगों को जक़ात दे, और यह भी जायज़ है कि इनमें से किसी एक ही क़िस्म को दे. ज़कात उन्हीं लोगों के साथ ख़ास की गई, तो उनके अलावा और दूसरे काम में ख़र्च न की जाएगी न मस्जिद की तामीर में, न मुर्दे के कफ़न में, न उसके क़र्ज़ की अदायगी में. ज़कात बनी हाशिम को और ग़नी और उनके ग़ुलामों को न दी जाए. और न आदमी अपनी बीबी और औलाद और ग़ुलामों को दे. (तफ़सीरे अहमदी व मदारिक)

(2) यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को. मुनाफ़िक़ लोग अपने जलसों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान में बुरी बुरी बातें बका करते थे. उनमें से कुछ ने कहा कि अगर हुज़ूर को ख़बर हो गई तो हमारे हक़ में अच्छा न होगा. जुलास बिन सुवैद मुनाफ़िक़ ने कहा हम जो चाहें कहें, हुज़ूर के सामने मुकर जाएंगे और क़सम खालेंगे. वह तो कान है, उनसे जो कह दिया जाए, सुन कर मान लेते हैं. इस पर अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी और यह फ़रमाया कि अगर वह सुनने वाले भी हैं तो ख़ैर और सलाह के, यानी अच्छी बातों के सुनने और मानने वाले हैं, शर और फ़साद के नहीं.

(3) न मुनाफ़िक़ों की बात पर.

(4) मुनाफ़िक़ इसलिये.

(5) मुनाफ़िक़ अपनी बैठकों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बुरा भला कहा करते थे और मुसलमानों के पास आकर उससे मुकर जाते थे और क़स्में खा खा कर अपनी सफ़ाई और बेगुनाही साबित करते थे. इस पर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि मुसलमानों को राज़ी करने के लिये क़स्में खाने से ज़्यादा अहम अल्लाह और उसके रसूल को राज़ी करना था, अगर ईमान रखते थे तो ऐसी हरकतें क्यों कीं जो ख़ुदा और रसूल की नाराज़ी का कारण हों.

(6) मुसलमानों.

(7) मुनाफ़िक़ों.

(8) दिलों की छुपी चीज़ उनकी दोहरी प्रवृत्ति है और वह दुश्मनी जो वो मुसलमानों के साथ रखते थे और उसको छुपाया करते थे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के चमत्कार देखने और आपकी ग़ैबी ख़बरें सुनने और उनको पूरा होते देखने के बाद मुनाफ़िक़ों को डर हुआ कि कहीं अल्लाह तआला कोई ऐसी सूरत नाज़िल न फ़रमाए जिससे उनकी पोल खुल जाए और उनकी रूस्वाई हो. इस आयत में इस का बयान है.

(9) ग़जवए तबूक में जाते हुए मुनाफ़िक़ों के तीन नफ़रों में से दो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की निस्बत हंसी से कहते थे कि उनका ख़याल है कि रूम पर ग़ालिब आ जाएंगे. कितना दूर का ख़याल है. और एक नफ़र बोलता तो न था मगर इन बातों को सुनकर हंसता था. हुज़ूर ने उनको तलब फ़रमाकर इरशाद फ़रमाया कि तुम ऐसा ऐसा कह रहे थे. उन्होंने कहा हम रास्ता काटने के लिये हंसी खेल के तौर पर दिल लगी की बातें कर रहे थे. इस पर यह आयत उतरी और उनका यह बहाना क़ुबूल न किया गया और उनके लिये फ़रमाया गया जो आगे इरशाद होता है.

(10) इस आयत से साबित होता है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान में गुस्ताख़ी और अपमान कुफ़्र है, जिस तरह भी हो, उसमें बहाना क़ुबूल नहीं.

(11) उसके तौबह कर लेने और सच्चे दिल से ईमान लाने से. मुहम्मद बिन इस्हाक़ का क़ौल है कि इससे वही शख़्स मुराद है जो हंसता था, मगर उसने अपनी ज़बान से कोई गुस्ताख़ी की बात न कही थी. जब यह आयत उतरी तो उसने तौबह की और सच्चे दिल से ईमान लाया और उसने दुआ की कि यारब मुझे अपनी राह में ऐसी मौत दे कि कोई यह कहने वाला न हो कि मैं ने ग़ुस्ल दिया, मैने कफ़न दिया, मैंने दफ़्न किया. चुनांचे ऐसा ही हुआ कि वह जंगे यमामा में शहीद हुए और उनका पता ही न चला, उनका नाम यहया बिन हमीर अशजई था और चूंकि उन्होंने हुज़ूर को बुरा कहने से ज़बान रोकी थी, इसलिये उन्हें तौबह और ईमान की तौफ़ीक़ मिली.

(12) और अपने जुर्म पर क़ायम रहे और तौबह न की.

सूरए तौबह – नवाँ रूकू

सूरए तौबह – नवाँ रूकू

मुनाफ़िक़ मर्द (जिनके दिल में कुछ, ज़बान पर कुछ)  और मुनाफ़िक़ औरतें एक थेली के चट्टे बट्टे हैं (1),
और भलाई से मना करें (3)
और अपनी मुट्ठी बंद रखें (4)
वो अल्लाह को छोड़ बैठे (5)
तो अल्लाह ने उन्हें छोड़ दिया (6)
बेशक मुनाफ़िक़ वही पक्के बेहुक्म हैं {67} अल्लाह ने मुनाफ़िक़ मर्दों और मुनाफ़िक़ औरतों और काफ़िरों को जहन्नम की आग का वादा दिया है जिसमें हमेशा रहेंगे, वह उन्हें बस है, और अल्लाह की उनपर लानत है और उनके लिये क़ायम रहने वाला अज़ाब है {68} जैसे वो जो तुम से पहले थे तुमसे ज़ोर में बढ़कर थे और उनके माल और औलाद तुमसे ज़्यादा तो वो अपना हिस्सा (7)
बरत गए तो तुमने अपना हिस्सा बरता जैसे अगले अपना हिस्सा बरत गए और तुम बेहूदगी में पड़े जैसे वो पड़े थे(8)
उनके अमल अकारत गए दुनिया और आख़िरत में, और वही लोग घाटे में हैं(9){69}
क्या उन्हें (10)
अपने से अगलों की ख़बर न आई (11)
नूह की क़ौम (12)
और आद (13)
और समूद (14)
और इब्राहीम की क़ौम(15)
और मदयन (16)
वाले और वो बस्तियाँ कि उलट दी गई (17)
उनके रसूल रौशन दलीलें उनके पास लाए थे(18)
तो अल्लाह की शान न थी कि उनपर ज़ुल्म करता (19)
बल्कि वो ख़ुद ही अपनी जानों पर ज़ालिम थे (20){70}
और मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें एक दूसरे के रफ़ीक़ हैं(21)
भलाई का हुक्म दें (23)
और बुराई से मना करे और नमाज़ क़ायम रखे और ज़कात दें और अल्लाह व रसूल का हुक्म मानें, ये हैं जिनपर बहुत जल्द अल्लाह रहम करेगा, बेशक अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है {71} अल्लाह ने मुसलमान मर्दों और मुसलमान औरतों को बाग़ों का वादा दिया है जिनके नीचे नहरें बहें उनमें हमेशा रहेंगे और पाकीज़ा मकानों का(23)
बसने के बाग़ों में, और अल्लाह की रज़ा सबसे बड़ी (24)
यही है, बड़ी मुराद पानी {72}

तफ़सीर
सूरए तौबह – नवाँ रूकू

(1) वो सब दोहरी प्रवृत्ति और बुरे अअमाल में एक से हैं, उनका हाल यह है कि.

(2) यानी कुफ़्र और गुनाह और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को झुटलाने का. (ख़ाज़िन)

(3) यानी ईमान और रसूल की तस्दीक़ और उनकी फ़रमाँबरदारी से.

(4) ख़ुदा की राह में ख़र्च करने से.

(5) और उन्होंने उसकी इताअत और रज़ा तलबी न की.

(6) और सवाब व फ़ज़्ल से मेहरूम कर दिया.

(7) दुनिया की वासनाओं और लज़्ज़तों का.

(8) और तुमने बातिल का अनुकरण और अल्लाह व रसूल को झुटलाने और ईमान वालों के साथ मख़ौल करने में उनकी राह इख़्तियार की.

(9) उन्हीं क़ाफ़िरों की तरह, ऐ मुनाफ़िक़ो, तुम टोटे में हो और तुम्हारे कर्म व्यर्थ हैं.

(10) यानी मुनाफ़िक़ों को.

(11) गुज़री हुई उम्मतों का हाल मालूम न हुआ कि हमने उन्हें अपनी आज्ञा के विरोध और अपने रसूल की नाफ़रमानी पर किस तरह हलाक किया.

(12) जो तूफ़ान से हलाक की गई.

(13) जो हवा से हलाक किये गए.

(14) जो ज़लज़ले और भूकम्प से हलाक किये गए.

(15) जो नेअमतें छीन लिये जाने से हलाक की गई. और नमरूद मछर से हलाक किया गया.

(16) यानी हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम की क़ौम. जो रोज़ बादल के अज़ाब से हलाक की गई.

(17) और उलट पुलट कर डाली गई. वो लूत क़ौम की बस्तियाँ थीं. अल्लाह तआला ने उन छ: का ज़िक्र फ़रमाया, इसलिये कि शाम व इराक़ व यमन के प्रदेश जो अरब प्रदेश से बिलकुल क़रीब क़रीब हैं, उनमें उन हलाक की हुई क़ौमों के निशान बाक़ी हैं और अरब लोग उन जगहों पर अक्सर गुज़रते रहते हैं.

(18) उन लोगों ने तस्दीक़ करने की जगह अपने रसूलों को झुटलाया जैसा कि ऐ मुनाफ़िक़ों तुम कर रहे हो. डरो, कि उन्हीं की तरह अज़ाब में न जकड़ दिये जाओ.

(19) क्योंकि वह हिकमत वाला है, बग़ैर जुर्म के सज़ा नहीं फ़रमाता.

(20) कि कुफ़्र और नबियों को झुटलाकर अज़ाब के हक़दार बने.

(21) और आपस में दीनी महब्बत और सहयोग रखते हैं और एक दूसरे के मददगार और सहायक हैं.

(22) यानी अल्लाह व रसूल पर ईमान लाने और शरीअत का अनुकरण करने का.

(23) हसन रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि जन्नत में मोती और सुर्ख़ याक़ूत और ज़बरजद के महल ईमान वालों को दिये जाएंगे.

(24) और तमाम नेअमतों से बढ़कर और अल्लाह के चाहने वालों की सबसे बड़ी तमन्ना. अल्लाह तआला अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सदक़े में पूरी करे.

सूरए तौबह – दसवाँ रूकू

सूरए तौबह – दसवाँ रूकू

ऐ ग़ैब की ख़बरें देने वाले (नबी) जिहाद फ़रमाओ काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों पर (1)
और उनपर सख़्ती करो, और उनका ठिकाना दोज़ख़ है, और क्या ही बुरी जगह पलटने की {73} अल्लाह की क़सम खाते हैं कि उन्होंने न कहा (2)
और बेशक ज़रूर उन्होंने कुफ़्र की बात कही और इस्लाम में आकर काफ़िर हो गए और  वह चाहा था जो उन्हें न मिला (3)
और उन्हें क्या बुरा लगा यही ना कि अल्लाह व रसूल ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से ग़नी कर दिया(4)
तो अगर वो तौबह करें तो उनका भला है और अगर मुंह फेरें (5)
तो अल्लाह उन्हें सख़्त अज़ाब करेगा दुनिया और आख़िरत में, और ज़मीन में कोई न उनका हिमायती होगा न मददगार (6) {74}
और उनमें कोई वो हैं जिन्होंने अल्लाह से एहद किया था कि अगर हमें अपने फ़ज़्ल से देगा तो हम ज़रूर ख़ैरात करेंगे और हम ज़रूर भले आदमी हो जाएंगे (7){75}
तो जब अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से दिया उसमें कंजूसी करने लगे और मुंह फेर कर पलट गए {76} तो उसके पीछे अल्लाह ने उनके दिलों में निफ़ाक़ रख दिया उस दिन तक कि उससे मिलेंगे, बदला इसका कि उन्होंने अल्लाह से वादा झूटा किया और बदला इसका कि झूट बोलते थे (8){77}
क्या उन्हें ख़बर नहीं कि अल्लाह उनके दिल की छुपी और उनकी सरगोशी (खुसर फुसर, काना फूसी) को जानता है और यह कि अल्लाह सब ग़ैबों का बहुत जानने वाला है(9){78}{}
वो जो ऐब लगाते हैं उन मुसलमानों को कि दिल से ख़ैरात करते हैं (10)
और उनको जो नहीं पाते मगर अपनी मेहनत से (11)
तो उनसे हंसते हैं (12)
अल्लाह उनकी हंसी की सज़ा देगा और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है {79} तुम उनकी माफ़ी चाहो या न चाहो अगर तुम सत्तर बार उनकी माफ़ी चाहो तो अल्लाह हरगिज़ उन्हें नहीं बख़्शेगा, (13)
यह इसलिये कि वो अल्लाह और उसके रसूल से इन्कारी हुए और अल्लाह फ़ासिक़ों (व्यभिचारियों) को राह नहीं देता(14)
(80)

तफ़सीर
सूरए तौबह – दसवाँ रूकू

(1) काफ़िरों पर तो तलवार और जंग से और मुनाफ़िक़ों पर हुज्जत व तर्क क़ायम करके.

(2) इमाम बग़वी ने कलबी से नक़्ल किया कि यह आयत जुलास बिन सुवैद के बारे में उतरी. वाक़िआ यह था कि एक रोज़ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने तबूक में ख़ुत्बा फ़रमाया उसमें मुनाफ़िक़ों का ज़िक्र किया और उनकी बदहाली और दुर्दशा का ज़िक्र फ़रमाया. यह सुनकर जुलास ने कहा कि अगर मुहम्मद सच्चे हैं तो हम लोग गधों से बदतर. जब हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीने वापस तशरीफ़ लाए तो आमिर बिन क़ैस ने हुज़ूर से जुलास का कहा बयान किया. जुलास ने इन्कार किया और कहा, या रसूलल्लाह, आमिर ने मुझ पर झूठ बोला. हुज़ूर ने दोनों को हुक्म फ़रमाया कि मिम्बर के पास क़सम खाएं. जुलास ने अस्त्र के बाद मिम्बर के पास खड़े होकर अल्लाह की क़सम खाई कि यह बात उसने नहीं कही और आमिर ने उस पर झूठ बोला. फिर आमिर ने खड़े होकर क़सम खाई कि बेशक यह अल्फ़ाज़ जुलास ने कहे और मैं ने उस पर झूठ नहीं बोला. फिर आमिर ने हाथ उठाकर अल्लाह के हुज़ूर में दुआ की, यारब अपने नबी पर सच्चे की तस्दीक़ फ़रमा. इन दोनों के जाने से पहले ही हज़रत जिब्रील यह आयत लेकर नाज़िल हुए. आयत में “फ़इयं यतूबू बिका ख़ैरूल्लहुम” सुनकर जुलास खड़े हो गए, अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, सुनिये अल्लाह ने मुझे तौबह का मौक़ा दिया. आमिर बिन क़ैस ने जो कहा सच कहा. मैंने वह बात कही थी और अब मैं तौबह और इस्तग़फ़ार करता हूँ. हुज़ूर ने उनकी तौबह क़ुबूल फ़रमाई और वो अपनी तौबह पर जमे रहे.

(3) मुजाहिद ने कहा कि जुलास ने राज़ खुल जाने के डर से आमिर के क़त्ल का इरादा किया था. उसकी निस्बत अल्लाह तआला फ़रमाता है कि वह पूरा न हुआ.

(4) ऐसी हालत में उनपर शुक्र वाजिब था, न कि नाशुक्री.

(5) तौबह और ईमान से और कुफ़्र और दोग़ली प्रवृत्ति पर अड़े रहें.

(6) कि उन्हें अल्लाह के अज़ाब से बचा सके.

(7) सअलबा बिन हातिब ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दरख़्वास्त की कि उसके लिये मालदार होने की दुआ फ़रमाएं. हुज़ूर ने फ़रमाया, ऐ सअल्बा, थोड़ा माल जिसका तू शुक्र अदा करे उस बहुत से बेहतर है, जिसका शुक्र अदा न कर सके. दोबारा फिर सअलबा ने हाज़िर होकर यही दरख़्वास्त की और कहा, उसी की क़सम जिस ने आप को सच्चा नबी बनाकर भेजा, अगर वह मुझे माल देगा तो मैं हर हक़ वाले का हक़ अदा करूंगा. हुज़ूर ने दुआ फ़रमाई. अल्लाह तआला ने उसकी बकरियों में बरकत फ़रमाई और इतनी बढ़ीं कि मदीने में उनकी गुन्जायश न हुई तो सअलबा उनको लेकर जंगल में चला गया और जुमा व जमाअत की हाज़िरी से भी मेहरूम हो गया. हुज़ूर ने उसका हाल पूछा तो सहाबा ने अर्ज़ किया कि उसका माल बहुत बढ़ गया है और अब जंगल में भी उसके माल की गुन्जायश न रही. हुज़ूर ने फ़रमाया कि सअलबा पर अफ़सोस. फिर हुज़ूर ने ज़कात वुसूल करने वाले भेजे. लोगों ने उन्हें अपने अपने सदक़े दिये. जब सअलबा से जाकर उन्होंने सदक़ा माँगा उसने कहा यह तो टैक्स हो गया, जाओ मैं सोच लूं. जब ये लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में वापस आए तो हुज़ूर ने उनके कुछ अर्ज़ करने से पहले दो बार फ़रमाया सअलबा पर अफ़सोस. तब यह आयत उतरी. फिर जब सअलबा सदक़ा लेकर हाज़िर हुआ तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने मुझे इसके क़ुबूल करने से मना फ़रमाया है. वह अपने सर पर ख़ाक डालकर वापस हुआ. फिर इस सदक़े को हज़रत अबूबक्र सिद्दीक की ख़िलाफ़त के दौर में उनकी ख़िदमत में लाया. उन्होंने भी उसे क़ुबूल न फ़रमाया. फिर सैयदना उमर रदियल्लाहो अन्हो के दौरे ख़िलाफ़त में उनकी ख़िदमत में लाया. उन्होंने भी क़ुबूल न किया. और हज़रत उस्मान रदियल्लाहो अन्हो की ख़िलाफ़त के ज़माने में ये शख़्स हलाक हो गया. (मदारिक)

(8) इमाम फ़ख़रूद्दीन राज़ी ने फ़रमाया कि इस आयत से साबित होता है कि एहद तोड़ना और वादा करके फिर जाना, इस सबसे दोग़ली प्रवृत्ति पैदा होती है. मुसलमान पर लाज़िम है कि इन बातों से दूर रहे और एहद पूरा करने और वादा वफ़ा करने में पूरी कोशिश करे. हदीस शरीफ़ में है कि मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं, जब बात करे झूट बोले, जब वादा करे खिलाफ़ करे, जब उसके पास अमानत रखी जाए, ख़यानत करे.

(9) उसपर कुछ छुपा हुआ नहीं. मुनाफ़िक़ों के दिलों की बात भी जानता है और वो जो आपस में एक दूसरे से कहें वह भी.

(10) जब सदक़े की आयत उतरी तो लोग सदक़ा लाए. उनमें कोई बहुत सारा सदक़ा लाया. उन्हें तो मुनाफ़िक़ों ने रियाकार कहा, और कोई एक साअ (साढ़े तीन सेर) लाए तो उन्हें कहा, अल्लाह को इसकी क्या परवाह. इस पर यह आयत उतरी. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने लोगों को सदक़े की रग़बत दिलाई तो हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ चार हज़ार दिरहम लेकर आए और अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, मेरा कुल माल आठ हज़ार दिरहम था. चार हज़ार तो यह ख़ुदा की राह में हाज़िर है और चार हज़ार मैंने घर वालों के लिये रोक लिये हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया, अल्लाह उसमें भी बरकत फ़रमाएं. हुज़ूर की दुआ कर असर यह हुआ कि उनका माल बहुत बढ़ा, यहाँ तक कि जब उनकी वफ़ात हुई तो उन्होंने दो बीबियाँ छोड़ीं, उन्हें आठवाँ हिस्सा मिला, जिसकी मिक़दार एक लाख साठ हज़ार दिरहम थी.

(11) अबू अक़ील अन्सारी एक साअ खजूरें लेकर हाज़िर हुए और उन्होंने हुज़ूर की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि मैंने आज रात की पानी खींचने की मज़दूरी की. उसकी उजरत दो साअ खजूरें मिलीं. एक साअ तो मैंने घर वालों के लिये छोड़ा और एक साअ अल्लाह की राह में हाज़िर है. हुज़ूर ने यह सदक़ा क़ुबूल फ़रमाया और इसकी क़द्र की.

(12) मुनाफ़िक़ और सदक़े की कमी पर शर्म दिलाते हैं.

(13) ऊपर की आयतें जब उतरीं और मुनाफ़िक़ों की दोहरी प्रवृत्ति खुल कर सामने आ गई और मुसलमानों पर उनका हाल खुल गया तो मुनाफ़िक़ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और आपसे माफ़ी मांगने लगे. कहने लगे कि आप हमारे लिये इस्तग़फ़ार कीजिये. इस पर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि अल्लाह तआला हरगिज़ उनकी मग़फ़िरत न फ़रमाएगा, चाहे आप कितना ही बढ़ा चढ़ाकर इस्तग़फ़ार करें.

(14) जो ईमान से बाहर हों, जब तक कि वो कुफ़्र पर रहें. (मदारिक)

सूरए तौबह – ग्यारहवाँ रूकू

सूरए तौबह – ग्यारहवाँ रूकू

पीछे रह जाने वाले इसपर ख़ुश हुए कि वो रसूल के पीछे बैठ रहे (1)
और उन्हें गवारा न हुआ कि अपने माल और जान से अल्लाह की राह में लड़ें और बोले इस गर्मी में न निकलों,तुम फ़रमाओ जहन्नम की आग सबसे सख़्त गर्म है किसी तरह उन्हें समझ होती (2){81}
तो उन्हें चाहिये कि थोड़ा हंसे और बहुत रोएं(3)
बदला उसका जो कमाते थे (4){82}
फिर ऐ मेहबूब (5)
अगर अल्लाह तुम्हें उनमें (6)
किसी गिरोह की तरफ़ वापस ले जाए और वो (7)
तुमसे जिहाद को निकलने की इजाज़त मांगे तो तुम फ़रमाना कि तुम कभी मेरे साथ न चलो और हरगिज़ मेरे साथ किसी दुश्मन से न लड़ो तुमने पहली बार बैठ रहना पसन्द किया तो बैठ रहो पीछे रह जाने वालों के साथ(8)
{83}
और उनमें से किसी की मैयत पर कभी नमाज़ न पढ़ना न पढ़ाना और न उसकी क़ब्र पर खड़े होना, बेशक अल्लाह और रसूल से इन्कारी हुए और फ़िस्क़ (दुराचार) ही में मर गए (2){84}
और उनके माल या औलाद पर अचंभा न करना, अल्लाह यही चाहता है कि उसे दुनिया में उनपर वबाल करे और कुफ़्र ही पर उनका दम निकल जाए{85} और जब कोई सूरत उतरे कि अल्लाह पर ईमान लाओ और उसके रसूल के हमराह जिहाद करो तो उनके मक़दूर (सामर्थ्य) वाले तुमसे रूख़सत माँगते हैं और कहते हैं हमें छोड़ दीजिये कि बैठ रहने वालों के साथ होलें {86} उन्हें पसन्द आया कि पीछे रहने वाली औरतों के साथ होजाएं और उनके दिलों पर मोहर कर दी गई (10)
तो वो कुछ नहीं समझते(11){87}
लेकिन रसूल और जो उनके साथ ईमान लाए उन्होंने अपने मालों जानों से जिहाद किया और उन्हीं के लिये भलाईयाँ हैं (12)
और यही मुराद को पहुंचे {88} अल्लाह ने उनके लिये तैयार कर रखी हैं बहिश्तें जिनके नीचे नहरें हमेशा उनमें रहेंगे, यही बड़ी मुराद मिलनी है{89}

तफ़सीर
सूरए तौबह -ग्यारहवाँ रूकू

(1) और ग़ज़वए तबुक में न गए.

(2) तो थोड़ी देर की गर्मी बरदाश्त करते और हमेशा की आग में जलने से अपने आपको बजाते.

(3) यानी दुनिया में ख़ुश होना और हंसना, जाहे कितनी ही लम्बी मुद्दत के लिये हो, मगर वह आख़िरत के रोने के मुक़ाबले में थोड़ा है, क्योंकि दुनिया मिटने वाली है और आख़िरत हमेशा के लिये क़ायम रहने वाली.

(4) यानी आख़िरत का रोना दुनिया में हंसने और बुरे काम करने का बदला है. हदीस शरीफ़ में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि अगर तुम जानते वह जो मैं जानता हुँ तो थोड़ा हंसते, बहुत रोते.

(5) ग़ज़वए तबुक के बाद.

(6) पीछे रह जाने वाले.

(7) अगर वह मुनाफ़िक़ जो तबूक में जाने से बैठ रहा था.

(8) औरतें, बच्चों, बीमारों और अपाहिजों के. इससे साबित हुआ कि जिस व्यक्ति से छल कपट ज़ाहिर हो, उससे अलग रहना चाहिये और केवल इस्लाम का दावा करने वाला होने से मुसाहिबत और मुआफ़िक़त जायज़ नहीं होती. इसीलिये अल्लाह तआला ने अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ मुनाफ़िक़ों के जिहाद में जाने को मना फ़रमा दिया. आजकल जो लोग कहते हैं कि हर कलिमा पढ़ने वाले को मिला लो और उसके साथ इत्तिहाद और मेल जोल करो, यह इस क़ुरआनी हुक्म के बिल्कुल ख़िलाफ़ हैं.

(9) इस आयत में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मुनाफ़िक़ों के जनाज़े की नमाज़ और उनके दफ़्न में शिर्कत करने से मना फ़रमाया गया. इस आयत से साबित हुआ कि काफ़िर के जनाज़े की नमाज़ किसी हाल में जायज़ नहीं और काफ़िर की क़ब्र पर दफ़्न व ज़ियारत के लिये खड़ा होना भी मना है. और यह जो फ़रमाया और फ़िस्क़ ही में मर गए यहाँ फ़िस्क़ से कुफ़्र मुराद है. क़ुरआने करीम में एक और जगह भी फ़िस्क़ कुफ़्र के मानी में आया है, जैसे कि आयत “अफ़मन काना मूमिनन कमन काना फ़ासिक़न” (तो क्या जो ईमान वाला है वह उस जैसा हो जाएगा जो बेहुक्म है-सूरए सज्दा, आयत 18) में. फ़ासिक़ के जनाज़े की नमाज़ है, इसपर सहाबा और ताबईन की सहमति है, और इसपर उलमाए सालिहीन का अमल और यही अहले सुन्नत व जमाअत का मज़हब है. इस आयत में मुसलमानों के जनाज़े की नमाज़ का सुबूत भी मिलता है. और इसका फर्ज़े किफ़ाया होना हदीसे मशहूर से साबित होता है. जिस शख़्स के मूमिन या काफ़िर होने में शुबह हो,उसके जनाज़े की नमाज़ न पढ़ी जाए. जब कोई काफ़िर मर जाए और उसका सरपरस्त मुसलमान हो तो उसको चाहिये कि मसनून तरीक़े से ग़ुस्ल न दे बल्कि नजासत की तरह उसपर पानी बहा दे और न कफ़ने मसनून दे. बल्कि उतने कपड़े में लपेटे जिससे सतर छुप जाए और न सुन्नत तरीक़े पर दफ़्न करे, न सुन्नत तरीक़े पर क़ब्र बनाए, सिर्फ़ गढ़ा खोदे और दबा दे. अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलोल मुनाफ़िक़ों का सरदार था. जब वह मर गया तो उसके बेटे अब्दुल्लाह ने जो नेक मुसलमान, मुख़लिस सहाबी और कसरत से इबादत करने वाले थे, उन्होंने यह ख़्वाहिश की कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उनके बाप अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलोल के कफ़न के लिये अपनी मुबारक क़मीज़ इनायत फ़रमा दें और उसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ा दें. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो की राय उसके ख़िलाफ़ थी. लेकिन चूंकि उस वक़्त तक मुमानिअत नहीं हुई थी और हुज़ूर को मालूम था कि मेरा यह अमल एक हज़ार आदमियों के ईमान लाने का कारण होगा, इसलिये हुज़ूर ने अपनी क़मीज़ भी इनायत फ़रमाई और जनाज़े में शिर्कत भी की. कमीज़ देने की एक वजह यह थी कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के चचा हज़रत अब्बास, जो बद्र में क़ैदी होकर आए थे, तो अब्दुल्लाह बिन उबई ने अपना कुर्ता उन्हें पहनाया था. हुज़ूर को इसका बदला देना भी मंजूर था. इसपर यह आयत उतरी और इसके बाद फिर कभी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने किसी मुनाफ़िक़ के जनाज़े में शिर्कत न फ़रमाई और हुज़ूर की वह मसलिहत भी पूरी हुई. चुनांचे काफ़िरों ने देखा कि ऐसा सख़्त दुश्मन जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के कुर्तें से बरकत हासिल करना चाहता है तो उसके अक़ीदे में भी आप अल्लाह के हबीब और उसके सच्चे रसूल है, यह सोचकर हज़ार काफ़िर मुसलमान हो गए.

(10) उनके कुफ़्र और दोग़ली प्रवृति इख़्तियार करने के कारण.

(11) कि जिहाद में कैसी हलाकत और दिल की ख़राबी है.

(12) दोनो जहान की.

सूरए तौबह – बारहवाँ रूकू

सूरए तौबह – बारहवाँ रूकू

और बहाने बनाने वाले गंवार आए (1)
कि उन्हें रूख़सत दी जाए और बैठ रहे वो जिन्होंने अल्लाह व रसूल से झूट बोला था(2)
जल्द उनमें के काफ़िरों को दर्दनाक अज़ाब पहुंचेगा (3){90}
बूढ़ों पर कुछ हरज नहीं (4)
और न बीमारों पर(5)
और न उनपर जिन्हें ख़र्च की ताक़त न हो(6)
जबकि अल्लाह और रसूल के शुभ चिन्तक रहें(7)
नेकी वालों पर कोई राह नहीं (8)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{91} और न उनपर जो तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों कि तुम उन्हें सवारी अता फ़रमाओ (9)
तुमसे यह जवाब पाएं कि मेरे पास कोई चीज़ नहीं जिसपर तुम्हें सवार करूं इस पर यूं वापस जाएं कि उनकी आँखों से आँसू उबलते हों इस ग़म से कि ख़र्च की ताक़त न पाई {92} मुआख़ज़ा (जवाब तलबी) तो उनसे है जो तुमसे रूख़सत मांगते है और वो दौलतमंद हैं (10)
उन्हें पसन्द आया कि औरतों के साथ पीछे बैठ रहें और अल्लाह ने उनके दिलों पर मोहर करदी तो वो कुछ नहीं जानते{93}(11)

ग्यारहवां पारा – यअतज़िरून
(सूरए तौबह जारी)

तुमसे बहाने बनाएं (12)
जब तुम उनकी तरफ़ लौट कर जाओगे, तुम फ़रमाना, बहाने न बनाओ, हम हरगिज़ तुम्हारा यक़ीन न करेंगे, अल्लाह ने हमें तुम्हारी ख़बरें दे दी हैं, और अब अल्लाह व रसूल तुम्हारे काम देखेंगे(13)
फिर उसकी तरफ़ पलटकर जाओगे जो छुपे और ज़ाहिर सबको जानता है वह तुम्हें जता देगा जो कुछ तुम करते थे{94} अब तुम्हारे आगे अल्लाह की क़सम खाएंगे जब  (14)
तुम उनकी तरफ़ पलट कर जाओगे इसलिये कि तुम उनके ख़याल में न पड़ो (15)
तो हाँ तुम उनका ख़याल छोड़ों (16)
वो तो निरे पलीद हैं (17)
और उनका ठिकाना जहन्नम है, बदला उसका जो कमाते थे(18){95}
तुम्हारे आगे क़समें खाते हैं कि तुम उनसे राज़ी हो जाओ तो अगर तुम उनसे राज़ी हो जाओ (19)
तो बेशक अल्लाह तो फ़ासिक़ (दुराचारी) लोगों से राज़ी न होगा  (20){96}
गंवार (21)
कुफ़्र और निफ़ाक़ (दोग़लेपन) में ज़्यादा सख़्त हैं (22)
और इसी क़ाबिल कि अल्लाह ने जो हुक्म अपने रसूल पर उतारे उससे जाहिल रहें और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {97} और कुछ गंवार वो हैं कि जो अल्लाह की राह में ख़र्च करें तो उसे तावान समझें (23)
और तुमपर गर्दिशें आने के इन्तिज़ार में रहें (24)
उन्हीं पर है बुरी गर्दिश (आपत्ति) (25)
और अल्लाह सुनता जानता है {98} और कुछ गाँव वाले वो हैं जो अल्लाह और क़यामत पर यक़ीन रखते हैं (26)
और जो खर्च करें उसे अल्लाह की नज़दीकियों और रसूल से दुआएं लेने का ज़रीया समझें (27)हां हां वह उनके लिये क़रीब हो जाने का साधन है, अल्लाह जल्द उन्हें अपनी रहमत में दाख़िल करेगा, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{99}

तफ़सीर
सूरए तौबह – बारहवाँ रूकू

(1) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में जिहाद से रह जाने का बहाना करने. ज़ुहाक का क़ौल है कि यह आमिर बिन तुफ़ैल की जमाअत थी. उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ की कि या नबीयल्लाह, अगर हम आपके साथ जिहाद में जाएं तो क़बीलए तैय के अरब हमारी बीबियों बच्चों और जानवरों को लूट लेंगे. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म ने फ़रमाया, मुझे अल्लाह ने तुम्हारे हाल से ख़बरदार किया है और वह मुझे तुमसे बे नियाज़ करेगा. अम्र बिन उला ने कहा कि उन लोगों ने झूटा बहाना बनाकर पेशा किया था.

(2) यह दूसरे गिरोह का हाल है जो बिना किसी विवशता के बैठ रहे. ये मुनाफ़िक़ थे. उन्होंने ईमान का झूठा दावा किया था.

(3) दुनिया में क़त्ल होने का, और आख़िरत में जहन्नम का.
(4) बातिल वालों का ज़िक्र फ़रमाने के बाद, सच्चे उज़्र वालों के बारे में फ़रमाया कि उनपर से जिहाद की अनिवार्यता उतर गई है, ये कौन लोग हैं, उनके कुछ तबक़े बयान फ़रमाए. पहले बूढ़े, फिर बूढ़े बच्चे औरतें, और वो शख़्स भी इन्हीं में दाख़िल है जो पैदायशी कमज़ोर, और नाकारा हो.

(5) यह दूसरा तबक़ा है जिसमें अन्धे, लंगड़े, अपाहिज भी दाख़िल हैं.

(6) जिहाद का सामान न कर सकें, ये लोग रह जाएं तो इनपर कोई गुनाह नहीं.

(7) उनकी फ़रमाँबरदारी करें और मुजाहिदों के घर वालों का ध्यान रखें.

(8) हिसाब और पकड़ की.

(9) रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा में से कुछ लोग जिहाद में जाने के लिये हाज़िर हुए. उन्होंने हुज़ूर से सवारी की दरख़्वास्त की. हुज़ूर ने फ़रमाया कि मेरे पास कुछ नहीं जिसपर मैं तुम्हें सवार करूं, तो वो रोते वापस हुए. उनके बारे में यह आयत उतरी.

(10) जिहाद में जाने की क़ुदरत रखते हैं इसके बावुजूद.

(11) कि जिहाद में क्या लाभ और पुण्य यानी सवाब है.

पारा दस समाप्त

सूरए तौबह – बारहवाँ रूकू (जारी)

(12) और झूट बहाना पेश करेगें, ये जिहाद से रह जाने वाले मुनाफ़िक़ तुम्हारे इस सफ़र से वापस होने के वक़्त.

(13) कि तुम दोहरी प्रवृत्ति से तौबह करते हो, या इसपर क़ायम रहते हो. कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा कि उन्होंने वादा किया था कि आगे चल कर वो मूमिनों की मदद करेंगे. हो सकता है कि उसी की निस्बत फ़रमाया गया हो कि अल्लाह व रसूल तुम्हारे काम देखेंगे कि तुम अपने इस एहद को भी वफ़ा करते हो या नहीं.

(14) अपने इस सफ़र से वापस होकर मदीनए तैय्यिबह में.

(15) और उनपर मलामत और क्रोध न करो.

(16) उनसे परहेज़ करो. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया मुराद यह है कि उनके साथ बैठना उनसे बोलना छोड़ दो. चुनांचे जब नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीना तशरीफ़ लाए तो हुज़ूर ने मुसलमानों  हुक्म दिया कि मुनाफ़िक़ों के पास न बैठे, उनसे बात चीत न करें, क्योंकि उनके बातिन ख़बीस और कर्म बुरे हैं. और मलामत व इताब से उनकी इस्लाह न होगी, इसलिये कि.

(17) और अपवित्रता के पाक करने का कोई तरीक़ा नहीं हैं.

(18) दुनिया में बुरा कर्म. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया यह आयत जद बिन क़ैस और मअतब बिन क़शीर और उनके साथियों के हक़ में नाज़िल हुई. ये अस्सी मुनाफ़िक़ थे. नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि उनके पास न बैठों, उनसे कलाम न करो. मक़ातिल ने कहा कि यह आयत अब्दुल्लाह बिन उबई के बारे उतरी. उसने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सामने क़सम खाई थी कि अब कभी वह जिहाद में जाने में सुस्ती न करेगा और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से प्रार्थना की थी कि हुज़ूर उससे राज़ी हो जाएं. इसपर यह आयत और इसके बाद वाली आयत उतरी.

(19) और उनके उज्र और बहाने क़ुबूल कर लो इससे उन्हें कुछ नफ़ा न होगा, क्योंकि अगर तुम उनकी क़रमों का ऐतिबार भी कर लो.

(20) इसलिये कि वह उनके कुफ़्र और दोहरी प्रवृति को जानता है.

(21) जंगल के रहने वाले.

(22) क्योंकि वो इल्म की मजलिसों और उलमा की सोहबत से दूर रहते हैं.

(23) क्योंकि वो जो कुछ ख़र्च करते हैं, अल्लाह की ख़ुशी और सवाब हासिल करने के लिये तो करते नहीं, रियाकारी और मुसलमानों के ख़ौफ़ से ख़र्च करते हैं.

(24) और ये राह देखते हैं कि कब मुसलमानों का ज़ोर कम हो और कब वो मग़लूब और परास्त हों. उन्हें ख़बर नहीं कि अल्लाह को क्या मंजूर है. वह बतला दिया जाता है.

(25) और वही रंज और बला और बदहाली में जकड़े जाएंगे. यह आयत असद व ग़ितफ़ान व तमीम के क़बीलों के देहातियों के हक़ में उतरी. फिर अल्लाह तआला ने उनमें से जिनको छूट दी उनका ज़िक्र अगली आयत में है. (ख़ाजिन)

(26)मुजाहिद ने कहा कि ये लोग क़बीलए मज़ैनह में से बनी मक़रिन हैं. कल्बी ने कहा, वो असलम और ग़फ़्फ़ार और जुहैना के क़बीले हैं. बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि क़ुरैश और अन्सार और जुहैना और मज़ैनह और असलम और शुजाअ और ग़फ़्फ़ार मवाली हैं, अल्लाह और रसूल के सिवा कोई उनका मौला नहीं.

(27) कि जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में सदक़ा लाएं तो हुज़ूर उनके लिये ख़ैर बरक़त व मग़फ़िरत की दुआ फ़रमाएं. यही रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का तरीक़ा था. यही फ़ातिहा की अस्ल है कि सदक़े के साथ दुआए मग़फ़िरत की जाती है. लिहाज़ा फ़ातिहा को बिदअत और ना रवा बताना क़ुरआन और हदीस के ख़िलाफ़ है.

सूरए तौबह – तेरहवाँ रूकू

सूरए तौबह – तेरहवाँ रूकू

और सब मे अगले पहले मुहाजिर (1)
और अन्सार (2)
और जो भलाई के साथ उनके पीछे चलने वाले हुए (3)
अल्लाह उनसे राज़ी(4)
और वो अल्लाह से राज़ी (5)
और उनके लिये तैयार कर रखे हैं बाग़ जिनके नीचे नहरें बहें हमेशा हमेशा उनमें रहें, यही बड़ी कामयाबी है {100}और तुम्हारे आस पास (6)
के कुछ गंवार मुनाफ़िक़ हैं, और कुछ मदीना वाले उनकी आदत हो गई है निफ़ाक़ (दोग़लापन), तुम उन्हें नहीं जानते, हम उन्हें जानते हैं (7)
जल्द हम उन्हें दोबारा(8)
अज़ाब करेंगे फिर बड़े अज़ाब की तरफ़ फेरे जाएंगे (9){101}
और कुछ और हैं जो अपने गुनाहों के मुक़िर (इक़रारी) हुए(10)
और मिलाया एक काम अच्छा (11)
और दूसरा बुरा (12),
क़रीब है कि अल्लाह उनकी तौबह क़ुबूल करे, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{102} ऐ मेहबूब उनके माल में से ज़कात निकलवाओ जिससे तुम उनहें सुथरा और पाकीज़ा कर दो और उनके हक़ में दुआए ख़ैर करो (13)
बेशक तुम्हारी दुआ उनके दिलों का चैन है और अल्लाह सुनता जानता है{103} क्या उन्हें ख़बर नहीं कि अल्लाह ही अपने बन्दों की तौबह क़ुबूल करता और सदक़े ख़ुद अपने दस्ते क़ुदरत में लेता है और यह कि अल्लाह ही तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान है(14){104}
और तुम फ़रमाओ काम करो अब तुम्हारे काम देखेगा अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमान, और जल्द उसकी तरफ़ पलटोगे जो छुपा और खुला सब जानता है तो वो तुम्हारे काम तुम्हें जताएगा {105} और कुछ(15)
मौक़फ़ रखे गए अल्लाह के हुक्म पर या उनपर अज़ाब करे या उनकी तौबह क़ुबूल करे (16)
और अल्लाह इल्म व हि कमत वाला है {106} और वो जिन्होंने मस्जिद बनाई(17)
नुक़सान पहुंचाने को (18)
और कुफ़्र के कारण (19)
और मुसलमानों में तफ़रिक़ा (20)
डालने को और उसके इन्तिज़ार में जो पहले से अल्लाह और उसके रसूल का विरोधी है (21)
और वो ज़रूर क़समें खाएंगे हमने तो भलाई ही चाही, और अल्लाह गवाह है कि वो बेशक झूटे हैं {107} उस मस्जिद में तुम कभी खड़े न होना (22)
बेशक वह मस्जिद कि पहले ही दिन से जिसकी बुनियाद परहेज़गारी पर रखी गई है(23)
वह इस क़ाबिल है कि तुम उसमें खड़े हो, उसमें वो लोग हैं कि ख़ूब सुथरा होना चाहते हैं(24)
और सुथरे अल्लाह को प्यारे हैं {108} तो क्या जिसने अपनी बुनियाद रखी अल्लाह के डर और उसकी रज़ा पर (25)
वह भला या वह जिसने अपनी नींव चुनी एक गिराऊ गढ़े के किनारे तो (26)
वह उसे लेकर जहन्नम की आग में है ढै पड़ा (27)
और अल्लाह ज़ालिमों को राह नहीं देता {109} वो तामीर जो चुनी हमेशा उनके दिलों में खटकती रहेगी (28)
मगर यह कि उनके दिल टुकड़े टुकड़े हो जाएं (29)
और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है{110}

तफ़सीर
सूरए तौबह – तैरहवाँ रूकू

(1) वो लोग जिन्होंने दोनों क़िबलों की तरफ़ नमाज़ें पढ़ीं या बद्र वाले या बैअते रिज़वान वाले.

(2) बैअते अक़बए ऊला वाले, जो छ: सहाबा थे और बैअते अक़बए सानिया वाले, जो बारह थे. और बैअते अक़बए सालिसा वाले जो सत्तर सहाबा थे, ये हज़रात साबिक़ीन अन्सार कहलाते हैं (ख़ाज़िन)

(3) कहा गया है कि उनसे बाक़ी मुहाजिर और अन्सार मुराद हैं. तो अब तमाम सहाबा इसमें आगए और क़ौल यह है कि अनुयायी होने वालों से क़यामत तक के वो ईमानदार मुराद हैं जो ईमान व आज्ञा पालन और नेकी में अन्सार और मुहाजिरों की राह चलें.

(4) उसकी बारगाह में उनके नेक कर्म क़ुबूल.

(5) उसके सवाब और अता यानी इनाम से ख़ुश.

(6) यानी मदीनए तैय्यिबह के आस पास के प्रदेश.

(7) इसके मानी या तो ये हैं कि ऐसा जानना जिसका असर उन्हें मालूम हो, वह हमारा जानना है कि हम उन्हें अज़ाब करेंगे. या हुज़ूर से मुनाफ़िक़ों के हाल जानने की नफ़ी बऐतिबारे साबिक़ है और इसका इल्म बाद को अता हुआ जैसा कि दूसरी आयत में फ़रमाया, “वला तअरिफ़न्नहुम फ़ी लहनिल क़ौल” (और ज़रूर तुम उन्हें बात के उस्लूब में पहचान लोगे – सूरए मुहम्मद, आयत 30)(जुमल). कल्बी व सदी ने कहा कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने जुमुए के रोज़ ख़ुत्बे के लिये खड़े होकर नाम बनाम फ़रमाया, निकल ऐ फ़लाँ, तू मुनाफ़िक़ है, निकल ऐ फ़लाँ तू मुनाफ़िक़ है. तो मस्जिद से चन्द लोगों को रूस्वा करके निकाला इससे भी मालूम होता है कि हुज़ूर को इसके बाद मुनाफ़िक़ों के हाल का इल्म अता किया गया.

(8) एक बार तो दुनिया में रूस्वाई और क़त्ल के साथ और दूसरी बार क़ब्र में.

(9) यानी दोज़ख़ के अज़ाब की तरफ़, जिसमें हमेशा गिरफ़्तार रहेंगे.

(10) और उन्होंने दूसरों की तरह झूटे बहाने न किये और अपने किये पर शर्मिन्दा हुए. अक्सर मुफ़स्सिरों का कहना है कि यह आयत मदीनए तैय्यिबह के मुसलमानों की एक जमाअत के हक़ में नाज़िल हुई जो ग़जवए तबूक में हाज़िर न हुए थे. उसके बाद शर्मिन्दा हुए और तौबह की और कहा, अफ़सोस हम गुमराहियों के साथ या औरतों के साथ रह गए और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा जिहाद में हैं. जब हुज़ूर अपने सफ़र से वापस हुए और मदीना के क़रीब पहुंचे तो उन लोगों ने क़सम खाई कि हम अपने आपको मस्जिद के सुतूनों से बाँध देंगे और हरगिज़ न खोलेंगे, यहाँ तक कि हुज़ूर ही खोलें. ये क़समें खाकर वो मस्जिदों के सुतूनों से बंध गए. जब हुज़ूर तशरीफ़ लाए और उन्हें देखा तो फ़रमाया, ये कौन हैं? अर्ज़ किया गया, ये वो लोग हैं जो जिहाद में हाज़िर होने से रह गए थे. इन्होंने अल्लाह से एहद किया है कि ये अपने आपको न खोलेंगे जब तक हुज़ूर उनसे राज़ी होकर ख़ुद उन्हें न खोलें. हुज़ूर ने फ़रमाया, और मैं अल्लाह की क़सम खाता हूँ कि मैं उन्हें न खोलूंगा, न उनकी माफ़ी क़ुबूल करूंगा जब तक कि मुझे अल्लाह की तरफ़ से  उनके खोलने का हुक्म न मिल जाए. तब यह आयत उतरी और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हें खोला तो उन्होंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह, ये माल हमारे रह जाने के कारण हुए, इन्हें लीजिये  और सदक़ा कीजिये और हमें पाक कर दीजिये और हमारे लिये मग़फ़िरत की दुआ फ़रमाइये. हुज़ूर ने फ़रमाया, मुझे तुम्हारे माल लेने का हुक्म नहीं दिया गया. इसपर अगली आयत उतरी “खुज़ मिन अमवालिहिम”.

(11) यहाँ नेक कर्मों से या क़ुसूर का ऐतिराफ़ और तौबह मुराद है या इस पीछे रह जाने से पहले ग़ज़वात में नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ हाज़िर होना या फ़रमाँबरदारी और तक़वा के तमाम कर्म. इस सूरत में यह आयत सारे मुसलमानों के हक़ में होगी.

(12) इससे जिहाद से रह जाना मुराद है.

(13) आयत में जो सदक़ा आया है उसके मानी में मुफ़स्सिरों के कई क़ौल हैं. एक तो यह है कि वह ग़ैर वाजिब सदक़ा था जो कफ़्फ़ारे के तौर पर उन साहिबों ने दिया था जिनका ज़िक्र ऊपर की आयत में है. दूसरा क़ौल यह है कि इस सदक़े से मुराद वह ज़कात है जो उनके ज़िम्मे वाजिब थी, वो तायब हुए और उन्होंने ज़कात अदा करनी चाही तो अल्लाह तआला ने उसके लेने का हुक्म दिया. इमाम अबूबक्र राज़ी जस्सास ने इस क़ौल को तरजीह दी हे कि सदक़े से ज़कात मुराद है (खाज़िन) मदारिक में है कि सुन्नत यह है कि सदक़ा लेने वाला सदक़ा देने वाले के लिये दुआ करे और बुख़ारी व मुस्लिम में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अबी औफ़ की हदीस है कि जब कोई नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास सदक़ा लाता, आप उसके हक़ में दुआ करते. मेरे बाप ने सदक़ा हाज़िर किया तो हुज़ूर ने दुआ फ़रमाई “अल्लाहुम्मा सल्ले अला अबी औफ़ा”. इस आयत से साबित हुआ कि फ़ातिहा में जो सदक़ा लेने वाले सदक़ा पाकर दुआ करते हैं, यह क़ुरआन और हदीस के मुताबिक है.

(14) इसमें तौबह करने वालों को बशारत दी गई कि उनकी तौबह और उनके सदक़ात मक़बूल हैं. कुछ मुफ़स्सिरो का क़ौल है कि जिन लोगों ने अब तक तौबह नहीं की, इस आयत में उन्हें तौबह और सदक़े की तरग़ीब दी गई.

(15) पीछे रह जाने वालों वालों से.

(16) ग़ज़वए तबूक से रह जाने वाले तीन क़िस्म के थे, एक मुनाफ़िक़,  जो दोहरी प्रवृति के आदी थे, दूसरे वो लोग जिन्होंने क़ुसूर के एतिराफ़ और तौबह में जल्दी की, जिनका ऊपर ज़िक्र हो चुका, तीसरे वो जिन्हों ने देरी की, जो रूके रहे और जल्दी तौबह न की. यही इस आयत से मुराद है.

(17) यह आयत मुनाफ़िक़ों की एक जमाअत के बारे मे उतरी जिन्होंने मस्जिदें क़ुबा को नुक़सान पहुंचाने और उसकी जमाअत बिखेरने के लिये इसके क़रीब एक मस्जिद बना ली थी. उसमें एक बड़ी चाल थी. वह यह कि अबू आमिर जो जिहालत के ज़माने में ईसाई पादरी हो गया था. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मदीनए तैय्यिबह तशरीफ़ लाने पर हुज़ूर से कहने लगा, यह कौन सा दीन है जो आप लाए हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया कि मैं मिल्लते हनीफ़िया, दीने इब्राहीम लाया हूँ. कहने लगा मैं उसी दीन पर हूँ हुज़ूर ने फ़रमाया नहीं. उसने कहा कि आपने इसमें कुछ और मिला दिया हे. हुज़ूर ने फ़रमाया कि नहीं, मैं ख़ालिस साफ़ मिल्लत लाया हूँ. अबू आमिर ने कहा, हम में से जो झूठा हो, अल्लाह उसको मुसाफ़िरत में तन्हा और बेकस करके हलाक करे. हुज़ूर ने आमीन फ़रमाया. लोगों ने उसका नाम अबू आमिर फ़ासिक़ रख दिया. उहद के दिन अबू आमिर फ़ासिक़ ने हुज़ूर से कहा कि जहाँ कहीं कोई क़ौम आपसे जंग करने वाली मिलेगी, मैं उसके साथ होकर आपसे जंग करूंगा. चुनांचे जंगे हुनैन तक उसका यही मामूल रहा और वह हुज़ूर के साथ मसरूफ़े जंग रहा. जब हवाज़िन को हार हुई  और मायूस होकर शाम प्रदेश की तरफ़ भागा तो उसने मुनाफ़िक़ों को ख़बर भेजी कि तुम से जो सामाने जंग हो सके, क़ुव्वत और हथियार, सब जमा करो और मेरे लिये एक मस्जिद बनाओ. मैं रूम के बादशाह के पास जाता हूँ वहाँ से रूम का लश्कर लेकर आऊंगा और  (सैयदे आलम) मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) और उनके सहाबा को निकालूंगा. यह ख़बर पाकर उन लोगों ने मस्जिदे ज़िरार बनाई थी और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया था, यह मस्जिद हमने आसानी के लिये बनादी है कि जो लोग बूढ़े और कमज़ोर हैं तो इसमें फ़राग़त से नमाज़ पढ़ लिया करें. आप इसमें एक नमाज़ पढ़ दीजिये और बरक़त की दुआ फ़रमा दीजिये. हुज़ूर ने फ़रमाया कि अब तो मैं सफ़रे तबूक के लिये तैयारी कर रहा हुँ. वापसी में अल्लाह की मर्जी़ होगी तो वहाँ नमाज़ पढ़ लूंगा. जब नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ग़ज़वए तबूक से वापस होकर मदीनए शरीफ़ के क़रीब एक गाँव में ठहरे, तो मुनाफ़िक़ों ने आपसे दरख़्वास्त की कि उनकी मस्जिद में तशरीफ़ ले चलें. इसपर पर यह आयत उतरी और उनके ग़लत इरादों का इज़हार फ़रमाया गया. तब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने कुछ सहाबा को हुक्म दिया कि इस मस्जिद को ढा दें और जला दें. चुनांचे ऐसा ही किया गया और अबू आमिर राहिब शाम प्रदेश में सफ़र की हालत में तन्हाई और बेकसी में हलाक हुआ.

(18) मस्जिदे क़ुबा वालों के.

(19) कि वहाँ ख़ुदा और रसूल के साथ कुफ़्र करें और दोहरी प्रवृत्ति को क़ुव्वत दें.

(20) जो मस्जिदे क़ुबा में नमाज़ के लिये जमा होते है.

(21) यानी अबू आमिर राहिब.

(22) इसमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मस्जिदे ज़िरार में नमाज़ पढ़ने को मना किया गया. जो मस्जिद घमण्ड व दिखावा या अल्लाह की रज़ा के अलावा और किसी मक़सद के लिये या नापाक माल से बनाइ गई हो वह मस्जिद ज़िरार के साथ लाहिक़ है. (मदारिक)

(23) इससे मुराद मस्जिदे क़ुबा है, जिसकी बुनियाद रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने रखी और जब तक हुज़ूर  ने क़ुबा में क़याम फ़रमाया, उसमें नमाज़ पढ़ी, बुख़ारी शरीफ़ की हदीस में है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हर हफ़्ते मस्जिदे क़ुबा में नमाज़ पढ़ने तशरीफ़ लाते थे. दूसरी हदीस में है कि मस्जिदे क़ुबा में नमाज़ पढ़ने का सवाब उमरे के बराबर है. मुफ़स्सिरों का एक क़ौल यह भी है कि इससे मस्जिदे नदीना मुराद है और इसमें भी हदीसें आई हैं. इन बातों में कुछ विरोधाभास नहीं, क्योंकि आयत का मस्जिदे क़ुबा के हक़ में नाज़िल होना इसको मुस्तलज़िम नहीं कि मस्जिदे मदीना में ये विशेषताएं न हो.

(24) तमाम नजासतों या गुनाहों से. यह आयत मस्जिदे क़ुबा वालों के हक़ में नाज़िल हुई. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे फ़रमाया, ऐ गिरोहे अन्सार, अल्लाह तआला ने तुम्हारी तारीफ़ फ़रमाई, तुम वुज़ू और इस्तंजे के वक़्त क्या अमल करते हो, उन्होंने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, हम बड़ा इस्तंजा तीन ढेलों से करते हैं. उसके बाद फिर पानी से पाकी करते हैं. नजासत अगर निकलने की जगह से बढ़ जाए तो पानी से इस्तंजा वाजिब है, वरना मुस्तहब. ढेलों से इस्तंजा सुन्नत है. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने इसपर पाबन्दी फ़रमाई और कभी छोड़ा भी.

(25) जैसे कि मस्जिदे क़ुबा और मस्जिदे मदीना.

(26) जैसे कि मस्जिदे ज़िरार वाले.

(27) मुराद यह है कि जिस शख़्स ने अपने दीन की बुनियाद तक़वा और अल्लाह की रज़ा की मज़बूत सतह पर रखी, वह बेहतर है, न कि वह जिसने अपने दीन की नीव बातिल और दोहरी प्रवृति के गिराऊ गढे पर रखी.

(28) और उसके गिराए जाने का सदमा बाक़ी रहेगा.

(29) चाहे क़त्ल होकर या मरकर या क़ब्र में या जहन्नम में. मानी ये हैं कि उनके दिलों का ग़म व ग़ुस्सा मरते दम तक बाक़ी रहेगा और ये मानी भी हो सकते हैं कि जब तक उनके दिल अपने क़ुसूर की शर्मिन्दगी और अफ़सोस से टुकड़े टुकड़े न हों और वो सच्चे दिल से तौबह न कर लें, उस वक़्त तक वो इसी रंज और ग़म में रहेंगे. (मदारिक)

सूरए तौबह – चौदहवाँ रूकू

सूरए तौबह – चौदहवाँ रूकू

बेशक अल्लाह ने मुसलमानों से उनके माल और जान ख़रीद लिये हैं इस बदले पर कि उनके लिये जन्नत है(1)
अल्लाह की राह में लड़ें तो मारें (2)
और मरें (3)
उसके करम के ज़िम्मे सच्चा वादा तौरात और इंजील और क़ुरआन में (4)
और अल्लाह से ज़्यादा क़ौल (कथन) का पूरा कौन तो ख़ुशियां मनाओ अपने सौदे की जो तुमने उससे किया है, और यही बड़ी कामयाबी है {111} तौबह वाले (5)
इबादत वाले (6)
सराहने वाले (7)
रोज़े वाले, रूकू वाले, सज्दा वाले (8)
भलाई के बताने वाले और बुराई से रोकने वाले और अल्लाह की हदें निगाह रखने वाले(9)
और ख़ुशियाँ सुनाओ मुसलमानों को (10){112}
नबी और ईमान वालों को लायक़ नहीं कि मुश्रिकों की बख़्शिश चाहें अगरचे वो रिश्तेदार हों (11)
जबकि उन्हें खुल चुका कि वो दोज़ख़ी हैं (12){113}
और इब्राहीम का अपने बाप (13)
की बख़्शिश चाहना वह तो न था मगर एक वादे के कारण जो उससे कर चुका था (14)
फिर जब इब्राहीम को खुल गया कि वह अल्लाह का दुश्मन है उससे तिनका तोड़ दिया  (15)
बेशक इब्राहीम ज़रूर बहुत आहें करने वाला (16)
मुतहम्मिल  (सहनशील) है {114} और अल्लाह की शान नहीं कि किसी क़ौम को हिदायत बाद गुमराह फ़रमाए (17)
जब तक उन्हें साफ़ न बता दे कि किस चीज़ से उन्हें बचना है (18)
बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है   {115} बेशक अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन की सल्तनत, जिलाता है और मारता है और अल्लाह के सिवा न तुम्हारा कोई वाली और न मददगार {116} बेशक अल्लाह की रहमतें मुतवज्जह हुई उन ग़ैब की ख़बरें बताने वाले और उन मुहाजिरीन और अन्सार पर जिन्होंने मुश्किल की घड़ी में उनका साथ दिया (19)
बाद इसके कि क़रीब था कि उनमें कुछ लोगों के दिल फिर जाएं (20)
फिर उनपर रहमत से मुतवज्जेह हुआ (21)
बेशक वह उनपर बहुत मेहरबान रहम वाला है {117} और उन तीन पर जो मौक़ूफ़ (रोके) रखे गए थे (22)
यहाँ तक कि जब ज़मीन इतनी वसी {विस्तृत} होकर उनपर तंग होगई (23)
और वो अपनी जान से तंग आए (24)
और उन्हें यक़ीन हुआ कि अल्लाह से पनाह नहीं मगर उसी के पास फिर (25)
उनकी तौबह क़ुबूल की कि तौबह किये हुए रहें, बेशक अल्लाह ही तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान है {118}

तफ़सीर
सूरए तौबह – चौदहवाँ रूकू

(1) ख़ुदा की राह में जान माल ख़र्च करके जन्नत पाने वाले ईमानदारों की एक मिसाल है जिससे भरपूर मेहरबानी का इज़हार होता है कि अल्लाह तआला ने उन्हें जन्नत अता फ़रमाना उनके जान व माल का एवज़ क़रार दिया और अपने आपको ख़रीदार फ़रमाया. यह सर्वोत्तम सम्मान है कि वह हमारा ख़रीदार बने और हमसे ख़रीदे, किस चीज़ को, न हमारी बनाई हुई, न हमारी पैदा की हुई. जान है तो उसकी पैदा की हुई, माल है तो उसका अता किया हुआ. जब अन्सार ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अक़बा की रात बैअत की तो अब्दुल्लाह बिन रवाहा रदियल्लाहो अन्हो ने अर्ज़ की, या रसूलल्लाह अपने रब के लिये और अपने लिये कुछ शर्त फ़रमा लीजिये जो आप चाहें. फ़रमाया मैं अपने रब के लिये तो यह शर्त करता हूँ कि तुम उसकी इबादत करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ. और अपने लिये यह कि जिन चीज़ों से तुम अपने जान माल को बचाते और मेहफ़ूज़ रखते हो, उसको मेरे लिये भी गवारा न करो. उन्होंने अर्ज़ किया कि हम ऐसा करें तो हमें क्या मिलेगा. फ़रमाया जन्नत.

(2) ख़ुदा के दुश्मनों को.

(3) ख़ुदा की राह में.

(4) इससे साबित हुआ कि तमाम शरीअतों और मिल्लतों में जिहाद का हुक्म था.

(5) तमाम गुनाहों से.

(6) अल्लाह के फ़रमाँबरदार बन्दे जो सच्चे दिल से उसकी इबादत करते हैं और इबादत को अपने ऊपर लाज़िम जानते हैं.

(7) जो हर हाल में अल्लाह की प्रशंसा करते हैं.

(8) यानी नमाज़ों के पाबन्द और उनको ख़ूबी से अदा करने वाले.

(9) और उसके आदेशों का पालन करने वाले, ये लोग जन्नती हैं.

(10) कि वो अल्लाह से किया हुआ एहद पूरा करेंगे तो अल्लाह तआला उन्हें जन्नत में दाख़िल फ़रमाएगा.

(11) इस आयत के उतरने की परिस्थितियों में मुफ़स्सिरों के विभिन्न क़ौल हैं. (1) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपने चचा अबू तालिब से फ़रमाया था कि मैं तुम्हारे लिये इस्तग़फ़ार करूंगा जब तक कि मुझे मना न किया जाए. तो अल्लाह ने यह आयत नाज़िल फ़रमाकर मना फ़रमा दिया. (2) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि मैंने अपने रब से अपनी वालिदा की क़ब्र की ज़ियारत की इजाज़त चाही. उसने मुझे इजाज़त दे दी. फिर मैंने उनके लिये इस्तग़फ़ार की इजाज़त चाही, तो मुझे इजाज़त न दी और मुझपर आयत नाज़िल हुई “मा काना लिन नबिय्ये…” (नबी और ईमान वालों के लायक़ नहीं कि मुश्रिकों की बख़्शिश चाहें अगरचे वो रिश्तेदार हों . सूरए तौबह, आयत 113) आयत उतरने की परिस्थिति की यह वजह सही नहीं है, क्योंकि यह हदीस हाकिम ने रिवायत की और इसको सही बताया और ज़हबी ने हाकिम पर भरोसा करके मीज़ान में इसको सही बताया, लेकिन मुख़्तसिरूल मुस्तदरक में ज़हबी ने इस हदीस को ज़ईफ़ बताया और कहा कि अय्युब बिन हानी को इब्ने मुईन ने ज़ईफ़ बताया है. इसके अलावा यह हदीस बुख़ारी की हदीस के विरूद्ध भी है जिसमें इस आयत के उतरने का कारण आपकी वालिदा के लिये इस्तग़फ़ार करना नहीं बताया गया बल्कि बुख़ारी की हदीस से यही साबित है कि अबू तालिब के लिये इस्तग़फ़ार करने के बारे में यह हदीस आई. इसके अलावा और हदीसें, जो इस मज़मून की हैं जिनको तिबरानी और इब्ने सअद और इब्ने शाहीन वग़ैरह ने रिवायत किया है, वो सबकी सब ज़ईफ़ हैं. इब्ने सअद ने तबक़ात में हदीस निकालने के बाद उसको ग़लत बताया और मुहद्दिसों के सरदार इमाम जलालुद्दिन सियूती ने अपने रिसाले अत्तअज़ीम वल मिन्नत में इस मज़मून की सारी हदीसों को कमज़ोर बताया. लिहाज़ा यह वजह शाने नुज़ूल में सही नहीं और यह साबित है, इसपर बहुत दलीलें क़ायम हैं कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वालिदा अल्लाह की वहदत को मानने वाली और दीने इब्राहीम पर थीं.  (3) कुछ सहाबा ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अपने पूर्वजों के लिये इस्तिग़फ़ार करने की प्रार्थना की थी. इसपर यह आयत उतरी.

(12) शिर्क पर मरे.

(13) यानी आज़र.

(14) इससे या तो वह वादा मुराद है जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने आज़र से किया था कि अपने रब से तेरी मग़फ़िरत की दुआ करूंगा या वह वादा मुराद है जो आज़र ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से इस्लाम लाने का किया था. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि जब यह आयत उतरी, “सअस्तग़फ़िरों लका रब्बी” (क़रीब है कि मैं तेरे लिये अपने रब से माफ़ी मांगूंगा – सूरए मरयम, आयत 47) तो मैं ने सुना कि एक शख़्स अपने माँ बाप के लिये दुआए मग़फ़िरत कर रहा है. जबकि वो दोनों मुश्रिक थे. तो मैं ने कहा तू मुश्रिकों के लिये मग़फ़िरत की दुआ करता है, उसने कहा, क्या इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने आज़र के लिये दुआ न की थी, वह भी तो मुश्रि क था. ये वाक़िआ मैंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अखज़ किया. इसपर यह आयत उतरी और बताया गया कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का इस्तग़फ़ार इस्लाम की उम्मीद से था जिसका आज़र आपसे वादा कर चुका था और आप आज़र से इस्तग़फ़ार का वादा कर चुके थे. जब वह उम्मीद जाती रही तो आपने उससे अपना सम्बन्ध तोड़ लिया.

(15) और इस्तग़फ़ार करना छोड़ दिया.

(16) कसरत से दुआ मांगने वाले, गिड़गिड़ाने वाले.

(17) यानी उनपर गुमराही का हुक्म करे और उन्हें गुमराहों में दाख़िल फ़रमा दे.

(18) मानी ये हैं कि जो चीज़ वर्जित है और उससे रूका रहना वाजिब है, उसपर अल्लाह तआला तब तक अपने बन्दों की पकड़ नहीं फ़रमाता जब तक उसकी मुमानिअत यानी अवैधता का साफ़ ऐलान अल्लाह की तरफ़ से न आजाए. लिहाज़ा मुमानिअत से पहले उस काम को करने में हर्ज नहीं. (मदारिक) इससे मालूम हआ कि जिस चीज़ की शरीअत से मुमानिअत न हो, वह जायज़ है. जब ईमान वालों को मुश्रिकों के लिये इस्तग़फ़ार करने से मना फ़रमाया गया तो उन्हें डर हुआ कि हम पहले जो इस्तग़फ़ार कर चुके हैं कहीं उसपर पकड़ न हो. इस आयत से उन्हें तसल्ली दी गई और बताया गया कि मुमानिअत का बयान होने के बाद उस काम को करते रहने से पकड़ की जाती हैं.

(19) यानी ग़ज़वए तबूक में, जिसे ग़ज़वए उसरत भी कहते हैं, इस ग़ज़बे में उसरत का यह हाल था कि दस दस आदमियों की सवारी के लिये ऊंट था. थोड़ा थोड़ा करके इसी पर सवार हो लेते थे. और खाने की कमी का यह हाल था कि एक एक खजूर पर कई कई आदमी बसर करते थे. इस तरह की हर एक ने थोड़ी थोड़ी चूस कर एक घूँट पानी पी लिया. पानी की भी अत्यन्त कमी थी. गर्मी सख़्त थी, प्यास ग़लबा और पानी  ग़ायब, इस हाल में सहाबा अपनी सच्चाई और यक़ीन और ईमान और महब्बत के साथ हुज़ूर पर मर मिटने के लिये डटे रहे. हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, अल्लाह तआला से दुआ फ़रमाईये. फ़रमाया, क्या तुम्हें यह ख़्वाहिश है. अर्ज़ किया जी हाँ . तो हुज़ूर ने दस्ते मुबारक उठा कर दुआ फ़रमाई और अभी हाथ उठे हुए ही थे कि अल्लाह तआला ने बादल भेजा. बारिश हुई और लश्कर सैराब हुआ. लश्कर वालों ने अपने अपने बर्तन भर लिये. इसके बाद जब आगे चले तो ज़मीन सूखी थी. बादल ने लश्कर के बाहर बारीश ही नहीं की. वह ख़ास इसी लश्कर को सैराब करने के लिये भेजा गया था.

(20) और वो इस सख़्ती में रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अलग होना गवारा करें.

(21) और वो साबिर रहे और अडिग रहे और उनकी वफ़ादारी मेहफ़ूज़ रही और जो ख़तरा दिल में गुज़रा था उसपर शर्मिन्दा हुए.

(22) तौबह से जिनका ज़िक्र आयत “वआख़रूना मुरजौना लिअम्रिल्लाहे” (और कुछ मौक़ूफ़ रखे गए अल्लाह के हुक्म पर – सूरए तौबह, आयत 106) में है. ये तीन लोग, कअब बिन मालिक, हिलाल बिन उमैया और मराह बिन रबीअ हैं. ये सब अन्सारी थे. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने तबूक से वापस होकर उनसे जिहाद में हाज़िर न होने के कारण पूछे और फ़रमाया, ठहरो जब तक कि उनके रिश्तेदारों और दोस्तों ने उनसे बातचीत छोड़ दी,  ऐसा मालूम होता था कि उनको कोई पहचानता ही नहीं और उनकी किसी से शनासाई ही नहीं. इस हाल पर उन्हें पचास दिन गुज़रे.

(23) और उन्हें कोई ऐसी जगह न मिल सकी जहाँ एक पल के लिये उन्हे क़रार होता. हर वक़्त परेशानी और रंज, बेचैनी में जकड़े हुए थे.

(24) रंज और ग़म की सख़्ती से न कोई साथी है, जिससे बात करें, न कोई दुख बाँटने वाला, जिसे दिल का हाल सुनाएं, वहशत और तन्हाई, और रात दिन का रोना बिलकना.

(25) अल्लाह तआला ने उनपर रहम फ़रमाया और.

सूरए तौबह – पन्द्रहवाँ रूकू

सूरए तौबह – पन्द्रहवाँ रूकू

ऐ ईमान वालों अल्लाह से डरो(1)
और सच्चों के साथ हो (2){119}
मदीना वालों (3)
और उनके गिर्द देहातवालों को शोभा न था कि रसूलुल्लाह से पीछे बैठ रहें (4)
और न यह कि उनकी जान से अपनी जान प्यारी समझें (5)
यह इसलिये कि उन्हें जो प्यास या तक़लीफ़ या भूख अल्लाह की राह में पहुंचती है और जहाँ ऐसी जगह क़दम रखते हैं (6)
जिससे काफ़िरों को ग़ुस्सा आए और जो कुछ किसी दुश्मन का बिगाड़ते हैं (7)
इस सबके बदले उनके लिये नेक कर्म लिखा जाता है(8)
बेशक अल्लाह नेकों का नेग नष्ट नहीं करता {120} और जो कुछ ख़र्च करते हैं छोटा (9)
या बड़ा(10)
और जो नाला तय करते हैं सब उनके लिये लिखा जाता है ताकि अल्लाह उनके सबसे बेहतर कर्मों का उन्हें सिला (पुरस्कार) दे (11){121}
और मुसलमानों से ये तो हो नहीं सकता कि सब के सब निकलें(12)
तो क्यों न हो कि उनके हर गिरोह में से (13)
एक दल निकले कि दीन की समझ हासिल करें और वापस आकर अपनी क़ौम को डर सुनाएं(14)
इस उम्मीद पर कि वो बचें (15) {122}

तफ़सीर
सूरए तौबह – पन्द्रहवाँ रूकू

(1) गुनाह और  बुराई छोड़ दो.

(2) जो ईमान में सच्चे हैं, वफ़ादार हैं, रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तस्दीक़ दिल की गहराइयों से करते हैं. सईद बिन जुबैर का क़ौल है कि सादिक़ीन (सच्चों) से हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर मुराद हैं. इब्ने जरीर कहते हैं कि मुहाजिर लोग. हज़रत इब्ने अब्बास कहते हैं कि वो लोग जिनकी नियतें मज़बूत रहीं और दिल व कर्म सच्चे. और वो सच्चे दिल के साथ ग़ज़वए तबूक में हाज़िर हुए. इस आयत से साबित हुआ कि सहमति हुज्जत यानी तर्क है, क्योंकि सच्चों के साथ रहने का हुक्म फ़रमाया, इससे उनके क़ौल का क़ुबूल करना लाज़िम आता है.

(3) यहाँ एहले मदीना से मदीनए तैय्यिबह के निवासी मुराद हैं, चाहे मुहाजिर हों या अन्सार.

(4) और जिहाद में हाज़िर न हों.

(5) बल्कि उन्हें हुक्म था कि सख़्ती और तकलीफ़ में हुज़ूर का साथ न छोड़ें और सख़्ती के म़ौक़े पर अपनी जानें आप पर क़ुरबान करें.

(6) और काफ़िरों की धरती को अपने घोड़ों के सुमों से रौंदते हैं.

(7) क़ैद करके या क़त्ल करके, या जख़्मी करके या परास्त करके.

(8) इस से साबित हुआ कि जो व्यक्ति अल्लाह के अनुकरण का इरादा करे, उसका उठना बैठना चलना फिरना ख़ामोश रहना सब नेकियाँ है. अल्लाह के यहाँ लिखी जाती हैं.

(9) यानी कम जैसे कि एक खजूर.

(10) जैसा कि हज़रत उस्माने ग़नी रदियल्लाहो अन्हो ने जैशे उसरत में ख़र्च किया.

(11) इस आयत से जिहाद की फ़ज़ीलत और एक बेहतरीन अमल होना साबित हुआ.

(12) और एक दम अपने वतन ख़ाली कर दें.

(13) एक जमाअत वतन में रहे और.

(14) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि अरब के क़बीलों में से हर हर क़बीले से जमाअतें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में हाज़िर होतीं और वो हुज़ूर से दीन की बातें सीखते और इल्म हासिल करते और अहकाम दरियाफ़्त करते, अपने लिये और क़ौम के लिये. हुज़ूर उन्हें अल्लाह व रसूल की फ़रमाँबरदारी का हुक्म देते और नमाज़ ज़कात वग़ैरह की तालीम देते. जब वो लोग अपनी क़ौम में पहुंचते तो ऐलान कर देते कि जो इस्लाम लाए वह हमसे है और लोगों को ख़ुदा का ख़ौफ़ दिलाते और दीन के विरोध से डराते यहाँ तक कि लोग अपने माँ बाप को छोड़ देते और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उन्हें दीन के तमाम ज़रूरी उलूम तालीम फ़रमा देते (ख़ाजिन). यह रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़बरदस्त चमत्कार है कि बिल्कुल बे पढ़े लिखे लोगों को बहुत थोड़ी देर में दीन के अहकाम का आलिम और क़ौम का हादी बना देते. इस आयत से कुछ मसअले मालूम हुए. इल्मे दीन हासिल करना फ़र्ज़ है. जो चीज़ें बन्दे पर फ़र्ज़ वाजिब हैं और जो उसके लिये मना और हराम हैं उनका सीखना परम अनिवार्य है. और उससे ज़्यादा इल्म हासिल करना फ़र्ज़ें किफ़ाया है. हदीस शरीफ़ में है, इल्म सीखना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है. इमाम शाफ़ई रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया कि इल्म सीखना नफ़्ल नमाज़ से अफ़जल है. इल्म हासिल करने के लिये सफ़र करने का हुक्म हदीस शरीफ़ में है. जो शख़्स इल्म हासिल करने के लिये राह चले, अल्लाह उसके लिये जन्नत की राह आसान करता है. (तिरमिज़ी). फ़िक़ह सबसे उँचे दर्जे का इल्म है. हदीस शरीफ़ में है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, अल्लाह तआला जिसके लिये बेहतरी चाहता है उसको दीन में फ़क़ीह बना देता है. मैं तक़सीम करने वाला हूँ और अल्लाह देने वाला (बुख़ारी व मुस्लिम). हदीस में है, एक फ़कीह शैतान पर हज़ार आबिदों से ज़्यादा सख़्त है. (तिरमिज़ी). फ़िक़ह दीन के अहकाम के इल्म को कहते हैं.

(15) अज़ाबे इलाही से, दीन के अहकाम का पालन करके.

सूरए तौबह – सौलहवाँ रूकू

सूरए तौबह – सौलहवाँ रूकू
ऐ ईमान वालो जिहाद करो उन काफ़िरों से जो तुम्हारे क़रीब हैं(1)
और चाहिये कि वो तुम में सख़्ती पाएं और जान रखो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है (2) {123}
और जब कोई सूरत उतरती है तो उनमें कोई कहने लगता है कि उसने तुम में किसके ईमान को तरक़्क़ी दी(3)
और वो ख़ुशियाँ मना रहे हैं {124} और जिनके दिलों में आज़ार है (4)
उन्हें और पलीदी पर पलीदी बढ़ाई(5)
और वो कुफ़्र ही पर मर गए{125} क्या उन्हें (6)
नहीं सूझता कि हर साल एक या दोबारा आज़माए जाते हैं (7)
फिर न तो तौबह करते हैं न नसीहत मानते हैं {126} और जब कोई सूरत उतरती है उनमें एक दूसरे को देखने लगता है(8)
कि कोई तुम्हें देखता तो नहीं (9)
फिर पलट जाते हैं (10)
अल्लाह ने उनके दिल पलट दिये(11)
कि वो नासमझ लोग हैं (12){127}
बेशक तुम्हारे पास तशरीफ़ लाए तुममें से वह रसूल (13)
जिनपर तुम्हारा मशक़्क़त (परिश्रम) में पड़ना भारी है तुम्हारी भलाई के निहायत चाहने वाले मुसलमानों पर कमाल मेहरबान(14){128}
फिर अगर वो मुंह फेरें (15)
तो तुम फ़रमा दो कि मुझे अल्लाह काफ़ी है उसके सिवा किसी की बन्दगी नहीं मैं ने उसी पर भरोसा किया और वह बड़े अर्श का मालिक है (16){129}

तफ़सीर
सूरए तौबह – सौलहवाँ रूकू

(1) क़िताल तमाम काफ़िरों से वाजिब है, क़रीब के हों या दूर के, लेकिन क़रीब वाले पहले आते है फिर उनसे जो जुड़े हों, ऐसे ही दर्जा ब दर्जा.

(2) उन्हें ग़ल्बा देता है और उनकी मदद फ़रमाता है.

(3) यानी मुनाफ़िक़ आपस में हंसी के तौर पर ऐसी बाते कहते हैं उनके जवाब में इरशाद होता है.

(4) शक और दोग़ली प्रवृत्ति का.

(5) कि पहले जितना उतरा था उसी के इन्कार के वबाल में गिरफ़्तार थे, अब जो और उतरा उसके इन्कार की लानत में भी गिरफ़्तार हुए.

(6) यानी मुनाफ़िक़ों को.

(7) बीमारियों, सख़्तियों और दुष्काल वग़ैरह के साथ.

(8) और आँखों से निकल भागने के इशारे करता है और कहता है.

(9) अगर देखता हुआ तो बैठ गए वरना निकल गए.

(10) कुफ़्र की तरफ़.

(11) इस कारण से.

(12) अपने नफ़ा नुक़सान को नहीं सोचते.

(13) मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अरबी क़रशी, जिनके हसब नसब को तुम ख़ुब पहचानते हो कि तुम में सब से आली नसब हैं, और तुम उनके सिदक़ यानी सच्चाई और अमानतदारी, पाकीज़ा चरित्र, तक़वा और सदगुणों को भी ख़ूब जानते हो, एक क़िरअत में “अन्फ़सिकुम” है, इसके मानी ये हैं कि तुम में सबसे ज़्यादा नफ़ीस और शरीफ़ और बुज़ुर्गी वाले. इस आयते करीमा में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तशरीफ़ आवरी यानी आपके मीलादे मुबारक का बयान है. तिरमिज़ी की हदीस से साबित है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपनी पैदायश का बयान खड़े होकर फ़रमाया. इससे मालूम हुआ कि मीलादे मुबारक की मेहफ़िल की अस्ल क़ुरआन और हदीस से साबित है.

(14) इस आयत में अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अपने दो नामों से इज़्ज़त बख़्शी. यह हुज़ूर की बुज़ुर्गी का कमाल है.

(15) यानी मुनाफ़िक़ और काफ़िर आप पर ईमान लाने से इन्कार करें.

(16) हाकिम ने मुस्तदरक में उबई बिन कअब से एक हदीस रिवायत की है कि “लक़द जाअकुम” से आख़िर सूरत तक दोनों आयतें क़ुरआन शरीफ़ में सब के बाद उतरीं.

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