Tafseer Surah Al-Nisa from Kanzul Imaan

सूरए निसा

सूरए निसा
सूरए (1) निसा मदीने में उतरी, आयतें 176, रूकू चौबीस,
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

सूरए निसा – पहला रूकू

ऐ लोगों (2)
अपने रब से डरो जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया (3)
और उसी में उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत से मर्द व औरत फैला दिये और अल्लाह से डरो जिसके नाम पर मांगते हो और रिश्तों का लिहाज़ रखो(4)
बेशक अल्लाह हर वक़्त तुम्हें देख रहा है (1)और यतीमों को उनके माल दो (5)
और सुथरे(6)
के बदले गन्दा न लो(7)
और उनके माल अपने मालों में मिला कर न खा जाओ बेशक यह बड़ा गुनाह है (2) और अगर तुम्हें डर हो कि यतीम (अनाथ) लड़कियों में इन्साफ़ न करोगे (8)
तो निकाह में लाओ जो औरतें तुम्हें ख़ुश आऐं दो दो और तीन तीन और चार चार (9)
फिर अगर डरो कि दो बीवियों को बराबर न रख सकोगे तो एक ही करो या कनीज़े (दासियां) जिनके तुम मालिक हो पर उससे ज़्यादा क़रीब है कि तुम से ज़ुल्म न हो  (10)(3)
और औरतों को उनके मेहर ख़ुशी से दो(11)
फिर अगर वो अपने दिल की ख़ुशी से मेहर में से तुम्हें कुछ दें तो उसे खाओ रचता पचता (12) (4)
और बेअक़्लों को (13)
उनके माल न दो जो तुम्हारे पास हैं जिनको अल्लाह ने तुम्हारी बसर औक़ात (गुज़ारा) किया है और उन्हें उसमें से खिलाओ और पहनाओ और उनसे अच्छी बात कहो (14) (5)
और यतीमों को आज़माते रहो  (15)
यहां तक कि जब वह निकाह के क़ाबिल हों तो अगर तुम उनकी समझ ठीक देखो तो उनके माल उन्हें सुपुर्द कर दो और उन्हें न खाओ हद से बढ़कर और इस जल्दी में कि कहीं बड़े न हो जाएं और जिसे हाजत (आवश्यकता) न हो वह बचता रहे (16)
और जो हाजत वाला हो वह मुनासिब हद तक खाए फिर जब तुम उनके माल उन्हें सुपुर्द करो तो उनपर गवाह कर लो और अल्लाह काफ़ी है हिसाब लेने को (6) मर्दों के लिये हिस्सा है उसमें से जो छोड़ गए मां बाप और क़रावत (रिश्तेदार) वाले और औरतों के लिये हिस्सा है उसमें से जो छोड़ गए मां बाप  और क़रावत वाले तर्का (माल व जायदाद) थोड़ा हो या बहुत, हिस्सा है अन्दाज़ा बांधा हुआ(17) (7)
फिर बांटते वक़्त अगर रिश्तेदार और यतीम और मिस्कीन (दरिद्र) (18)
आजाएं तो उसमें से उन्हें भी कुछ दो  (19)
और उनसे अच्छी बात कहो (20) (8)
और डरें (21) वो लोग अगर अपने बाद कमज़ोर औलाद छोड़ते तो उनका कैसा उन्हें ख़तरा होता तो चाहिये कि अल्लाह से डरें (22)
और सीधी बात करें (23)  (9)
वो जो यतीमों का माल नाहक़ खाते हैं वो तो अपने पेट में निरी आग भरते हैं (24)
और कोई दम जाता है कि भड़कते धड़े में जाएंगे (10)

तफ़सीर :
सूरए निसा – पहला रूकू

(1) सूरए निसा मदीनए तैय्यिबह में उतरी, इसमें 24 रूकू, 176 आयतें, 3045 कलिमे और 16030 अक्षर हैं.

(2) ये सम्बोधन आया है तमाम आदमी की औलाद को.

(3) अबुल बशर हज़रत आदम से, जिनको माँ बाप के बग़ैर मिट्टी से पैदा किया था. इन्सान की पैदाइश के आरम्भ का बयान करके अल्लाह की क़ुदरत की महानता का बयान फ़रमाया गया. अगरचे दुनिया के बेदीन अपनी बेअक़्ली और नासमझी से इसका मज़ाक़ उड़ाते हैं लेकिन समझ वाले और अक़्ल वाले जानते हैं कि ये मज़मून ऐसी ज़बरदस्त बुरहान से साबित है जिसका इन्कार असभंव है. जन गणना का हिसाब बता देता है कि आज से सौ बरस पहले दुनिया में इन्सानों की संख्या आज से बहुत कम थी और इससे सौ बरस पहले और भी कम. तो इस तरह अतीत की तरफ़ चलते चलते इस कमी की हद एक ज़ात क़रार पाएगी या यूँ कहिये कि क़बीलों की बहुसंख्या एक व्यक्ति की तरफ़ ख़त्म हो जाती है. मसलन, सैयद दुनिया में करोड़ो पाए जाएंगे मगर अतीत की तरफ़ उनका अन्त सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक ज़ात पर होगा और बनी इस्त्राईल कितने भी ज़्यादा हों मगर इस तमाम ज़ियादती का स्त्रोत हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की एक ज़ात होगी. इसी तरह और ऊपर को चलना शुरू करें तो इन्सान के तमाम समुदायों और क़बीलों का अन्त एक ज़ात पर होगा, उसका नाम अल्लाह की किताबों में आदम अलैहिस्सलाम है और मुमकिन नहीं कि वह एक व्यक्ति मानव उत्पत्ति या इन्सानी पैदायश के मामूली तरीक़े से पैदा हो सके. अगर उसके लिये बाप भी मान लिया जाये तो माँ कहाँ से आए. इसलिये ज़रूरी है कि उसकी पैदायश बग़ैर माँ बाप के हो और जब बग़ैर माँ बाप के पैदा हुआ तो यक़ीनन उन्हीं अनासिर या तत्वों से पैदा होगा जो उसके अस्तित्व या वुजूद में पाए जाते हैं. फिर तत्वों में से वह तत्व उसका ठिकाना हो और जिसके सिवा दूसरे में वह न रह सके, लाज़िम है कि वही उसके वुजूद में ग़ालिब हो इसलिये पैदायश की निस्बत उसी तत्व की तरफ़ की जाएगी. यह भी ज़ाहिर है कि मानव उत्पत्ति का मामूली तरीक़ा एक व्यक्ति से जारी नहीं हो सकता, इसलिये उसके साथ एक और भी हो कि जोड़ा हो जाए और वह दूसरा व्यक्ति जो उसके बाद पैदा हो तो हिकमत का तक़ाज़ा यही है कि उसी के जिस्म से पैदा किया जाए क्योंकि एक व्यक्ति के पैदा होने से नस्ल तो पैदा हो चुकी मगर यह भी लाज़िम है कि उसकी बनावट पहले इन्सान से साधारण उत्पत्ति के अलावा किसी और तरीक़े से हो, क्योंकि साधारण उत्पत्ति दो के बिना संभव ही नहीं और यहाँ एक ही है. लिहाज़ा अल्लाह की हिकमत ने हज़रत आदम की एक बाईं पसली उनके सोते में निकाली और उससे उनकी बीबी हज़रत हव्वा को पैदा किया. चूंकि हज़रत हव्वा साधारण उत्पत्ति के तरीक़े से पैदा नहीं हुईं इसलिये वह औलाद नहीं हो सकतीं जिस तरह कि इस तरीक़े के ख़िलाफ़ मानव शरीर से बहुत से कीड़े पैदा हुआ करते हैं, वो उसकी औलाद नहीं हो सकते हैं. नींद से जागकर हज़रत आदम ने अपने पास हज़रत हव्वा को देखा तो अपने जैसे दूसरे को पाने की महब्बत दिल में पैदा हुई. उनसे फ़रमाया तुम कौन हो. उन्हों ने अर्ज़ किया औरत. फ़रमाया, किस लिये पैदा की गई हो. अर्ज़ किया आपका दिल बहलाने के लिये. तो आप उनसे मानूस हुए.

(4) उन्हें तोड़ो या काटे मत. हदीस शरीफ़ में है, जो रिज़्क़ में बढ़ौतरी चाहे उसको चाहिये कि अपने रिशतेदारों के साथ मेहरबानी से पेश आए और उनके अधिकारों का ख़याल रखे.

(5) एक व्यक्ति की निगरानी में उसके अनाथ भतीजे का बहुत सा माल था. जब वह यतीम बालिग़ हुआ और उसने अपना माल तलब किया तो चचा ने देने से इन्कार कर दिया. इस पर यह आयत उतरी. इसको सुनकर उस व्यक्ति ने यतीम का माल उसके हवाले किया और कहा कि हम अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते है.

(6) यानी अपने हलाल माल.

(7) यतीम का माल जो तुम्हारे लिये हराम है, उसको अच्छा समझकर अपने रद्दी माल से न बदलो क्योंकि वह रद्दी तुम्हारे लिये हलाल और पाक है, और यह हराम और नापाक.

(8) और उनके अधिकार का ख़याल न रख सकोगे.

(9) आयत के मानी में विभिन्न क़ौल हैं. हसन का क़ौल है कि पहले ज़माने में मदीने के लोग अपनी सरपरस्ती वाली यतीम लड़की से उसके माल की वजह से निकाह कर लेते जबकि उसकी तरफ़ रग़बत न होती. फिर उसके साथ सहवास में अच्छा व्यवहार न करते और उसके माल के वारिस बनने के लिये उसकी मौत की प्रतीक्षा करतें. इस आयत में उन्हें इससे रोका गया. एक क़ौल यह है कि लोग यतीमों की सरपरस्ती से तो बेइन्साफ़ी होने के डर से घबराते थे और ज़िना की पर्वाह न करते थे. उन्हें बताया गया कि अगर तुम नाइन्साफ़ी के डर से यतीमों की सरपरस्ती से बचते हो तो ज़िना से भी डरो और इससे बचने के लिये जो औरतें तुम्हारे लिये हलाल हैं उनसे निकाह करो और हराम के क़रीब मत जाओ. एक क़ौल यह है कि लोग यतीमों की विलायत और सरपरस्ती में तो नाइन्साफ़ी का डर करते थे और बहुत से निकाह करने में कुछ भी नहीं हिचकिचाते थे. उन्हें बताया गया कि जब ज़्यादा औरतें निकाह में हों तो उनके हक़ में नाइन्साफ़ी होने से डरो. उतनी ही औरतों से निकाह करो जिनके अधिकार अदा कर सको. इकरिमा ने हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत की कि क़ुरैश दस दस बल्कि इससे ज़्यादा औरतें करते थे और जब उनका बोझ न उठ सकता तो जो यतीम लड़कियाँ उनकी सरपरस्ती में होतीं उनके माल ख़्रर्च कर डालते. इस आयत में फ़रमाया गया कि अपनी क्षमता देख ली और चार से ज़्यादा न करो ताकि तुम्हें यतीमों का माल ख़र्च करने की ज़रूरत पेश न आए. इस आयत से मालूम हुआ कि आज़ाद मर्द के लिये एक वक़्त में चार औरतों तक से निकाह जायज़ है, चाहे वो आज़ाद हों या दासी. तमाम उम्मत की सहमित है कि एक वक़्त में चार औरतों से ज़्यादा निकाह में रखना किसी के लिये जायज़ नहीं सिवाय रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के. यह आप की विशेषताओं में से हैं. अबू दाऊद की हदीस में है कि एक व्यक्ति इस्लाम लाए. उनकी आठ बीबीयाँ थीं. हुज़ूर ने फ़रमाया उनमें से चार रखना. तिरमिज़ी की हदीस में है कि ग़ीलान बिन सलमा सक़फ़ी इस्लाम लाए. उनकी दस बीबीयाँ थीं. वो साथ मुसलमान हुई. हुज़ूर ने हुक्म दिया, इनमें से चार रखो.

(10) इससे मालूम हुआ कि बीबीयों के बीच इन्साफ़ फ़र्ज़ है. नई पुरानी, सब अधिकारों में बराबर हैं. ये इन्साफ़ लिबास में, खाने पीने में, रहने की जगह में, और रात के सहवास में अनिवार्य है. इन बातों में सब के साथ एक सा सुलूक हो.

(11) इससे मालूम हुआ कि मेहर की अधिकारी औरतें हैं न कि उनके सरपरस्त. अगर सरपरस्तों ने मेहर वसूल कर लिया हो तो उन्हें लाज़िम है कि वो मेहर हक़दार औरत को पहुंचा दें.

(12) औरतों की इख़्तियार है कि वो अपने शौहरों को मेहर का कोई हिस्सा हिबा करें या कुल मेहर मगर मेहर बख़्शवाने के लिये उन्हें मजबूर करना, उनके साथ दुर्व्यवहार न करना चाहिये क्योंकि अल्लाह तआला ने “तिब्ना लकुम” फ़रमाया जिसका मतलब है दिल की ख़ुशी के साथ माफ़ करना.

(13) जो इतनी समझ नहीं रखते कि माल कहाँ ख़र्च किया जाए इसे पहचानें. और जो माल को बेमहल ख़र्च करते हैं और अगर उन पर छोड़ दिया जाए तो वो जल्द नष्ट कर देंगे.

(14) जिससे उनके दिल की तसल्ली हो और वो परेशान न हों जैसे यह कि माल तुम्हारा है और तुम होशियार हो जाओगे तो तुम्हारे सुपुर्द कर दिया जाएगा.

(15) कि उनमें होशियारी और मामला जानने की समझ पैदा हुई या नहीं.

(16) यतीम का माल खाने से.

(17) जिहालत के ज़माने में औरतों और बच्चों को विरासत न देते थे. इस आयत में उस रस्म को बातिल किया गया.

(18) अजनबी, जिन में से कोई मैयत का वारिस न हो.

(19) तक़सीम से पहले, और यह देना मुस्तहब है.

(20) इसमें ख़ूबसूरत बहाना, अच्छा वादा और भलाई की दुआ, सब शामिल हैं. इस आयत में मैयत के तर्के से ग़ैर वारिस रिशतेदारों और यतीमों और मिस्कीनों को कुछ सदक़े के तौर पर देने और अच्छी बात कहने का हुक्म दिया. सहाबा के ज़माने में इस पर अमल था. मुहम्मद बिन सीरीन से रिवायत है कि उनके वालिद ने विरासत की तक़सीम के वक़्त एक बकरी ज़िबह कराके खाना पकाया और रिश्तेदारों, यतीमों और मिस्कीनों को खिलाया और यह आयत पढ़ी. इब्ने सीरीन ने इसी मज़मून की उबैदा सलमानी से भी रिवायत की है. उसमें यह भी है कि कहा अगर यह आयत न आई होती तो यह सदक़ा मैं अपने माल से करता. तीजा, जिसको सोयम कहते हैं और मुसलमानों का तरीक़ा है, वह भी इसी आयत का अनुकरण है कि उसमें रिश्तेदारों यतीमों और मिस्कीनों पर सदक़ा होता है और कलिमे का ख़त्म और क़ुरआने पाक की तिलावत और दुआ अच्छी बात है. इसमें कुछ लोगों को बेजा इसरार हो गया है जो बुजुर्गों के इस अमल का स्त्रोत तो तलाश कर न सके, जब कि इतना साफ़ क़ुरआन पाक में मौजूद था, अलबत्ता उन्होंने अपनी राय को दीन में दख़्ल दिया और अच्छे काम को रोकने में जुट गये, अल्लाह हिदायत करे.

(21) जिसके नाम वसिय्यत की गई वह और यतीमों के सरपरस्त और वो लोग जो मौत के क़रीब मरने वाले के पास मौजूद हों.

(22) और मरने वाले की औलाद के साथ मेहरबानी के अलावा कोई कायर्वाही न करें जिससे उसकी औलाद परेशान हो.

(23) मरीज़ के पास उसकी मौत के क़रीब मौजूद होने वालों की सीधी बात तो यह है कि उसे सदक़ा और वसिय्यत में यह राय दें कि वह उतने माल से करे जिससे उसकी औलाद तंगदस्त और नादार न रह जाए और वसी यानी जिसके नाम वसिय्यत की जाए और वली यानी सरपरस्त की सीधी बात यह है कि वो मरने वाले की ज़ुर्रियत के साथ सदव्यवहार करें, अच्छे से बात करें जैसा कि अपनी औलाद के साथ करते हैं.

(24) यानी यतीमों का माल नाहक़ खाना मानो आग खाना है. क्योंकि वह अज़ाब का कारण है. हदीस शरीफ़ में है, क़यामत के दिन यतीमों का माल खाने वाले इस तरह उठाए जाएंगे कि उनकी क़ब्रों से और उनके मुंह से और उनके कानों से धुवाँ निकलता होगा तो लोग पहचानेंगे कि यह यतीम का माल खाने वाला है.

सूरए निसा _ दूसरा रूकू

सूरए निसा _ दूसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है (1)
तुम्हारी औलाद के बारे में  (2)
बेटे का हिस्सा दो बेटियों के बराबर है (3)
फिर अगर निरी लड़कियां हो अगरचे दो से ऊपर (4)
तो उनको तर्के की दो तिहाई और अगर एक लड़की हो तो उसका आधा (5)
और मैयत के माँ बाप को हर एक को उसके तर्के से छटा, अगर मैयत के औलाद हो (6)
फिर अगर उसकी औलाद न हो और माँ बाप छोड़े (7)
तो माँ का तिहाई फिर अगर उसके कई बहन भाई हों(8)
तो माँ का छटा (9)
बाद उस वसियत के जो कर गया और दैन के (10)
तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे तुम क्या जानो कि उनमें कौन तुम्हारे ज़्यादा काम आएगा (11)
यह हिस्सा बांधा हुआ है अल्लाह की तरफ़ से बेशक अल्लाह इल्म वाला हिकमत (बोध) वाला है  (11)
और तुम्हारी बीवियाँ जो छोड़ जाएं उसमें तुम्हें आधा है अगर उनके औलाद हो तो उनके तर्के में से तुम्हें चौथाई है (12)
जो वसिय्यत वो कर गई और दैन (ऋण) निकाल कर और तुम्हारे तर्के में औरतों का चौथाई है अगर तुम्हारे औलाद न हो. फिर अगर तुम्हारे औलाद हो तो उनका तुम्हारे तर्के में से आठवाँ (13)
जो वसिय्यत तुम कर जाओ  दैन (ऋण) निकाल कर और अगर किसी ऐसे मर्द या औरत का तर्का बटता हो जिसने माँ बाप औलाद कुछ न छोड़े और माँ की तरफ़ से उसका भाई या बहन है तो उनमें से हर एक को छटा फिर अगर  वो बहन भाई एक से ज़्यादा हों तो सब तिहाई में शरीक हैं (14)
मैयत की वसिय्यत और दैन निकाल कर जिसमें उसने नुक़सान न पहुंचाया हो  (15)
यह अल्लाह का इरशाद  (आदेश) है और  अल्लाह इल्म वाला हिल्म (सहिष्णुता) वाला है (12) ये अल्लाह की हदें हैं, और जो हुक्म माने अल्लाह और अल्लाह के रसूल का, अल्लाह उसे बाग़ों में ले जाएगा जिनके नीचे नेहरें बहें हमेशा उनमें रहेंगे और यही है बड़ी कामयाबी (13)
और जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करे और उसकी कुल हदों से बढ़ जाए अल्लाह उसे आग में दाख़िल करेगा जिसमें हमेशा रहेगा और उसके लिये ख़्वारी (ज़िल्लत) का अज़ाब है (16) (14)

तफ़सीर :

सूरए निसा – दूसरा रूकू

(1) विरासत के बारे में.

(2) अगर मरने वाले ने बेटे बेटियाँ दोनों छोड़ी हों तो.

(3) यानी बेटी का हिस्सा बेटे से आधा है और अगर मरने वाले ने सिर्फ़ लड़के छोड़े हों तो कुल माल उन का.

(4) या दो.

(5) इससे मालूम हुआ कि अगर लड़का अकेला वारिस रहा हो तो कुल माल उसका होगा क्योंकि ऊपर बेटे का हिस्सा बेटियों से दूना बताया गया है तो जब अकेली लड़की का आधा हुआ तो अकेले लड़के का उससे दूना हुआ और वह कुल है.

(6) चाहे लड़का हो या लड़की कि उनमें से हर एक को औलाद कहा जाता है.

(7) यानी सिर्फ़ माँ बाप छोड़े और अगर माँ बाप के साथ शौहर या बीवी में से किसी को छोड़ा, तो माँ का हिस्सा बीवी का हिस्सा निकालने के बाद जो बाक़ी बचे उसका तिहाई होगा न कि कुल का तिहाई.

(8) सगे चाहे सौतेले.

(9) और एक ही भाई हो तो वह माँ का हिस्सा नहीं घटा सकता.

(10) क्योंकि वसिय्यत और क़र्ज़ विरासत की तक़सीम से पहले है. और क़र्ज़ वसिय्यत से भी पहले है. हदीस शरीफ़ में है “इन्नद दैना क़बलल वसिय्यते” जिसका अर्थ यह होता है कि वसिय्यत पर अमल करने से पहले मरने वाले का क़र्ज़ अदा करना ज़रूरी है.

(11) इसलिये हिस्सो का मुक़र्रर करना तुम्हारी राय पर न छोड़ा.

(12  चाहे एक बीबी हो या कई. एक होगी तो वह अकेली चौथाई पाएगी. कई होंगी तो सब उस चौथाई में बराबर शरीक होंगी चाहे बीबी एक हो या कई, हिस्सा यही रहेगा.

(13) चाहे बीबी एक हो या ज़्यादा.

(14) क्योंकि वो माँ के रिश्ते की बदौलत हक़दार हुए और माँ तिहाई से ज़्यादा नहीं पाती और इसीलिये उनमें मर्द का हिस्सा औरत से ज़्यादा नहीं है.

(15) अपने वारिसों को तिहाई से ज़्यादा वसिय्यत करके या किसी वारिस के हक़ में वसिय्यत करके. वारिस के क़र्ज़ कई क़िस्म हैं. असहाबे फ़राइज़ वो लोग हैं जिनके लिये हिस्सा मुक़र्रर है जैसे बेटी एक हो तो आधे माल की मालिक, ज़्यादा हों तो सब के लिये दो तिहाई. पोती और पड़पोती और उससे नीचे की हर पोती, अगर मरने वाले के औलाद न हो तो बेटी के हुक्म में है. और अगर मैयत ने एक बेटी छोड़ी है तो यह उसके साथ छटा पाएगी और अगर मैयत ने बेटा छोड़ा तो विरासत से वंचित हो जाएगी, कुछ न पाएगी और अगर मरने वाले ने दो बेटियाँ छोड़ीं तो भी पोती वंचित यानी साक़ित हो गई. लेकिन अगर उसके साथ या उसके नीचे दर्जे में कोई लड़का होगा तो वह उसको इसबा बना देगा. सगी बहन मैयत के बेटा या पोता न छोड़ने की सूरत में बेटियों के हुक्म में है. अल्लाती बहनें, जो बाप में शरीक हों और उनकी माएं अलग अलग हों, वो सगी बहनों के न होने की सूरत में उनकी मिस्ल है और दोनों क़िस्म की बहनें, यानी सगी और अल्लाती, मैयत की बेटी या पोती के साथ इसबा हो जाती हैं और बेटे और पोते और उसके मातहत पोते और बाप के साथ साक़ित या वंचित और इमाम साहब के नज़दीक दादा के साथ भी मेहरूम हैं. सौतेले भाई बहन जो फ़क़त माँ में शरीक हों, उनमें से एक हो तो छटा और ज़्यादा हों तो तिहाई और उनमें मर्द और औरत बराबर हिस्सा पाएंगे. और बेटे पोते और उसके मातहत के पोते और बाप दादा के होते मेहरूम हो जाएंगे. बाप छटा हिस्सा पाएगा अगर मैयत ने बेटा या पोता या उससे नीचे की कोई पोती छोड़ी हो तो बाप छटा और वह बाक़ी भी पाएगा जो असाबे फ़र्ज़ को देकर बचे. दादा यानी बाप का बाप, बाप के न होने की सूरत में बाप की मिस्ल है सिवाय इसके कि माँ को मेहरूम न कर सकेगा. माँ का छटा हिस्सा है. अगर मैयत ने अपनी औलाद या अपने बेटे या पोते या पड़पोते की औलाद या बहन भाई में से दो छोड़े हों चाहे वो सगे भाई हों या सौतेले और अगर उनमें से कोई छोड़ा न हो तो तो माँ कुल माल का तिहाई पाएगी और अगर मैयत ने शौहर या बीबी और माँ बाप छोड़े हों तो माँ को शौहर या बीबी का हिस्सा देने के बाद जो बाक़ी रहे उसका तिहाई मिलेगा और जद्दा का छटा हिस्सा है चाहे वह माँ की तरफ़ से हो यानी नानी या बाप की तरफ़ से हो यानी दादी. एक हो, ज़्यादा हों, और क़रीब वाली दूर वाली के लिये आड़ हो जाती है. और माँ हर एक जद्दा यानी नानी और दादी को मेहरूम कर देती है. और बाप की तरफ़ की जद्दात यानी दादियाँ बाप के होने की सूरत में मेहजूब यानी मेहरूम हो जाती हैं. इस सूरत में कुछ न मिलेगा. ज़ौज को चौथा हिस्सा मिलेगा. अगर मैयत ने अपनी या अपने बेटे पोते परपोते वग़ैरह की औलाद छोड़ी हो और अगर इस क़िस्म की औलाद न छोड़ी हो तो शौहर आधा पाएगा. बीवी मैयत की और उसके बेटे पोते वग़ैरह की औलाद होने की सूरत में आठवाँ हिस्सा पाएगी और न होने की सूरत में चौथाई. इसबात वो वारिस है जिनके लिये कोई हिस्सा निश्चित नहीं है. फ़र्ज़ वारिसों से जो बाक़ी बचता है वो पाते हैं. इन में सबसे ऊपर बेटा है फिर उसका बेटा फिर और नीचे के पोते फिर बाप फिर उसका बेटा फिर और नीचे के पोते फिर बाप फिर दादा फिर बाप के सिलसिले में जहाँ तक कोई पाया जाए. फिर सगा भाई फिर सौतेला यानी बाप शरीक भाई फिर सगे भाई का बेटा फिर बाप शरीक भाई का बेटा, फिर आज़ाद करने वाला और जिन औरतों का हिस्सा आधा या दो तिहाई है वो अपने भाईयों के साथ इसबा हो जाती हैं और जो ऐसी न हों वो नहीं. ख़ून के रिश्तों, फ़र्ज़ वारिस और इसबात के सिवा जो रिश्तेदार हैं वो ज़विल अरहाम में दाख़िल हैं और उनकी तरतीब इस्बात की मिस्ल है.

(16) क्योंकि कुल हदों के फलांगने वाला काफ़िर है. इसलिये कि मूमिन कैसा भी गुनाहगार हो, ईमान की हद से तो न गुज़रेगा.

सूरए निसा _ तीसरा रूकू

सूरए निसा _ तीसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और तुम्हारी औरतें जो बदकारी करें उन पर ख़ास अपने में (1)
के चार मर्दों की गवाही लो फिर अगर वो गवाही दे दें तो उन औरतों को घर में बंद रखो (2)
यहां तक कि उन्हें मौत उठाले या अल्लाह उनकी कुछ राह निकाले(3)(15)
और तुम में जो मर्द औरत ऐसा काम करें उनको ईज़ा (कष्ट) दो(4)
फिर अगर वो तौबह कर लें और नेक हो जाएं तो उनका पीछा छोड़ दो बेशक अल्लाह बड़ा तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान है (5)(16)
वह तौबह जिसका क़ुबूल करना अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल(कृपा) से लाज़िम कर लिया है वह उन्हीं की है जो नादानी से बुराई कर बैठे फिर थोड़ी देर में तौबा करलें (6)
ऐसो पर अल्लाह अपनी रहमत से रूजू (तवज्जुह)करता है और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है(17) और वह तौबा उनकी नहीं जो गुनाहों में लगे रहते हैं(7)
यहां तक कि जब उनमें किसी को मौत आए तो कहे अब मैं ने तौबा की(8)
और न उनकी जो काफ़िर मरें उनके लिये हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है (9)(18)
ऐ ईमान वालों, तुम्हें हलाल नहीं कि औरतों के वारिस बन जाओ ज़बरदस्ती (10)
और औरतों को रोको नहीं इस नियत से कि जो मेहर उनको दिया था उसमें से कुछ ले लो (11)
मगर उस सूरत में कि खुल्लमखुल्ला बेहयाई का काम करें (12)
और उनसे अच्छा बर्ताव करो (13)
फिर अगर वो तुम्हें पसन्द न आएं (14)
तो क़रीब है कि कोई चीज़ तुम्हें नापसन्द हो और अल्लाह उसमें बहुत भलाई रखे (15) (19)
और अगर तुम एक बीबी के बदले दूसरी बदलना चाहो (16)
और उसे ढेरों माल दे चुके हो (17)
तो उसमें से कुछ वापिस न लो (18)
क्या उसे वापिस लोगे झूठ बांधकर और खुले गुनाह से (19) (20)
और किस तरह वापिस लोगे हालांकि तुम में एक दूसरे के सामने बेपर्दा हो लिया और वो तुम से गाढ़ा अहद (प्रतिज्ञा) ले चुकीं  (20)(21)
और बाप दादा की मनकूहा (विवाहिता) से निकाह न करो  (21)
मगर जो हो गुज़रा वह बेशक बेहयाई (22)
और गज़ब (प्रकोप) का काम है और  बहुत बुरी राह (23) (22)

तफसीर
सूरए निसा – तीसरा रूकू

(1) यानी मुसलमानों में के.

(2) कि वो बदकारी न करने पाएं.

(3) यानी हद निश्चित करे या तौबह और निकाह की तौफ़ीक़ दे. जो मुफ़स्सिर इस आयत “अलफ़ाहिशता” (बदकारी) से ज़िना मुराद लेते हैं वो कहते हैं कि हब्स का हुक्म हूदूद यानी सज़ाएं नाज़िल होने से पहले था. सज़ाएं उतरने के बाद स्थगित किया गया. (ख़ाज़िन, जलालैन व तफ़सीरे अहमदी)

(4) झिड़कों, घुड़को, बुरा कहो, शर्म दिलाओ, जूतियाँ मारो, (जलालैन, मदारिक व ख़ाज़िन वग़ैरह)

(5) हसन का क़ौल है कि ज़िना की सज़ा पहले ईज़ा यानी यातना मुक़र्रर की गई फिर क़ैद फिर कोड़े मारना या संगसार करना. इब्ने बहर का क़ौल है कि पहली आयत “वल्लती यातीना” (और तुम्हारी औरतों में…..) उन औरतों के बारे में है जो औरतों के साथ बुरा काम करती हैं और दूसरी आयत “वल्लज़ाने” (और तुममें जो मर्द…..) लौंडे बाज़ी या इग़लाम करने वालों के बारे में उतरी. और ज़िना करने वाली औरतें और ज़िना करने वाले मर्द का हुक्म सूरए नूर में बयान फ़रमाया गया. इस तक़दीर पर ये आयतें मन्सूख़ यानी स्थगित हैं और इनमें इमाम अबू हनीफ़ा के लिये ज़ाहिर दलील है उस पर जो वो फ़रमाते हैं कि लिवातत यानी लौंडे बाज़ी में छोटी मोटी सज़ा है, बड़ा धार्मिक दण्ड नहीं.

(6) ज़ुहाक का क़ौल है कि जो तौबह मौत से पहले हो, वह क़रीब है यानी थोड़ी देर वाली है.

(7)  और तौबह में देरी कर जाते है.

(8) तौबह क़ुबूल किये जाने का वादा जो ऊपर की आयत में गुज़रा वह ऐसे लोगों के लिये नहीं है. अल्लाह मालिक है, जो चाहे करे. उनकी तौबह क़ुबूल करे या न करे. बख़्श दे या अज़ाब फ़रमाए, उस की मर्ज़ी. (तफ़सीरे अहमदी)

(9) इससे मालूम हुआ कि मरते वक़्त काफ़िर की तौबह और उसका ईमान मक़बूल नहीं.

(10) जिहालत के दौर में लोग माल की तरह अपने रिश्तेदारों की बीबियों के भी वारिस बन जाते थे फिर अगर चाहते तो मेहर के बिना उन्हें अपनी बीबी बनाकर रखते या किसी और के साथ शादी कर देते और ख़ुद मेहर ले लेते या उन्हें क़ैद कर रखते कि जो विरासत उन्हों ने पाई है वह देकर रिहाई हासिल करलें या मर जाएं तो ये उनके वारिस हो जाएं. ग़रज़ वो औरतें बिल्कुल उनके हाथ में मजबूर होती थीं और अपनी मर्ज़ी से कुछ भी नहीं कर सकती थीं. इस रस्म को मिटाने के लिये यह आयत उतारी गई.

(11) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया यह उसके सम्बन्ध में है जो अपनी बीबी से नफ़रत रखता हो और इस लिये दुर्व्यवहार करता हो कि औरत परेशान होकर मेहर वापस कर दे या छोड़ दे. इसकी अल्लाह तआला ने मनाही फ़रमाई. एक क़ौल यह है कि लोग औरत को तलाक़ देते फिर वापस ले लेते, फिर तलाक़ देते. इस तरह उसको लटका कर रखते थे. न वह उनके पास आराम पा सकती, न दूसरी जगह ठिकाना कर सकती. इसको मना फ़रमाया गया. एक क़ौल यह है कि मरने वाले के सरपरस्त को ख़िताब है कि वो उसकी बीबी को न रोकें.

(12) शौहर की नाफ़रमानी या उसकी या उसके घर वालों की यातना, बदज़बानी या हरामकारी ऐसी कोई हालत हो तो ख़ुलअ चाहने में हर्ज नहीं.

(13) खिलाने पहनाने में, बात चीत में और मियाँ बीवी के व्यवहार में.

(14) दुर्व्यवहार या सूरत नापसन्द होने की वजह से, तो सब्र करो और जुदाई मत चाहो.

(15) नेक बेटा वग़ैरह.

(16) यानी एक को तलाक़ देकर दूसरी से निकाह करना.

(17) इस आयत से भारी मेहर मुक़र्रर करने के जायज़ होने पर दलील लाई गई है. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने मिम्बर पर से फ़रमाया कि औरतों के मेहर भारी न करो. एक औरत ने यह आयत पढ़कर कहा कि ऐ  इब्ने ख़त्ताब, अल्लाह हमें देता है और तुम मना करते हो, इस पर अमीरूल मूमिनीन हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया, ऐ उमर, तुझसे हर शख़्स ज़्यादा समझदार है. जो चाहो मेहर मुक़र्रर करो. सुब्हानल्लाह, ऐसी थी रसूल के ख़लीफ़ा के इन्साफ़ की शान और शरीफ़ नफ़्स की पाकी. अल्लाह तआला हमें उनका अनुकरण करने की तौफ़ीक अता फ़रमाए. आमीन.

(18) क्योंकि जुदाई तुम्हारी तरफ़ से है.

(19) यह जिहालत वालों के उस काम का रद है कि जब उन्हें कोई दूसरी औरत पसन्द आती तो वो अपनी बीबी पर तोहमत यानी लांछन लगाते ताकि वह इससे परेशान होकर जो कुछ ले चुकी है वापस कर दे. इस तरीक़े को इस आयत में मना फ़रमाया गया और झुट और गुनाह बताया गया.

(20) वह अहद अल्लाह तआला का यह इरशाद है ” फ़ इम्साकुन बि मअरूफ़िन फ़ तसरीहुम बि इहसानिन” यानी फिर भलाई के साथ रोक लेना है या नेकूई के साथ छोड़ देना है. (सूरए बक़रह, आयत 229) यह आयत इस पर दलील है कि तन्हाई में हमबिस्तरी करने से मेहर वाजिब हो जाता है.

(21) जैसा कि जिहालत के ज़माने में रिवाज था कि अपनी माँ के सिवा बाप के बाद उसकी दूसरी औरत को बेटा अपनी बीवी बना लेता था.

(22) क्योंकि बाप की बीवी माँ के बराबर है. कहा गया है कि निकाह से हम-बिस्तरी मुराद है. इससे साबित होता है कि जिससे बाप ने हमबिस्तरी की हो, चाहे निकाह करके या ज़िना करके या वह दासी हो, उसका वह मालिक होकर, उनमें से हर सूरत में बेटे का उससे निकाह हराम है.

(23) अब इसके बाद जिस क़द्र औरतें हराम हैं उनका बयान फ़रमाया जाता है. इनमें सात तोनसब से हराम है.

सूरए निसा – चौथा रूकू

सूरए निसा – चौथा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
हराम हुई तुम पर तुम्हारी माएं  (1)
और बेटियां (2)
और बहनें और फुफियां और ख़ालाएं और भतीजियां(3)
और भांजियां और तुम्हारी माएं जिन्होंने दूध पिलाया (4)
और दूध की बहनें और औरतों की माएं  (5)
और उनकी बेटियां जो तुम्हारी गोद में हैं (6)
तो उनकी बेटियों में हर्ज नहीं (7)
और तुम्हारी नस्ली बेटों की बीबियां(8)
और दो बहनें इकट्ठी करना (9)
मगर जो हो गुज़रा बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (23)

पाँचवां पारा – वल – मुहसनात
(सूरए निसा _ चौथा रूकू जारी)

और हराम हैं शौहरदार औरतें  मगर काफ़िरों की औरतें जो तुम्हारी मिल्क में आ जाएं (10)
यह अल्लाह का लिखा हुआ है तुमपर और उन (11)
के सिवा जो रहीं वो तुम्हें हलाल हैं कि अपने मालों के इवज़ तलाश करो कै़द लाते (12)
न पानी गिराते (13)
तो जिन औरतों को निकाह में लाना चाहो उनके बंधे हुए मेहर उन्हें दे दो और क़रारदाद (समझौते) के बाद अगर तुम्हारे आपस में कुछ रज़ामन्दी हो जावे तो उसमें गुनाह नहीं (14)
बेशक अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है  (24) और तुमसे बेमक़दूरी (असामथर्य) के कारण जिनके निकाह में आज़ाद औरतें ईमान वालियां न हों तो उनसे निकाह करे जो तुम्हारे हाथ की मिल्क हैं ईमान वाली कनीजे़ (15)
और अल्लाह तुम्हारे ईमान को ख़ूब जानता है, तुम में एक,दूसरे से है तो उनसे निकाह करो  (16)
उनके मालिकों  की इज़ाज़त से (17)
और दस्तूर के मुताबिक़  उनके मेहर उन्हें दो(18)
क़ैद में आतियां, न मस्ती निकालती और न यार बनाती (19)
जब वो कै़द में आजाएं (20)
फिर बुरा काम करें तो उनपर उसकी सज़ा आधी है जो आज़ाद औरतों पर है  (21)
यह (22)
उसके लिये जिसे तुम में से ज़िना  (व्यभिचार) का डर है और सब्र करना तुम्हारे लिये बेहतर है (23)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है(25)

तफसीर
सूरए निसा – चौथा रूकू

(1) और हर औरतें जिसकी तरफ़ बाप या माँ के ज़रिये से नसब पलटता हो, यानी दादियाँ व नानियाँ , चाहे क़रीब की हों या दूर की, सब माएं हैं  अपनी वालिदा के हुक्म में दाख़िल हैं.

(2) पोतियाँ नवासियाँ किसी दर्जे की हों, बेटियों में दाख़िल हैं.

(3) ये सब सगी हों या सौतेली. इनके बाद उन औरतों का बयान किया जाता है जो सबब से हराम हैं.

(4) दूध के रिश्ते, दूध पीने को मुद्दत में थोड़ा दूध पिया जाय या बहुत सा, उसके साथ हुरमत जुड़ जाती है. दूध पीने की मुद्दत हज़रत इमाम अबू हनीफ़ रदियल्लाहो अन्हो के नज़दीक दो साल है. दूध पीने की मुद्दत के बाद जो दूध पिया जाए उससे हुरमत नहीं जुड़ती. अल्लाह तआला ने रिज़ाअत (दूध पीने) को नसब की जगह किया है और दूध पिलाने वाली को दूध पीने वाले बच्चे की माँ और उसकी लड़की को बच्चे की बहन फ़रमाया. इसी तरह दूध पिलाई का शौहर दूध पीने वाले बच्चे का बाप और उसका बाप बच्चे का दादा और उसकी बहन उसकी फुफी और उसका हर बच्चा जो दूध पिलाई के सिवा और किसी औरत से भी हो, चाहे वह दूध पीने से पहले पैदा हुआ या उसके बाद, वो सब उसके सौतेले भाई बहन हैं. और दूध पिलाई की माँ दूध पीने वाले बच्चे की नानी और उसकी बहन उसकी ख़ाला और उस शौहर से उसके जो बच्चे पैदा हो वो दूध पीने वाले बच्चे के दूध शरीक भाई बहन, और उस शौहर के अलावा दूसरे शौहर से जो हों वह उसके सौतेले भाई बहन, इसमें अस्ल यह हदीस है कि दूध पीने से वो रिश्ते हराम हो जाते हैं जो नसब से हराम हैं. इसलिये दूध पीने वाले बच्चे पर उसके दूध माँ बाप और उनके नसबी और रिज़ाई उसूल व फ़रोअ सब हराम हैं.

(5) बीवियों की माएं, बीवियों की बेटियाँ और बेटो की बीवियाँ बीवियों की माएं सिर्फ़ निकाह का बन्धन होते ही हराम हो जाती हैं चाहें उन बीवियों से सोहबत या हमबिस्तरी हुई हो या नहीं.

(6) गोद में होना ग़ालिबे हाल का बयान है, हुरमत के लिये शर्त नहीं.

(7) उनकी माओ से तलाक़ या मौत वग़ैरह के ज़रीये से, सोहबत से पहले जुदाई होने की सूरत में उनके साथ निकाह जायज़ है.

(8) इससे लेपालक निकल गए. उनकी औरतों के साथ निकाह जायज़ है. और दूध बेटे की बीबी भी हराम है क्योंकि वह सगे के हुक्म् में है. और पोते परपोते बेटों में दाख़िल हैं.

(9) यह भी हराम है चाहे दोनों बहनों को निकाह में जमा किया जाए या मिल्के यमीन के ज़रिये से वती में. और हदीस शरीफ़ में फुफी भतीजी और ख़ाला भांजी का निकाह में जमा करना भी हराम फ़रमाया गया. और क़ानून यह है कि निकाह में हर ऐसी दो औरतों का जमा करना हराम है जिससे हर एक को मर्द फ़र्ज़ करने से दूसरी उसके लिये हलाल न हो, जैसे कि फुफी भतीजी, कि अगर फुफी को मर्द समझा जाए तो चचा हुआ, भतीजी उस पर हराम है और अगर भतीजी को मर्द समझा जाए तो भतीजा हुआ, फुफी उस पर हराम है, हुरमत दोनों तरफ़ है. और अगर सिर्फ़ एक तरफ़ से हो तो जमा हराम न होगी जैसे कि औरत और उसके शौहर की लड़की को मर्द समझा जाए तो उसके लिये बाप की बीबी तो हराम रहती है मगर दूसरी तरफ़ से यह बात नहीं है यानी शौहर की बीबी कि अगर मर्द समझा जाए तो यह अजनबी होगा और कोई रिश्ता ही न रहेगा.

(10) गिरफ़्तार होकर बग़ैर अपने शौहरों के, वो तुम्हारे लिये इस्तबरा (छुटकारा हो जाने) के बाद हलाल हैं, अगरचें दारूल हर्ब में उनके शौहर मौजूद हों क्योंकि तबायने दारैन (अलग अलग सुकूनत) की वजह से उनकी शौहरों से फुर्क़त हो चुकी. हज़रत अबू सइर्द ख़ुदरी रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया हमने एक रोज़ बहुत सी क़ैदी औरतें पाई जिनके शौहर दारूल हर्ब में मौजूद थे, तो हमने उनसे क़ुर्बत में विलम्ब किया और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से मसअला पूछा. इस पर यह आयत उतरी.

(11) वो मेहरम औरतें जिनका ऊपर बयान किया गया.

(12) निकाह से या मिल्के यमीन से. इस आयत से कई मसअले साबित हुए. निकाह में मेहर ज़रूरी है और मेहर निशिचत न किया हो, जब भी वाज़िब होता है. मेहर माल ही होता है न कि ख़िदमत और तालीम वग़ैरह जो चीज़ें माल नहीं हैं, इतना क़लील जिसको माल न कहा जाए, मेहर होने की सलाहियत नहीं रखता. हज़रत जाबिर और हज़रत अली मुरतज़ा रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि मेहर की कम मिक़दार दस दरहम है, इससे कम नहीं हो सकता.

(13) इससे हरामकारी मुराद है और यहाँ चेतावनी है कि ज़िना करने वाला सिर्फ़ अपनी वासना की पूर्ति करता है और मस्ती निकालता है और उसका काम सही लक्ष्य और अच्छे उदेश्य से ख़ाली होता है, न औलाद हासिल करना, न नस्ल, न नसब मेहफ़ूज़ रखना, न अपने नफ़्स को हराम से बचाना, इनमें से कोई बात उसके सामने नहीं होती, वह अपने नुत्फ़े और माल को नष्ट करके दीन और दुनिया के घाटे में गिरफ़्तार होता है.

(14) चाहे औरत निश्चित मेहर से कम कर दे या बिल्कुल बख़्श दे या मर्द मेहर की मात्रा और ज़्यादा कर दें.

(15) यानी मुसलमानों की ईमानदार दासियाँ, क्योंकि निकाह अपनी दासी से नहीं होता : वह निकाह के बिना ही मालिक के लिये हलाल है. मतलब यह है कि जो शख़्स ईमान वाली आज़ाद औरत से निकाह की क्षमता और ताक़त न रखता हो वह ईमानदार दासी से निकाह करे, यह बात शर्माने की नहीं. जो शख़्स आज़ाद औरत से निकाह की क्षमता रखता हो उसको भी मुसलमान बांदी से निकाह करना जायज़ है. यह मसअला इस आयत में तो नहीं है, मगर ऊपर की आयत ” व उहिल्ला लकुम मा वराआ ज़ालिकुम” से साबित है. ऐसे ही किताब वाली दासी से भी निकाह जायज़ है और मूमिना यानी ईमान वाली के साथ अफ़ज़ल व मुस्तहब है. जैसा कि इस आयत से साबित हुआ.

(16) यह कोई शर्म की बात नहीं. फ़ज़ीलत ईमान से है. इसी को काफ़ी समझो.

(17) इससे मालूम हुआ कि दासी को अपने मालिक की आज्ञा के बिना निकाह का हक़ नहीं, इसी तरह ग़ुलाम को.

(18) अगरचे मालिक उनके मेहर के मालिक हैं लेकिन दासियों को देना मालिक ही को देना है क्योंकि ख़ुद वो और जो कुछ उनके क़ब्ज़े में हो, सब मालिक का है. या ये मानी हैं कि उनके मालिकों की इजाज़त से उन्हें मेहर दो.

(19) यानी खुले छुपे किसी तरह बदकारी नहीं करतीं.

(20) और शौहर-दार हो जाएं.

(21) जो शौहरदार न हों, यानी पचास कोड़े, क्योंकि आज़ाद के लिये सौ कोड़े हैं और दासियों को संगसार नहीं किया जाता.

(22) दासी से निकाह करना.

(23) दासी के साथ निकाह करने से, क्योंकि इससे ग़ुलाम औलाद पैदा होगी.

सूरए निसा – पाँचवा रूकू

सूरए निसा – पाँचवा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला


अल्लाह चाहता है कि अपने आदेश तुम्हारे लिये बयान करदे और तुम्हें अगलों के तरीक़े बतादे (1)
और तुमपर अपनी रहमत से रूज़ू (तवज्जूह) फ़रमाए और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है (26) और अल्लाह तुमपर अपनी रहमत से रूजू फ़रमाना चाहता है और जो अपने मज़ों के पीछे पड़े है वो चाहते है कि तुम सीधी राह से बहुत अलग हो जाओ  (2)(27)
अल्लाह चाहता है कि तुमपर तख़फ़ीफ़ (कमी) करे(3)
और आदमी कमज़ोर बनाया गया(4)(28)
ऐ ईमान वालों, आपस में एक दूसरे के माल नाहक़ ना खाओ  (5)
मगर यह कि कोई सौदा तुम्हारी आपसी रज़ामन्दी का हो (6)
और अपनी जानें क़त्ल न करो (7)
बेशक अल्लाह तुम पर मेहरबान है (29) और जो ज़ुल्म व ज़्यादती से ऐसा करेगा तो जल्द ही हम उसे आग में दाख़िल करेंगे और यह अल्लाह को आसान है(30) अगर बचते रहो बड़े गुनाहों से जिनकी तुम्हें मनाई है (8)
तो तुम्हारे और गुनाह (9)
हम बख़्श देंगे और तुम्हें इज़्ज़त की जगह दाख़िल करेंगे (31)
और उसकी आरज़ू न करो जिससे अल्लाह ने तुम में एक को दूसरे पर बड़ाई दी(10)
मर्दों के लिये उनकी कमाई से हिस्सा है और औरतों के लिये उनकी कमाई से हिस्सा (11)
और अल्लाह से उसका फ़ज़्ल (कृपा) मांगो बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है (32)
और हमने सबके लिये माल के मुस्तहक़ (हक़दार) बना दिये है जो कुछ छोड़ जाएं  मां बाप और क़रावत वाले (रिश्तेदार) और वो जिनसे तुम्हारा हलफ़ बंध चुका (12)
उन्हें उनका हिस्सा दो बेशक हर चीज़ अल्लाह के सामने है (33)

तफसीर
सूरए निसा – पाँचवां रूकू

(1) नबियों और नेक बन्दों की.

(2) और हराम में लगकर उन्हीं की तरफ़ हो जाओ.

(3) और अपने फ़ज़्ल व मेहरबानी से अहकाम आसान करे.

(4) उसको औरतों से और वासना से सब्र दुशवार है. हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, औरतों में भलाई नहीं और उनकी तरफ़ से सब्र भी नहीं हो सकता. नेकों पर वो ग़ालिब आती हैं, बुरे उन पर ग़ालिब आ जाते हैं.

(5) चोरी, ग़बन, ख़ुर्द बुर्द और नाजायज़ तौर से क़ब्ज़ा कर लेना, जुआ, सूद जितने हराम तरीक़े हैं सब नाहक़ हैं, सब की मनाही है.

(6) वह तुम्हारे लिये हलाल है.

(7) ऐसे काम इख़्तियार करके जो दुनिया या आख़िरत में हलाकत का कारण हों, इसमें मुसलमानों का क़त्ल करना भी आ गया है और मूमिन का क़त्ल ख़ुद अपना ही क़त्ल है, क्योंकि तमाम ईमान वाले एक जान की तरह हैं. इस आयत से ख़ुदकुशी यानी आत्महत्या की अवैधता भी साबित हुई. और नफ़्स का अनुकरण करके हराम में पड़ जाना भी अपने आपको हलाक करना है.

(8) और जिन पर फटकार उतरी यानी अज़ाब का वादा दिया गया मिस्ल क़त्ल, ज़िना, चोरी वग़ैरह के.

(9) छोटे गुनाह. कुफ़्र और शिर्क तो न बख़्शा जाएगा अगर आदमी उसी पर मरा (अल्लाह की पनाह). बाक़ी सारे गुनाह, छोटे हों या बड़े, अल्लाह की मर्ज़ी में हैं, चाहे उन पर अज़ाब करे, चाहे माफ़ फ़रमाए.

(10) चाहे दुनिया के नाते से या दीन के, कि आपस में ईर्ष्या, हसद और दुश्मनी न पैदा हो. ईर्ष्या यानी हसद अत्यन्त बुरी चीज़ है. हसद वाला दूसरे को अच्छे हाल में देखता है तो अपने लिये उसकी इच्छा करता है और साथ में यह भी चाहता है कि उसका भाई उस नेअमत से मेहरूम हो जाए. यह मना है. बन्दे को चाहिये कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उसे जो दिया गया है, उस पर राज़ी रहे. उसने जिस बन्दे को जो बुज़ुर्गी दी, चाहे दौलत और माल की, या दीन में ऊंचे दर्जे, यह उसकी हिकमत है. जब मीरास की आयत में ” लिज़्ज़करे मिस्लो हज़्ज़िल उनसयेन” उतरा और मरने वाले के तर्के में मर्द का हिस्सा औरत से दूना मुक़र्रर किया गया, तो मर्दों ने कहा कि हमें उम्मीद है कि आख़िरत में नेकियों का सवाब भी हमें औरतों से दुगना मिलेगा और औरतों ने कहा कि हमें उम्मीद है कि गुनाह का अज़ाब हमें मर्दों से आधा होगा. इस पर यह आयत उतरी और इसमें बताया गया कि अल्लाह तआला ने जिसको जो फ़ज़्ल दिया वह उसकी हिकमत है.

(11) हर एक को उसके कर्मों का बदला. उम्मुल मूमिनीन हज़रत उम्मे सलमा रदियल्लाहो अन्हा ने फ़रमाया कि हम भी अगर मर्द होते तो जिहाद करते और मर्दों की तरह जान क़ुर्बान करने का महान सवाब पाते. इस पर यह आयत उतरी और उन्हें तसल्ली दी गई कि मर्द जिहाद से सवाब हासिल कर सकते हैं तो औरतें शौहरों की फ़रमाँबरदारी और अपनी पवित्रता की हिफ़ाज़त करके सवाब हासिल कर सकती हैं.

(12) इससे अक़्दे मवालात मुराद है. इसकी सूरत यह है कि कोई मजहूलुन नसब शख़्स दूसरे से यह कहे कि तू मेरा मौला है, मैं मर जाऊं तो मेरा वारिस होगा और मैं कोई जिनायत करूँ तो तुझे दय्यत देनी होगी. दूसरा कहे मैंने क़ुबूल किया. उस सूरत में यह अक़्द सहीह हो जाता है और क़ुबूल करने वाला वारिस बन जाता है और दय्यत भी उस पर आ जाती है और दूसरा भी उसी की तरह से मजहूलुन नसब हो और ऐसा ही कहे और यह भी क़ुबूल कर ले तो उनमें से हर एक दूसरे का वारिस और उसकी दय्यत का ज़िम्मेदार होगा. यह अक़्द साबित है. सहाबा रदियल्लाहो अन्हुम इसके क़ायल हैं.

सूरए निसा – छटा रूकू

सूरए निसा – छटा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
मर्द अफ़सर हैं औरतों पर (1)
इसलिये कि अल्लाह ने उनमें एक को दूसरे पर बड़ाई दी  (2)
और इसलिये कि मर्दों ने उनपर अपने माल ख़र्च किये (3)
तो नेकबख़्त (ख़ुशनसीब) औरतें अदब वालियां हैं ख़ाविन्द (शौहर) के पीछे हिफ़ाज़त रखती हैं (4)
जिस तरह अल्लाह ने हिफ़ाज़त का हुक्म दिया और जिन औरतों की नाफ़रमानी का तुम्हें डर हो (5)
तो उन्हें समझाओ और उनसे अलग सोओ और उन्हें मारो(6)
फिर अगर वो तुम्हारे हुक्म में आजाएं तो उनपर ज़ियादती की कोई राह न चाहो बेशक अल्लाह बलन्द बड़ा है (7) (34) 
और अगर तुमको मियां बीबी के झगड़े का डर हो(8)
तो एक पंच मर्द वालों की तरफ़ से भेजो और एक पंच औरत वालों की तरफ़ से  (9)
ये दोनो अगर सुलह करना चाहे तो अल्लाह उनमें मेल कर देगा बेशक अल्लाह जानने वाला ख़बरदार है  (10) (35)
और अल्लाह की बन्दगी करो और उसका शरीक किसी को न ठहराओ (11)
और मां बाप से भलाई करो(12)
और रिश्तेदारों (13)
और यतीमों और मोहताजों (14)
और पास के पड़ोसी और दूर के पड़ोसी (15)
और करवट के साथी (16)
और राहगीर(17)
और अपनी बांदी (दासी) ग़ुलाम से(18)
बेशक अल्लाह को ख़ुश नहीं आता कोई इतराने वाला बड़ाई मारने वाला (19)(36)
जो आप कंजूसी करें और औरों से कंजूसी के लिये कहें (20)
और अल्लाह ने जो अपने फ़ज़्ल से दिया है उसे छुपाएं (21)
और काफ़िरों के लिये हमने ज़िल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है (37) और वो जो अपने माल लोगों के दिखावे को ख़र्च करते

हैं (22)
और ईमान नहीं लाते अल्लाह  और न क़यामत पर और जिसका साथी शैतान हुआ (23)
तो कितना बुरा साथी है (38) और उनका क्या नुक़सान था अगर ईमान लाते अल्लाह और क़यामत पर  और अल्लाह के दिये में से उसकी राह में ख़र्च करते (24)
और अल्लाह उनको जानता है (39) अल्लाह एक ज़र्रा भर ज़ुल्म नहीं फ़रमाता और अगर कोई नेकी हो तो उसे दूनी करता औरअपने पास से बड़ा सवाब देता है (40) तो कैसी होगी जब हम हर उम्मत से एक गवाह लाएं (25)
और ऐ मेहबूब, तुम्हें उनसब पर गवाह और निगहबान बनाकर लाएं (26)(41)
उस दिन तमन्ना करेंगे वो जिन्होने कुफ़्र किया और रसूल की नाफ़रमानी की काश उन्हें मिट्टी में दबाकर ज़मीन बराबर करदी जाए और कोई बात अल्लाह से न छुपा सकेंगे (27)(42)

तफसीर
सूरए निसा – छटा रूकू

(1) तो औरतों को उनकी इताअत लाज़िम है और मर्दों को हक़ है कि वो औरतों पर रिआया की तरह हुक्मरानी करें. हज़रत सअद बिन रबीअ ने अपनी बीबी हबीबा को किसी ख़ता पर एक थप्पड़ मारा. उनके वालिद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में ले गए और उनके शौहर की शिकायत की. इस बारे में यह आयत उतरी.

(2) यानी मर्दों को औरतों पर अक़्ल और सूझबूझ और जिहाद व नबुव्वत, ख़िलाफ़त, इमामत, अज़ान, ख़ुत्बा, जमाअत, जुमुआ, तकबीर, तशरीक़ और हद व क़िसास की शहादत के, और विरासत में दूने हिस्से और निकाह व तलाक़ के मालिक होने और नसबों के उनकी तरफ़ जोड़े जाने और नमाज़ रोज़े के पूरे तौर पर क़ाबिल होने के साथ, कि उनके लिये कोई  ज़माना ऐसा नहीं है कि नमाज़ रोजे़ के क़ाबिल न हों, और दाढ़ियों और अमामों के साथ फ़ज़ीलत दी.

(3) इस आयत से मालूम हुआ कि औरतों की आजीविका मर्दों पर वाजिब है.

(4) अपनी पवित्रता और शौहरों के घर, माल और उनके राज़ों की.

(5) उन्हें शौहर की नाफ़रमानी और उसकी फ़रमाँबरदारी न करने और उसके अधिकारों का लिहाज़ न रखने के नतीजे समझओ, जो दुनिया और आख़िरत में पेश आते हैं और अल्लाह के अज़ाब का ख़ौफ़ दिलाओ और बताओ कि हमारा तुम पर शरई हक़ है. और हमारी आज्ञा का पालन तुम पर फ़र्ज़ है. अगर इस पर भी न मानें…..

(6) हल्की मार.

(7) और तुम गुनाह करते हो फिर भी वह तुम्हारी तौबह कुबूल फ़रमा लेता है. तो तुम्हारे हाथ के नीचे की औरतें अगर ग़लती करने के बाद माफ़ी चाहें तो तुम्हें ज़्यादा मेहरबानी से माफ़ करना चाहिये और अल्लाह की क़ुदरत और बरतरी का लिहाज़ रखकर ज़ुल्म से दूर रहना चाहिये.

(8) और तुम देखो कि समझाना, अलग सोना, मारना कुछ भी कारामद न हो और दोनों के मतभेद दूर न हुए.

(9) क्योंकि क़रीब के लोग अपने रिश्तेदारों के घरेलू हालात से परिचित होते हैं और मियाँ बीबी के बीच मिलाप की इच्छा भी रखते हैं और दोनों पक्षों को उनपर भरोसा और इत्मीनान भी होता है और उनसे अपने दिल की बात कहने में हिचकिचाहट भी नहीं होती है.

(10) जानता है कि मियाँ बीवी में ज़ालिम कौन है. पंचों को मियाँ बीवी में जुदाई कर देने का इख़्तियार नहीं.

(11) न जानदार को न बेजान को, न उसके रब होने में, न उसकी इबादत में.

(12) अदब और आदर के साथ और उनकी ख़िदमत में सदा चौकस रहना और उन पर ख़र्च करने में कमी न करना. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने तीन बार फ़रमाया, उसकी नाक ख़ाक में लिपटे. हज़रत अबू हुरैरा ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह किसकी ? फ़रमाया, जिसने बूढ़े माँ बाप पाए या उनमें से एक को पाया और जन्नती न हो गया.

(13) हदीस शरीफ़ में है, रिश्तेदारों के साथ अच्छा सुलूक करने वालों की उम्र लम्बी और रिज़्क़ वसीअ होता है. (बुख़ारी व मुस्लिम)

(14) हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, मैं और यतीम की सरपरस्ती करने वाला ऐसे क़रीब होंगे जैसे कलिमे और बीच की उंगली (बुख़ारी शरीफ़). एक और हदीस में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, बेवा और मिस्कीन की इमदाद और ख़बरदारी करने वाला अल्लाह के रास्तें में जिहाद करने वाले की तरह है.

(15) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि जिब्रील मुझे हमेशा पड़ोसियों के साथ एहसान करने की ताकीद करते रहे, इस हद तक कि गुमान होता था कि उनको वारिस क़रार दे दें.

(16) यानी बीबी या जो सोहबत में रहे या सफ़र का साथी हो या साथ पढ़े या मजलिस और मस्जिद में बराबर बैठे.

(17) और मुसाफ़िर व मेहमान. हदीस में है, जो अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान रखे उसे चाहिये कि मेहमान की इज़्ज़त करे. (बुख़ारी व मुस्लिम)

(18) कि उन्हें उनकी ताक़त से ज़्यादा तकलीफ़ न दो और बुरा भला न कहो और खाना कपड़ा उनकी ज़रूरत के अनुसार दो. हदीस में है, रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जन्नत में बुरा व्यवहार करने वाला दाख़िल न होगा. (तिरमिज़ी)

(19) अपनी बड़ाई चाहने वाला घमण्डी, जो रिश्तेदारों और पड़ोसियों को ज़लील समझे.

(20) बुख़्ल यानी कंजूसी यह है कि ख़ुद खाए, दूसरे को न दे. “शेह” यह है कि न खाए न खिलाए. “सख़ा” यह है कि ख़ुद भी खाए दूसरों को भी खिलाए. “जूद” यह है कि आप न खाए दूसरे को खिलाए. यह आयत यहूदियों के बारे में उतरी जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ बयान करने में कंजूसी करते और आपके गुण छुपाते थे. इस से मालूम हुआ कि इल्म को छुपाना बुरी बात है.

(21) हदीस शरीफ़ में है कि अल्लाह को पसन्द है कि बन्दे पर उसकी नेअमत ज़ाहिर हो. अल्लाह की नेअमत का इज़हार ख़ूलूस के साथ हो तो यह भी शुक्र है और इसलिये आदमी को अपनी हैसियत के लायक़ जायज़ लिबासों में बेहतर लिबास पहनना मुस्तहब है.

(22) बुख़्ल यानी कंजूसी के बाद फ़ुज़ूल ख़र्ची की बुराई बयान फ़रमाई. कि जो लोग केवल दिखावे के लिये या नाम कमाने के लिये ख़र्च करते हैं और अल्लाह की ख़ुशी हासिल करना उनका लक्ष्य नहीं होता, जैसे कि मुश्रिक और मुनाफ़िक़, ये भी उन्हीं के हुक्म में हैं जिन का हुक्म ऊपर गुज़र गया.

(23) दुनिया और आख़िरत में, दुनिया में तो इस तरह कि वह शैतानी काम करके उसको ख़ुश करता रहा और आख़िरत में इस तरह कि हर काफ़िर एक शैतान के साथ आग की ज़ंजीर में जकड़ा होगा. (ख़ाज़िन)
(24) इसमें सरासर उनका नफ़ा ही था.

(25) उस नबी को, और वह अपनी उम्मत के ईमान और कुफ़्र पर गवाही दें क्योंकि नबी अपनी उम्मतों के कामों से बा-ख़बर होते हैं.

(26) कि तुम नबियों के सरदार हो और सारा जगत तुम्हारी उम्मत.

(27) क्योंकि जब वो अपनी ग़लती का इन्कार करेंगे और क़सम खाकर कहेंगे कि हम मुश्रिक न थे और हमने ख़ता न की थी तो उनके मुंहों पर मुहर लगा दी जाएगी और उनके शरीर के अंगों को ज़बान दी जाएगी, वो उनके ख़िलाफ़ गवाही देंगे.

सूरए निसा – सातवाँ रूकू

सूरए निसा – सातवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ ईमान वालो, नशे की हालत में नमाज़ के पास न जाओ (1)
जब तक इतना होश न हो कि जो कहो उसे समझो और न नापाकी की हालत में बे नहाए मगर मुसाफ़िरी में (2)
और अगर तुम बीमार हो (3)
या सफ़र में या तुम में से कोई क़ज़ाए हाजत (पेशाब पख़ाना) से आया  (4)
या तुमने औरतों को छुआ(5)
और पानी न पाया(6)
तो पाक मिट्टी से तयम्मुम करो (7)
तो अपने मुंह और हाथों का मसह (हाथ फेरना)  करो(8)
बेशक अल्लाह माफ़ करने वाला बख़्शने वाला है (43)
क्या तुमने उन्हें न देखा जिनको किताब से एक हिस्सा मिला (9)
गुमराही मोल लेते है(10)
और चाहते है (11)
तुम भी राह से बहक जाओ (44) और अल्लाह ख़ूब जानता है तुम्हारे दुश्मनों को  (12)
और अल्लाह काफ़ी है वाली (मालिक) (13)
और अल्लाह काफ़ी है मददगार (45) कुछ यहूदी कलामों की उनकी जगह से फेरते हैं (14)
और (15)
कहते है हमने सुना और न माना और (16)
सुनिये आप सुनाए न जाएं (17)
और राना कहते हैं (18)
ज़बाने फेर कर (19)
और दीन में तअने (लांछन) के लिये (20)
और अगर वो  (21)
कहते है कि हमने सुना और माना और हुज़ूर हमारी बात सुनें और हुज़ूर हमपर नज़र फ़रमाएं तो उनके लिये भलाई और रास्ती में
ज़्यादा होता लेकिन उनपर तो अल्लाह ने लानत की उनके कुफ्र की वजह से तो यक़ीन नहीं रखते मगर थोड़ा (22) (46)
ऐ किताब वालो ईमान लाओ उसपर जो हमने उतारा तुम्हारे साथ वाली किताब (23)
की पुष्टि फ़रमाता इससे पहले कि हम बिगाड़ें कुछ मुंहों को (24)
तो उन्हें फेर दे उनकी पीठ की तरफ़ या उन्हें लानत करें जैसी लानत की हफ़्ते वालों पर (25)
और ख़ुदा का हुक्म होकर रहे  (47) बेशक अल्लाह इसे नहीं बख़्शता कि उसके साथ कुफ्र किया जाए  और कुफ्र से नीचे जो कुछ है जिसे चाहे माफ़ फ़रमा देता है (26)
और जिसने ख़ुदा का शरीक ठहराया उसने बड़ा गुनाह का तूफ़ान बांधा (48) क्या तुमने उन्हें न देखा जो ख़ुद अपनी सुथराई बयान करते हैं (27)
कि अल्लाह जिसे चाहे सुथरा करे और उनपर ज़ुल्म न होगा ख़ुर्में के दाने के डोरे बराबर (28)(49)
देखो कैसा अल्लाह पर झूठ बांध रहे हैं (29) और यह काफ़ी है खुल्लम खुल्ला गुनाह (50)

तफसीर
सूरए निसा – सातवाँ रूकू

(1) हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ ने सहाबा की एक जमाअत की दावत की. उसमें खाने के बाद शराब पेश की गई. कुछ ने पी, क्योंकि उस वक़्त तक शराब हराम न हुई थी. फिर मग़रिब की नमाज़ पढ़ी. इमाम नशे में “क़ुल या अय्युहल काफ़िरूना अअबुदो मा तअबुदूना व अन्तुम आबिदूना मा अअबुद” पढ़ गए और दोनों जगह “ला” (नहीं) छोड़ गए और नशे में ख़बर न हुई. और आयत का मतलब ग़लत हो गया. इस पर यह आयत उतरी और नशे की हालत में नमाज़ पढ़ने से मना फ़रमा दिया गया. तो मुसलमानों ने नमाज़ के वक़्तों में शराब छोड़ दी. इसके बाद शराब बिल्कुल हराम कर दी गई. इस से साबित हुआ कि आदमी नशे की हालत में कुफ़्र का कलिमा ज़बान पर लाने से काफ़िर नहीं होता. इसलिये कि “क़ुल या अय्युहल काफ़िरूना” में दोनों जगह “ला” का छोड़ देना कुफ़्र है, लेकिन उस हालत में हुज़ूर ने उस पर कुफ़्र का हुक्म न फ़रमाया बल्कि क़ुरआने पाक में उनको “या अय्युहल लज़ीना आमनू” (ऐ ईमान वालों) से ख़िताब फ़रमाया गया.

(2) जबकि पानी न पाओ, तयम्मुम कर लो.

(3) और पानी का इस्तेमाल ज़रूर करता हो.

(4) यह किनाया है बे वुज़ू होने से.

(5) यानी हमबिस्तरी की.

(6) इसके इस्तेमाल पर क़ादिर न होने, चाहे पानी मौजूद न होने के कारण या दूर होने की वजह से या उसके हासिल करने का साधन न होने के कारण या साँप, ख़तरनाक जंगली जानवर, दुश्मन वग़ैरह कोई रूकावट होने के कारण.

(7) यह हुक्म मरीज़ों, मुसाफ़िरों, जनाबत और हदस वालों को शामिल है, जो पानी न पाएं या उसके इस्तेमाल से मजबूर हों (मदारिक). माहवारी, हैज़ व निफ़ास से पाकी के लिये भी पानी से मजबूर होने की सूरत में तयम्मुम जायज़ है, जैसा कि हदीस शरीफ़ में आया है.

(8) तयम्मुम का तरीक़ा :- तयम्मुम करने वाला दिल से पाकी हासिल करने की नियत करे. तयम्मुम में नियत शर्त है क्योंकि अल्लाह का हुक्म आया है. जो चीज़ मिट्टी की जिन्स से हो जैसे धूल, रेत, पत्थर, उन सब पर तयम्मुम जायज़ है. चाहे पत्थर पर धूल भी न हो लेकिन पाक होना इन चीज़ों में शर्त है. तयम्मुम में दो ज़र्बें हैं, एक बार हाथ मार कर चेहरे पर फेर लें, दूसरी बार हाथों पर. पानी के साथ पाक अस्ल है और तयम्मुम पानी से मजबूर होने की हालत में उसकी जगह लेता
है. जिस तरह हदस पानी से ज़ायल होता है, उसी तरह तयम्मुम से. यहाँ तक कि एक तयम्मुम से बहुत से फ़र्ज़ और नफ़्ल पढ़े जा सकते हैं. तयम्मुम करने वाले के पीछे ग़ुस्ल और वुज़ू वाले की नमाज़ सही है. ग़ज़वए बनी मुस्तलक़ में जब इस्लामी लश्कर रात को एक वीराने में उतरा जहाँ पानी न था और सुबह वहाँ से कूच करने का इरादा था, वहाँ उम्मुल मूमिनीन हज़रत आयशा रदियल्लाहो अन्हा का हार खो गया. उसकी तलाश के लिये सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने वहाँ क़याम फ़रमाया. सुबह हुई तो पानी न था. अल्लाह तआला ने तयम्मुम की आयत उतारी. उसैद बिन हदीर रदियल्लाहो अन्हो ने कहा कि ऐ आले अबूबक्र, यह तुम्हारी पहली ही बरकत नहीं है, यानी तुम्हारी बरकत से मुसलमानों को बहुत आसानियाँ हुई और बहुत से फ़ायदे पहुंचे. फिर ऊंट उठाया गया तो उसके नीचे हार मिला. हार खो जाने और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के
न बताने में बहुत हिकमत हैं. हज़रत सिद्दीक़ा के हार की वजह से क़याम उनकी बुज़ुर्गी और महानता ज़ाहिर करता है. सहाबा का तलाश में लग जाना, इसमें हिदायत है कि हुज़ूर की बीबियों की ख़िदमत ईमान वालों की ख़ुशनसीबी है, और फिर तयम्मुम का हुक्म होना, मालूम होता है कि हुज़ूर की पाक बीबियों की ख़िदमत का ऐसा इनआम है, जिससे क़यामत तक मुसलमान फ़ायदा उठाते रहेंगे. सुब्हानल्लाह !

(9) वह यह कि तौरात से उन्होंने सिर्फ़ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की नबुव्वत को पहचाना और उसमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का जो बयान था उस हिस्से से मेहरूम रहे और आपके नबी होने का इन्कार कर बैठै. यह आयत रिफ़ाआ बिन ज़ैद और मालिक बिन दख़्श्म यहूदियों के बारे में उतरी. ये दोनों जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से बात करते तो ज़बान टेढ़ी करके बोलते.

(10) हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत का इन्कार करके.

(11) ऐ मुसलमानों !

(12) और उसने तुम्हें भी उनकी दुश्मनी पर ख़बरदार कर दिया तो चाहिये कि उनसे बचते रहो.

(13) और जिसके काम बनाने वाला अल्लाह हो उसे क्या डर.

(14) जो तौरात शरीफ़ में अल्लाह तआला ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नात में फ़रमाए.

(15) जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उन्हें कुछ हुक्म फ़रमाते हैं तो.

(16) कहते हैं.

(17) यह कलिमा दो पहलू रखता है. एक पहलू तो यह कि कोई नागवार बात आपको सुनने में न आए और दूसरा पहलू यह कि आपको सुनना नसीब न हो.
(18) इसके बावुजूद कि इस कलिमे के साथ सम्बोधन करने को मना किया गया है क्योंकि उनकी ज़बान में ख़राब मानी रखता है.

(19) हक़ यानी सच्चाई से बातिल यानी बुराई की तरफ़

(20) कि वो अपने दोस्तों से कहते थे कि हम हुज़ूर की बुराई करते हैं. अगर आप नबी होते तो आप इसको जान लेते. अल्लाह तआला ने उनके दिल में छुपी कटुता और ख़बासत को ज़ाहिर फ़रमा दिया.

(21) इन कलिमात की जगह अदब और आदर करने वालों के तरीक़े पर.

(22) इतना कि अल्लाह ने उन्हें पैदा किया और रोज़ी दी और इतना काफ़ी नहीं जब तक कि ईमान वाली बातों को न मानें और सब की तस्दीक़ न करें.

(23) तौरात.

(24) आँख नाक कान पलकें वग़ैरह नक़्शा मिटा कर.

(25) इन दोनों बातों में से एक ज़रूर लाज़िम है. और लानत तो उन पर ऐसी पड़ी कि दुनिया उन्हें बुरा कहती है. यहाँ मुफ़स्सिरों के कुछ अलग अलग क़ौल हैं. कुछ इस फटकार का पड़ना दुनिया में बताते हैं, कुछ आख़िरत में. कुछ कहते है कि लानत हो चुकी और फटकार पड़ गई. कुछ कहते हैं कि अभी इन्तिज़ार है. कुछ का क़ौल है कि यह फटकार उस सूरत में थी जबकि यहूदियों में से कोई ईमान न लाता और चूंकि बहुत से यहूदी ईमान ले आए, इसलिये शर्त नहीं पाई गई और फटकार उठ गई. हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम जो यहूदी आलिमों के बड़ों में से हैं, उन्होंने मुल्के शाम से वापस आते हुए रास्ते में यह आयत सुनी और अपने घर पहुंचने से पहले इसलाम लाकर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह मैं नहीं ख़याल करता था कि मैं अपना मुंह पीठ की तरफ़ फिर जाने से पहले और चेहरे का नक़्शा मिट जाने से पहले आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो सकूंगा, यानी इस डर से उन्होंने ईमान लाने में जल्दी की क्योंकि तौरात शरीफ़ से उन्हें आपके सच्चे रसूल होने का यक़ीनी इल्म था, इसी डर से कअब अहबार जो यहूदियों में बड़ी बुज़ुर्गी रखते थे, हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो से यह आयत सुनकर मुसलमान हो गए.

(26) मानी यह हैं कि जो कुफ़्र पर मरे उसकी बख़्शिश नहीं. उसके लिये हमेशगी का अज़ाब है और जिसने कुफ़्र न किया हो, वह चाहे कितना ही बड़ा गुनाह करने वाला हो, और तौबह के बग़ैर मर जाए, तो उसका बदला अल्लाह की मर्ज़ी पर है, चाहे माफ़ फ़रमाए या उसके गुनाहों पर अज़ाब करे फिर अपनी रहमत से जन्नत में दाख़िल फ़रमाए. इस आयत में यहूदियों को ईमान की तरग़ीब है और इस पर भी प्रमाण है कि यहूदियों पर शरीअत के शब्दों में मुश्रिक शब्द लागू होना सही है.

(27) यह आयत यहूदियों और ईसाईयों के बारे में नाज़िल हुई जो अपने आपको अल्लाह का बेटा और उसका प्यारा बताते थे और कहते थे कि यहूदियों और ईसाईयों के सिवा कोई जन्नत में दाख़िल न होगा. इस आयत में बताया गया कि इन्सान का, दीनदारी, नेक काम, तक़वा और अल्लाह की बारगाह में क़ुर्ब और मक़बूलियत का दावेदार होना और मुंह से अपनी तारीफ़ करना काम नहीं आता.

(28) यानी बिल्कुल ज़ुल्म न होगा. वही सज़ा दी जाएगी जो उनका हक़ है.

(29) अपने आपको गुनाह और अल्लाह का प्यारा बताकर.

सूरए निसा _ आठवाँ रूकू

सूरए निसा _ आठवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
क्या तुमने वो न देखे जिन्हें किताब का एक हिस्सा मिला ईमान लाते हैं बुत और शैतान पर और काफ़िरों को कहते हैं कि ये
मुसलमानों से ज़्यादा राह पर हैं (51) ये हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की  और  जिसे ख़ुदा लानत करें तो कभी उसका कोई
यार न पाएगा (1) (52)
क्या मुल्क में उनका कुछ हिस्सा है (2)
ऐसा हो तो लोगों को तिल भर न दें (53) या लोगों से हसद (ईषर्या) करते हैं (3)
उस पर जो अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से दिया(4)
तो हमने तो इब्राहीम की औलाद को किताब  और हिकमत (बोध) अता फ़रमाई और उन्हें बड़ा मुल्क दिया (5)(54)
तो उनमें कोई उसपर ईमान लाया (6)
और किसी ने उससे मुंह फेरा (7)
और दोज़ख़ काफ़ी है भड़कती आग (8)(55)
जिन्होंने हमारी आयतों का इन्कार किया जल्द ही हम उनको आग में दाख़िल करेंगे जब कभी उनकी खालें पक जाएंगी हम उनके
सिवा और खालें उन्हें बदल देंगे कि अज़ाब का मज़ा लें बेशक अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है (56) और जो लोग ईमान लाए
और अच्छे काम किये जल्द ही हम उन्हें बाग़ों में ले जाएंगे जिनके नीचे नहरे बहें उन में हमशा रहेंगे, उनके लिये वहां सुथरी बीबीयां हैं (9)
और हम उन्हें वहां दाख़िल करेंगे जहां साया ही साया होगा (10)  (57)
बेशक अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें जिन की हैं उन्हें सुपुर्द करो (11)
और यह कि जब तुम लोगों में फैसला करो तो इन्साफ़ के साथ फैसला करो (12)
बेशक अल्लाह तुम्हें क्या ही ख़ूब नसीहत फ़रमाता है बेशक अल्लाह सुनता देखता है (58)
ऐ ईमान वालों हुक्म मानों अल्लाह का और हुक्म मानो रसूल का (13)
और उनका जो तुममें हुकूमत वाले हैं (14)
फिर अगर तुममें किसी बात का झगड़ा उठे तो उसे अल्लाह और रसूल के हुज़ूर रूजू (पेश) करो और अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखते हो (15)
यह बेहतर है और इसका अन्जाम सबसे अच्छा (59)

तफसीर
सूरए निसा – आठवाँ रूकू

(1) यह आयत कअब बिन अशरफ़ वग़ैरह यहूदी आलिमों के बारे में उतरी जो सत्तर सवारों की जमाअत लेकर क़ुरैश से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जंग करने पर हलफ़ लेने पहुंचे, क़ुरैश ने उनसे कहा कि चूंकि तुम किताब वाले हो इसलिये तुम मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के साथ ज़्यादा क़ुर्ब रखते हो, हम कैसे इत्मीनान करें कि तुम हमसे धोखे के साथ नहीं मिल रहे हो. अगर इत्मीनान दिलाना हो तो हमारें बुतों को सज्दा करो. तो उन्होंने शैतान की फ़रमाँबरदारी करके बुतों को सज्दा किया, फिर अबू सुफ़ियान ने कहा कि हम ठीक राह पर हैं या मुहम्मद ? कअब बिन अशरफ़ ने कहा, तुम्ही ठीक राह पर हो. इस पर यह आयत उतरी और अल्लाह तआला ने उन पर लानत फ़रमाई कि उन्होंने हुज़ूर की दुश्मनी में मुश्रिकों के बुतों तक को पूज लिया.

(2) यहूदी कहते थे कि हम सल्तनत और नबुव्वत के ज़्यादा हक़दार हैं तो हम कैसे अरबों का अनुकरण और फ़रमाँबरदारी करें. अल्लाह तआला ने उनके दावे को झुटला दिया कि उनका सल्तनत में हिस्सा ही क्या है. और मान लिया जाय कुछ होता भी, तो उनका बुख़्ल और कंजूसी इस दर्जें की है कि…..

(3) नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और ऐहले ईमान से.

(4) नबुव्वत और विजय और ग़लबा और सम्मान वग़ैरह नेअमतें.

(5) जैसा कि हज़रत यूसुफ़ और हज़रत दाऊद और हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम को, तो अगर अपने हबीब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर करम और मेहरबानी की तो उससे क्यों जलते और हसद करते हो.
(6) जैसा कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम और उनके साथ वाले सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाए.

(7) और ईमान से मेहरूम रहा.

(8) उसके लिये जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान ना लाए.

(9) जो हर निजासत, गन्दगी और नफ़रत के क़ाबिल चीज़ों से पाक हैं.

(10) यानी जन्नत का साया, जिसकी राहत, आसायश को न समझा जा सकता है, न ही बयान किया जा सकता है.

(11) अमानतें रखने वालों और हाकिमों को अमानतें ईमानदारी के साथ हक़दार को अदा करने और फ़ैसलों में इन्साफ़ करने का हुक्म दिया. मुफ़स्सिरों का कहना है कि फ़राइज़ भी अल्लाह तआला की अमानतें हैं, उनकी अदायगी का हुक्म भी इसमें दाख़िल है.

(12) पक्षों में से बिल्कुल किसी की रिआयत न हो. उलमा ने फ़रमाया कि हाकिम को चाहिये कि पांच बातों में पक्षों के साथ बराबर का सुलूक करे. (1) अपने पास आने में जैसे एक को मौक़ा दे दूसरे को भी दे. (2) बैठने की जगह दोनों को एक सी दे. (3) दोनों की तरफ़ बराबर ध्यान दें. (4) बात सुनने में हर एक के साथ एक ही तरीक़ा रखे. (5) फ़ैसला देने में हक़ की रिआयत करे, जिसका दूसरे पर अधिकार हो पूरा दिलाए. हदीस शरीफ़ में है, इन्साफ़ करने वालों को अल्लाह के क़ुर्ब में नूरी मिम्बर अता होंगे. कुछ मुफ़स्सिरों ने इस आयत के उतरने की परिस्थितियों में इस घटना का ज़िक्र किया है कि मक्का की वज़य के वक़्त सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसमान बिन तलहा. काबे के ख़ादिम से काबे की चाबी ले ली. फिर जब यह आयत उतरी तो आपने वह चाबी उन्हें वापस दी और फ़रमाया कि अब यह चाबी हमेशा तुम्हारी नस्ल में रहेगी. इस पर उसमान बिन तलहा हजबी इस्लाम लाए. अगरचे यह घटना थोड़ी थोड़ी तबदीलियों के साथ बहुत से मुहद्दिसों ने बयान की है मगर हदीसों पर नज़र करने से यह सही मालूम नहीं होती. क्योंकि इब्ने अब्दुल्लाह और इब्ने मुन्दा और इब्ने असीर
की रिवायतों से मालूम होता है कि उसमान बिन तलहा आठ हिजरी मे मदीनए तैय्यिबह हाज़िर होकर इस्लाम ला चुके थे और उन्होंने फ़त्हे मक्का के रोज़ चाबी अपनी ख़ुशी से पेश की थी. बुख़ारी और मुस्लिम की हदीसों से यही निष्कर्ष निकलता है.

(13) कि रसूल की फ़रमाँबरदारी अल्लाह ही की फ़रमाँबरदारी है. बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, जिसने मेरी फ़रमाँबरदारी की उसने अल्लाह की फ़रमाँबरदारी की और जिसने मेरी नाफ़रमानी की, उसने अल्लाह की नाफ़रमानी की.

(14) इसी हदीस में हुज़ूर फ़रमाते हैं, जिसने सरदार की फ़रमाँबरदारी की उसने मेरी फ़रमाँबरदारी की. जिसने सरदार की नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की. इस आयत से साबित हुआ कि मुसलमान सरदारों और हाकिमों की आज्ञा का पालन वाजिब है जब तक वो हक़ के अनुसार रहें और अगर हक़ के ख़िलाफ़ हुक्म करें, तो उनकी फ़रमाँबरदारी नहीं.
(15) इस आयत से मालूम हुआ कि अहकाम तीन क़िस्म के हैं, एक वो जो ज़ाहिरे किताब यानी क़ुरआन से साबित हो, एक वो जो ज़ाहिरे हदीस से, एक वो जो क़ुरआन और हदीस की तरफ़ क़यास के तौर पर रूजू करने से. “उलिल अम्र” (जो हुकूमत करते हैं) में इमाम, अमीर, बादशाह, हाकिम, क़ाज़ी सब दाख़िल हैं. ख़िलाफ़ते कामिला तो ज़मानए रिसालत के बाद तीस साल रही, मगर ख़िलाफ़ते नाक़िसा अब्बासी ख़लीफ़ाओं में भी थी और अब तो इमामत भी नहीं पाई जाती. क्योंकि
इमाम के लिये क़ुरैश से होना शर्त है और यह बात अक्सर जगहों में ग़ायब है. लेकिन सुल्तान और इमारत बाक़ी है और चूंकि सुल्तान और अमीर भी उलुल अम्र में दाख़िल हैं इसलिये हमपर उनकी इताअत भी लाज़िम है.

सूरए निसा – नवाँ रूकू

सूरए निसा – नवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

क्या तुमने उन्हें न देखा जिनका दावा है कि वो ईमान लाए उसपर जो तुम्हारी तरफ़ उतरा और उसपर जो तुमसे पहले उतरा फिर चाहते हैं कि शैतान को अपना पंच बनाएं और उनको हुक्म यह था कि उसे बिल्कुल न मानें और इबलीस यह चाहता है कि उन्हें दूर बहका दे(1) (60)
और जब उनसे कहा जाए कि अल्लाह की उतारी हुई किताब और रसूल की तरफ़ आओ तो तुम देखोगे कि मुनाफ़िक़ (दोग़ले लोग) तुमसे मुंह मोड़ कर फिर जाते हैं  (61) कैसी होगी जब उनपर कोई उफ़ताद  (मुसीबत) पड़े(2)
बदला उसका जो उनके हाथों ने आगे भेजा (3)
फिर ऐ मेहबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों अल्लाह की क़सम खाते कि हमारा इरादा तो भलाई और  मेल ही था (4) (62)
उनके दिलों की तो बात अल्लाह जानता है तो तुम उनसे चश्मपोशी करो (नज़र फेरलो) और उन्हें समझा दो और उनके मामले में उनसे रसा बात कहो(5) (63)
और हमने कोई रसूल न भेजा मगर इसलिये कि अल्लाह के हुक्म से उसकी इताअत (आज्ञा पालन) की जाए (6)
और अगर जब वह अपनी जानों पर ज़ुल्म करें(7)
तो ऐ मेहबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों और फिर अल्लाह से माफ़ी चाहें और रसूल उनकी शफ़ाअत फ़रमाए तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पाएं (8)(64)
तो ऐ मेहबूब तुम्हारे रब की क़सम वो मुसलमान न होंगे जबतक अपने आपस के झगड़े में तुम्हें हाकिम न बनाएं फिर जो कुछ तुम हुक्म फ़रमा दो अपने दिलों में उस से रूकावट न पाएं और जिसे मान लें (9)(65)
और अगर हम उनपर फ़र्ज़ करते कि अपने आपको क़त्ल कर दो या अपने घरबार छोड़ कर निकल  जाओ (10)
तो उनमें थोड़े ही  ऐसा करते और अगर वो करते जिस बात की उन्हें नसीहत दी जाती है (11)
तो इसमें उनका भला था और ईमान पर ख़ूब जमना (66) और ऐसा होता तो ज़रूर हम उन्हेंअपने पास से बड़ा सवाब देते (67) और ज़रूर उनको सीधी राह की हिदायत करते (68) और जो अल्लाह  और उसके रसूल का हुक्म माने तो उसे उनका साथ मिलेगा जिनपर अल्लाह ने फ़ज़्ल किया यानी नबी (12)
और सिद्दिक़ीन (सच्चाई वाले) (13)
और शहीद(14)
और नेक लोग(15)
ये क्या ही अच्छे साथी हैं  (69) यह अल्लाह का फ़ज़्ल है और अल्लाह काफ़ी है जानने वाला (70)

तफसीर
सूरए निसा – नवाँ रूकू

(1) बिशर नामी एक मुनाफ़िक़ का एक यहूदी से झगड़ा था. यहूदी ने कहा चलो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से तय करा लें. मुनाफ़िक़ ने ख़याल किया कि हुज़ूर तो रिआयत किये बिना केवल सच्चा ही फ़ैसला देंगे, उसका मतलब हासिल न होगा. इसलिये उसने ईमान का दावा रखने के बावुजूद यह कहा कि कअब बिन अशरफ़ यहूदी को पंच बनाओ (क़ुरआने मजीद में ताग़ूत से इस कअब बिन अशरफ़ के पास फ़ैसला ले जाना मुराद है) यहूदी जानता था कि कअब रिशवत खाता है, इसलिये उसने सहधर्मी होने के बावुजूद उसको पंच तसलीम नहीं किया. नाचार मुनाफ़िक़ को फ़ैसले के लिये सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में आना पड़ा. हुज़ूर ने जो फ़ैसला दिया, वह यहूदी के हक़ में हुआ. यहाँ से फ़ैसला सुनने के बाद फिर मुनाफ़िक़ यहूदी से ज़िद करने लगा और उसे मजबूर करके हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो के पास लाया. यहूदी ने आपसे अर्ज़ किया कि मेरा इसका मामला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तय फ़रमा चुके, लेकिन यह हुज़ूर के फ़ैसले से राज़ी नहीं. आप से फ़ैसला चाहता है. फ़रमाया कि हाँ मैं अभी आकर फ़ैसला करता हूँ यह फ़रमाकर मकान में तशरीफ़ ले गए और तलवार लाकर उस मुनाफ़िक़ को क़त्ल कर दिया और फ़रमाया जो अल्लाह और उसके रसूल के फ़ैसले से राज़ी न हो उसका मेरे पास यह फ़ैसला है.

(2) जिससे भागने बचने की कोई राह न हो जैसी कि बिशर मुनाफ़िक़ पर पड़ी कि उसको हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने क़त्ल कर दिया.

(3) कुफ़्र और दोहरी प्रवृत्ति और गुनाह, जैसा कि बिशर मुनाफ़िक़ ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के फ़ैसले से मुंह फेर कर किया.

(4) और वह माफ़ी और शर्मिन्दगी कुछ काम न दे, जैसा कि बिशर मुनाफ़िक़ के मारे जाने के बाद उसके सरपरस्त उसके ख़ून का बदला तलब करने आए और बेजा माज़िरतें करने और बातें बनाने लगे. अल्लाह तआला ने उसके ख़ून का कोई बदला न दिया क्योंकि वह मारे ही जाने के क़ाबिल था.

(5) जो उनके दिल में असर कर जाएं.

(6) जबकि रसूल का भेजना ही इसलिये है कि वो फ़रमाँबरदारी के मालिक बनाए जाएं और उनकी आज्ञा का पालन फ़र्ज़ हो. तो जो उनके हुक्म से राज़ी न हो उसने रिसालत को तसलीम न किया, वह काफ़िर क़त्ल किये जाने के क़ाबिल है.

(7) गुनाह और नाफ़रमानी करके.

(8) इससे मालूम हुआ कि अल्लाह की बारगाह में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को वसीला और आपकी शफ़ाअत काम बन जाने का ज़रिया है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वफ़ाते शरीफ़ के बाद एक अरब देहाती आपके मुबारक रौज़े पर हाज़िर हुआ और रोज़ए शरीफ़ की पाक मिट्टी अपने सर पर डाली और अर्ज़ करने लगा, या रसूलल्लाह, जो आपने फ़रमाया हमने सुना और जो आप पर उतरा उसमें यह आयत भी है “वलौ अन्नहुम इज़ ज़लमू”. मैंने बेशक अपनी जान पर ज़ुल्म किया और मैं आपके हुज़ूर में अल्लाह से अपने गुनाह की बख़्शिश चाहने हाज़िर हुआ तो मेरे रब से मेरे गुनाह की बख़्शिश कराईये. इस पर क़ब्र शरीफ़ से आवाज़ आई कि तेरी बख़्शिश की गई. इससे कुछ मसअले मालूम हुए. अल्लाह तआला की बारगाह में हाजत अर्ज़ करने के लिये उसके प्यारों को वसीला बनाना कामयाबी का ज़रिया है. क़ब्र पर हाजत के लिये जाना भी ” जाऊका” में दाख़िल है. और पिछले नेक लोगों का तरीक़ा रहा है. वफ़ात के बाद अल्लाह के प्यारों को “या” के साथ पुकारना ज़ायज़ है. अल्लाह के मक़बूल बन्दे मदद फ़रमाते हैं और उनकी दुआ से हाजत पूरी होती है.

(9) मानी ये हैं कि जब तक आपके फ़ैसले और हुक्म को दिल की सच्चाई से न माने लें, मुसलमान नहीं हो सकते. सुब्हानल्लाह, इससे रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान ज़ाहिर होती है. पहाड़ से आने वाला पानी जिससे बाग़ों में सिंचाई करते हैं, उसमें एक अन्सारी का हज़रत ज़ुबैर रदियल्लाहो अन्हो से झगड़ा हुआ. मामला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर पेश किया गया. हुज़ूर ने फ़रमाया, ऐ ज़ुबैर तुम अपने बाग़ को पानी देकर अपने पड़ौसी की तरफ़ पानी छोड़ दो. यह अन्सारी को बुरा लगा और उसको ज़बान से यह कलिमा निकला कि ज़ुबैर आपके फुफीज़ाद भाई हैं. इसके बावुजूद कि फ़ैसले में हज़रत ज़ुबैर को अन्सारी के साथ ऐहसान की हिदायत फ़रमाई गई थी लेकिन अन्सारी ने इसकी क़द्र न की तो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत ज़ुबैर को हुक्म दिया कि अपने बाग़ को भरपूर पानी देकर पानी रोक लो. इस पर आयत उतरी.

(10) जैसा कि बनी इस्त्राईल को मिस्त्र से निकल जाने और तौबह के लिये अपने आपको क़त्ल का हुक्म दिया था. साबित बिन क़ैस बिन शम्मास से एक यहूदी ने कहा कि अल्लाह ने हम पर अपना क़त्ल और घर बार छोड़ना फ़र्ज़ किया था, हमने उसको पूरा किया. साबित न फ़रमाया कि अगर अल्लाह हम पर फ़र्ज़ करता तो हम भी ज़रूर हुक्म पूरा करते. इस पर यह आयत उतरी.

(11) यानी रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की फ़रमाँबरदारी और आपकी आज्ञा के पालन की.

(12) तो नबियों के मुख़लिस फ़रमाँबरदार, जन्नत में उनकी सोहबत और दर्शन से मेहरूम न होंगे.

(13) ” सिद्दीक ” नबियों के सच्चे अनुयाइयों को कहते हैं, जो सच्चे दिल से उनकी राह पर क़ायम रहें. मगर इस आयत में नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के बड़ी बुज़ुर्गी वाले सहाबा मुराद है जैसे कि हज़रत अबूबक्र सिद्दीक रदियल्लाहो तआला अन्हो.

(14) जिन्होंने ख़ुदा की राह में जानें दीं.

(15) वह दीनदार जो बन्दों के हक़ और अल्लाह के हक़ दोनों अदा करें और उनके ज़ाहिर और छुपवाँ हाल अच्छे और पाक हों. हज़रत सोअबान सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ बहुत महब्बत रखते थे. जुदाई की ताक़त न थी. एक रोज़ इस क़द्र ग़मगीन और रंजीदा हाज़िर हुए कि रंग बदल गया था. हुज़ूर ने फ़रमाया आज रंग क्यों बदला हुआ है. अर्ज़ किया न मुझे कोई बीमारी है न दर्द, सिवाय इसके कि जब हुज़ूर सामने नहीं होते तो बहुत ज़्यादा वहशत और परेशानी होती है. जब आख़िरत को याद करता हूँ तो यह अन्देशा होता है कि वहाँ में किस तरह दीदार पा सकूंगा. आप सबसे ऊंचे दर्जे में होंगे, मुझे अल्लाह तआला ने अपनी मेहरबानी से जन्नत दी भी तो उस ऊंचे मक़ाम तक पहुंच कहाँ इस पर यह आयत उतरी और उन्हें तसल्ली दी गई कि दर्ज़ों के फ़र्क़ के बावुजूद फ़रमाँबरदारों को मुलाक़ात और साथ रहने की नेअमत से नवाज़ा जाएगा.

सूरए निसा – दसवाँ रूकू

सूरए निसा – दसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ ईमान वालों होशियारी से काम लो (1)
दुश्मन की तरफ़ थोड़े थोड़े होकर निकलो या इकट्ठे चलो (71) और तुम में कोई वह है फिर ज़रूर देर लगाएगा (2)
फिर तुमपर कोई मुसीबत पड़े तो कहे खुदा का मुझपर एहसान था कि मैं उनके साथ हाज़िर न था (72)और अगर तुम्हें अल्लाह का फ़ज़्ल मिले (3)
तो ज़रूर कहे (4)
गोया तुममें उसमें कोई दोस्ती न थी  ऐ काश मैं उनके साथ होता तो बड़ी मुराद पाता  (73) तो उन्हें अल्लाह की राह में लड़ना चाहिये जो दुनिया की ज़िन्दग़ी बेचकर आख़िरत लेते हैं और जो अल्लाह की राह में  (5)
लड़े फिर मारा जाए या ग़ालिब (विजयी) आए तो जल्द ही हम उसे बड़ा सवाब देंगे  (74) और तुम्हें क्या हुआ कि न लड़ो अल्लाह की राह में  और कमज़ोर मर्दों  और औरतों  और बच्चों के वास्तें यह दुआ कर रह हैं कि  ऐ हमारे रब हमें इस बस्ती से निकाल जिसके लोग ज़ालिम हैं और हमें अपने पास से कोई मददगार दे दे (75) ईमान वाले अल्लाह की राह में लड़ते हैं (6)
और काफ़िर शैतान की राह में लड़ते हैं तो शैतान के दोस्तों से (7)
लड़ो बेशक शैतान का दाव कमज़ोर है  (8) (76)

तफसीर
सूरए निसा – दसवाँ रूकू

(1) दुश्मन की घात से बचो और उसे अपने ऊपर मौक़ा न दो. एक क़ौल यह भी है कि हथियार साथ रखो. इससे मालूम हुआ कि दुश्मन के मुक़ाबले में अपनी हिफ़ाज़त की तदबीरें जायज़ हैं.

(2) यानी दोग़ली प्रवृत्ति वाले मुनाफ़िक़.

(3) तुम्हारी जीत हो और दुश्मन का माल यानी ग़नीमत हाथ आए.

(4) वही जिसके कथन से यह साबित होता है कि…………

(5) यानी जिहाद फ़र्ज़ है और इसे छोड़ देने का तुम्हारे पास कोई बहाना नहीं है.

(6) इस आयत में मुसलमानों को जिहाद की रूचि दिलाई गई ताकि वो उन कमज़ोर मुसलमानों को काफ़िरों के अत्याचारी पंजे से छुड़ाएं जिन्हे मक्कए मुकर्रमा में मुश्रिकों ने क़ैद कर लिया था और तरह तरह की यातनाएं और तकलीफ़ दे रहे थे और उनकी औरतों और बच्चों तक पर बेरहमी से अत्याचार कर रहे थे और वो लोग उनके हाथों में मजबूर थे. इस हालत में वो अल्लाह तआला से रिहाई और मदद की दुआएं करते थे. ये दुआएं क़ुबूल हुई और अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उनका सरपरस्त और मददगार बनाया और उन्हें मुश्रिकों के हाथों से छुड़ाया और मक्कए मुकर्रमा फ़त्ह करके उनकी ज़बरदस्त मदद फ़रमाई.

(7) दीन के प्रचार और अल्लाह की ख़ुशी के लिये.

(8) यानी काफ़िरों का और वह अल्लाह की मदद के मुक़ाबले में क्या चीज़ है.

सूरए निसा – ग्यारहवाँ रूकू

सूरए निसा – ग्यारहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

क्या तुमने उन्हें न देखा जिनसे कहा गया अपने हाथ रोक लो  (1)
और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो फिर जब उनपर जिहाद फ़र्ज़ किया गया (2)
तो उनमें से कुछ लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे अल्लाह से डरे या इससे भी ज़्यादा (3)
और बोले ऐ रब हमारे तूने हमपर जिहाद क्यों फ़र्ज़ कर दिया (4)
थोड़ी मुद्दत तक हमें और जीने दिया होता तुम फ़रमादो कि दुनिया का बरतना थोड़ा है (5)
और डर वालों के लिये आख़िरत अच्छी और तुमपर तागे बराबर ज़ुल्म न होगा (6)
(77)
तुम जहां कहीं हो मौत तुम्हें आ लेगी (7)
अगरचे मज़बूत क़िलों में हो और उन्हें कोई भलाई पहुंचे (8)
तो कहें यह अल्लाह की तरफ़ से है और उन्हें कोई बुराई पहुंचे (9)
तो कहे यह हुज़ूर की तरफ़ से आई(10)
तुम फ़रमा दो सब अल्लाह की तरफ़ से है(11)
तो उन लोगों को क्या हुआ कोई बात समझते मालूम ही नहीं होते  (78) ऐ सुनने वाले तुझे जो भलाई पहुंचे वह अल्लाह की तरफ़ से है (12)
और जो बुराई पहुंचे वह तेरी अपनी तरफ़ से है (13)
और ऐ मेहबूब हमने तुम्हें सब लोगों के लिये रसूल भेजा (14)
और अल्लाह काफ़ी है गवाह(15) (79)
जिसने रसूल का हुक्म माना बेशक उसने अल्लाह का हुक्म माना  (16)
और जिसने मुंह फेरा  (17)
तो हमने तुम्हें उनके बचाने को न भेजा(80) और कहते हैं हमने हुक्म माना (18)
फिर जब तुम्हारे पास से निकल कर जाते हैं तो उनमें एक दल जो कह गया था उसके ख़िलाफ़ रात को मन्सूबे (योजनाएं) गांठता है और अल्लाह लिख रखता है उसके रात के मन्सूबे (19)
तो ऐ मेहबूब तुम उनसे चश्मपोशी करो और अल्लाह पर भरोसा रखो  और अल्लाह काफ़ी है काम बनाने को (81) तो क्या ग़ौर नहीं करते क़ुरआन में (20)
और अगर वह ग़ैरख़ुदा के पास से होता तो ज़रूर उसमें बहुत इख़्तिलाफ़ (भिन्नता) पाते  (21)
(82) और जब उनके पास कोई बात इत्मिनान (22)
या डर (23)
की आती है उसका चर्चा कर बैठते हैं  (24)
और अगर उसमें रसूल और अपने हुक्म वाले लोगों (25)
की तरफ़ रूज़ू लाते (26)
तो ज़रूर उनसे इसकी हक़ीक़त जान लेते, ये जो बाद में काविश  (प्रयत्न) करते हैं (27)
और अगर तुमपर अल्लाह का फ़ज़्ल (28)
और उसकी रहमत (29) न होती तो ज़रूर तुम शैतान के पीछे लग जाते  (30)
मगर थोड़े(31) (83)
तो ऐ मेहबूब अल्लाह की राह में लड़ो (32)
तुम तक़लीफ़ न दिये जाओगे मगर अपने दम की  (33)
और  मुसलमानों को तैयार करो क़रीब है (34)
कि अल्लाह काफ़िरों की सख़्ती रोक दे (35)
और अल्लाह की आंच सबसे सख़्ततर है और उसका अज़ाब सबसे कर्रा (ज़बरदस्त) (84) जो अच्छी सिफ़रिश करे (36)
उसके लिये उसमें से हिस्सा है (37)
और जो बुरी सिफ़रिश करे उसके लिये उसमें से हिस्सा है (38)
और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है (85) और जब तुम्हें कोई किसी लफ़्ज़ से सलाम करे तो तुम उससे बेहतर लफ़्ज़ जवाब में कहो या वही कह दो बेशक अल्लाह हर चीज़ पर हिसाब लेने वाला है(39) (86)
अल्लाह है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी नहीं और वह ज़रूर तुम्हें इकट्ठा करेगा क़यामत के दिन जिसमें कुछ शक नहीं और अल्लाह से ज़्यादा किस की बात सच्ची (40)(87)
तफसीर
सूरए निसा – ग्यारहवाँ रूकू

(1) जंग से. मक्के के मुश्रिक मुसलमानों को बहुत तकलीफ़े देते थे. हिजरत से पहले रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा की एक जमाअत ने हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि आप हमें काफ़िरों से लड़ने की इजाज़त दीजिये, उन्होंने हमें बहुत सताया है और बहुत तकलीफ़े पहुंचाते हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया कि उनके साथ जंग करने से हाथ रोको, नमाज़, और ज़कात, जो तुम पर फ़र्ज़ है, वह अदा करते रहो. इससे साबित हुआ कि नमाज़ और ज़कात जिहाद से पहले फ़र्ज़ हुए.

(2) मदीनए तैय्यिबह में और बद्र की हाज़िरी का हुक्म दिया गया.

(3) यह डर क़ुदरती था कि इन्सान की आदत है कि मौत और हलाकत से घबराता और डरता है.

(4) इसकी हिकमत क्या है, यह सवाल हिकमत की वजह दरियाफ़त करने के लिये था न कि एतिराज़ के तौर पर. इसीलिये उनको इस सवाल पर फटकारा न गया, बल्कि तसल्ली वाला जवाब अता फ़रमा दिया गया.

(5) ख़त्म हो जाने वाला और नश्वर है.

(6) और तुम्हारे इनाम कम न किये जाएंगे तो जिहाद में डर और हिचकिचाहट से काम न लो.

(7) और इससे रिहाई पाने की कोई सूरत नहीं और जब मौत अटल है तो बिस्तर पर मर जाने से ख़ुदा की राह में जान देना बेहतर है कि यह आख़िरत की सआदत या ख़ुशनसीबी का कारण है.

(8) पैदावार वग़ैरह के सस्ता और ज़्यादा होने की.

(9) मेंहगाई और अकाल वग़ैरह.

(10) यह हाल मुनाफ़िक़ों का है कि जब उन्हें कोई सख़्ती पेश आती है तो उसको सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तरफ़ जोड़ देते और कहते जब से यह आए हैं ऐसी ही सख़्तियाँ पेश आया करती हैं.

(11) मेंहगाई हो या सस्तापन, अकाल हो या ख़ुशहाली, रंज हो या राहत, आराम हो या तकलीफ़, विजय हो या पराजय, हक़ीक़त में सब अल्लाह की तरफ़ से है.

(12) उसकी मेहरबानी और रहमत है.

(13) कि तूने ऐसे गुनाह किये कि तू इसका हक़दार हुआ. यहाँ बुराई की निस्बत बन्दे की तरफ़ मजाज़ है और ऊपर जो बयान हुआ वह हक़ीक़त थी. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि बुराई की निस्बत बन्दे की तरफ़ अदब के तौर पर है. खुलासा यह है कि बन्दा जब अल्लाह की तरफ़ नज़र करे तो हर चीज़ को उसीकी तरफ़ से जाने और जब कारणों पर नज़र करे तो बुराइयों को अपने नफ़्स की बुराई के कारण से समझे.

(14) अरब हों या अजम, आप तमाम सृष्टि के लिये रसूल बनाए गए और सारा जगत उम्मत बनाया गया. यह सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ऊंचे दर्जे और इज़्ज़त का बयान है.

(15) आपकी आम रिसालत पर, तो सबपर आपकी आज्ञा का पालन और आपका अनुकरण फ़र्ज़ है.

(16) रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, जिसने मेरी फ़रमाँबरदारी की उसने अल्लाह की फ़रमाँबरदारी की और जिसने मुझसे महब्बत की उसने अल्लाह से महब्बत की. इस पर आजकल के गुस्ताख़ बददीनों की तरह उस ज़माने के कुछ मुनाफ़िक़ों ने कहा कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम यह चाहते हैं कि हम उन्हें रब मान लें, जैसा ईसाईयों ने हज़रत ईसा बिन मरयम को रब माना, इस पर अल्लाह तआला ने उसके रद में यह आयत उतार कर अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के कलाम की तस्दीक़ फ़रमादी कि बेशक रसूल की फ़रमाँबरदारी अल्लाह की फ़रमाँबरदारी है.

(17) और आपकी फ़रमाँबरदारी से मुंह फेरा.

(18) यह आयत मुनाफ़िक़ों के हक में उतरी जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में ईमान और फ़रमाँबरदारी ज़ाहिर करते थे और कहते थे कि हम हुज़ूर पर ईमान लाए हैं, हमने हुज़ूर की तस्दीक़ की है. हुज़ूर हमें जो हुक्म फ़रमाएं उसकी इताअत हम पर लाज़िम हैं.

(19) उनके आमालनामों में और उसका उन्हें बदला देगा.

(20) और उसके इल्म और हिकमत को नहीं देखते कि उसने अपनी फ़साहत से सारी सृष्टि को आजिज़ कर दिया है और ग़ैबी ख़बरों से मुनाफ़िक़ों के अहवाल और उनके छलकपट का राज़ खोल दिया और अगले पिछलों की ख़बरें दी हैं.

(21) और आने वाले ज़माने के बारे में ग़ैबी ख़बरें मुताबिक़ नहीं होती और जब ऐसा न हुआ और क़ुरआने पाक की ख़बरों से आयन्दा पेश आने वाली घटनाएं मेल खाती चली गई तो साबित हुआ कि यक़ीनन वह अल्लाह की किताब है और उसके मज़ामीन में भी आपस में इख़्तिलाफ़ नहीं. इसी तरह फ़साहत और बलाग़त में भी, क्योंकि सारी सृष्टि का कलाम फ़सीह भी हो तो सब एक सा नहीं होता, कुछ बलीग़ होता है और कुछ निम्न स्तर का होता है जैसा कि शायरों और भाषाशास्त्रियों के कलाम में देखा जाता है कि कोई बहुत मज़ेदार है और कोई बहुत फीका. यह अल्लाह तआला ही के कलाम की शान है कि उसका तमाम कलाम फ़साहत और बलाग़त के सर्वोत्तम दर्जे पर है.

(22) यानी इस्लाम की जीत.

(23) यानी मुसलमानों की हार की ख़बर.

(24) जो बुराई का कारण होता है कि मुसलमानों की विजय की शोहरत और प्रसि़द्धि से तो काफ़िरों में जोश पैदा होता है और हार की ख़बर से मुसलमानों का साहस टूटता है.

(25) बुज़ुर्ग सहाबा जो राय वाले और नज़र वाले है.

(26) और ख़ुद कुछ दख़्ल न देते.

(27) मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया, इस आयत में क़यास के जायज़ होने की दलील है. और यह भी मालूम होता है कि एक इल्म वह है जो क़ुरआन की आयतों और हदीस से हासिल हो और एक इल्म वह है जो क़ुरआन और हदीस के मज़मून पर ग़ौर करके अपना नतीजा निकालने के ज़रिये हासिल होता है. यह भी मालूम हुआ कि दीन की बातों में हर शख़्स को दख़्ल देना जायज़ नहीं. जो योग्यता रखता हो उसी को इनमें पड़ना चाहिये.

(28) रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का नबी बनकर तशरीफ़ लाना.

(29) क़ुरआन का उतरना.

(30) और कुफ़्र और गुमराही में गिरफ़्तार रहते.

(31) वो लोग जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के तशरीफ़ लाने और क़ुरआने पाक के उतरने से पहले आप पर ईमान लाए, जैसा ज़ैद बिन अम्र बिन नुफ़ैल और वरक़ह बिन नौफ़ल और क़ैस बिन साइदा.

(32) चाहे कोई तुम्हारा साथ दे या न दे और तुम अकेले रह जाओ.

(33) बद्रे सुग़रा की जंग जो अबू सूफ़ियान से ठहर चुकी थी, जब उसका वक़्त आ पहुंचा तो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने वहाँ जाने के लिये लोगो को दावत दी. कुछ पर यह भारी गुज़रा तो अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी और अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हुक्म दिया कि वो जिहाद न छोड़ें, चाहे अकेले हों. अल्लाह आपका मददगार है. अल्लाह का वादा सच्चा है. यह हुक्म पाकर रसूले करीम सललल्लाहो अलैहे वसल्लम बद्रे सुग़रा की जंग के लिये रवाना हुए. आपके साथ सिर्फ़ सत्तर सवार थे.

(34) उन्हें जिहाद की रूचि दिलाओ और बस.

(35) चुनांचे ऐसा ही हुआ कि मुसलमानों का यह छोटा सा लश्कर कामयाब आया और काफ़िरों पर ऐसा रोब छाया कि वो मुसलमानों के मुक़ाबले में मैदान में न आ सके. इस आयत से साबित हुआ कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम शुजाअत और बहादुरी में सबसे उत्तम हैं कि आपको अकेले काफ़िरों के मुक़ाबले में तशरीफ़ ले जाने का हुक्म हुआ और आप तैयार हो गए.

(36) किसी से किसी की, कि उसको नफ़ा पहुंचाए या किसी मुसीबत और बला से छुटकारा दिलाए और हो वह शरीअत के मुताबिक, तो………

(37) इनाम और बदला.

(38) अज़ाब और सज़ा.

(39) सलाम के मसाइल : सलाम करना सुन्नत है, और जवाब देना फ़र्ज़, और जवाब में बेहतर यह है कि सलाम करने वाले के सलाम पर कुछ बढ़ाए. मसलन पहला शख़्स अस्सलामो अलैकुम कहे तो दूसरा शख़्स “वअलैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाह “ कहे. और अगर पहले ने ” व-रहमतुल्लाह” भी कहा तो यह व बरकातुहू और बढ़ाए. फिर इससे ज़्यादा सलाम और जवाब में और कोई बढ़ौत्री नहीं है. काफ़िर, गुमराह, फ़ासिक़ और इस्तिंजा करते मुसलमानों को सलाम न किया जाए. जो शख़्स ख़ुत्बा या तिलावते क़ुरआन या हदीस या इल्मी बहस या अज़ान या तकबीर में मशग़ूल हो, उस हाल में उसको सलाम न किया जाए और अगर कोई सलाम करे तो उस पर जवाब देना लाज़िम नहीं. और जो शख़्स शतरंज, चौसर, ताश, गंजफ़ा वग़ैरह, कोई नाजायज़ खेल खेल रहा हो या गाने बजाने में मशग़ूल हो या पाख़ाने या ग़ुस्लख़ाने में हो, या बिना मजबूरी के नंगा हो, उसको सलाम न किया जाए. आदमी जब अपने घर में दाख़िल हो तो बीबी को सलाम करे. हिन्दुस्तान में यह बड़ी ग़लत रस्म है कि शौहर और बीवी के इतने गहरे तअल्लुक़ात होते हुए भी एक दूसरे को सलाम से मेहरूम रखते हैं. जबकि सलाम जिसको किया जाता है उसके लिये सलामती की दुआ है. बेहतर सवारी वाला कमतर सवारी वाले को, और छोटा बड़े को, और थोड़े ज़्यादा को सलाम करें.

(40) यानी उससे ज़्यादा कोई सच्चा नहीं इसलिये कि उसका झूट असंभव, नामुमकिन और मुहाल है क्योंकि झूट बुराई और ऐब है, हर बुराई और ऐब अल्लाह पर मुहाल हैं. वह सारे ऐबों से पाक है.

सूरए निसा – बारहवाँ रूकू

सूरए निसा – बारहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

तो तुम्हें क्या हुआ कि मुनाफ़िक़ों के बारे में दो फ़रीक़ (पक्ष) हो गये  (1)
और अल्लाह ने उन्हें औंधा कर दिया  (2)
उनके कौतुकों की वजह से(3)
क्या यह चाहते हो कि उसे राह दिखाओ जिसे अल्लाह ने गुमराह किया और जिसे अल्लाह गुमराह करे तो कभी उसके लिये राह न पाएगा(88)  वो तो चाहते है कि कहीं तुम भी काफ़िर हो जाओ जैसे वो काफ़िर हुए तो तुम सब एकसे हो जाओ तो उनमें किसी को अपना दोस्त न बनाओ  (4)
जब तक अल्लाह की राह में घर बार न छोड़े  (5)
फिर अगर वो मुंह फेरें(6)
तो उन्हें पकड़ो  और जहां पाओ क़त्ल करो और उनमें किसी को दोस्त न ठहराओ न मददगार (7)
(89) मगर वो जो ऐसी क़ौम से तअल्लुक़ रखते हैं कि तुममें उनमें मुआहिदा (समझौता) है(8)
या तुम्हारे पास यूं आए कि उनके दिलों में सकत न रही कि तुमसे लड़ें  (9)
या अपनी क़ौम से लड़ें  (10)
और अल्लाह चाहता तो ज़रूर उन्हें तुम पर क़ाबू देता तो वो बेशक तुमसे लड़ते  (11)
फिर अगर वो तुमसे किनारा करें और न लड़ें और सुलह का पयाम डालें तो अल्लाह ने तुम्हें उनपर कोई राह न रखी (12)(90)
अब कुछ और तुम ऐसे पाओगे जो ये चाहते हैं कि तुम से भी आमान में रहें और अपनी क़ौम से भी आमान में रहें (13)
जब कभी उनकी क़ौम उन्हें फ़साद  (14)
की तरफ़ फेरे तो उसपर औंधे गिरते हैं फिर अगर वो तुमसे किनारा न करें और (15)
सुलह की गर्दन न डाले और अपने हाथ न रोके तो उन्हें पकड़ो और जहां पाओ क़त्ल करो और ये हैं कि जिनपर हमने तुमपर खुला इख़्तियार दिया (16) (91)

तफसीर
सूरए निसा – बारहवाँ रूकू

(1) मुनाफ़िक़ों की एक जमाअत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जिहाद में जाने से रूक गई थी. उसके बारे में सहाबा के दो पक्ष हो गए. एक पक्ष क़त्ल पर ज़ोर देता था और एक उनके क़त्ल से इन्कार करता था. इस मामले में यह आयत उतरी.

(2) कि वो हुज़ूर के साथ जिहाद में जाने से मेहरूम रहें.

(3) उनके कुफ़्र और इर्तिदाद और मुश्रिकों के साथ मिलने के कारण, तो चाहिये कि मुसलमान भी उनके कुफ़्र में इख़्तिलाफ़ न करें.

(4) इस आयत में काफ़िरों के साथ मेल जोल को मना किया गया है. चाहे वो ईमान का इज़हार ही करते हो.

(5) और इससे उनके ईमान की तहक़ीक़ न हो ले.

(6) ईमान और हिजरत से, और अपनी हालत पर क़ायम रहें.

(7) और अगर तुम्हारी दोस्ती का दावा करें और मदद के लिये तैयार हों तो उनकी मदद क़ुबूल न करो.

(8) यह छूट क़त्ल की तरफ़ राजेअ है. क्योंकि काफ़िरों और मुनाफ़िक़ीन के साथ मेल जोल किसी हाल में जायज़ नहीं और एहद से वह एहद मुराद है कि उस क़ौम को और जो उस क़ौम से जा मिले उसको अम्न है जैसा कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मक्कए मुकर्रमा तशरीफ़ ले जाते वक़्त हिलाल बिन उमैर असलमी से मामला किया था.

(9) अपनी क़ौम के साथ होकर.

(10) तुम्हारे साथ होकर.

(11) लेकिन अल्लाह तआला ने उनके दिलों में रोब डाल दिया और मुसलमानों को उनके शर से मेहफ़ूज़ रखा.

(12) कि तुम उनसे जंग करो. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि यह हुक्म आयत “उक्तुलुल मुश्रिकीना हैसो वजद तुमूहुम ” (यानी तो मुश्रिकों को मारो जहां पाओ) (सूरए तौबह, आयत पांच) से मन्सूख़ हो गया.

(13) मदीनए तैय्यिबह में असद और ग़तफ़ान क़बीले के लोग दिखावे के लिये इस्लाम का कलिमा पढ़ते और अपने आप को मुसलमान ज़ाहिर करते और जब उनमें से कोई अपनी क़ौम से मिलता और वो लोग उनसे कहते कि तुम किस चीज़ पर ईमान लाए तो वो लोग कहते कि बन्दरों बिच्छुओं वग़ैरह पर. इस अन्दाज़ से उनका मतलब यह था कि दोनों मुनाफ़िक़ थे. उनके बारे में यह आयत उतरी.

(14) शिर्क या मुसलमानों से जंग.

(15) जंग से बाज़ आकर.

(16) उनके खुले कुफ़्र और मुसलमानों को तकलीफ़ें पहुंचाने के कारण.

सूरए निसा – तैरहवाँ रूकू

सूरए निसा – तैरहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और मुसलमानों को नहीं पहुंचता कि मुसलमान का ख़ून करे मगर हाथ बहक कर (1)
और जो किसी मुसलमान को भूले से क़त्ल करे तो उसपर एक ममलूक (ग़ुलाम) मुसलमान का आज़ाद करना है और ख़ूं बहा (जुर्माना) कि मक़तूल (मृतक) के लोगों को सुपुर्द की जाए (2)
मगर यह कि वो माफ़ कर दें फिर अगर वह (3)
उस क़ौम से हो जो तुम्हारी दुश्मन है (4)
और ख़ुद मुसलमान है तो सिर्फ़ एक ममलूक (ग़ुलाम) मुसलमान का आज़ाद करना  (5)
और अगर वह उस क़ौम में हो कि तुम में उनमें मुआहिदा (समझौता) है तो उसके लोगों को ख़ूं बहा (जुर्माना) सुपुर्द की जाए और एक मुसलमान ममलूक(ग़ुलाम) आज़ाद करना  (6)
तो जिसका हाथ न पहुंचे(7)
वह लगातार दो महीने के रोज़े रखे (8)
यह अल्लाह के यहां उसकी तौबह है और अल्लाह जानने वाला हिकमत वाला है (92)
और जो कोई मुसलमान को जानबूझकर क़त्ल करे तो उसका बदला जहन्नम है कि मुद्दतों उसमें रहे(9)
और अल्लाह ने उसपर ग़जब (प्रकोप) किया और उसपर लानत की और उसके लिये तैयार रखा बड़ा अज़ाब (93) ऐ ईमान वालों जब तुम जिहाद को चलो तो तहक़ीक़ (जांचपड़ताल) करलो और जो तुम्हें सलाम करे उससे यह न कहो कि तू मुसलमान नहीं (10)
तुम जीती दुनिया का असबाब (सामान) चाहते हो तो अल्लाह के पास बहुतेरी गनीमतें (परिहार)  हैं पहले तुम भी ऐसे ही थे (11)
फिर अल्लाह ने तुम पर एहसान किया (12)
कि तुम पर तहक़ीक़  (जांच) करना लाज़िम है(13)
बेशक अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (94) बराबर नहीं वो मुसलमान कि बे उज्र (बिना मजबूरी) जिहाद से बैठ रहें और वो कि ख़ुदा कि राह में अपने मालों  और जानों के साथ जिहाद करते हैं (14)
अल्लाह ने अपनी जानों के साथ जिहाद करने वालों का दर्जा बैठने वालो से बड़ा किया(15)
और अल्लाह ने सबसे भलाई का वादा फ़रमाया (16)
और अल्लाह ने जिहाद वालों को  (17)
बैठने वालों पर बड़े सवाब से फ़ज़ीलत (प्रधानता) दी है(95)    उसकी तरफ़ से दर्जें और बख़्शिश और रहमत (18)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (96)
तफसीर
सूरए निसा – तैरहवाँ रूकू
(1) यानी मूमिन काफ़िर की तरह मार डालने के क़ाबिल नहीं है, जिसका हुक्म ऊपर की आयत में आया. तो मुसलमान का क़त्ल करना बिना हक़ के रवा नहीं और मुसलमान की शान नहीं कि उससे किसी मुसलमान का क़त्ल हो, सिवाय इसके कि भूल से हो, इस तरह कि मारता था शिकार को, या हर्बी काफ़िर को, और हाथ बहक कर लग गया मुसलमान को, या यह कि किसी शख़्स को हर्बी काफ़िर समझ कर मारा और था वह मुसलमान.

(2) यानी उसके वारिसों को दी जाए, वो उसे मीरास की तरह तक़सीम कर लें. दिय्यत क़त्ल होने वाले के तर्के के हुक्म में है. इससे मक़तूल का क़र्ज़ भी अदा किया जाएगा, वसिय्यत भी जारी की जाएगी.

(3) जो भूल से क़त्ल किया गया.

(4) यानी काफ़िर.

(5) लाज़िम है, और दिय्यत नहीं.

(6) यानी अगर मक़तूल ज़िम्मी हो तो उसका वही हुक्म है जो मुसलमान का.

(7) यानी वह किसी ग़ुलाम का मालिक न हो.

(8) लगातार रोज़ा रखना यह है कि इन रोज़ों के बीच रमज़ान और 10 से 13 ज़िलहज यानी तशरीक़ के दिन न हों और बीच में रोज़ों का सिलसिला किसी मजबूरी या बिना मजबूरी, किसी तरह तोड़ा न जाए. यह आयत अयाश बिन रबीआ मख़ज़ूमी के हक़ में उतरी. वह हिजरत से पहले मक्कए मुकर्रमा में इस्लाम लाए और घर वालों के ख़ौफ़ से मदीनए तैय्यिबह जाकर पनाह ली. उनकी माँ को इससे बहुत बेक़रारी हुई और उसने हारिस और अबूजहल, अपने दोनों बेटों से जो अयाश के सौतेले भाई थे, यह कहा कि ख़ुदा की क़सम न मैं साए में बैठूं, न खाना चखूं, न पानी पियूं, जब तक तुम अयाश को मेरे पास न ले आओ. वो दोनों हारिस बिन ज़ैद बिन अबी उनीसा को साथ लेकर तलाश के लिये निकले और मदीनए तैय्यिबह पहुंचकर अयाश को पालिया और उनको माँ की बेक़रारी बैचेनी और खाना पीना छोड़ने की ख़बर सुनाई और अल्लाह को बीच में देकर यह एहद किया कि हम दीन के बारे मे तुम से कुछ न कहेंगे, इस तरह वो अयाश को मदीने से निकाल लाए और मदीने से बाहर आकर उनको बाँधा और हर एक ने सौ सौ कोड़े मारे, फिर माँ के पास लाए, तो माँ ने कहा मैं तेरे बन्धन न खोलूंगी तू अपना दीन न छोड़ दे. फिर अयाश को धूप में बंधा हुआ डाल दिया और इन मुसीबतों में पड़कर अयाश ने उनका कहा मान लिया और अपना दीन छोड़ दिया तो हारिस बिन ज़ैद ने उनको बुरा भला कहा और कहा तू इसी दीन पर था, अगर यह सच्चा था तो तू ने सच्चाई को छोड़ दिया और अगर तू बातिल था तो तू बातिल दीन पर रहा. यह बात अयाश को बड़ी बुरी लगी और अयाश ने कहा कि मैं तुझको अकेला पाउंगा तो ख़ुदा की क़सम ज़रूर क़त्ल कर दूंगा. इसके बाद अयाश इस्लाम लाए और उन्होंने मदीनए तैय्यिबह हिजरत की और उनके बाद हारिस भी इस्लाम लाए और हिजरत करके रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में पहुंचे. लेकिन उस रोज़ अयाश मौजूद न थे, न उन्हें हारिस के इस्लाम की सूचना मिली. क़ुबा के क़रीब अयाश ने हारिस को पालिया और क़त्ल कर दिया तो लोगों ने कहा, अयाश तुमने बहुत बुरा किया, हारिस मुसलमान हो चुके थे. इस पर अयाश को बहुत अफ़सोस हुआ और उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमते अक़दस में जाकर वाक़िआ अर्ज़ किया और कहा कि मुझे क़त्ल के वक़्त तक उनके इस्लाम लाने की ख़बर ही न हुई, इस पर यह आयत उतरी.

(9) मुसलमान को जान बूझकर क़त्ल करना सख़्त गुनाह और बड़ा बुरा काम है. हदीस शरीफ़ में है कि दुनिया का हलाक करना अल्लाह के नज़दीक एक मुसलमान के हलाक करने से हलका है. फिर यह क़त्ल अगर ईमान की दुश्मनी से हो या क़ातिल इस क़त्ल को हलाल जानता हो तो यह भी कुफ़्र है. “ख़ूलूद” लम्बे समय के अर्थ में भी इस्तेमाल होता है. और क़ातिल अगर सिर्फ़ दुनियावी दुश्मनी से मुसलमान को क़त्ल करें और उसके क़त्ल को अच्छा ना जाने जब भी उसका बदला लम्बे समय के लिये जहन्न्म है. “ख़ुलूद” का लफ़्ज लम्बी मुद्दत के लिये इस्तेमाल होता तो क़ुरआने करीम में लफ़्ज अबद मज़कूर नहीं होता और काफ़िर के बारे में ख़ूलूद हमेशा के अर्थ में आया है तो इसके साथ अबद भी ज़िक्र फ़रमाया गया है. यह आयत मुक़ैय्यस बिन ख़ुबाबा के बारे में उतरी. उसके भाई बनी नज्जार क़बीले में मक़तूल पाए गए थे और क़ातिल मालूम न था. बनी नज्जार ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म के हुक्म से दिय्यत अदा कर दी उसके बाद मुक़ैय्यस ने शैतान के बहकावे में एक मुसलमान को बेख़बरी में क़त्ल कर दिया और दिय्यत के ऊंट लेकर मक्के  को चलता हो गया और मुर्तद हो गया. यह इस्लाम में पहला शख़्स है जो मुर्तद हुआ, यानी इस्लाम लाकर उससे फिर गया.

(10) या जिससे इस्लाम की अलामत व निशानी पाओ उससे हाथ रोको और जब तक उसका कुफ़्र साबित न हो जाए, उस पर हाथ न डालो. अबू दाऊद व तिरमिज़ी की हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम जब कोई लश्कर रवाना फ़रमाते तो हुक्म देते अगर तुम मस्जिद देखो या अज़ान सुनो तो क़त्ल न करना. अक्सर फ़ुक़हाए किराम ने फ़रमाया कि अगर यहूदी या ईसाई यह कहे कि मैं मूमिन हूँ तो उसको मूमिन न माना जाए, क्योंकि वह अपने अक़ीदे को ही ईमान कहता है. और अगर “ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” कहे जब भी उसके मुसलमान होने का हुक्म न किया जाएगा जब तक कि वह अपने दीन से बेज़ारी का इज़हार और उसके बातिल होने का ऐतिराफ़ न करे. इससे मालूम हुआ कि जो शख़्स किसी कुफ़्र में मुब्तला हो उसके लिये उस कुफ़्र से बेज़ारी और उसको कुफ़्र जानना ज़रूरी है.

(11) यानी जब तुम इस्लाम में दाख़िल हुए थे तो तुम्हारी ज़बान से कलिमए शहादत सुनकर तुम्हारे जान माल मेहफ़ूज़ कर दिये गए थे और तुम्हारा इज़हार बेएतिबार क़रार न दिया गया था, ऐसा ही इस्लाम में दाख़िल होने वालों के साथ तुम्हें भी सुलूक करना चाहिये. यह आयत मर्वास बिन नहीक के बारे में उतरी जो एहले फ़िदक में से थे और उनके सिवा उनकी क़ौम का कोई शख़्स इस्लाम न लाया था. इस क़ौम को ख़बर मिली कि इस्लामी लश्कर उनकी तरफ़ आ रहा है तो क़ौम के सब लोग भाग गए, मगर मर्वास ठहरे रहे. जब उन्होंने दूर से लश्कर को देखा तो इस ख़याल से कि कहीं कोई ग़ैर मुस्लिम जमाअत हो, यह पहाड़ की चोटी पर अपनी बकरियाँ लेकर चढ़ गए. जब लश्कर आया और इन्होंने अल्लाहो अकबर की आवाज़ें सुनीं तो ख़ुद भी तकबीर पढ़ते हुए उतर आए और कहने लगे “ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह , अस्सलामो अलैकुम. मुसलमानों ने ख़्याल किया कि फ़िदक वाले तो सब काफ़िर है, यह शख़्स मुग़ालता देने के लिये ईमान का इज़हार कर रहा है, इस ख़याल से उसामा बिन ज़ैद ने उनको क़त्ल कर दिया और बकरियाँ ले आए. जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में हाज़िर हुए तो तमाम माजरा अर्ज़ किया. हुज़ूर को बहुत दुख हुआ और फ़रमाया, तुमने उसके सामान के कारण उसको क़त्ल कर दिया. इस पर यह आयत उतरी और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसामा को हुक्म दिया कि मक़तूल की बकरियाँ उसके घर वालों को वापस कर दो.

(12) कि तुम को इस्लाम पर ठहराव बख़्शा और तुम्हारा मूमिन होना मशहूर किया.

(13) ताकि तुम्हारे हाथ से कोई ईमान वाला क़त्ल न हो.

(14) इस आयत में जिहाद की तरग़ीब है कि बैठ रहने वाले और जिहाद करने वाले बराबर नहीं हैं. जिहाद करने वालों के ऊंचे दर्जे और सवाब हैं. और यह मसअला भी साबित होता है कि जो लोग बीमारी या बुढ़ापे या कमज़ोरी या अन्धेपन या हाथ पाँव के नाकारा होने और मजबूरी के कारण जिहाद में हाज़िर न हों, वो फ़ज़ीलत और इनाम से मेहरूम न किये जाएंगे, अगर सच्ची नियत रखते हों. बुखारी शरीफ़ की हदीस में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ग़ज़वए तबूक से वापसी के वक़्त फ़रमाया, कुछ लोग मदीने में रह गए हैं. हम किसी घाटी या आबादी में नहीं चलते मगर वो हमारे साथ होते हैं. उन्हें मजबूरी ने रोक लिया है.

(15) जो मजबूरी के कारण जिहाद में हाज़िर न हो सके, अगरचे वो नियत का सवाब पाएंगे लेकिन जिहाद करने वालों को अमल की फ़ज़ीलत उससे ज़्यादा हासिल है.

(16) जिहाद करने वाले हों या मजबूरी से रह जाने वाले.

(17) बग़ैर मजबूरी के.

(18) हदीस शरीफ़ में है, अल्लाह तआला ने मुजाहिदों के लिये जन्नत में सौ दर्जे रखे हैं, हर दो दर्जों में इतना फ़ासला है जैसे आसमान और ज़मीन में.

सूरए निसा _ चौदहवाँ रूकू

सूरए निसा _ चौदहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

वो लोग जिनकी जान फ़रिश्ते निकालते हैं इस हाल में कि वो अपने ऊपर ज़ुल्म करते थे उनसे फ़रिश्तें कहते हैं तुम काहे में थे कहते है कि हम ज़मीन में कमज़ोर थे  (1)
कहते है क्या अल्लाह कि ज़मीन कुशादा (विस्तृत) न थी कि तुम उसमें हिजरत करते तो ऐसों का ठिकाना जहन्नम है और बहुत बुरी जगह पलटने की (2) (97)
मगर वो जो दबा लिये गये मर्द और औरतें और बच्चे जिन्हें न कोई तदबीर बन पड़े (3)
न रास्ता जानें (98) तो क़रीब है अल्लाह  ऐसो को माफ़ फ़रमाए (4)
और अल्लाह माफ़ फ़रमाने वाला बख़्शने वाला है (99)  और जो अल्लाह की राह में घरबार छोड़ कर निकलेगा वह ज़मीन में बहुत जगह और गुंजायश पाएगा और जो अपने घर से निकला (5)
अल्लाह व रसूल की तरफ़ हिजरत करता फिर उसे मौत ने आलिया तो उसका सवाब अल्लाह के ज़िम्मे पर हो गया (6)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (100)

तफसीर
सूरए निसा- चौदहवाँ रूकू

(1) यह आयत उन लोगो के बारे में नाज़िल हुई जिन्होंने इस्लाम का कलिमा तो ज़बान से अदा किया मगर जिस ज़माने में हिजरत फ़र्ज़ थी उस वक़्त हिजरत न की और जब मुश्रिक  बद्र की लड़ाई में मुसलमानों के मुक़ाबले के लिये गए तो ये लोग उनके साथ हुए और काफ़िरों के साथ ही मारे भी गए. उनके हक़ में यह आयत उतरी और बताया गया कि काफ़िरों के साथ होना और हिजरत का फ़र्ज़ तर्क करना अपनी जान पर ज़ुल्म करना है.

(2) यह आयत साबित करती है जो शख़्स किसी शहर मे अपने दीन पर क़ायम न रह सकता हो और यह जाने कि दूसरी जगह जाने से अपने दीनी कर्तव्य अदा कर सकेगा, उसपर हिजरत वाजिब हो जाती है. हदीस में है जो शख़्स अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिये एक जगह से दूसरी जगह चला जाए, अगरचे एक बालिश्त ही क्यों न हो, उसके लिये जन्नत वाजिब हो जाती है. और उसको हज़रत इब्राहीम और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का साथ मिलेगा.

(3) कुफ़्र की ज़मीन से निकलने और हिजरत करने की.

(4) कि वह मेहरबानी और करम वाला है और मेहरबान जो उम्मीद दिलाता है, पूरी करता है और यक़ीनन माफ़ फरमाएगा.

(5) इससे पहली आयत जब उतरी तो जुन्दअ बिन ज़मरतुल लैसी ने उसे सुना. ये बहुत बूढ़े शख़्स थे. कहने लगे कि मैं छूट दिए गए लोगों में से तो हूँ  नहीं, क्योंकि मेरे पास इतना माल है कि जिससे मैं मदीनए तैय्यिबह हिजरत करके पहुंच सकता हूँ  ख़ुदा की क़सम मक्कए मुकर्रमा में अब एक रात न ठहरूंगा. मुझे ले चलो. चुनांचे उनको चारपाई पर लेकर चले. तनईम आकर उनका इन्तिक़ाल हो गया. आख़िर वक़्त उन्होंने अपना दायाँ हाथ बाएं हाथ पर रखा और कहा, या रब यह मेरा और यह तेरे रसूल का. मैं उसपर बैअत करता हूँ  जिसपर तेरे रसूल ने बैअत की. यह ख़बर पाकर सहाबए किराम ने फ़रमाया, काश वो मदीना पहुंचते तो उनका अज्र कितना बड़ा होता. और मुश्रिक हंसे और कहने लगे कि जिस मतलब के लिये निकले थे वह न मिला. इस पर यह आयत उतरी.

(6) उसके वादे और उसकी मेहरबानी और कृपा से, क्योंकि हक़ और अधिकार के तरीक़े से कोई चीज़ उसपर वाजिब नहीं उसकी शान इससे ऊपर है. जो कोई नेकी का इरादा करें और उसको पूरा करने से मजबूर हो जाए, वह उस फ़रमाँबरदारी का सवाब पाएगा.  इल्म की तलब, जिहाद, हज, ज़ियारत, फ़रमाँरदारी, पाक और सब्र वाली ज़िन्दगी और हलाल रोज़ी की तलाश के लिये वतन छोड़ना अल्लाह व रसूल की तरफ़ हिजरत करने जैसा है. इस राह में मरने वाला इनाम पाएगा.

सूरए निसा _ पंद्रहवाँ रूकू

सूरए निसा _ पंद्रहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और जब तुम ज़मीन में सफ़र करो तो तुमपर गुनाह नहीं कि कुछ नमाज़ें क़स्र (लघुता) से पढ़ो (1)
(यानी चार रकत वाली फ़र्ज़ नमाज़ दो रकत) अगर तुम्हें डर हो कि काफ़िर तुम्हें ईज़ा (कष्ट) देंगे(2)
बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं  (101)  और ऐ मेहबूब जब तुम उनमें तशरीफ़ फ़रमा हो (3)
फिर नमाज़ में उनकी इमामत करो  (4)
तो चाहिये कि उनमें एक जमाअत तुम्हारे साथ हो (5)
और वो अपने हथियार लिये रहें (6)
फिर जब वो सिजदा कर लें (7)
तो हटकर तुमसे पीछे हो जाएं (8)
और अब दूसरी जमाअत आए जो उस वक़्त तक नमाज़ में शरीक न थी  (9)
अब वो तुम्हारे मुक़्तदी  (अनुयायी) हों और चाहिये कि अपनी पनाह और अपने हथियार लिये रहें (10)
काफ़िरों की तमन्ना है कि कहीं तुम अपने हथियारों और अपने माल असबाब से ग़ाफ़िल हो जाओ तो एक दफ़ा तुम पर झुक पड़ें  (11)
और तुम पर मुज़ायक़ा (हर्ज) नहीं अगर तुम्हें मेंह के कारण तकलीफ़ हो या बीमार हो कि अपने हथियार खोल रखो और अपनी पनाह लिये रहो (12)
बेशक अल्लाह ने काफ़िरों के लिये ख़्वारी का अज़ाब तैयार कर रखा है (102) फिर जब तुम नमाज़ पढ चुको तो अल्लाह की याद करो खड़े और बैठे और करवटों पर लेटे (13)
फिर जब मुतमईन (संतुष्ट) हो जाओ तो दस्तूर के अनुसार नमाज़ क़ायम करो बेशक नमाज़ मुसलमानों पर वक़्त बांधा हुआ फर्ज़ है (14)(103)
और काफ़िरों की तलाश में सुस्ती न करो अगर तुम्हें दुख पहुंचता है तो उन्हें भी दुख पहुंचता है जैसा तुम्हें पहुंचता है और तुम अल्लाह से वह उम्मीद रखते हो जो वो नहीं रखते और अल्लाह जानने वाला हिकमत वाला है   (15)(104)

तफसीर
सूरए निसा-पंद्रहवाँ रूकू

(1) यानी चार रकअत वाली दो रकअत.

(2) काफ़िरों का डर क़स्र नमाज़ के लिये शर्त नहीं. यअली बिन उमैया ने हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो से कहा कि हम तो अम्न में हैं फिर हम क्यों क़स्र करते हैं? फ़रमाया इसका मुझे भी तअज्जुब हुआ था तो मैंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दरियाफ़्त किया. हुज़ूर ने फ़रमाया कि तुम्हारे लिये यह अल्लाह की तरफ़ से सदक़ा है. तुम उसका सदक़ा क़ुबूल करो. इस से यह मसअला मालूम होता है कि सफ़र में चार रकअत वाली नमाज़ को पूरा पढ़ना जायज़ नहीं है. आयत उतरने के वक़्त सफ़र ख़तरे से खाली नहीं होते थे इसलिये इस आयत में इसका ज़िक्र  बयाने हाल है, कस्र की शर्त नहीं. हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर की क़िरअत भी इसकी दलील है जिसमे “ऐय्यफ़तिनाकुम” (तुम्हें तकलीफ़ पहुंचाएंगे) बगैर इन – ख़िफ़तुम (अगर तुम्हें डर हो)के है, सहाबा का भी यही अमल था कि अम्न के सफ़र में भी क़स्र फ़रमाते थे, जैसा कि ऊपर की हदीस से साबित होता है. और हदीसों से भी यह साबित है. और पूरी चार पढ़ने में अल्लाह तआला के सदक़े का रद करना लाज़िम आता है, लिहाज़ा क़स्र ज़रूरी है.
सफ़र की मुद्दत :- जिस सफ़र मे क़स्र किया जाता है उसकी कम से कम मुद्दत तीन रात दिन की दूरी है जो ऊंट या पैदल की दरमियानी रफ़्तार से तय की जाती हो और उसकी मिक़दारे ख़ुश्की और दरिया और पहाड़ों में मुख़्तलिफ़ हो जाती हैं. जो मसाफ़त या दूरी औसत रफ़्तार से चलने वाले तीन दिन में तय करते हों, उनके सफ़र में क़स्र होगा. मुसाफ़िर की जल्दी या देर का ऐतिबार नहीं, चाहे वह तीन दिन की दूरी तीन घंटों में तय करे, जब भी क़स्र होगा और अगर एक रोज़ की मसाफ़त तीन दिन से ज़्यादा में तय करे तो क़स्र न होगा. ग़रज़ ऐतिबार  दूरी का है.

(3) यानी अपने असहाब में.

(4) इसमें ख़ौफ़ की नमाज़ जमाअत का बयान है. जिहाद में जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मुश्रिकों ने देखा कि आपने तमाम सहाबा के साथ ज़ोहर की नमाज़ जमाअत से अदा फ़रमाई तो उन्हें अफ़सोस हुआ कि उन्होंने उस वक़्त क्यों न हमला किया और आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि क्या ही अच्छा मौक़ा था. उनमें से कुछ ने कहा, इसके बाद एक और नमाज़ है जो मुसलमानों को अपने माँ बाप से ज़्यादा प्यारी है यानी अस्र की नमाज़, जब मुसलमान इस नमाज़ के लिये खड़े हो तो पूरी क़ुव्वत से हमला करके उनहे क़त्ल कर दो, उस वक़्त हज़रत जिब्रील हाज़िर हुए और उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया या रसूलल्लाह यह नमाज़े ख़ौफ़ है और अल्लाह तआला फ़रमाता है “वइज़ा कुन्ता फ़ीहिम.” (और ऐ मेहबूब जब तुम उनमें तशरीफ़ फ़रमा हो).

(5) यानी हाज़िरीन को दो जमाअतों में तक़सीम कर दिया जाए. एक उनमें से आपके साथ रहे, आप उन्हें नमाज़ पढ़ाएं और एक जमाअत दुश्मन के मुक़ाबले में क़ायम रहे.

(6) यानी जो लोग दुश्मन के मुक़ाबिल हों, हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि अगर जमाअत के नमाज़ी मुराद हों तो वो लोग ऐसे हथियार लगाए रहें जिनसे नमाज़ में कोई ख़लल न हो जैसे तलवार, खंजर वग़ैरह, कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि हथियार साथ रखने का हुक्म दोनो पक्षों के लिये है और यह एहतियात के क़रीब है.

(7) यानी दोनों सिजदे करके रकअत पूरी कर लें.

(8) ताकि दुश्मन के मुक़ाबले मे खड़े हो सकें.

(9) और अब तक दुश्मन के मुक़ाबिल थी.

(10) पनाह से ज़िरह वग़ैरह ऐसी चीज़ें मुराद हैं जिससे दुश्मन के हमले से बचा जा सके. उनका साथ रखना बहरहाल वाजिब है जैसा कि क़रीब ही इरशाद होगा. “वख़ुज़ू हिज़रकुम” (और चाहिये कि अपनी पनाह लिये रहें) और हथियार साथ रखना मुस्तहब है. नमाज़े ख़ौफ़ का मुख़्तसर तरीक़ा यह है कि पहली जमाअत इमाम के साथ एक रकअत पूरी करके दुश्मन के मुक़ाबिल जाए और दूसरी जमाअत जो दुश्मन के मुक़ाबिल खड़ी थी वह आकर इमाम के साथ दूसरी रकअत पढ़े. फिर फ़क़त इमाम सलाम फेरे और पहली जमाअत आकर दूसरी रकअत बग़ैर क़िरअत के पूरी करके सलाम फेरे क्योंकि ये लोग मस्बूक़ हैं और पहली लाहिक. हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का इसी तरह नमाज़े ख़ौफ़ अदा फ़रमाना रिवायत किया है.
हुज़ूर के बाद सहाबा नमाज़े ख़ौफ़ पढ़ते रहे हैं. ख़ौफ़ की हालत में दुश्मन के सामने इस तरीक़े से नमाज़ अदा करने से मालूम होता है कि जमाअत किस क़द्र ज़रूरी है. सफ़र की हालत में अगर ख़ौफ़ की सूरत पेश आए तो उसका यह बयान हुआ. लेकिन अगर मुकीम को ऐसी हालत पेश आए तो वह चार रकअत वाली नमाज़ों में हर हर जमाअत को दो दो रकअत पढ़ाए और तीन रकअत वाली नमाज़ में पहली जमाअत को दो रकअत और दूसरी को एक.

(11) नबीये क़रीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ग़ज़वए ज़ातुर्रफ़ाअ से जब फ़ारिग़ हुए और दुश्मन के बहुत आदमियों को गिरफ़्तार किया और लूट का माल हाथ आया और कोई दुश्मन मुक़ाबिल बाक़ी न रहा तो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़ज़ाए हाज़त के लिये जंगल तन्हा तशरीफ़ ले गए तो दुश्मन की जमाअत में से हुवैरिस बिन हारिस महारबी यह ख़बर पाकर तलवार लिये हुए छुपा छुपा पहाड़ से उतरा और अचानक हुज़ूर के पास पहुंचा और तलवार खींचकर कहने लगा या मुहम्मद, अब तुम्हें मुझसे कौन बचाएगा. हुज़ूर ने फ़रमाया अल्लाह तआला, और दुआ फ़रमाई. जब उसने हुज़ूर पर तलवार चलाने का इरादा किया, औंधे मुंह गिर पड़ा और तलवार हाथ से छूट गई. हुज़ूर ने वह तलवार लेकर फ़रमाया कि अब तुझे मुझसे कौन बचाएगा, कहने लगा मेरा बचाने वाला कोई नहीं है. फ़रमाया “अशहदो अन ला इलाहा इल्लल्लाहो व अशहदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलल्लाह” पढ़ तो तेरी तलवार तुझे दूंगा. उसने इससे इन्कार किया और कहा मैं इसकी शहादत देता   हूँ कि मैं कभी आपसे न लडूंगा और ज़िन्दगी भर आपके किसी दुश्मन की मदद न करूंगा. आपने उसको उसकी तलवार दे दी. कहने लगा, या मुहम्मद, आप मुझसे बेहतर हैं. फ़रमाया हाँ हमारे लिये यहीं ठीक हैं. इसपर यह आयत उतरी और हथियार और बचाव साथ रखने का हुक्म दिया गया. (तफ़सीरे अहमदी)

(12) कि उसका साथ रखना हमेशा ज़रूरी है. इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अब्दुर रहमान बिन औंफ़ ज़ख़्मी थे और उस वक़्त हथियार रखना उनके लिये बहुत तकलीफ़दह और बोझ था. उनके बारे में यह आयत उतरी और मजबूरी की हालत में हथियार खोल रखने की इजाज़त दी गई.

(13) यानी अल्लाह का ज़िक्र हर हाल में करते रहो और किसी हाल में अल्लाह के ज़िक्र से ग़ाफ़िल न रहो. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, अल्लाह तआला ने हर फ़र्ज़ की एक हद निश्चित की है, सिवाए ज़िक्र के, इसकी कोई हद न रखी. फ़रमाया, ज़िक्र करो खड़े, बैठे, कर्वटों पर लेटे, रात में हो या दिन में, ख़ुश्की में हो या तरी में, सफ़र में हो या घर में, छुपावाँ और ज़ाहिर में. इससे नमाज़ों के बाद सलाम फेरते ही कलिमए तौहीद पढ़ने का प्रमाण मिलता है, जैसा कि मशायख़ की आदत है, और सही हदीसों से साबित है. ज़िक्र में तस्बीह, तहमीद, तहलील, तकबीर, सना, दुआ सब दाख़िल हैं.

(14) तो लाज़िम है कि उसके औक़ात की रिआयत की जाय.

(15) उहद की लड़ाई से जब अबू सुफ़ियान और उनके साथी लौटे तो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने, जो सहाबा उहद में हाज़िर हुए थे. उन्हें मुश्रिकों के पीछे जाने का हुक्म दिया. सहाबा ज़ख्मी थे. उन्हों ने अपने ज़ख़्मों की शिकायत की, इस पर यह आयत उतरी.

सूरए निसा – सोलहवाँ रूकू

सूरए निसा – सोलहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ मेहबूब बेशक हमने तुम्हारी तरफ़ सच्ची किताब उतारी कि तुम लोगों में फैसला करो (1)
जिस तरह तुम्हें अल्लाह दिखाए (2)
और दग़ा वालों की तरफ़ से न झगड़ो (105)  और अल्लाह से माफ़ी चाहो बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है(106)  और उनकी तरफ़ से न झगड़ो जो अपनी जानो को ख़यानत(बेईमानी) में डालते हैं (3)
अल्लाह नहीं चाहता किसी बड़े दग़ाबाज़ गुनाहगार को (107) आदमियों से छुपाते हैं और अल्लाह से नहीं छुपते (4)
और अल्लाह उनके पास है  (5)
जब दिल में वह बात तजवीज़ (प्रस्तावित) करते हैं जो अल्लाह को नापसन्द है (6)
और अल्लाह उनके कामों को घेरे हुए है (108) सुनते हो यह जो तुम हो (7)
दुनिया की ज़िन्दगी में तो उनकी तरफ़ से झगड़े तो उनकी तरफ़ से कौन झगड़ेगा अल्लाह से क़यामत के दिन या कौन उनका वकील होगा  (109) और जो कोई बुराई या अपनी जान पर ज़ुल्म करे फिर अल्लाह से बख़्शिश चाहे तो अल्लाह को बख़्शने वाला मेहरबान पाएगा (110) और जो गुनाह कमाए तो उसकी कमाई उसी की जान पर पड़े और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है (8) (111)
और जो कोई ख़ता या गुनाह कमाए (9)
फिर उसे किसी बे गुनाह पर थोप दे उसने ज़रूर बोहतान और खुला गुनाह उठाया (112)

तफसीर
सूरए निसा – पंद्रहवाँ रूकू

(1) अनुसार के क़बीले बनी ज़फर के एक शख़्स तोअमा बिन उबैरक ने अपने पड़ोसी क़तादा बिन नोअमान की ज़िरह चुराकर आटे की बोरी में ज़ैद बिन सीमीन यहूदी के यहाँ छुपाई. जब ज़िरह की तलाश हुई और तोअमा पर शुबह किया गया तो वह इन्कार कर गया और क़सम खा गया. बोरी फटी हुई थी और उसमें से आटा गिरता जाता था. उसके निशान से लोग यहुदी के मकान तक पहुंचे और बोरी वहाँ पाई गई. यहूदी ने कहा कि तोअमा उस के पास रख गया है. यहूदियों की एक जमाअत ने इसकी गवाही दी. और तोअमा की क़ौम बनी ज़फर ने यह निश्चय कर लिया कि यहूदी को चोर बताएंगे और उसपर क़सम खालेंगे ताकि क़ौम रूस्वा न हो और उनकी ख़्वाहिश थी कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तोअमा को बरी कर दें और यहूदी को सज़ा दें. इसीलिए उन्होंने हुज़ूर के सामने यहूदी के ख़िलाफ़ झूठी गवाही दी और तोअमा की हिमायत में बोले. और इस गवाही पर कोई तर्क वितर्क न हुआ. (इस घटना के मुतअल्लिक़ कई रिवायतें आई हैं और उनमें आपसी मतभेद भी है).

(2) और इल्म अता फ़रमाए. इल्मे यक़ीनी को ज़ुहूर की क़ुव्वत की वजह से रूयत से ताबीर फ़रमाया. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि हरगिज़ कोई न कहे, जो अल्लाह ने मुझे दिखाया उसपर मैं ने फ़ैसला किया, क्योकि अल्लाह तआला ने ये मन्सब ख़ास अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अता फ़रमाया. आपकी राय हमेशा सही होती है, क्योंकि अल्लाह तआला ने हक़ीक़तों और होने वाली बातों को आपके सामने कर दिया है और दूसरे लोगों की राय अन्दाज़े का दर्जा रखती है.

(3) गुनाह करके.

(4) शर्म नहीं करते.

(5) उनका हाल जानता है. उसपर उनका कोई राज़ छुप नहीं सकता.

(6) जैसे तोअमा की तरफ़दारी में झूठी क़सम और झूठी गवाही.

(7) ऐ तोअमा की क़ौम.

(8) किसी को दूसरे के गुनाह पर अज़ाब नहीं फ़रमाता.

(9) छोटे या बड़े.

सूरए निसा -सत्तरहवाँ रूकू

सूरए निसा -सत्तरहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और ऐ मेहबूब अगर अल्लाह का फ़ज़्ल व रहमत तुमपर न होता (1)
तो उनमें के कुछ लोग यह चाहते कि तुम्हें धोखा दे दे और वो अपने ही आपको बहका रहे हैं (2)
और तुम्हारा कुछ न बिगाड़ेंगे (3)
और अल्लाह ने तुम पर किताब (4)
और हिकमत (बोध) उतारी  और तुम्हें सिखा दिया जो कुछ तुम न जानते थे (5)
और  अल्लाह का तुमपर बड़ा फ़ज़्ल है  (6) (113)
उनके अकसर मशवरों में कुछ भलाई नहीं (7)
मगर जो हुक्म दे ख़ैरात या अच्छी बात या लोगों में सुलह करने का और जो अल्लाह की रज़ा चाहने को ऐसा करे उसे जल्द ही हम बड़ा सवाब देंगे (114) और जो रसूल का विरोध करे बाद इसके कि हक़ (सच्चा) रास्ता उसपर खुल चुका और मुसलमानों की राह से अलग राह चले हम उसे उसके हाल पर छोड़ देंगे और उसे दोज़ख़ में दाख़िल करेंगे और क्या ही बुरी जगह पलटने की (8) (115)

तफसीर
सूरए निसा- सत्तरहवाँ रूकू

(1) तुम्हें नबी और मासूम करके और राज़ों पर मुत्तला फ़रमा के.

(2) क्योंकि इसका वबाल उन्हीं पर है.

(3) क्योंकि अल्लाह तआला ने आपको हमेशा के लिये मासूम यानी गुनाहों से पाक किया है.

(4) यानी क़ुरआने करीम.

(5) दीन की बातों और शरीअत के आदेश और ग़ैब के इल्म. इस आयत से साबित हुआ कि अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तमाम कायनात के उलूम अता फ़रमाए और किताब व हिकमत के रहस्यों और हक़ीक़तों पर सूचित किया. यह मसअला क़ुरआने करीम की बहुत सी आयतों और कई हदिसों से साबित है.

(6) कि तुम्हें इन नेअमतों के साथ मुमताज़ किया.

(7) यह सब लोगों के हक़ में आम है.

(8) यह आयत दलील है इसकी कि सर्वसम्मति आख़िरी चीज़ है इसकी मुख़ालिफ़त जायज़ नहीं जैसे कि किताब व सुन्नत का विराध जायज़ नहीं (मदारिक). और इस से साबित हुआ कि मुसलमानों का तरीक़ा ही सीधी सच्ची राह है. हदीस शरीफ़ में आया है कि जमाअत पर अल्लाह का हाथ है. एक और हदीस में है कि बड़ी जमाअत का अनुकरण करो. जो मुसलमानों की जमाअत से अलग हुआ वह दोज़ख़ी है. इससे साफ़ है कि मज़हबे एहले सुन्नत वल जमाअत ही सच्चा मज़हब है.

सूरए निसा _ अठ्ठारहवाँ रूकू

सूरए निसा _ अठ्ठारहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

अल्लाह उसे नहीं बख़्शता कि उसका कोई शरीक ठहराया जाए और उससे नीचे जो कुछ है जिसे चाहे माफ़ फ़रमा देता है (1)
और जो अल्लाह का शरीक ठहराए वह दूर की गुमराही में पड़ा (116) ये शिर्क वाले अल्लाह के सिवा नहीं पूजते मगर कुछ औरतों को (2)
और नहीं पूजते मगर सरकश (बाग़ी) शैतान को (3)(117)
जिसपर अल्लाह ने लाअनत की और बोला(4)
क़सम है मैं ज़रूर तेरे बन्दों में से कुछ ठहराया हुआ हिस्सा लूंगा (5) (118)
क़सम है मैं ज़रूर बहकाऊंगा और ज़रूर उन्हें आरज़ुएं दिलाउंगा  (6)
और ज़रूर उन्हें कहुंगा कि वो चौपायों के कान चीरेंगे  (7)
और ज़रूर उन्हें कहुंगा कि वो अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ें बदल देंगे (8)
और जो अल्लाह को छोड़कर शैतान को दोस्त बनाये वह खुल्लम खुल्ला टोटे में पड़ा (119) शैतान उन्हें वादे देता है और आरज़ूएं दिलाता है (9)
और शैतान उन्हें वादे नहीं देता मगर धोखे के (10) (120)
उनका ठिकाना दोज़ख़ है उससे बचने की जगह न पाएंगे (121)
और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये कुछ देर जाती है कि हम उन्हें बाग़ों में ले जाएंगे जिनके नीचे नहरे बहें हमेशा हमेशा उन में रहें  अल्लाह का सच्चा वादा और अल्लाह से ज़्यादा किसकी बात सच्ची (122) काम न कुछ तुम्हारे ख़्यालों पर हैं (11)
और न किताब वालों की हवस पर  (12)
जो बुराई करेगा (13)
उसका बदला पाएगा और अल्लाह के सिवा न कोई अपना हिमायती पायेगा न मददगार(14)(123)
और जो  कुछ भले काम करेगा मर्द हो या औरत और हो मुसलमान  (15)
तो वो जन्नत में दाख़िल किये जाएंगे और उन्हें तिल भर नुक़सान न दिया जाएगा (124) और उससे बेहतर किसका दीन जिसने अपना मुंह अल्लाह के लिये झुका दिया (16)
और वह नेकी वाला है और इब्राहीम के दीन पर (17)
जो हर बातिल  (असत्य) से अलग था और अल्लाह ने इब्राहीम को अपना गहरा दोस्त बनाया (18) (125)
और अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में और हर चीज़ पर अल्लाह का क़ाबू है (19)(126)

तफसीर
सूरए निसा _ अठ्ठारहवाँ रूकू

(1) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा का क़ौल है कि यह आयत एक बुढ़े अअराबी के बारे मे नाज़िल हुई जिसने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के नबी, मैं बूढ़ा हूँ, गुनाहों में डुबा हुआ हूँ, सिवाए इसके कि जबसे मैंने अल्लाह को पहचाना और उसपर ईमान लाया, उस वक़्त से कभी मैंने उसके साथ शिर्क न किया और उसके सिवा किसी और को वली न बनाया और जुरअत के साथ गुनाहों में मुब्तला न हुआ और एक पल भी मैं ने यह गुनाह न किया मैं अल्लाह से भाग सकता हूँ, शर्मिन्दा हुं, ताइब हूं, मग़फ़िरत चाहता हूँ, अल्लाह के यहां मेरा क्या हाल होगा. इस पर यह आयत उतरी. यह आयत इस बार पर क़ुरआन की दलील है कि शिर्क बख़्शा न जाएगा, अगर मुश्रिक अपने शिर्क से तौबह करे और ईमान लाए तो उसकी तौबह व ईमान क़ुबूल है.

(2) मादा बुतों को जैसे लात, उज़्ज़ा मनात, वग़ैरह. ये सब देवियां हैं. और अरब के हर क़बीले का एक बुत था, जिसकी वो इबादत करते थे और उसको उस क़बीले की उनसा (औरत) कहते थे. हज़रत आयशा रदियल्लाहो अन्हा की क़िरअत और हज़रत इब्ने अब्बास की क़िरअत से भी साबित होता है कि “इनास” (कुछ औरतों) से मुराद बुत हैं. एक क़ौल यह भी है कि अरब के मुश्रिक अपने बातिल माअबूदों  को ख़ुदा की बेटियां कहते थे और  एक क़ौल यह है कि मुश्रिक बुतों को ज़ेवर पहनाकर औरतों की तरह सजाते थे.

(3) क्योंकि उसी के बहकावे से बुतों को पूजते थे.

(4) शैतान.

(5) उन्हें अपना मुतीअ बनाऊंगा.

(6) तरह तरह की, कभी लम्बी उम्र की, कभी दुनिया के मज़ों की, कभी बातिल ख़्वाहिशात की, कभी और कभी और.

(7) चुनान्चें उन्होंने ऐसा किया कि ऊंटनी जब पाँच बार ब्याह लेती तो वह उसकी छोड़ देते और उसको नफ़ा उठाना अपने ऊपर हराम कर लेते और उसका दूध बूतों के लिये कर लेते और उसको बहीरा कहते थे. शैतान ने उसके दिल में यह डाल दिया था कि ऐसा करना इबादत है.

(8) मर्दों का औरतों की शक्ल में ज़नाना लिबास पहनना, औरतों की तरह बातचीत और हरक़तें करना, जिस्म को गोदकर सुरमा या सिन्दुर वग़ैरह ख़ाल में पैवस्त करके बेल बूटे बनाना भी इसमें दाख़िल है.

(9) और दिल में तरह तरह की उम्मीदें और  वसवसे डालता हैं ताकि इन्सान गुमराही में पड़े.

(10) कि जिस चीज़ के नफ़े और फ़ायदे की आशा दिलाता है, वास्तव में उसमें सख़्त घाटा और नुक़सान होता हैं.

(11) जो तुमने सोच रखा हैं कि बुत तुम्हें नफ़ा पहुचाएंगे.

(12) जो कहते कि हम अल्लाह के बेटे और प्यारे हैं हम आग कुछ दिन से ज़्यादा न जलाएंगे, यहूदियों और ईसाइयों का यह ख़्याल भी मुश्रिकों की तरह बातिल हैं.

(13) चाहे मुश्रिकों में से हो या यहूदियों और ईसाइयों में से.

(14) यह फ़टकार काफ़िरों के लिये है.

(15) इसमें इशारा है कि अअमाल यानी कर्म ईमान में दाख़िल नहीं.

(16) यानी फ़रमाँबरदारी और इख़्लास किया.

(17) जो मिल्लते इस्लामिया के मुवाफ़िक़ है. हज़रत इब्राहीम की शरीअत और मिल्लत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मिल्लत में दाख़िल है और दीने मुहम्मदी की विशेषताएं इसके अलावा है. दीने मुहम्मदी पर चलने से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की शरीअत और मिल्लत का अनुकरण हो जाता है. चूंकि अरब और यहूदी और ईसाई सब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से होने में गर्व रखते थे और आपकी शरीअत उन सबको प्यारी थी और शरीअते मुहम्मदी उसपर हावी है, तो उन सबको दीने मुहम्मदी में दाख़िल होना और उसको क़ुबूल करना लाज़िम है.

(18) “खिल्लत” सच्ची यगानगत और ग़ैर से नाता तोड़ने को कहते है. हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम यह गुण रखते थे इसलिये आपको “ख़लील” कहा गया. एक क़ौल यह भी है कि ख़लील उस मुहिब को कहते है जिसकी महब्बत सम्पूर्ण हो और उसमें किसी क़िस्म की रूकावट और नुक़सान न हो. यह मानी भी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम में पाए जाते हैं. सारे नबियों के जो कमालात हैं सब नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हासिल हैं. हुज़ूर अल्लाह के ख़लील भी है जैसा कि बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है और हबीब भी, जैसा कि तिरमिज़ी शरीफ़ की हदीस में है कि मैं अल्लाह का हबीब हूँ और यह गर्व से नहीं कहता.

(19) और वह उसके इल्म और क़ुदरत के इहाते में है. इहाता-बिल-इल्म यह है कि किसी चीज़ के लिये जितने कारण हो सकते है उसमें कोई कारण इल्म से बाहर न हो.

सूरए निसा _ उन्नीसवाँ रूकू

सूरए निसा _ उन्नीसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और तुमसे  औरतों के बारे में फ़तवा पूछते हैं (1)
तुम फ़रमा दो कि अल्लाह तुम्हें उनका फ़तवा देता है और वह जो तुमपर क़ुरआन में पढ़ा जाता है उन यतीम लड़कियों के बारे में कि तुम उन्हें नहीं देते जो उनका मुक़र्रर है (2)
और उन्हें निकाह में भी लाने से मुंह फेरते हो  और कमज़ोर (3)
बच्चों के बारे में और यह  कि यतीमों के हक़ में इन्साफ़ पर क़ायम रहो (4)
और तुम जो भलाई करो तो अल्लाह को उसकी ख़बर है (127) और अगर कोई औरत अपने शौहर की ज़ियादती या बेरग़बती  (अरूचि) का डर करे   (5)
तो उन पर गुनाह नहीं कि आपस में सुल्ह करलें (6)
और सुल्ह ख़ूब है (7)
और दिल लालच के फंदे में हैं (8)
और अगर तुम नेकी और परहेज़गारी करो (9)
तो अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (10)(128)
और तुमसे कभी न हो सकेगा कि औरतों को बराबर रखो और चाहे कितनी ही हिर्स (लालच) करो (11)
तो यह तो न हो कि एक तरफ़ पूरा झुक जाओ कि दूसरी को अधर में लटकती छोड़ दो  (12)
और अगर तुम नेकी और परहेज़गारी करो तो बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है  (129) और अगर वो दोनों (13)
अलग हो जाएं तो अल्लाह अपनी कुशायश (बरकत) से तुम में हर एक को दूसरे से बेनियाज़ (बेपरवाह) कर देगा(14)
और अल्लाह कुशायश (वृद्धि) वाला हिकमत वाला है (130) और अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में और बेशक ताकीद फ़रमा दी है हमने उनसे जो तुमसे पहले किताब दिये गए और तुमको कि अल्लाह से डरते रहो (15)
और अगर कुफ्र करो तो बेशक अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है  और जो कुछ ज़मीन में (16)
और अल्लाह बेनियाज़ है (17)
सब ख़ूबियों सराहा (131) अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में और अल्लाह काफी है कारसाज़ (132)  ऐ लोगो वह चाहे तो तुम्हें ले जाए (18)
और औरों को ले आए और अल्लाह को इसकी क़ुदरत (क्षमता) है  (133) जो दुनिया का इनाम चाहे तो अल्लाह ही के पास दुनिया और आख़िरत दोनों का इनाम है(19) और अल्लाह ही सुनता देखता है(134)

तफसीर
सूरए निसा _ उन्नीसवाँ रूकू

(1) ज़ाहिलियत के ज़माने में अरब के लोग औरत और छोटे बच्चों को मैयत के माल का वारिस नहीं मानते थे. जब मीरास की आयत उतरी तो उन्होंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह, सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म, क्या औरत और छोटे बच्चे वारिस होंगे, आपने उनको इस आयत से जवाब दिया, हज़रत आयशा रदियल्लाहो अन्हा ने फ़रमाया कि यतीमों के सरपरस्तों का तरीक़ा यह था कि अगर यतीम लड़की माल और सौंदर्य वाली होती तो उससे थोड़े से मेहर पर निकाह कर लेते और अगर हुस्न और माल न रखती तो उसे छोड़ देते और अगर ख़ूबसूरत न होती और मालदार होती तो उससे निकाह न करते और इस डर से दूसरे के निकाह में न देते कि वह माल में हिस्सेदार हो जाएगा. अल्लाह ताअला ने ये आयतें उतार कर उन्हें इन आदतों से मना फ़रमाया.

(2) मीरास से.

(3) यतीम या अनाथ.

(4) उनके पूरे अधिकार उनको दो.

(5) ज़्यादती तो इस तरह कि उससे अलग रहे, खाने पहनने को न दे या कमी करे या मारे या बदज़बानी करे, और बेरग़बती यह कि महब्बत न रखे, बोल चाल छोड़ दे या कम कर दे.

(6) और इस सुल्ह के लिये अपने अधिकारों का बोझ कम करने पर राज़ी हो गएं.

(7) और ज़ियादती और जुदाई दोनो से बेहतर है.

(8) हर एक अपनी राहत और आसाइश चाहता और अपने ऊपर कुछ मशक्क़त गवारा करके दूसरे के आसाइश को प्राथमिकता नहीं देता.

(9) और नापसन्द होने के बावज़ूद अपने मोज़ूदा औरतों पर सब्र करो और उनके साथ अच्छा बर्ताव करो और उन्हें तक़लीफ़ दुख देने से और झगड़ा पैदा करने वाली बातों से बचते रहो और सोहबत और सहवास में नेक सुलूक करो और यह जानते रहो के वह तुम्हारे पास अमानतें है.

(10) वह तुम्हें तुम्हारे कर्मों का इनाम देगा.

(11) यानी अगर कई बीवियाँ हो तो यह तुम्हारी क्षमता में नहीं कि हर काम में तुम उन्हें बराबर रखो, किसी को किसी पर तर्ज़ीह न होने दो, न मेल महब्बत में, न ख़्वाहिश और रग़बत में, न इशरत और इख़्तिलात में, न नज़र और तवज्जुह में, तुम कोशिश करके यह तो कर नहीं सकते लेकिन अगर इतना तुम्हारी क्षमता या बस में नहीं है और इस वज़ह से इन तमाम पाबन्दियों का बोझ तुम पर नहीं रखा गया है और दिली मोहब्बत और सच्चा प्यार जो तुम्हारा इख़्तियार नहीं है उसमें बराबरी करने का तुम्हें हुक्म नहीं दिया गया.

(12) बल्कि यह ज़रूर है कि जहाँ तक तुम्हें क़ुदरत और इख़्तियार है वहां तक एक सा बर्ताव करो, महब्बत इख़्तियारी चीज़ नहीं. तो बातचीत, सदव्यवहार, खाने पहनने, साथ रखने ऐसी बातों में बराबरी करना तुम्हारे बस में है. इन बातों में दोनो के साथ एक सा सुलूक करना लाज़िम और  ज़रूरी है.

(13) मियाँ बीवी में आपस में सुलह न करें और वो जुदाई बेहतर समझे और ख़ुलअ के साथ अलाहदगी हो जाए या मर्द औरत को तलाक़ देकर उसका मेहर और इद्दत का ख़र्चा पानी अदा करदे और इस तरह वह…….

(14) और  एक को बेहतर बदल या पर्याय अता फ़रमाएगा.

(15) उसकी फ़रमाँबरदारी करो और उसके हुक्म के ख़िलाफ़ न करो, तौहीद और शरीअत पर क़ायम रहो, इस आयत से मालूम हुआ कि तक़वा और  परहेज़गारी का हुक्म पहले से है. तमाम उम्मतों को इसकी ताक़ीद होती रही है.

(16) तमाम जगत उसके फरमाँबरदारों से भरा है. तुम्हारे कुफ़्र से उसका क्या नुक़सान.

(17) तमाम सृष्टि से और उनकी इबादत से.

(18) मादूम यानी ख़त्म कर दे.

(19) मतलब यह है कि जिसको अपने अमल से दुनिया की तलब हो और उसकी मुराद उतनी ही जो अल्लाह उसको दे देता है और आख़िरत के सवाब के लिये किया तो अल्लाह दुनिया और आख़िरत दोनो में सवाब देने वाला है. जो शख़्स अल्लाह से फ़क़त दुनिया का तालिब हो, वह नादान, ख़सीस और  कम हिम्मत है.

सूरए निसा – बीसवाँ रूकू

सूरए निसा- बीसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ ईमान वालो इन्साफ़ पर ख़ूब क़ायम हो जाओ  अल्लाह के लिये गवाही देते चाहे इसमें तुम्हारा अपना नुक़सान हो या मां बाप का या रिश्तेदारों का, जिसपर गवाही दो वह ग़नी (मालदार) हो या फ़क़ीर हो (1)
हर हाल में अल्लाह को उसका सबसे ज़्यादा इख़्तियार है तो ख़्वाहिश के पीछे न जाओ कि हक़ से अलग पड़ो और अगर तुम हेर फेर करो (2)
या मुंह फेरो (3)
तो अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है  (4) (135)
ऐ ईमान वालो ईमान रखो अल्लाह और अल्लाह के रसूल पर (5)
और इस किताब पर जो अपने इन रसूल पर उतरी और उस किताब पर जो पहले उतरी (6)
और जो न माने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और किताबों और रसूलों और क़यामत को (7)
तो वह ज़रूर दूर की गुमराही में पड़ा (136) बेशक वो लोग जो ईमान लाए फिर काफ़िर हुए फिर ईमान लाए फिर काफ़िर हुए फिर और कुफ़्र में बढ़े (8)
अल्लाह कभी न उन्हें बख़्शे(9)
न उन्हें राह दिखाए(137) ख़ुशख़बरी दो मुनाफिक़ों को कि उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है  (138) वो जो मुसलमानों को छोड़कर काफ़िरों को दोस्त बनाते हैं (10)
क्या उनके पास इज़्ज़त ढूंढते हैं तो इज़्ज़त तो सारी अल्लाह ही के लिये है (11)(139)
और बेशक अल्लाह तुमपर किताब  (12)
में उतार चुका कि जब तुम अल्लाह की आयतों को सुनो कि उनका इन्कार किया जाता और उनकी हंसी बनाई जाती तो उन लोगों के साथ न बैठों जब तक वो और बात में मशग़ूल न हों(13)
वरना तुम भी उन्हीं जैसे हो (14)
बेशक अल्लाह मुनाफ़िक़ों और काफ़िरों सब को जहन्नम में इकट्ठा करेगा (140) वो जो तुम्हारी हालत तका करते हैं तो अगर अल्लाह की तरफ़ से तुमको फ़तह मिले कहें क्या हम तुम्हारे साथ न थे  (15)
और अगर काफ़िरों का हिस्सा हो तो उनसे कहें क्या हमें तुमपर क़ाबू न था (16)
और हमने तुम्हें मुसलमानों से बचाया (17)
तो अल्लाह तुम सबमें (18)
क़यामत के दिन फैसला कर देगा (19)
और अल्लाह काफ़िरों को मुसलमानों पर कोई राह न देगा (20)
(141)

तफसीर
सूरए निसा _ बीसवाँ रूकू

(1) किसी की रिआयत और तरफ़दारी में इन्साफ़ से न हटो और कोई सम्बन्ध और रिश्ता सत्य कहने में आड़े न आने पाए.

(2) सत्य कहने में और जैसा चाहिये न कहो.

(3) गवाही देने से.

(4) जैसे कर्म होंगे वैसा बदला देगा.

(5) यानी ईमान पर डटे रहो. यह अर्थ उस सूरत में है कि “या अय्युहल्लज़ीना आमनू” का सम्बोधन मुसलमानों से हो और अगर ख़िताब यहूदियों और ईसाईयों से हो तो मानी ये होंगे कि ऐ कुछ किताबों और कुछ रसूलों पर ईमान लाने वालो, तुम्हें यह हुक्म है. और अगर सम्बोधन मुनाफ़िक़ीन से हो तो मानी ये हैं कि ऐ ईमान का ज़ाहिरी दावा करने वालो, सच्चे दिल से ईमान लाओ. यहाँ रसूल से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और किताब से क़ुरआने पाक मुराद है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, यह आयत अब्दुल्लाह बिन सलाम और असद व उसैद और सअलबा बिन क़ैस और सलाम व सलमा व यामीन के बारे में उतरी. ये लोग किताब वालों के मूमिनीन में से थे. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया, हम आप पर और आपकी किताब पर और हज़रत मूसा पर, तौरात पर और उज़ैर पर ईमान लाते हैं और इसके सिवा बाक़ी किताबों और रसूलों पर ईमान न लाएंगे. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे फ़रमाया कि तुम अल्लाह पर और उसके रसूल मुहम्मदे मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) पर और क़ुरआन पर और इससे पहली हर किताब पर ईमान लाओ. इस पर यह आयत उतरी.

(6) यानी क़रआने पाक पर और उन तमाम किताबों पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने क़ुरआन से पहले अपने नबियों पर नाज़िल फ़रमाई.

(7) यानी उनमें से किसी एक का भी इन्कार करे कि एक रसूल और एक किताब का इन्कार भी सब का इन्कार है.

(8) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यह आयत यहूदियों के बारे में उतरी जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाए फिर बछड़ा पूज कर काफ़िर हुए फिर उसके बाद ईमान लाए. फिर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और इंजिल का इन्कार करके काफ़िर हो गए फिर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और क़ुरआन का इन्कार करके और कुफ़्र में बढ़े. एक क़ौल यह है कि यह आयत मुनाफ़िकों के बारे में उतरी कि वो ईमान लाऐ  फिर काफ़िर हो गए. ईमान के बाद फिर ईमान लाए. यानि उन्होंने अपने ईमान का इज़हार किया ताकि उनपर ईमान वालों के एहकाम जारी हों. फिर कुफ़्र में बढ़े यानी कुफ़्र पर उनकी मौत हुई.

(9)  जब तक कुफ़्र पर रहे और कुफ़्र पर मरे क्योंकि कुफ़्र बख़्शा नहीं जाता मगर जबकि काफ़िर तौबह करे और ईमान लाए, जैसा कि फ़रमाया “क़ुल लिल्लज़ीना क़फ़रू ईंय्य यन्तहू युग़फ़र लहुम मा क़द सलफ़” (तुम काफ़िरों से फ़रमाओ अगर वो बाज़ रहे तो जो हो गुज़रा वह उन्हें माफ़ फ़रमा दिया जाएगा) (सूरए अन्फ़ाल, आयत38).

(10) यह मुनाफ़िक़ों का हाल है जिनका ख़्याल था कि इस्लाम ग़ालिब न होगा और इसलिये वो काफ़िरों को क़ुव्वत और शानो शौक़त वाला समझकर उनसे दोस्ती करते थे और उनसे मिलने में बड़ाई जानते थे जबकि काफ़िरों के साथ दोस्ती वर्ज़ित और उनके मिलने से इज़्ज़त की तलब बातिल.

(11) और उसके लिये जिसे वह इज़्ज़त दे, जैसे कि नबी और ईमान वाले.

(12) यानी क़ुरआन.

(13) काफ़िरों के साथ दोस्ती और उनकी बैठकों में शरीक होना ऐसे ही और अधर्मियों और गुमराहों की मजलिसों में शिरकत और उनके साथ याराना और उठना बैठना मना फ़रमाया गया.

(14) इससे साबित हुआ कि कुफ़्र के साथ राज़ी होने वाला भी काफ़िर है.

(15) इससे उनकी मुराद लूट के माल में शिरकत करना और हिस्सा चाहना है.

(16) कि तुम्हें क़त्ल करते, गिरफ़्तार करते, मगर हमने यह कुछ नहीं किया.

(17) और उन्हें तरह तरह के बहानों से रोका और उनके राज़ों पर तुम्हें बाख़बर किया. तो अब हमारे इस सुलूक की क़द्र करो और हिस्सा दो. (यह मुनाफ़िक़ों का हाल है )

(18) ऐ ईमानदारों और मुनाफ़िक़ों.

(19) कि ईमान वालों को जन्नत अता करेगा और मुनाफ़िक़ों  को जहन्नम में दाख़िल करेगा.

(20) यानी काफ़िर न मुसलमानों को मिटा सकेंगे, न तर्क में परास्त कर सकेंगे. उलमा ने इस आयत से चन्द मसअले निकाले हैं. (1) काफ़िर मुसलमान का वारिस नहीं. (2) काफ़िर मुसलमान के माल पर इस्तीला पाकर मालिक नहीं हो सकता. (3) काफ़िर को मुसलमान ग़ुलाम ख़रीदने का हक़ नहीं.
(4) ज़िम्मी के बदले मुसलमान क़त्ल न किया जाएगा (जुमल).

सूरए निसा – इक्कीसवाँ रूकू

सूरए निसा – इक्कीसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

बेशक मुनाफ़िक़ लोग अपने गुमान में अल्लाह को धोखा दिया चाहते हैं (1)
और वही उन्हें ग़ाफ़िल करके मारेगा और जब नमाज़ को खड़े हों (2)
तो हारे जी से (3)
लोगों को दिखावा करते हैं और अल्लाह को याद नहीं करते मगर थोड़ा  (4)(142)
बीच में डगमगा रहे हैं (5)
न इधर के और न उधर के (6)
और  जिसे अल्लाह गुमराह करे तो उसके लिये कोई राह न पाएगा (143)  ऐ ईमान वालो काफ़िरों को दोस्त न बनाओ मुसलमानों के सिवा (7)
क्या यह चाहते हो कि अपने ऊपर अल्लाह के लिये खुली हुज्जत कर लो (8)
(144) बेशक मुनाफ़िक़ दोज़ख़ के सबसे नीचे दर्जे में हैं  (9)
और तू कभी उनका मददगार न पाएगा (145) मगर वो जिन्होंने तौबह की   (10)
और संवरे और अल्लाह की रस्सी मज़बूत थामी और अपना दीन ख़ालिस अल्लाह के लिये कर लिया तो ये मुसलमानों के साथ है (11)
और जल्द ही अल्लाह मुसलमानों को बड़ा सवाब देगा   (146) और अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर क्या करेगा अगर तुम हक़ मानो और ईमान लाओ और अल्लाह है सिला( इनाम) देने वाला जानने वाला (147)

छटा पारा . ला. युहिब्बुल्लाह
(सूरए निसा . जारी)

अल्लाह पसन्द नहीं करता बुरी बात का ऐलान करना (12)
मगर मज़्लूम से (13)
और अल्लाह सुनता जानता है (148) अगर तुम कोई भलाई खुले आम करो या छुपाकर या किसी की बुराई से दरगुज़र (क्षमा) करो तो बेशक अल्लाह माफ़ करने वाला क़ुदरत वाला है  (14)(149)
वो जो अल्लाह और उसके रसूलों को नहीं मानते और चाहते हैं कि अल्लाह से उसके रसूलों को अलग कर दें(15)
और कहते हैं हम किसी पर ईमान लाए और किसी के इन्कारी हुए (16)
और चाहते हैं कि ईमान और कुफ़्र के बीच में कोई राह निकाल लें (150) यही हैं ठीक ठीक काफ़िर (17)
और हमने काफ़िरों के लिये ज़िल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है(151) और वो जो अल्लाह और उसके सब रसूलों पर ईमान लाए और उनमें से किसी पर ईमान में फर्क न किया उन्हें जल्द ही अल्लाह उनके सवाब देगा  (18)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (19) (152)

तफसीर
सूरए निसा _ इक्कीसवाँ रूकू
(1) क्योंकि हक़ीक़त में तो अल्लाह को धोख़ा देना सम्भव नहीं.

(2) ईमान वालों के साथ.

(3) क्योंकि ईमान तो है नहीं जिससे फ़रमाँबरदारी की लज़्ज़त और इबादत का लुत्फ़ हासिल हो. केवल दिखावा है. इसलिये मुनाफ़िक़ को नमाज़ बोझ मालूम होती है.

(4) इस तरह कि मुसलमानों के पास हुए तो नमाज़ पढ़ ली और अलग हुए तो ग़ायब.

(5) कुफ़्र और ईमान के.

(6) न ख़ालिस मूमिन, न खुले काफ़िर.

(7) इस आयत में मुसलमानों को बताया गया कि काफ़िरों को दोस्त बनाना मुनाफ़िक़ों की आदत है, तुम इससे बचो.

(8) अपने दोग़लेपन की, और जहन्नम के हक़दार हो जाओ

(9) मुनाफ़िक़ का अज़ाब काफ़िर से भी सख़्त है क्योंकि वह दुनिया में इस्लाम ज़ाहिर करके मुजाहिदों के हाथों से बचता रहा है और कुफ़्र के बावुजूद मुसलमानों को धोख़े में रखना और इस्लाम के साथ ठट्ठा करना उसकी आदत रही है.

(10) दोग़ली प्रवृत्ति से.

(11) दोनो दुनियाओ में.

पारा पाँच समाप्त

(12) यानी किसी के छुपे हाल का ज़ाहिर करना, इसमें पीठ पीछे बुराई भी आ गई, चुग़लख़ोरी भी, समझदार वह है जो अपने दोषो को देखे. एक क़ौल यह भी है कि बुरी बात से गाली मुराद है.

(13) कि उसको जायज़ है कि ज़ालिम के ज़ुल्म का बयान करे. वह चोर या ग़ासिब के बारे में कह सकता है कि उसने मेरा माल चुराया या ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा किया. एक शख़्स एक क़ौम का मेहमान हुआ था. उन्होंने अच्छी तरह उसकी मेज़बानी न की. जब वह वहाँ से निकला तो उनकी शिकायत करता निकला. इस घटना के बारे में यह आयत उतरी. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि यह आयत हज़रत अबुबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो के बारे में उतरी. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सामने आपकी शान में एक शख़्स ज़बान दराज़ी करता रहा. आपने कई बार ख़ामोशी की, मगर वह न रूका तो एक बार आपने उसको जवाब दिया. इस पर हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उठ खड़े हुए. हज़रत सिद्दीके अकबर ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, यह शख़्स मुझको बुरा भला कहता रहा तो हुज़ूर ने कुछ न फ़रमाया, मैं ने एक बार जवाब दिया तो हुज़ूर उठ गए. फ़रमाया, एक फ़रिश्ता तुम्हारी तरफ़ से जवाब दे रहा था, जब तुमने जवाब दिया तो फ़रिश्ता चला गया और शैतान आ गया. इसके बारे में यह आयत उतरी.

(14) तुम उसके बन्दों को माफ़ करो, वह तुम्हें माफ़ फ़रमाएगा. हदीस में है, तुम ज़मीन वालों पर रहम करो, आसमान वाला तुम पर रहम करेगा.

(15) इस तरह कि अल्लाह पर ईमान लाए और उसके रसूलों पर न लाएं.

(16) यह आयत यहूदियों और ईसाइयों के बारे में नाज़िल हुई कि यहूदी मूसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाए और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ कुफ़्र किया.

(17) कुछ रसूलों पर ईमान लाना उन्हें कुफ़्र से नहीं बचाता क्योंकि एक नबी का इन्कार भी सारे नबियों के इन्कार के बराबर है.

(18) बड़े गुनाह करने वाले भी इसमें दाख़िल है. क्योंकि वह अल्लाह और उसके सब रसूलों पर ईमान रखता है. मुअतज़िला सिर्फ़ कबीरा गुनाह करने वालो के लिये अज़ाब दिये जाने का अक़ीदा रखते हैं. इस आयत से उनके इस अक़ीदे का रद किया गया.

(19) यह आयत सिफ़ाते फ़ेअलिया (जैसे कि मग़फ़िरत व रहमत) के क़दीम होने को प्रमाणित करती है क्योंकि हुदूस के मानने वाले को कहना पड़ता है कि अल्लाह तआला (मआज़ल्लाह) अज़ल में ग़फूर व रहीम नहीं था, फिर हो गया. उसके इस क़ौल को यह आयत बातिल करती है.

सूरए निसा – बाईसवाँ रूकू

सूरए निसा – बाईसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ मेहबूब, किताब वाले  (1)
तुमसे सवाल करते हैं कि उनपर आसमान से एक किताब उतार दो (2)
तो वो तो मूसा से इससे भी बड़ा सवाल कर चुके  (3)
कि बोले हमें अल्लाह को खुल्लमखुल्ला दिखा दो तो उन्हें कड़क ने आ लिया उनके गुनाहों पर फिर बछड़ा ले बैठे  (4)
बाद इसके कि रौशन आयतें (5)
उनके पास आ चुकीं तो हमने यह माफ़ फ़रमा दिया (6)
और हमने मूसा को रौशन (खुला) ग़लबा दिया (7)(153)
फिर हमने उनपर तूर को ऊचां किया उनसे एहद लेने को और उनसे फ़रमाया कि हफ़्ते में हद से न बढ़ो (8)
और हमने उनसे गाढ़ा एहद लिया  (9) (154)
तो उनकी कैसी बद एहदियों के सबब हमने उनपर लअनत की और इसलिये कि वो अल्लाह की निशानियों के इन्कारी हुए (10)
और नबियों को नाहक़ शहीद करते  (11)
और उनके इस कहने पर कि हमारे दिलों पर ग़लाफ़ हैं  (12)
बल्कि अल्लाह ने उनके कुफ़्र के सबब उनके दिलों पर मुहर लगा दी है तो ईमान नहीं लाते मगर थोड़े (155) और इसलिये कि उन्होंने कुफ़्र किया (13)
और मरयम पर बड़ा बोहतान  (आरोप) उठाया (156) और उनके इस कहने पर कि हमने मसीह ईसा मरयम के बेटे अल्लाह के रसूल को शहीद किया (14)
और है यह कि उन्होंने न उसे क़त्ल किया और न उसे सूली दी बल्कि उनके लिये उनकी शबीह का  (उनसे मिलता जुलता) एक बना दिया गया (15)
और वो जो उसके बारे में विरोध कर रहे हैं ज़रूर उसकी तरफ़ से शुबह में पड़े हुए हैं  (16)
उन्हें उसकी कुछ भी ख़बर नहीं (17)
मगर यह गुमान की पैरवी  (18)
और बेशक उन्होंने उसको क़त्ल नहीं किया  (19)  (157)
बल्कि अल्लाह ने उसे अपनी तरफ़ उठा लिया (20)
और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है  (158) कोई किताबी  ऐसा नहीं जो उसकी मौत से पहले उसपर ईमान न लाए (21)
और क़यामत के दिन वह उनपर गवाह होगा  (22)  (159)
तो यहूदियों के बड़े ज़ुल्म के (23)
सबब हमने वो कुछ सुथरी चीज़ें कि उनके लिये हलाल थीं (24)
उनपर हराम फ़रमा दीं और इसलिये कि उन्होंने बहुतों को अल्लाह की राह से रोका  (160) और इसलिये कि वो सूद लेते हालांकि वो इससे मना किये गए थे और लोगों का माल नाहक़ खा जाते  (25)
और उनमें जो काफ़िर हुए हमने उनके लिए दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है  (161) हाँ जो उनमें इल्म में पक्के (26)
और ईमान वाले हैं वो ईमान लते हैं उसपर जो ऐ मेहबूब, तुम्हारी तरफ़ उतरा और जो तुमसे पहले उतरा (27)
और नमाज़ क़ायम रखने वाले और ज़कात देने वाले और अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाने वाले ऐसों को जल्द ही हम बड़ा सवाब देंगे (162)

तफसीर
सूरए निसा _ बाईसवाँ रूकू

(1) बग़ावत के अन्दाज़ में.

(2) एक साथ ही. यहूदियों में कअब बिन अशरफ़ फ़ख़्ख़ास बिन आज़ूरा ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा कि अगर आप नबी हैं तो हमारे पास आसमान से एक साथ एक बार में ही किताब लाइये जैसा हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम तौरात लाए थे. यह सवाल उनका हिदायत और अनुकरण की तलब के लिये न था बल्कि सरकशी और बग़ावत से था. इसपर यह आयत उतरी.

(3) यानी यह सवाल उनका भरपूर जिहालत से है और इस क़िस्म की जिहालतों मे उनके बाप दादा भी गिरफ़्तार थे. अगर सवाल हिदायत की तलब के लिये होता तो पूरा कर दिया जाता मगर वो तो किसी हाल में ईमान लाने वाले न थे.

(4) उसको पूजने लगे.

(5) तौरात और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के चमत्कार जो अल्लाह तआला के एक होने और हज़रत मूसा की सच्चाई पर खुली दलील थे, और  इसके बावुजूद कि तौरात हमने एक साथ ही उतारी थी. लेकिन “बुरी ख़सलत वाले को हज़ार बहाने”, अनुकरण के बजाय उन्होंने ख़ुदा के देखने का सवाल किया.

(6) जब उन्होंने तौबह की. इसमें हुज़ूर के जमाने के यहूदियों के लिये उम्मीद है कि वो भी तौबह करें तो अल्लाह तआला उन्हें भी अपने क़रम से माफ़ फ़रमाए.

(7) ऐसा क़ब्ज़ा अता फ़रमाया कि जब आपने बनी इस्राईल को तौबह के लिये ख़ुद उनके अपने क़त्ल का हुक्म दिया, वो इन्कार न कर सके और उन्होंने हुक्म माना.

(8) यानी मछली का शिकार वग़ैरह जो अमल उस दिन तुम्हारे लिये हलाल नहीं, न करो. सुरए बक़रह में इन तमाम आदेशों की तफ़सील गुज़र चुकी.

(9) कि जो उन्हें हुक्म दिया गया है, करें और  जिसे रोका गया है, उससे दूर रहे. फिर उन्होंने इस एहद को तोड़ा.

(10) जो नबियों की सच्चाई के प्रमाण थे, जैसे कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के चमत्कार.

(11) नबियों का क़त्ल करना तो नाहक़ है ही, किसी तरह हक़ हो ही नहीं सकता. लेकिन यहाँ मक़सूद यह है कि उनके घमण्ड में भी इसका कोई हक़ न था.

(12) लिहाज़ा कोई नसीहत और उपदेश कारगर नहीं हो सकता.

(13) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के साथ भी.

(14) यहूदियों ने दावा किया कि उन्होंने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को क़त्ल कर दिया और ईसाइयों ने उसकी तस्दीक़ की थी.अल्लाह तआला ने इन दोनो के दावे ग़लत कर दिये.

(15) जिसको उन्होंने क़त्ल किया और ख़्याल करते रहे कि यह हज़रत ईसा हैं, जबकि उनका यह ख़्याल ग़लत था.

(16) और यक़ीनी नहीं कह सकते कि वह क़त्ल होने वाला शख़्स कौन है. कुछ कहते हैं कि यह मक़तूल ईसा हैं, कुछ कहते हैं कि यह चेहरा तो ईसा का है और  जिस्म उनका नहीं, लिहाज़ा यह वह नहीं, इसी संदेह में हैं.

(17) जो वास्तवकिता और  हक़ीक़त है.

(18) और अटकलें दौड़ाना.

(19) उनका क़त्ल का दावा झूटा है.

(20) सही व सालिम आसमान की तरफ़. हदीसों में इसकी तफ़सील आई है. सूरए आले इमरान में इस घटना का ज़िक्र गुज़र चुका.

(21) इस आयत की तफ़सीर में कुछ क़ौल हैं, एक क़ौल यह है कि यहूदियों और ईसाइयों को अपनी मौत के वक़्त जब अज़ाब के फ़रिश्ते नज़र आते हैं तो वो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर ईमान ले आते हैं जिनके साथ उन्होंने कुफ़्र किया था और उस वक़्त का ईमान क़ुबूल और विश्वसनीय नहीं. दूसरा क़ौल यह है कि क़यामत के क़रीब जब हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम आसमान से उतरेंगे उस वक़्त के सारे किताब वाले उनपर ईमान ले आएंगे. उस वक़्त हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम शरीअतें मुहम्मदी के मुताबिक हुक्म देंगे और उसी दीन के इमामों में से एक इमाम की हैसियत में होंगे, और  ईसाइयों ने उनकी निस्बत जो गुमान बांधे रखे हैं उनको झुटलाएंगे, दीने मुहम्मदी का प्रचार करेंगे, उस वक़्त यहूदियों और ईसाइयों को या तो इस्लाम क़ूबूल करना होगा या क़त्ल करदिये जाएंगे. जिज़िया क़ुबूल करने का हुक्म हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के उतरने के वक्त तक है. तीसरे क़ौल के अनुसार आयत के मानी यह है कि हर किताबी अपनी मौत से पहले सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान ले आएगा, लेकिन मौत के वक्त का ईमान मक़बूल नहीं, फ़ायदा न पहुंचाएगा.

सूरए निसा -तेईसवाँ रूकू

सूरए निसा _ तेईसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

बेशक ऐ मेहबूब, हमने तुम्हारी तरफ़ वही भेजी जैसी वही नूह और उसके बाद के पैग़म्बरों को भेजी (1)
और  हमने इब्राहीम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और उनके बेटों और ईसा और अय्यूब और यूनुस और  हारून और सुलैमान को वही की और हमने दाऊद को ज़ुबूर अता फ़रमाई (163) और रसूलों को जिनका ज़िक्र आगे हम तुमसे  (2)
फ़रमा चुके और उन रसूलों को जिनका ज़िक्र तुमसे न फ़रमाया (3)
और अल्लाह ने मूसा से हक़ीक़त में कलाम फ़रमाया (4) (164)
रसूल ख़ुशख़बरी देते (5)
और डर सुनाते (6)
कि रसूलों के बाद अल्लाह के यहाँ लोगों को कोई मजबूरी न रहे (7)
और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है (165) लेकिन ऐ मेहबूब अल्लाह उसका गवाह है जो उसने तुम्हारी तरफ़ उतारा वह उसने अपने इल्म से उतारा है और फ़रिश्तें गवाह हैं और अल्लाह की गवाही काफ़ी (166) वो जिन्होंने कुफ़्र किया (8)
और अल्लाह की राह से रोका (9)
बेशक वो दूर की गुमराही में पड़े (167) बेशक जिन्होंने कुफ़्र किया  (10)
और हद से बढ़े  (11)
अल्लाह कभी उन्हें न बख़्शेगा (12)
और न उन्हें कोई राह दिखाए  (168) मगर जहन्नम का रास्ता कि उसमें हमेशा हमेशा रहेंगे और यह अल्लाह को आसान है (169) ऐ लोगो तुम्हारे पास ये रसूल (13)
हक़ के साथ तुम्हारे रब की तरफ़ से तशरीफ़ लाए तो ईमान लाओ अपने भले को और अगर तुम कुफ़्र करो (14)
तो बेशक अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है (170) ऐ किताब वालो अपने दीन में ज़ियादती न करो (15)
और अल्लाह पर न कहो मगर सच (16)
मसीह ईसा मरयम का बेटा (17)
अल्लाह का रसूल ही है और उसका एक कलिमा (18)
कि मरयम की तरफ़ भेजा और उसके यहां की एक रूह, तो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ (19)
और तीन न कहो (20)
बाज़ रहो अपने भले को, अल्लाह तो एक ही ख़ुदा है (21)
पाकी उसे इससे कि उसके कोई बच्चा हो. उसी का माल है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में हैं (22)
और अल्लाह काफ़ी कारसाज़ है (171)

तफसीर
सूरए निसा _ तेईसवाँ रूकू

(1) यहूदियों और ईसाईयों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से जो यह सवाल किया था कि उनके लिये आसमान से एक साथ ही किताब उतारी जाए तो वो नबुव्वत पर ईमान लाएं. इस पर यह आयत उतरी और उनपर तर्क क़ायम किया गया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के सिवा बहुत से नबी हैं. जिनमें से ग्यारह के नाम यहां आयत में बयान किये गए हैं. किताब वाले इन सबकी नबुव्वत को मानते हैं. इन सब हज़रात में से किसी पर एक साथ किताब न उतरी तो इस वजह से उनकी नबुव्वत तस्लीम करने में किताब वालों को कुछ ऐतिराज़ न हुआ तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत तस्लीम करने में क्या मजबुरी है. और रसूलों के भेजने का मक़सद लोगों की हिदायत और उनको अल्लाह तआला की तौहीद और पहचान का पाठ देना और ईमान को पुख़्ता करना और ईबादत के तरीक़े की सीख देना है. किताब के कई चरणों में उतरने से यह उद्देश्य भरपूर तरीक़े से हासिल होता है कि थोड़ा थोड़ा आसानी से दिल मे बैठता चला जाता है. इस हिकमत को न समझना और ऐतिराज़ करना हद दर्जे की मूर्खता है.

(2) क़ुरआन शरीफ़ में नाम बनाम फ़रमा चुके हैं.

(3) और अब तक उनके नामों की तफ़सील क़ुरआने पाक में ज़िक्र नहीं फ़रमाई गई.

(4) तो जिस तरह हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से बेवास्ता कलाम फ़रमाना दूसरे नबियों की नबुव्वत के आड़े नहीं आता, जिनसे इस तरह कलाम नहीं फ़रमाया गया, ऐसे ही हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर किताब का एक साथ उतरना दूसरे नबियों की नबुव्वत में कुछ भी आड़े नहीं आता.

(5) सवाब की, ईमान लाने वालों को.

(6) अज़ाब का, कुफ़्र करने वालों को.

(7) और यह कहने का मौक़ा न हो कि अगर हमारे पास रसूल आते तो हम ज़रूर उनका हुक्म मानते और अल्लाह के आज्ञाकारी और फ़रमाँबरदार होते. इस आयत से यह मसअला मालूम होता है कि अल्लाह तआला रसूलों की तशरीफ़ आवरी से पहले लोगों पर अज़ाब नहीं फ़रमाता जैसा दूसरी जगह इरशाद फ़रमाया “वमा कुन्ना मुअज्ज़िबीना हत्ता नबअसा रसूलन” (और हम अज़ाब करने वाले नहीं जब तक रसूल न भेज लें. सूरए बनी इस्राईल, आयत 15) और यह मसअला भी साबित होता है कि अल्लाह की पहचान शरीअत के बयान और नबियों की ज़बान से ही हासिल होती है, सिर्फ अक़्ल से इस मंज़िल तक पहुंचना मयस्सर नहीं होता.

(8) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत का इन्कार करके.

(9) हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नअत और विशेषताएं छुपाकर और लोगो के दिलों में शुबह डाल कर. (यह हाल यहूदियो का है)

(10) अल्लाह के साथ.

(11) अल्लाह की किताब में हुज़ूर के गुण बदलकर और आपकी नबुव्वत का इन्कार करके.

(12) जब तक वो कुफ़्र पर क़ायम रहें या कुफ़्र पर मरें.

(13) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(14) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की रिसालत का इन्कार करो तो इस मे उनका कुछ नुक़सान नहीं और अल्लाह तुम्हारे ईमान से बेनियाज़ है.

(15) यह आयत ईसाइयों के बारे में उतरी जिनके कई सम्प्रदाय हो गए थे और हर एक हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की निस्बत अलग अलग कुफ़्री अक़ीदा रखता था. नस्तूरी आपको ख़ुदा का बेटा कहते थे. मरक़ूसी कहते कि वो तीन में के तीसरे हैं और इस कलिमे की तौजीहात में भी मतभेद था. कुछ तीन ताक़तें मानते थे और कहते थे कि बाप, बेटा और रूहुलक़ुदुस, बाप से ज़ात, बेटे से ईसा, रूहुल क़ुदुस से उनमें डाली जानेवाली ज़िन्दगी मुराद लेते थे. तो उनके नज़दीक मअबूद तीन थे और इस तीन को एक बताते थे. “तीन में एक और एक तीन में” के चक्कर में गिरफ्तार थे, कुछ कहते थे कि ईसा नासूतियत और उलूहियत के संगम है, माँ की तरफ़ से उनमें नासूतियत आई और बाप की तरफ़ से उनमें उलूहियत आई.  यह फ़िरक़ाबन्दी ईसाइयों में एक यहूदी ने पैदा की जिसका नाम पोलूस था और उसी ने उन्हें गुमराह करने के लिये इस क़िस्म के अक़ीदों की तालीम दी. इस आयत में किताब वालों को हिदायत की गई कि वो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में इफ़रात व तफ़रीत (बहुत ज़्यादा, बहुत कम) से बाज़ रहे. ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा भी न कहें और उनकी तौहीन भी न करें.

(16) अल्लाह का शरीक और बेटा भी किसी को न बनाओ और हुलूल व इत्तिहाद के ऐब भी मत लगाओ और इस सच्चे अक़ीदे पर रहो कि….

(17) है और उस मोहतरम के लिये इसके सिवा कोई नसब नहीं.

(18) कि “हो जा” फ़रमाया और वह बग़ैर बाप और बिना नुत्फ़े के केवल अल्लाह के हुक्म से पैदा हो गए.

(19) और तस्दीक़ करो कि अल्लाह एक है, बेटे और औलाद से पाक है, उसके रसूलों की तस्दीक़ करो और इसकी कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम अल्लाह के रसूलों में से हैं.

(20) जैसा कि ईसाइयों का अक़ीदा है कि वह कुफ़्रे महज़ है.

(21) कोई उसका शरीक नहीं.

(22) और वह सब का मालिक है, और जो मालिक हो, वह बाप नहीं हो सकता.

सूरए निसा – चौबीसवाँ रूकू

सूरए निसा – चौबीसवाँ रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

मसीह अल्लाह का बन्दा बनने से कुछ नफ़रत नहीं करता (1)
और न मुक़र्रब फ़रिश्ते और जो अल्लाह की बन्दगी से नफ़रत और तकब्बुर (घमण्ड) करे तो कोई दम जाता है कि वह सबको अपनी तरफ़ हांकेगा (2)(172)
तो लोग जो ईमान लाए और अच्छे काम किये उनकी मज़दूरी उन्हें भरपूर देकर अपने फ़ज़्ल से उन्हें और ज़्यादा देगा और वो जिन्होंने (3)
नफ़रत और तकब्बुर किया था उन्हें दर्दनाक सज़ा देगा और अल्लाह के सिवा न अपना कोई हिमायती पाएंगे न मददगार (173) ऐ लोगो बेशक तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ़ से खुली दलील आई (4)
और हमने तुमहारी तरफ़ रौशन नूर उतारा (5) (174)
तो वो जो अल्लाह पर ईमान लाए और उसकी रस्सी मज़बूत थामी तो जल्द ही अल्लाह उन्हें अपनी रहमत और अपने फ़ज़्ल में दाख़िल करेगा (6)
और उन्हें अपनी तरफ़ सीधी राह दिखाएगा (175) ऐ मेहबूब तुमसे फ़तह पूछते हैं तुम फ़रमा दो कि अल्लाह तुम्हें कलाला (7)
में फ़तवा देता है अगर किसी मर्द का देहान्त हो जो बेऔलाद है (8)
और उसकी एक बहन हो तो तर्के में उसकी बहन का आधा है (9)
मर्द अपनी बहन का वारिस होगा अगर बहन की औलाद न हो (10)
फिर अगर दो बहनें हों तर्के में उनका दो तिहाई और अगर भाई बहन हों मर्द भी और औरतें भी तो मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर, अल्लाह तुम्हारे लिये साफ़ बयान फ़रमाता है कि कहीं बहक न जाओ और अल्लाह हर चीज़ जानता है (176)

तफसीर
सूरए निसा _ चौबीसवाँ रूकू

(1) नजरान के ईसाइयों का एक प्रतिनिधि मण्डल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुआ. उसने हुज़ूर से कहा कि आप हज़रत ईसा को ऐब लगाते हैं कि वह अल्लाह के बन्दे हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा के लिये यह आर या शर्म की बात नहीं. इसपर यह आयत उतरी.

(2) यानी आख़िरत में इस घमण्ड की सज़ा देगा.

(3) अल्लाह की इबादत बजा लाने से.

(4) “वाज़ेह दलील” या खुले प्रमाण से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पाक ज़ात मुराद है, जिनकी सच्चाई पर उनके चमत्कार गवाह हैं, और इन्कार करने वालों को हैरत में डाल देते हैं.

(5) यानी क़ुरआने पाक.

(6) और जन्नत और ऊंचे दर्जे अता फ़रमाएगा.

(7) कलाला उसको कहते है जो अपने बाद न बाप छोड़े न औलाद.

(8) हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि वह बीमार थे तो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत सिद्दीक़े अकबर रदियल्लाहो अन्हो के साथ तबियत पूछने तशरीफ़ लाए.हज़रत जाबिर बेहोश थे. हज़रत ने वुज़ू फ़रमाकर वुज़ू का पानी उनपर डाला. उन्हें फ़ायदा हुआ. आँख खोल कर देखा तो हुज़ूर तशरीफ़ फ़रमा हैं. अर्ज़ किया या रसूलल्लाह, मैं अपने माल का क्या इन्तज़ाम करूं. इस पर यह आयत उतरी. (बुख़ारी व मुस्लिम). अबू दाऊद की रिवायत में यह भी है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत जाबिर रदियल्लाहो अन्हो से फ़रमाया, ऐ जाबिर मेरे इल्म में तुम्हारी मौत इस बीमारी से नहीं है. इस हदीस से कुछ मसअले मालूम हुए. बुज़ुर्गों के वुज़ू का पानी तबर्रूक है और उसको शिफ़ा पाने के लिये इस्तेमाल करना सुन्नत है. मरीज़ों की मिज़ाज़पुर्सी और अयादत सुन्नत है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अल्लाह तआला ने ग़ैब के उलूम अता किये हैं, इसलिये हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मालूम था कि हज़रत जाबिर की मौत इस बीमारी से नहीं है.

(9) अगर वह बहन सगी या बाप शरीक हो.

(10) यानी अगर बहन बेऔलाद मरी और भाई रहा तो वह भाई उसके कुछ माल का वारिस होगा.

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