Tafseer Surah Al-Maida from Kanzul Imaan

सूरए माइदा – पहला रूकू

सूरए माइदा – पहला रूकू
सूरए माइदा मदीना में उतरी और इसमें एक सौ आयतें और सोलह रूकू हैं .

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
ऐ ईमान वालो अपने क़ौल (वचन)पूरे करो (2)
तुम्हारे लिये हलाल हुए बे ज़बान मवेशी मगर वो जो आगे सुनाया जाएगा तुमको (3)
लेकिन शिकार हलाल न समझो जब तुम एहराम में हो (4)
बेशक अल्लाह हुक्म फ़रमाता है जो चाहे (1)
ऐ ईमान वालो हलाल न ठहरा लो अल्लाह के निशान (5)
और न अदब वाले महीने (6)
और न हरम को भेजी हुई क़ुर्बानियां और न (7)
जिनके गले में अलामतें (चिन्ह) लटकी हुई (8)
और न उनका माल और आबरू जो इज़्ज़त वाले घर का इरादा करके आएं (9)
अपने रब का फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशी चाहते और जब एहराम से निकलो तो शिकार कर सकते हो (10)
और तुम्हें किसी क़ौम की दुश्मनी, कि उन्होंने तुम को मस्जिदे हराम से रोका था, ज़ियादती करने पर न उभारे (11)
और नेकी और परहेज़गारी पर एक दूसरे की मदद करो और गुनाह और ज़ियादती पर आपस में मदद न दो (12)
और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है (2) तुमपर हराम है (13)
मुर्दार और ख़ून और सुअर का गोश्त और वह जिसके ज़िब्ह में ग़ैर ख़ुदा का नाम पुकारा गया और वो जो गला घोंटनें से मरे और बेधार की चीज़ से मारा हुआ और जो गिर कर मरा और जिसे किसी जानवर ने सींग मारा और जिसे कोई दरिन्दा खा गया, मगर जिन्हें तुम ज़िब्ह कर लो और जो किसी थान पर ज़िब्ह किया गया और पाँसे डाल कर बाँटा करना यह गुनाह का काम है आज तुम्हारे दीन की तरफ़ काफ़िरों की आस टूट गई (14)
तो उनसे न डरो और मुझसे डरो आज मैंने तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन कामिल (पूर्ण) कर दिया (15)
और तुमपर अपनी नेमत पूरी करी (16)
और तुम्हारे लिये इस्लाम को दीन पसन्द किया (17)
तो जो भूख प्यास की शिद्दत (तेज़ी) में नाचार हो यूं कि गुनाह की तरफ़ न झुकें (18)
तो बेशक अल्लाह बख़्श्ने वाला मेहरबान है (3) ऐ मेहबूब, तुम से पूछते हैं कि उनके लिये क्या हलाल हुआ तुम फ़रमादो कि हलाल की गईं तुम्हारे लिये पाक चीज़ें(19)
और जो शिकारी जानवर तुम ने सधा लिये (20)
उन्हें शिकार पर दौङाते जो इल्म तुम्हें ख़ुदा ने दिया उसमें से उन्हें सिखाते तो खाओ उस में से जो वो मारकर तुम्हारे लिये रहने दें (21)8817988717
और उसपर अल्लाह का नाम लो (22)
और अल्लाह से डरते रहो बेशक अल्लाह को हिसाब करते देर नहीं लगती (4)
आज तुम्हारे लिये पाक चीज़ें हलाल हुईं और किताबियों का खाना (23)
तुम्हारे लिये हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिये हलाल है और पारसा औरतें मुसलमान (24)
और पारसा औरतें उनमें से जिनको तुम से पहले किताब मिली जब तुम उन्हें उनके मेहर दो क़ैद में लाते हुए (25)
न मस्ती निकालते हुए और न आशना बनाते (26)
और जो मुसलमान से काफ़िर हो उसका किया धरा सब अकारत गया और वह आख़िरत में घाटे वाला है (27)(5)

तफ़सीर :
सूरए माइदा – पहला रूकू

(1) सुरए माइदा मदीनए तैय्यिबह में उतरी, सिवाय आयत “अल यौमा अकमल्तो लकुम दीनकुम” के. यह आयत हज्जतुल वदाअ में अरफ़े के दिन उतरी और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ख़ुत्बे में इसको पढ़ा. इस सूरत में सोलह रूकू, एक सौ बीस आयतें और बारह हज़ार चारसौ चौसठ अक्षर हैं.

(2) “क़ौल” के मानी में मुफ़स्सिरों के कुछ क़ौल हैं. इब्ने जरीर ने कहा कि किताब वालों को ख़िताब फ़रमाया गया है. मानी यह हैं कि ऐ किताब वालों में के ईमान वालो, हमने पिछली किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने और आपकी फ़रमाँबरदारी करने के सम्बन्ध में जो एहद लिये हैं वो पूरे करो. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि ख़िताब ईमान वालों को है, उन्हें क़ौल के पूरे करने का हुक्म दिया गया है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, कि इस क़ौल से मुराद ईमान और वो एहद हैं जो हलाल और हराम के बारे में क़ुरआने पाक मे लिये गये हैं. कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि इसमें ईमान वालों के आपसी समझौते मुराद हैं.

(3) यानि जिनकी हुरमत शरीअत में आई है. उनके सिवा तमाम चौपाये तुम्हारे लिये हलाल किये गये.

(4) कि ख़ुश्की का शिकार एहराम की हालत में हराम है, और दरियाई शिकार जायज़ है, जैसे कि इस सूरत के आख़री में आयेगा.

(5) उसके दीन की बातें, मानी ये हैं कि जो चीज़े अल्लाह ने फ़र्ज़ कीं और जो मना फ़रमाई, सबकी हुरमत का लिहाज़ रखो.

(6) हज के महीने, जिनमें क़िताल यानी लड़ाई वग़ैरह जाहिलियत के दौर में भी माना था, और इस्लाम में भी यह हुक्म बाकि रखा.

(7) वो क़ुरबानियाँ

(8) अरब के लोग क़ुरबानियों के गले में हरमशरीफ़ के दरख़्तों के छल वगैरह से गुलूबन्द बुनकर डालते थे ताकि देखने वाले जान लें कि ये हरम को भेजी हुई क़ुरबानियाँ हैं और उनसे न उलझें.

(9) हज और उमरा करने के लिये, शरीह बिन हिन्द एक मशहूर शक़ी (दुश्मन) था. वह मदीनए तैय्यिबह मे आया और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर कहने लगा कि आप ख़ल्क़े ख़ुदा को क्या दावत देते हैं. फ़रमाया, अपने रब के साथ ईमान लाने और अपनी रिसालत की तस्दीक़ करने और नमाज़ क़ायम रखने और ज़कात देने की. कहने लगा, बहुत अच्छी दावत है. मैं अपने सरदारों से राय ले लूं तो मैं भी इस्लाम ले आऊंगा और उन्हें भी लाऊंगा. यह कहकर चला गया. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसके आने से पहले ही अपने सहाबा को ख़बर दे दी थी कि रबीआ क़बीले का एक शख़्स आने वाला है जो शैतानी ज़बान बोलेगा. उसके चले जाने के बाद हुज़ूर ने फ़रमाया कि काफ़िर का चेहरा लेकर आया था और ग़द्दार और बदएहद की तरह पीठ फेरकर चला गया. यह इस्लाम लाने वाला नहीं. चुनांचे उसने बहाना किया और मदीना शरीफ़ से निकलते हुए वहाँ के मवेशी और माल ले गया. अगले साल यमामा के हाजियों के साथ तिजारत का बहुत सा सामान और हज की क़लावा पोश क़ुरबानियाँ लेकर हज के इरादे से निकला. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अपने सहाबा के साथ तशरीफ़ ले जा रहे थे. राह में सहाबा ने शरीह को देखा और चाहा कि मवेशी उससे वापस ले लें. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मना फ़रमाया. इस पर यह आयत उतरी और हुक्म दिया गया कि जिसकी ऐसी हालत हो उससे तआरूज़ नहीं  करना चाहिये.

(10) यह बयाने अबाहत है कि एहराम के बाद शिकार मुबाह हो जाता है.

(11) यानी मक्का वालों ने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को और आपके सहाबा को हुदैबिया के दिन उमरे से रोका. उनके इस दुश्मनी वाले काम का तुम बदला न लो.

(12) कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया, जिसका हुक्म दिया गया उसका बजा लाना बिर, और जिससे मना फ़रमाया गया उसको छोड़ देना तक़वा, और जिसका हुक्म दिया गया उसको न करना “इस्म” (गुनाह), और जिससे मना किया गया उसको करना उदवान (ज़ियादती) कहलाता है.

(13) आयत “इल्ला मा युतला अलैकुम” में जो ज़िक्र  फ़रमाया गया था. यहाँ उसका बयान है और ग्यारह चीज़ों की हुरमत का ज़िक्र किया गया. एक मुर्दार यानी जिस जानवर के लिये शरीअत में ज़िबह का हुक्म हो और वह बेज़िबहं मर जाए, दूसरे बहने वाला ख़ून तीसरे सुअर का गोश्त और उसके तमाम अंग, चौथे वह जानवर जिसके ज़िबह के वक़्त ग़ैर ख़ुदा का नाम लिया गया हो जैसा कि जाहिलियत के ज़माने में लोग बुतों के नाम पर ज़िबह करते थे और जिस जानवर को ज़िबह तो सिर्फ़ अल्लाह के नाम पर किया गया हो मगर दूसरे औक़ात में वह ग़ैर ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब रहा वह हराम नहीं जैसे कि अब्दुल्लाह की गाय, अक़ीक़े का बकरा, वलीमे का जानवर या वह जानवर जिनसे वलियों की आत्माओं को सवाब पहुंचाना मन्ज़ूर हो, उनको ग़ैर वक़्ते ज़िबह में वलियों के नामों के साथ नामज़द किया जाए मगर ज़िबह उनका फ़क़त अल्लाह के नाम पर हो, उस वक़्त किसी दूसरे का नाम न लिया जाए वो हलाल और पाक हैं. इस आयत में सिर्फ़ उसी को हराम फ़रमाया गया है जिसको ज़िबह करते वक़्त ग़ैरख़ुदा का नाम लिया गया हो. वहाबी जो ज़िबह की क़ैद नहीं लगाते वो आयत के मानी में ग़लती करते हैं और उनका क़ौल तमाम जानी मानी तफ़सीरों के ख़िलाफ़ है.  और ख़ुद आयत उनके मानी को बनने नहीं देती क्योंकि “मा उहिल्ला बिही” को अगर ज़िबहके वक़्त के साथ सीमित न करे तो “इल्ला मा ज़क्कैतुम” की छूट उसको लाहिक़ होगी और वो जानवर जो ग़ैर वक़्त ज़िबह ग़ैर ख़ुदा के नाम से मौसुम रहा हो वह “इल्ला मा ज़क्कैतुम” से हलाल होगा. ग़रज़ वहाबी को आयत से सनद लाने की कोई सबील नहीं. पाँचवां गला घोंट कर मारा हुआ जानवर, छटे वह जानवर जो लाठी, पत्थर, ढेले, गोली, छर्रे, यानि बिना धारदार चीज़ से मारा गया हो, सातवें जो गिरकर मरा हो चाहे पहाड़ से या कुएं वगैरह में, आठवें वह जानवर जिसे दूसरे जानवर ने सिंग मारा हो और वह उसके सदमें से मर गया हो, नवें वह जिसे किसी दरिन्दें ने थोड़ा सा खाया हो और वह उसके जख़्म की तक़लीफ़ से मर गया हो लेकिन अगर ये जानवर मर गये हों और ऐसी घटनाओ के बाद जिन्दा बच रहे हो फिर तुम उन्हें बाका़यदा ज़िब्ह कर लो तो वो हलाल हैं, दसवें वह जो किसी थान पर पूजा की तरह ज़िबह किया गया हो जैसे कि ज़ाहिलियत वालों ने काबे के चार तरफ़ 360 पत्थर नसब किये थे जिनकी वो इबादत करते थे और उनके लिये ज़िबह करते थे, ग्यारहवें, हिस्सा और हुक्म जानने के लिये पाँसा डालना. जाहिलियत के दौर के लोगों को जब सफ़र या जंग या तिजारत या निकाह वग़ैरह के काम दरपेश होते तो वो तीरों से पाँसे डालते और जो निकलता उसके मुताबिक़ अमल करते और उसको ख़ुदा का हुक़्म मानते. इन सब से मना फ़रमाया गया.

(14) यह आयत अरफ़े के दिन जो जुमे का था, अस्र बाद नाज़िल हुई. मानी ये है कि काफ़िर तुम्हारे दीन पर ग़ालिब आने से मायूस हो गये.

(15) और उमूरे तकलीफ़ा में हराम और हलाल के जो एहकाम हैं वो और क़यास के क़ानून सब मुकम्मल कर दिये. इसीलिये इस आयत के उतरने के बाद हलाल व हराम के बयान की कोई आयत नाज़िल न हुई. अगरचे “वत्तक़ू यौमन तुरजऊना फ़ीहे इलल्लाह” नाज़िल हुई मगर वह आयत नसीहत और उपदेश की है. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि दीन कामिल करने के मानी इस्लाम को ग़ालिब करना है, जिसका यह असर है कि हज्जतुल वदाअ में जब यह आयत उतरी, कोई मुश्रिक मुसलमानों के साथ हज में शरीक न हो सका.एक क़ौल यह भी है कि दीन का पूरा होना यह है कि वह पिछली शरीअतों की तरह स्थगित न होगा और क़यामत तक बाक़ी रहेगा. बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में है कि हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो के पास एक यहूदी आया और उसने कहा कि ऐ अमीरूल मूमिनीन, आप की किताब में एक आयत है अगर वह हम यहूदियों पर उतरी होती तो हम उसके उतरने वाले दिन ईद मनाते. फ़रमाया, कौनसी आयत, उसने यही आयत “अलयौमा अकमल्तु लकुम” पढ़ी. आपने फ़रमाया, मैं उस दिन को जानता हूँ जिस दिन यह उतरी थी और इसके उतरने की जगह को भी पहचानता हूँ वह जगह अरफ़ात की थी और दिन जुमे का, आप की मुराद इससे यह थी कि हमारे लिये वह दिन ईद है. तिरमिज़ी शरीफ़ में हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है, आप से भी एक यहूदी ने ऐसा ही किया. आपने फ़रमाया कि जिस दिन यह आयत उतरी उस दिन दो ईदें थी. जुमा और अरफ़ा, इससे मालूम हुआ कि किसी दीनी कामयाबी के दिन को ख़ुशी का दिन मनाना जायज़ और सहाबा से साबित है, वरना हज़रत उमर व इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा साफ़ फ़रमा देते कि जिस दिन कोई ख़ुशी का वाक़िया हो उसकी यादगार क़ायम करना और उस रोज़ को ईद मानना हम बिदअत जानते हैं. इससे साबित हुआ कि ईद मीलाद मनाना जायज़ है क्योंकि वह अल्लाह की सबसे बड़ी नेमत की यादगार और शुक्र गुज़ारी है.

(16) मक्कए मुकर्रमा फ़त्ह फ़रमाकर.

(17) कि उसके सिवा कोई और दीन क़ुबूल नहीं.

(18) मानी ये है कि ऊपर हराम चीज़ों का बयान कर दिया गया है, लेकिन जब खाने पीने की कोई हलाल चीज़ मयस्सर ही न आए और भूख प्यास की सख़्ती से जान पर बन जाए, उस वक़्त जान बचाने के लिये ज़रूरी भर का खाने पीने की इजाज़त है, इस तरह कि गुनाह की तरफ़ मायल न हो यानी ज़रूरत से ज़्यादा न खाए और ज़रूरत उसी क़दर खाने से रफ़ा हो जाती है जिससे जान का ख़तरा जाता रहे.

(19) जिनकी हुरमत क़ुरआन व हदीस, इजमाअ और क़यास से साबित नहीं है. एक क़ौल यह भी है कि तैय्यिवात वो चीज़े है जिनको अरब और पाक तबीअत लोग पसन्द करते हैं और ख़बीस वो चीज़ें है जिनसे पाक तबीअतें नफ़रत करती हैं. इससे मालूम हुआ कि किसी चीज़ की हुरमत पर दलील न होना भी उसके हलाल होने के लिये काफ़ी है, यह आयत अदी इब्ने हातिम और ज़ैद बिन महलहल के बारे में उतरी जिनका नाम रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ज़ैदुल ख़ैर रखा था. इन दोनो साहिबों ने अर्ज़ की, या रसूलल्लाह, हम लोग कुत्ते और बाज़ के ज़रिये से शिकार करते हैं, तो क्या हमारे लिये हलाल है. तो इस पर यह आयत उतरी.

(20) चाहे वह दरिन्दों में से हो, कुत्तें और चीते जैसे, या शिकारी परिन्दों में से, शिकारे, बाज़, शाहीन वग़ैरह जैसे जब उन्हें इस तरह सधा लिया जाए कि जो शिकार करें उसमें से न खाएं और जब शिकारी उनको छोड़े तब शिकार पर जाएं, जब बुलाए, वापस आजाएं, ऐसे शिकारी जानवरों को मुअल्लम कहते हैं.

(21) और ख़ुद उसमें से न खाएं.

(22) आयत से जो निष्कर्ष निकलता है उसका खुलासा यह है कि जिस शख़्स ने कुत्ता या शिकरा वग़ैरह कोई शिकारी  जानवर शिकार पर छोड़ा तो उसका शिकार कुछ शर्तों से हलाल है (1) शिकारी जानवर मुसलमान का हो और सिखाया हुआ (2) उसने शिकार को ज़ख़्म लगाकर मारा हो. (3) शिकारी जानवर बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर छोड़ा गया हो,  (4) अगर शिकारी  के पास शिकार ज़िन्दा पहुंचा हो तो उसको बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर ज़िबह करे. अगर इन शर्तों में से कोई शर्त न पाई गई, तो हलाल न होगा. मसलन , अगर शिकारी  जानवर मुअल्लम  (सिखाया हुआ) न हो या उसने ज़ख़्म न किया हो या शिकार पर छोड़ते वक़्त बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर न पढ़ा  हो या शिकार ज़िन्दा पहुंचा हो और उसको ज़िबह न किया हो या सधाए हुए शिकारी जानवर के साथ बिना सिखाया हुआ जानवर शिकार में शरीक हो गया हो या ऐसा शिकारी जानवर शरीक हो गया हो जिसको छोड़ते वक़्त बिस्मिल्लहे अल्लाहो अकबर न पढ़ा गया हो या वह शिकारी जानवर मजूसी काफ़िर का हो, इन सब सूरतों में वह शिकार हराम है. तीर से शिकार करने का भी यही हुक्म है, अगर बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर तीर मारा और उससे शिकार ज़ख्मी हो कर गिर गया तो हलाल है और अगर न मरा तो दोबारा उसको बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर पढ़कर फिर से ज़िब्ह करे. अगर उसपर बिस्मिल्लाह न पढ़े या तीर का ज़ख़्म उस को न लगा या ज़िन्दा पाने के बाद उसको ज़िब्ह न किया, इन सब सूरतों में हराम है.

(23) यानी उनके ज़बीहे, मुसलमान और किताबी का ज़िब्ह किया हुआ जानवर हलाल है चाहे वह मर्द हो, औरतें हो, या बच्चा.

(24) निकाह करने में औरत को पारसाई का लिहाज़ मुस्तहब है लेकिन निकाह की सेहत के लिए शर्त नहीं.

(25) निकाह करके.

(26) नाजायज़ तरीके से मस्ती निकालने से बेधड़क ज़िना करना, और आशना बनाने से छुपवाँ ज़िना मुराद है.

(27) क्योंकि इस्लाम लाकर उससे फिर जाने से सारे अमल अकारत हो जाते हैं.

सूरए माइदा – दूसरा रूकू

सूरए माइदा – दूसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ ईमान वालो जब नमाज़ को खङे होना चाहो (1)
तो अपना मुंह धोओ और कोहनियों तक हाथ (2)
और सरों का मसह करो (3)
और गट्टों तक पाँव धोओ (4)
और अगर तुम्हें नहाने की हालत जो तो ख़ूब सुथरे हो लो (5)
और अगर तुम बीमार हो या सफ़र में हो या तुम में से कोई पेशाब पाख़ाने से आया या तुमने औरतों से सोहबत की और उन सूरतों में पानी न पाया तो पाक मिट्टी से तयम्मुम करो तो अपने मुंह और हाथों का उससे मसह करो अल्लाह नहीं चाहता कि तुम पर कुछ तंगी रखे, हाँ यह चाहता है कि तुम्हें ख़ूब सुथरा कर दे और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दे कि कहीं तुम एहसान मानो (6)
और याद करो अल्लाह का एहसान अपने ऊपर (6)
और वह एहद जो उसने तुम से लिया (7)
जब कि तुमने कहा हमने सुना और माना (8)
और अल्लाह से डरो बेशक अल्लाह दिलों की बात जानता है (7)
ऐ ईमान वालो अल्लाह के हुक्म पर ख़ूब क़ायम हो जाओ इन्साफ़ के साथ गवाही देते (9)
और तुम को किसी क़ौम की दुश्मनी इसपर न उभारे कि इन्साफ़ न करो, इन्साफ़ करो वह परहेज़गारी से ज़्यादा क़रीब है और अल्लाह से डरो बेशक अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (8)
ईमान वाले नेकी करने वालों से अल्लाह का वादा है कि उनके लिये बख़्शिश और बङा सवाब है (9)
और जिन्होंने कुफ़्र किया और हमारी आयतें झुटलाई, वही दोज़ख़ वाले हैं (10) (10)
ऐ ईमान वालो, अल्लाह का एहसान अपने ऊपर याद करो जब एक क़ौम ने चाहा कि तुम पर दस्तदराज़ी (अत्याचार) करें तो उसने हाथ तुमपर से रोक दिये (11)
और अल्लाह से डरो और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा चाहिये (11)

तफ़सीर :
सूरए माइदा – दूसरा रूकू

(1) और तुम बेवज़ू हो तो तुम पर वुज़ू फ़र्ज़ है और वुज़ू के फ़राइज़ ये चार हैं जो आगे बयान किए जाते हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा हर नमाज़ के लिए ताज़ा वुज़ू करते थे. अगरचे एक वुज़ू से भी बहुत सी नमाज़े, फर्ज़ हों या नफ़्ल, पढ़ी जा सकती हैं मगर हर नमाज़ के लिए अलग वुज़ू करना ज़्यादा बरकत और सवाब दिलाता है. कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि इस्लाम की शुरूआत में हर नमाज़ के लिए अलग वुज़ू फ़र्ज़ था, बाद में मनसूख़ यानी स्थगित किया गया और जब तक हदस वाक़े न हो, एक ही वुज़ू से फ़र्ज़ और नफ़्ल नमाज़ अदा करना जायज़ हुआ.

(2) कोहनियाँ भी धोने के हुक्म में दाख़िल हैं जैसा कि हदीस से साबित है. अकसर उलमा इसी पर हैं.

(3) चौथाई सर का मसह फ़र्ज़ है. यह मिक़दार हदीसे मुग़ीरा से साबित है और यह हदीस आयत का बयान है.

(4) यह वुज़ू का चौथा फ़र्ज़ है. सही हदीस में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने कुछ लोगों को पाँव पर मसह करते देखा तो मना फरमाया और अता से रिवायत है वह कसम खाकर फ़रमाते हैं कि मेरी जानकारी में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा में से किसी ने भी वुज़ू में पाँव का मसह न किया.

(5) जनाबत यानी शारीरिक तौर से नापाक हो जाने से पूरी तहारत लाज़िम होती है. जनाबत कभी जागते में जोश या वासना के साथ वीर्य के निकलने से होती है और कभी नींद में वीर्य निकलने से. जिसके बाद असर पाया जाए. यहाँ तक कि अगर ख़्वाब याद आया मगर तरी न पाई तो गुस्ल वाजिब न होगा. और कभी आगे पीछे की जगहों में लिंग के अगले भाग के दाख़िल किये जाने से काम करने वाले दोनों व्यक्तियों के हक़ में, चाहे वीर्य निकले या न निकले, ये तमाम सूरतें जनाबत (नापाकी) में दाख़िल हैं. इनमें ग़ुस्ल वाजिब हो जाता है. हैज़ (माहवारी) और ज़चगी के बाद की नापाकी से भी ग़ुस्ल वाजिब हो जाता है. माहवारी का मसअला सूरए बक़रह में गुज़र चुका और ज़चगी की नापाकी का मूजिबे ग़ुस्ल होना इजमाअ से साबित है. तयम्मुम का बयान सूरए निसा में गुज़र चुका.

(6) कि तुम्हें मुसलमान किया.

(7) नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से बैअत करते वक़्त अक़बा की रात और बैअते रिज़वान में.

(8) नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का हर हुक्म हर हाल में.

(9) इस तरह कि क़राबत और दुश्मनी का कोई असर तुम्हें इन्साफ़ से न हटा सके.

(10) यह आयत पुख़्ता प्रमाण है इस पर कि दौज़ख़ में दाख़ला सिवाए काफ़िर के और किसी के लिये नहीं.

(11) एक बार नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने एक मन्ज़िल में क़याम किया. सहाबा अलग अलग दरख़्तों के साए में आराम करने लगे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपनी तलवार एक पेड़ में लटका दी. एक अअराबी मौक़ा पाकर आया और छुपकर उसने तलवार ली और तलवार खींच कर हुज़ूर से कहने लगा, ऐ मुहम्मद, तुम्हें मुझसे कौन बचाएगा. हुज़ूर ने फ़रमाया, अल्लाह. यह फ़रमाना था कि हज़रत जिब्रील ने उसके हाथ से तलवार गिरा दी. नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने तलवार लेकर फ़रमाया कि तुझे मुझसे कौन बचाएगा. कहने लगा, कोई नहीं. मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई मअबूद नहीं और गवाही देता हूँ कि मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उसके रसूल हैं. (तफ़सीरे अबुस्सऊद)

सूरए माइदा – तीसरा रूकू

सूरए माइदा – तीसरा रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और बेशक अल्लाह ने बनी इस्त्राईल से एहद लिया (1)
और हमने उनमें बारह सरदार क़ायम किये (2)
और अल्लाह ने फ़रमाया बेशक मैं (3)
तुम्हारे साथ हूँ ज़रूर अगर तुम नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो और मेरे रसूलों पर ईमान लाओ और उनकी ताज़ीम (आदर) करो और अल्लाह को क़र्ज़े हसन दो (4)
बेशक मैं तुम्हारे गुनाह उतार दूंगा और ज़रूर तुम्हें बागों में ले जाऊंगा जिनके नीचे नेहरें बहें फिर उसके बाद जो तुम में से कुफ़्र करे वह ज़रूर सीधी राह से बहका (5)(12)
तो उनकी कैसी बद-एहदीयों (वचन भंग) (6)
पर हमने उन्हें लअनत की और उनके दिल सख़्त कर दिये अल्लाह की बातों को (7)
उनके ठिकानों से बदलते हैं और भुला बैठे बङा हिस्सा उन नसीहतों का जो उन्हें दी गईं (8)
और तुम हमेशा उनकी एक न एक दग़ा पर मुत्तला (सूचित) होते रहोगे (9)
सिवा थोङों के (10)
तो उन्हें माफ़ करदो और उनसे दरगुज़रो (क्षमा करो) (11)
बेशक एहसान वाले अल्लाह को मेहबूब हैं (13)
और वो जिन्हों ने दावा किया कि हम नसारा (ईसाई) हैं हमने उनसे एहद किया (12)
तो वो भुला बैठे बङा हिस्सा उन नसीहतों का जो उन्हें दी गईं (13)
तो हमने उनके आपस में क़यामत के दिन तक बैर और बुग़्ज़ (द्वेष) डाला दिया (14)
और बहुत जल्द अल्लाह उन्हें बता देगा जो कुछ करते थे (15) (14)
ऐ किताब वालो (16)
बेशक तुम्हारे पास हमारे यह रसूल (17)
तसरीफ़ लाए कि तुमपर ज़ाहिर फ़रमाते हैं बहुत सी वो चीज़ें जो तुमने किताब में छुपा डाली थीं (18)
और बहुत सी माफ़ फ़रमाते हैं (19)
बेशक तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ़ से एक नूर आया (20)
और रौशन किताब (21) (15)
अल्लाह उससे हिदायत देता है उसे जो अल्लाह की मर्जी़ पर चला सलामती के रास्ते और उन्हें अंधेरियों से रौशनी की तरफ़ ले जाता है अपने हुक्म से और उन्हें सीधी राह दिखाता है(16)
बेशक काफ़िर हुए वो जिन्होंने कहा कि अल्लाह मसीह मरयम का बेटा ही है (22)
तुम फ़रमा दो फिर अल्लाह का कोई क्या कर सकता है अगर वह चाहे कि हलाक करदे मसीह मरयम के बेटे और उसकी माँ और तमाम ज़मीन वालों को (23)
और अल्लाह ही के लिये है सल्तनत आसमानों और ज़मीन और उनके दरमियान की जो चाहे पैदा करता है और अल्लाह सब कुछ कर सकता है (17)
और यहुदी और ईसाई बोले कि हम अल्लाह के बेटे और उनके प्यारे हैं (24)
तुम फ़रमादो फिर तुम्हें क्यों तुम्हारे गुनाहों पर अज़ाब फ़रमाता है (25)
बल्कि तुम आदमी हो उसकी मख़लूक़ात (सृष्टि) से जिसे चाहे बख़्श्ता है और जिसे चाहे सज़ा देता है और अल्लाह के लिये है सल्तनत आसमानों और ज़मीन और इन के दरमियान की और उसीकी तरफ़ फिरना है(18)
ऐ किताब वालो बेशक तुम्हारे पास हमारे यह रसूल (26)
तशरीफ़ लाए कि तुमपर हमारे आदेश ज़ाहिर फ़रमाते हैं बाद इसके कि रसूलों का आना मुद्दतों (लम्बे समय तक) बन्द रहा था (27)
कि कभी कहो कि हमारे पास कोई ख़ुशी और डर सुनाने वाला न आया तो ये ख़ुशी और डर सुनाने वाले तुम्हारे पास तशरीफ़ लाए हैं और अल्लाह को सब क़ुदरत है (19)

तफसीर
सूरए माइदा – तीसरा रूकू

(1) कि अल्लाह की इबादत करेंगे, उसके साथ किसी को शरीक न करेंगे. तौरात के आदेशों का पालन करेंगे.

(2) हर गिरोह पर एक सरदार, जो अपनी क़ौम का ज़िम्मेदार हो कि वो एहद पूरा करेंगे और हुक्म पर चलेंगे.

(3) मदद और सहायता से.

(4) यानी उसकी राह में ख़र्च करो.

(5) वाक़िआ यह था कि अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से वादा फ़रमाया था कि उन्हें और उनकी क़ौम को पाक सरज़मीन का वारिस बनाएगा जिसमें कनआनी जब्बार यानी अत्याचारी रहते थे. तो फ़िरऔन के हलाक के बाद हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को अल्लाह का हुक्म हुआ कि बनी इस्त्राईल को पाक सरज़मीन की तरफ़ ले जाओ, मैं ने उसको तुम्हारे लिये सुकून की जगह बनाया है तो वहाँ जाओ और जो दुश्मन वहाँ हैं उनपर जिहाद करो. मैं तुम्हारी मदद फ़रमाऊंगा . और ऐ मूसा, तुम अपनी क़ौम के हर हर गिरोह में से एक एक सरदार बनाओ इस तरह बारह सरदार मुक़र्रर करो. हर एक उनमें से अपनी क़ौम के हुक्म मानने और एहद पूरा करने का ज़िम्मेदार हो. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम सरदार चुनकर बनी इस्त्राईल को लेकर रवाना हुए. जब अरीहा के क़रीब पहुंचे तो जासूसों को हालात का जायज़ा लेने के लिये भेजा. वहाँ उन्होंने देखा कि लोग बहुत लम्बे चौड़े, ताक़तवर, दबदबे और रोब वाले हैं. ये उनसे डर कर वापस आ गए और आकर उन्होंने अपनी क़ौम से सारा हाल कहा. जबकि उनको इससे मना किया गया था. लेकिन सब ने एहद तोड़ा, सिवाय कालिब बिन यूक़न्ना और यूशअ बिन नून के कि ये एहद पर क़ायम रहे.

(6) कि उन्होंने अल्लाह का एहद तोड़ा और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के बाद आने वाले नबियों को झुटलाया और क़त्ल किया, किताब के आदेशों की अवहेलना की.

(7) जिसमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और गुणगान है और जो तौरात में बयान की गई हैं.

(8) तौरात में, कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का अनुकरण करें और उनपर ईमान लाएं.

(9) क्योंकि दग़ा और ख़यानत और एहद तोड़ना और नबियों के साथ बदएहदी उनकी और उनके पूर्वजों की पुरानी आदत है.

(10) जो ईमान लाए.

(11) और जो कुछ उनसे पहले हुआ उसपर पकड़ न करो. कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि यह आयत उस क़ौम के बारे में उतरी जिन्होंने पहले तो नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से एहद किया फिर तोड़ा. फिर अल्लाह तआला ने अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उसपर सूचित किया और यह आयत उतारी. उस सूरत में मानी ये हैं कि उनके इस एहद तोड़ने से दरग़ुज़र कीजिये जबतक कि वो जंग से रूके रहें और जिज़िया अदा करने से मना न करें.

(12) अल्लाह तआला और उसके रसूलों पर ईमान लाने का.

(13) इन्जील में, और उन्होंने एहद तोड़ा.

(14) क़तादा ने कहा कि जब ईसाईयों ने अल्लाह की किताब (इंजील) पर अमल करना छोड़ दिया, और रसूलों की नाफ़रमानी की, फ़र्ज़ अदा न किये, हुदूद की परवाह न की, तो अल्लाह तआला ने उनके बीच दुश्मनी डाल दी.

(15) यानी क़यामत के दिन वो अपने चरित्र का बदला पाएंगे.

(16) यहूदियों और ईसाईयों.

(17) सैयदे आलम, मुहम्मदे मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम)

(18) जैसे कि आयते रज्म और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के गुण और हुज़ूर का इसको बयान फ़रमाना चमत्कार है.

(19) और उनका ज़िक्र भी नहीं करते, न उनकी पकड़ करते हैं. क्योंकि आप उसी चीज़ का ज़िक्र फ़रमाते हैं जिसमें मसलिहत हो.

(20) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को नूर फ़रमाया गया क्योंकि आपसे कुफ़्र का अंधेरा दूर हुआ और सच्चाई का रास्ता खुला.

(21) यानी क़ुरआन शरीफ़.

(22) हज़रत इब्ने अब्बास (रदियल्लाहो अन्हुमा) ने फ़रमाया कि नजरान के ईसाईयों से यह कथन निकला. और ईसाईयों के याक़ूबिया व मल्कानिया (सम्प्रदायों) का यह मज़हब है कि वो हज़रत मसीह को अल्लाह बताते हैं क्योंकि वो हुलूल के क़ायल हैं. और उनका झूठा अक़ीदा यह है कि अल्लाह तआला ने हज़रत ईसा के बदन में प्रवेश किया. अल्लाह तआला ने इस आयत में इस अक़ीदे पर कुफ़्र का हुक्म दिया और उनके मज़हब का ग़लत होना बयान फ़रमाया.

(23) इसका जवाब यही है कि कोई कुछ नहीं कर सकता तो फिर हज़रत मसीह को खुदा बताना कितनी खुली ग़लती है.
(24) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास किताब वाले आए और उन्होंने दीन के मामले में आपसे बात चीत शुरू की. आपने उन्हें इस्लाम की दावत दी और अल्लाह की नाफ़रमानी करने से उसके अज़ाब का डर दिलाया तो वो कहने लगे कि ऐ मुहम्मद ! आप हमें क्या डराते हैं ? हम तो अल्लाह के बेटे और उसके प्यारे हैं. इस पर यह आयत उतरी और उनके इस दावे का ग़लत होना ज़ाहिर फरमाया गया.

(25) यानी इस बात का तुम्हें भी इक़रार है कि गिन्ती के दिन तुम जहन्नम में रहोगे, तो सोचो कोई बाप अपने बेटे की या कोई शख़्स अपने प्यारे को आग में जलाता है ? जब ऐसा नहीं, तो तुम्हारे दावे का ग़लत होना तुम्हारे इक़रार से साबित है.

(26) मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(27) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बाद, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने तक 569 बरस की मुद्दत नबी से ख़ाली रही. इसके बाद हुज़ूर के तशरीफ़ लाने की मिन्नत का इज़हार फ़रमाया जाता है कि निहायत ज़रूरत के वक़्त तुम पर अल्लाह तआला की बड़ी नेमत भेजी गई और अब ये कहने का मौक़ा न रहा कि हमारे पास चेतावनी देने वाले तशरीफ़ न लाए.

सूरए माइदा – चौथा रूकू

सूरए माइदा –  चौथा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और जब मूसा ने कहा अपनी क़ौम से ऐ मेरी क़ौम, अल्लाह का एहसान अपने ऊपर याद करो कि तुम में से पैग़म्बर किये (1)
और तुम्हें बादशाह किया (2)
और तुम्हें वह दिया जो आज सारे संसार में किसी को न दिया (3)(20)
ऐ क़ौम उस पाक ज़मीन में दाख़िल हो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिये लिखा है और पीछे न पलटो (4)
कि नुक़सान पर पलटोगे (21) बोले ऐ मूसा उसमें तो बङे ज़बरदस्त लोग हैं और हम उसमें हरगिज़ दाख़िल न होंगे जबतक वो वहाँ से निकल न जाएं, हाँ वो वहां से निकल जाएं तो हम वहां जाएं (22) दो मर्द कि अल्लाह से डरने वालों में से थे (5)
अल्लाह ने उन्हें नवाज़ा (प्रदान किया) (6)
बोले कि ज़बरदस्ती दर्वाज़े में (7)
उनपर दाख़िल हो अगर तुम दर्वाज़े में दाख़िल हो जाओगे तो तुम्हारा ही ग़ल्बा है (8)
और अल्लाह ही पर भरोसा करो अगर तुम्हें ईमान है (23) बोले (9)
ऐ मूसा हम तो वहां (10)
कभी न जाएंगे जबतक वो वहां हैं तो आप जाइये और आपका रब, तुम दोनों लङो हम यहां बैठे हैं (24)
मूसा ने अर्ज़ की कि ऐ रब मेरे मुझे इख़्तियार नहीं मगर अपना और अपने भाई का तो तू हमको उन बेहु्कमों से अलग रख (11)(25)
फ़रमाया तो वह ज़मीन उनपर हराम है(12)
चालीस बरस तक भटकते फिरें ज़मीन में (13) तो तुम उन बेहुकमों का अफ़सोस न खाओ (26)

तफसीर
सूरए माइदा –  चौथा रूकू

(1) इस आयत से मालूम हुआ कि नबियों की तशरीफ़ आवरी नेमत है. और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी क़ौम को उसके ज़िक्र करने का हुक्म दिया कि वह बरकतों और इनाम का सबब है. इससे मीलाद की मेहफ़िलों के अच्छी और बरकत वाली होने की सनद मिलती है.

(2) यानी आज़ाद और शान व इज़्ज़त वाले होने और फ़िरऔनियों के हाथों क़ैद होने के बाद उनकी गुलामी से छुटकारा हासिल करके ऐश व आराम की ज़िन्दगी पाना बड़ी नेमत है. हज़रत अबू सईद ख़ुदरी रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि बनी इस्त्राईल में जो ख़ादिम और औरत और सवारी रखता, वह मलक कहलाया जाता.

(3) जैसे कि दरिया में रास्ता बनाना, दुश्मन को डूबो देना, मन्न और सलवा उतरना, पत्थर से चश्मे जारी करना, बादल को सायबान बनाना वग़ैरह.

(4) हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी क़ौम को अल्लाह की नेमतें याद दिलाने के बाद उनको अपने दुश्मनों पर जिहाद के लिये निकलने का हुक्म दिया और फ़रमाया कि ऐ क़ौम, पाक सरज़मीन में दाख़िल हो जाओ. उस ज़मीन को पाक इसलिये कहा गया कि वह नबियों की धरती थी. इससे मालूम हुआ कि नबियों के रहने से ज़मीनों को भी इज़्ज़त मिलती है और दूसरों के लिये वह बरक़त का कारण होती है. कलबी से मन्क़ूल है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम लबनान पर्वत पर चढ़े तो आप से कहा गया, देखिये जहां तक आपकी नज़र पहुंचे वह जगह पाक है. और आपकी जूर्रियत की मीरास है. यह सरज़मीन तूर और उसके आसपास की थी और एक क़ौल यह है कि तमाम मुल्के शाम.

(5) कालिब बिन यूक़न्ना और यूशअ बिन नून जो उन नक़ीबों में से थे जिन्हें हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने जब्बारों का हाल दरियाफ़्त करने के लिये भेजा था.

(6) हिदायत और एहद पूरा करने के साथ. उन्होंने जब्बारों का हाल सिर्फ़ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया और इसको ज़ाहिर न किया. दूसरे नक़ीबों के विपरीत कि उन्होंने ज़ाहिर कर दिया था.

(7) शहर के.

(8) क्योंकि अल्लाह तआला ने मदद का वादा किया है और उसका वादा ज़रूर पूरा होना, तुम जब्बारीन के बड़े बड़े जिस्मों से मत डरो, हमने उन्हें देखा है. उनके जिस्म बड़े हैं और दिल कमज़ोर है. उन दोनों ने जब यह कहा तो बनी इस्त्राईल बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने चाहा कि उनपर पत्थर बरसाएं.

(9) बनी इस्त्राईल.

(10) जब्बारीन के शहर में.

(11) और हमें उनकी सोहबत और क़ुर्ब से बचाया, यह मानी कि हमारे उनके बीच फ़ैसला फ़रमाया.

(12) उसमें दाख़िल न हो सकेंगे.

(13) वह ज़मीन जिसमें ये लोग भटकते फिरे, नौ फ़रसगं थी और क़ौम छ लाख जंगी जो अपने सामान लिये तमाम दिन चलते थे. जब शाम होती तो अपने को वहीं पाते जहाँ से चले थे. यह उनपर उक़ूबत थी सिवाय हज़रत मूसा व हारून व यूशअ व कालिब के, कि उनपर अल्लाह तआला ने आसानी फ़रमाई और उनकी मदद की, जैसा कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के लिये आग को ठण्डा और सलामती बनाया और इतनी बड़ी जमाअत का इतनी छोटी ज़मीन में चालीस बरस आवारा और हैरान फिरना और किसी का वहाँ से निकल न सकना, चमत्कारों में से है. जब बनी इस्त्राईल ने उस जंगल में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से खाने पीने वग़ैरह ज़रूरतों और तकलीफ़ों की शिकायत की तो अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा की दुआ से उनको आसमानी ग़िज़ा मन्नो सलवा अता फ़रमाया और लिबास ख़ुद उनके बदन पर पैदा किया जो जिस्म के साथ बढ़ता था और एक सफ़ेद पत्थर तूर पर्वत का इनायत किया कि जब सफ़र से रूकते और कहीं ठहरते तो हज़रत उस पत्थर पर लाठी मारते, इससे बनी इस्त्राईल के बारह गिराहों के लिये बारह चश्मे जारी हो जाते और साया करने के लिये एक बादल भेजा और तीह में जितने लोग दाख़िल हुए थे उनमें से चौबीस साल से ज़्यादा उम्र के थे, सब वहीं मर गए, सिवाय यूशअ बिन नून और कालिब बिन यूक़न्ना के, और जिन लोगों ने पाक सरज़मीन में दाख़िल होने से इन्कार किया उनमें से कोई भी दाख़िल न हो सका और कहा गया है कि तीह में ही हज़रत दाऊद और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की वफ़ात हुई. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की वफ़ात से चालीस बरस बाद हज़रत यूशअ को नबुव्वत अता की गई और जब्बारीन पर जिहाद का हुक्म दिया गया. आप बाक़ी बचे बनी इस्त्राईल को साथ लेकर गए और जब्बारीन पर जिहाद किया.

सूरए माइदा- पाँचवा रूकू

सूरए माइदा- पाँचवा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और उन्हें पढ़कर सुनाओ आदम के दो बेटों की सच्ची ख़बर (1)
जब दोनों ने एक नियाज़ (भेंट) पेश की तो एक की क़ुबूल हुई और दूसरे की क़ुबूल न हुई बोलो क़सम है मैं तुझे क़त्ल कर दूंगा (2)
कहा अल्लाह उसी से क़ुबूल करता है जिसे डर है (3)(27)
बेशक अगर तू अपना हाथ मुझपर बढ़ाऊंगा कि मुझे क़त्ल करे तो मैं अपना हाथ तुमपर न बढ़ाऊंगा कि तुझे क़त्ल करूं (4)
मैं अल्लाह से डरता हूँ जो मालिक है सारे संसार का (28) मैं तो यह चाहता हूँ कि मेरा (5)
और तेरे गुनाह (6)
दोनों तेरे ही पल्ले पङे तो तू दोज़ख़ी हो जाए और बेइन्साफ़ों की यही सज़ा है (29) तो उसके नफ़्स ने उसे भाई के क़त्ल का चाव दिलाया तो उसे क़त्ल करदिया तो रह गया नुक़सान में (7)(30)
तो अल्लाह ने एक कौवा भेजा ज़मीन कुरेदता कि उसे दिखाए कैसे अपने भाई की लाश छुपाए (8)
बोला हाय ख़राबी, मैं इस कौवे जैसा भी न होसका कि मैं अपने भाई की लाश छुपाता तो पछताता रह गया (9)(31)
इस सबब से हमने बनी इस्त्राईल पर लिख दिया कि जिसने कोई जान क़त्ल की बग़ैर जान के बदले या ज़मीन में फ़साद किये (10)
तो जैसे उसने सब लोगों को क़त्ल किया (11)
और जिसने एक जान को जिला लिया उसने जैसे सब लोगों को जिला लिया (12)
और बेशक उनके (13)
पास हमारे रसूल रौशन दलिलों के साथ आए (13)
फिर बेशक उनमें बहुत उसके बाद ज़मीन में ज़ियादती करने वाले हैं (14)(32)
वो कि अल्लाह और उसके रसूल से लङते (15)
और मुल्क में फ़साद करते फिरते हैं उनका बदला यही है कि गिन गिन कर क़त्ल किये जाएं या सूली दिये जाएं या उनके एक तरफ़ के हाथ और दूसरी तरफ़ के पाँव काटे जाएं या ज़मीन से दूर कर दिये जाएं, यह दुनिया में उनकी रूस्वाई है और आख़िरत में उनके लिये बङा अज़ाब (33)
मगर वो जिन्होंने तौबह करली इससे पहले कि तुम उनपर क़ाबू पाओ (16)
तो जान लो कि अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (34)

तफसीर
सूरए माइदा – पाँचवा रूकू

(1)  जिनका नाम हाबील और क़ाबील था. इस ख़बर को सुनाने से मक़सद यह है कि हसद की बुराई मालूम हो और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से हसद करने वालों को इस से सबक़ हासिल करने का मौक़ा मिले. सीरत वग़ैरह के उलमा का बयान है कि हज़रत हव्वा के हमल में एक लड़का एक लड़की पैदा होते थे और एक हमल के लड़के का दूसरे हमल की लड़की के साथ निकाह किया जाता था और जबकि आदमी सिर्फ़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की औलाद में सीमित थे, तो निकाह की और कोई विधि ही न थी. इसी तरीके़ के अनुसार हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने क़ाबील का निकाह ल्यूज़ा से, जो हाबील के साथ पैदा हुई थी, और हाबील का इक़लीमा से, जो क़ाबील के साथ पैदा हुई थी, करना चाहा. क़ाबील इस पर राज़ी न हुआ और चूंकि इक़लीमा ज़्यादा ख़ूबसूरत थी इसलिये उसका तलबगार हुआ. हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि वह तेरे साथ पैदा हुई है, इसलिये तेरी बहन है, उसके साथ तेरा निकाह हलाल नहीं है. कहने लगा यह तो आपकी राय है. अल्लाह ने यह हुक्म नहीं दिया. आपने फ़रमाया, तो तुम दोनों क़ुरबानीयाँ लाओ जिसकी क़ुरबानी क़ुबूल हो जाए वही इक़लीमा का हक़दार है. उस ज़माने में जो क़ुरबानी मक़बूल होती थी, आसमान से एक आग उतरकर उसको खा लिया करती थी. क़ाबील ने एक बोरी गेहूँ और हाबील ने एक बकरी क़ुरबानी के लिये पेश की. आसमानी आग ने हाबील की क़ुरबानी को ले लिया और क़ाबील के गेहूँ छोड़ गई. इस पर क़ाबील के दिल में बहुत जलन और हसद पैदा हुआ.

(2) जब हज़रत आदम अलैहिस्सलाम हज के लिये मक्कए मुकर्रमा तशरीफ़ ले गए तो क़ाबील ने हाबील से कहा, मैं तुझको क़त्ल करूंगा. हाबिल ने कहा क्यों ? कहने लगा, इसलिये कि तेरी क़ुरबानी क़ुबूल हुई, मेरी न हुई और तू इक़लीमा का हक़दार ठहरा, इसमें मेरी ज़िल्लत है.

(3) हाबील के इस कहने का यह मतलब है कि क़ुरबानी का कुबूल फ़रमाना अल्लाह का काम है. वह परहेज़गारों की क़ुरबानी क़ुबूल फ़रमाता है. तू परहेज़गार होता तो तेरी क़ुरबानी क़ुबूल होती. यह ख़ुद तेरे कर्मों का नतीजा है, इसमें मेरा क्या दख़ल है.

(4) और मेरी तरफ़ से शुरूआत हो जबकि मैं तुझ से ज़्यादा मज़बूत और ताक़त वाला हूँ, यह सिर्फ इसलिये है कि……

(5) यानी मुझे क़त्ल करने का.

(6) जो इससे पहले तूने किया कि वालिद की नाफ़रमानी की, हसद किया और अल्लाह के फ़ैसले को न माना.

(7) और परेशानी में पड़ा कि इस लाश को क्या करें क्योंकि उस वक़्त तक कोई इन्सान मरा ही न था. एक मुद्दत तक लाश को पीठ पर लादे फिरा.

(8) रिवायत है कि दो कौए आपस में लड़े उनमें से एक ने दूसरे को मार डाला फिर ज़िन्दा कौए ने अपनी चोंच से ज़मीन कुरेद कर गढ़ा किया, उसमें मरे हुए कौए को डाल कर मिट्टी से दबा दिया. यह देखकर क़ाबील को मालूम हुआ कि लाश को दफ़्न करना चाहिये. चुनांचे उसने ज़मीन खोद कर दफ़्न कर दिया. (ज़लालैन, मदारिक वग़ैरह)

(9) अपनी नादानी और परेशानी पर, और यह शर्मिन्दगी गुनाह पर न थी कि तौबह में शुमार हो सकती या शर्मिन्दगी का तौबह होना सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्मत के साथ ख़ास हो. (मदारिक)

(10) यानी नाहक़ ख़ून किया कि न तो मक़तूल को किसी ख़ून के बदले क़िसास के तौर पर मारा न शिर्क व कुफ़्र या कानून तोड़ने वग़ैरह किसी सख़्त जुर्म के कारण मारा.

(11) क्योंकि उसने अल्लाह तआला की रिआयत और शरीअत की हदों का लिहाज़ न रखा.

(12) इस तरह कि क़त्ल होने या डूबने या जलाने जैसे हलाकत के कारणों से बचाया.

(13) यानी बनी इस्त्राईल के.

(14) खुले चमत्कार भी लाए और अल्लाह के एहकाम और शरीअत भी.

(15) कि कुफ़्र और क़त्ल वग़ैरह जुर्म करके सीमाओ का उल्लंघन करते हैं.

(16) अल्लाह तआला से लड़ना यही है कि उसके वलियों से दुश्मनी करे जैसे कि हदीस शरीफ़ में आया. इस आयत में डाकुओं की सज़ा का बयान है. सन 6 हिजरी में अरीना के कुछ लोग मदीनए तैय्यिबह आकर इस्लाम लाए और बीमार हो गए. उनके रंग पीले हो गए, पेट बढ़ गए. हुज़ूर ने हुक्म दिया कि सदक़े के ऊंटों का दूध और पेशाब मिलाकर पिया करें. ऐसा करने से वो तन्दुरूस्त हो गए, अच्छे होकर वो मुर्तद हो गए और पन्द्रह ऊंट लेकर अपने वतन को चलते बने, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनकी तलाश में हज़रत यसार को भेजा. उन लोगों ने उनके हाथ पाँव काटे और तकलीफ़े देकर उन्हें शहीद कर डाला, फिर जब ये लोग हुज़ूर की खिदमत में गिरफ़्तार करके हाज़िर किये गए तो उनके बारे में यह आयत उतरी. (तफ़सीरे अहमदी)

(17) यानी गिरफ़्तारी से पहले तौबह कर लेने से वह आख़िरत के अज़ाब और डकैती की सज़ा से तो बच जाएंगे मगर माल की वापसी और किसास बन्दों का हक़ है, यह बाक़ी रहेगा. (तफ़सीरे अहमदी)

सूरए माइदा – छटा रूकू

सूरए माइदा – छटा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरो और उसकी तरफ़ वसीला ढूंडो (1)
और उसकी राह में जिहाद करो इस उम्मीद पर कि फ़लाह (भलाई) पाओ (35) बेशक वा जो काफ़िर हुए जो कुछ ज़मीन में हैं सब और उसकी बराबर और अगर उनकी मिल्क हो कि उसे देकर क़यामत के अज़ाब से अपनी जान छुङाएं तो उनसे न किया जाएगा और उनके लिये दुख का अज़ाब है (2)(36)
दोज़ख़ से निकलना चाहेंगे और वो उससे न निकलेंगे और उनको दवामी (स्थाई) सज़ा है (37)और जो मर्द या औरत चोर हो (3)
तो उनके हाथ काटो (4)
उनके किये का बदला अल्लाह की तरफ़ से सज़ा और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला  है (38) तो जो अपने ज़ुल्म के बाद तौबह करे और संवर जाए तो अल्लाह अपनी मेहर (अनुकम्पा) से उसपर रूजू फ़रमाएगा (5)
बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (39) क्या तुझे मालूम नहीं कि अल्लाह के लिये है आसमानों और ज़मीन की बादशाही, सज़ा देता है जिसे चाहे और बख़्श्ता है जिसे चाहे और अल्लाह सब कुछ कर सकता है (6) (40)
ऐ रसूल तुम्हें ग़मगीन (दुखी) न करें वो जो कुफ्र पर दोड़ते हैं (7)
जो कुछ वो अपने मुंह से कहते हैं हम ईमान लाए और उनके दिल मुसलमान नहीं (8)
और कुछ यहूदी झूठ ख़ूब सुनते हैं (9)
और लोगों की ख़ूब सुनते हैं (10)
जो तुम्हारे पास हाज़िर न हुए अल्लाह की बातों को उनके ठिकानो के बाद बदल देते हैं कहते हैं यह हुक्म तुम्हें मिले तो मानो और यह न मिले तो बचो (11)
और जिसे अल्लाह गुमराह करना चाहे तो हरगिज़ तू अल्लाह से उसका कुछ बना न सकेगा वो हैं कि अल्लाह ने उनका दिल पाक करना न चाहा उन्हें दुनिया में रूस्वाई है और आख़िरत में बड़ा अज़ाब (41) बड़े झूठ सुनने वाले, बड़े हरामख़ोर (12)
तो अगर तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों (13)
तो उनमें फैसला फ़रमाओ या उनसे मुंह फेर लो (14)
और अगर तुम उनसे मुंह फेर लोगे तो वो तुम्हारा कुछ न बिगाड़ेंगे  (15)
और अगर उनमें फैसला फ़रमाओ तो इन्साफ़ से फ़ैसला करो बेशक इन्साफ़ वाले अल्लाह को पसन्द हैं  (42) और वो तुमसे किस तरह फै़सला चाहेंगे हालांकि उनके पास तौरात है जिसमें अल्लाह का हुक्म मौजूद है (16)  फिर भी उसी से मुंह फेरते हैं (17)और वो ईमान लाने वाले नहीं (43)

तफसीर
सूरए माइदा –  छटा रूकू

(1) जिसकी बदौलत तुम्हें उसका क़ुर्ब हासिल हो.

(2) यानी काफ़िरों के लिये अज़ाब लाज़िम है और इससे रिहाई पाने का कोई रास्ता नहीं है.

(3) और उसकी चोरी दो बार के इक़रार या दो मर्दों की शहादत (गवाही) से हाकिम के सामने साबित हो और जो माल चुराया है, दस दरहम से कम का न हो. (इब्ने मसऊद की हदीस)

(4) यानी दायाँ, इसलिये कि हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो की क़िरअत में “ऐमानुहुमा” आया है. पहली बार की चोरी में दायाँ हाथ काटा जाएगा, फिर दोबारा अगर करे तो बायाँ पाँव. उसके बाद भी अगर चोरी करे, तो क़ैद किया जाए, यहाँ तक कि तौबह करे. चोर का हाथ काटना तो वाजिब है और चोरी गया माल मौजूद हो तो उसका वापस करना भी वाजिब और अगर वह ज़ाया हो गया हो तो ज़मान (मुआवज़ा) वाजिब नहीं (तफ़सीरे अहमदी)

(5) और आख़िरत के अज़ाब से उसको निजात देगा.

(6) इससे मालूम हुआ कि अज़ाब करना और रहमत फ़रमाना अल्लाह तआला की मर्ज़ी पर है. वह मालिक है, जो चाहे करे, किसी को ऐतिराज़ की हिम्मत नहीं. इससे क़दरिया और मोअतज़िला सम्प्रदायों की काट हो गई जो फ़रमाँबरदार पर रहमत और गुनहगार पर अज़ाब करना अल्लाह तआला पर वाजिब कहते हैं.

(7) अल्लाह तआला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को “या अय्युहर रसूल” के इज़्ज़त वाले सम्बोधन के साथ मुख़ातब फ़रमाकर आपकी तस्कीन फ़रमाता है कि ऐ हबीब, मैं आपका मददगार और सहायक हूँ मुनाफ़िक़ों के कुफ़्र में जल्दी करने यानी उनके कुफ़्र ज़ाहिर करने और काफ़िरों के साथ दोस्ती और सहयोग कर लेने से आप दुखी न हों.

(8) यह उनकी दोग़ली प्रवृत्ति का बयान है.

(9) अपने सरदारों से और उनकी झूटी बातों को क़ुबूल करते है.

(10) माशाअल्लाह, आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह ने बहुत सही अनुवाद फ़रमाया. इस जगह आम मुफ़स्सिरों और अनुवादकों से ग़लती हुई कि उन्होंने आयत के ये मानी बयान किये कि मुनाफ़िक़ और यहूदी अपने सरदारों की झूटी बातें सुनते हैं. आपकी बातें दूसरी क़ौम की ख़ातिर कान धर कर सुनते हैं जिसके वो जासूस हैं. मगर ये मानी सही नहीं हैं और क़ुरआन का अन्दाज़ इससे बिल्कुल मेल नहीं खाता. यहाँ मुराद यह है कि ये लोग अपने सरदारों की झूटी बातें ख़ूब सुनते हैं और लोगों यानी ख़ैबर के यहूदियों की बातों को ख़ूब मानते हैं जिनके अहवाल का आयत में बयान आ रहा है.  (तफ़सीरे अबूसऊद, जुमल)

(11) ख़ैबर के यहूदियों के शरीफ़ों में से एक विवाहित मर्द और विवाहित औरत ने ज़िना किया. इसकी सज़ा तौरात में संगसार करना थी. यह उन्हें गवारा न था, इसलिये उन्होंने चाहा कि इस मुक़दमे का फैसला हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कराएं. चुनांचे इन दोनों मुजरिमों को एक जमाअत के साथ मदीनए तैय्यिबह भेजा और कह दिया कि अगर हुज़ूर हद का हुक्म दें तो मान लेना और संगसार करने का हुक्म दें तो मत मानना. वो लोग बनी क़ुरैज़ा और बनी नुज़ैर के यहूदियों के पास आए और ख़याल किया कि ये हुज़ूर के हम-वतन हैं और उनके साथ आपकी सुलह भी है, उनकी सिफ़ारिश से काम बन जाएगा. चुनांचे यहूदियों के सरदारों में से कअब बिन अशरफ़ व कअब बिन असद व सईद बिन अम्र व मालिक बिन सैफ़ व किनाना बिन अबिलहक़ीक वग़ैरह, उन्हें लेकर हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर हुए और मसअला दरियाफ़्त किया. हुज़ूर ने फ़रमाया क्या मेरा फ़ैसला मानोगे ? उन्होंने इक़रार किया. और तब आयते रज्म उतरी और संगसार करने का हुक्म दिया गया. यहूदियों ने इस हुक्म को मानने से इन्कार किया. हुज़ूर ने फ़रमाया कि तुम में एक जवान गोरा काना फ़िदक का रहने वाला इब्ने सूरिया नाम का है, तुम उसको जानते हो. कहने लगे हाँ फ़रमाया वह कैसा आदमी है. कहने लगे कि आज धरती पर यहूदियों में उसकी टक्कर का आलिम नहीं. तौरात का अकेला आलिम है. फ़रमाया उसको बुलाओ. चुनांचे बुलाया गया. जब वह हाज़िर हुआ तो हुज़ूर ने फ़रमाया, यहूदियों में सबसे बड़ा आलिम तू ही है ? अर्ज़ किया लोग तो ऐसा ही कहते हैं. हुज़ूर ने यहूद से फ़रमाया, इस मामले में इसकी बात मानोगे ? सब ने इक़रार किया. तब हुज़ूर ने इब्ने सूरिया से फ़रमाया, मैं तुझे अल्लाह की क़सम देता हूँ जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं, जिसने हज़रत मूसा पर तौरात उतारी और तुम लोगों को मिस्त्र से निकाला, तुम्हारे लिये दरिया में रास्ते बनाए, तुम्हें निजात दी, फिरऔनियों को डूबोया, तुम्हारे लिये बादल को सायबान बनाया, मन्न व सलवा उतारा, अपनी किताब नाज़िल फ़रमाई जिसमें हलाल हराम का बयान है, क्या तुम्हारी किताब में ब्याहे मर्द व औरत के लिये संगसार करने का हुक्म है. इब्ने सूरिया ने अर्ज़ किया, बेशक है, उसी की क़सम जिसका आपने मुझसे ज़िक्र किया. अज़ाब नाज़िल होने का डर न होता तो मैं इक़रार न करता और झूट बोल देता मगर यह फ़रमाइये कि आपकी किताब में इसका क्या हुक्म है, फ़रमाया जब चार सच्चे और भरोसे वाले गवाहों की गवाही से खुले तौर पर ज़िना साबित हो जाए तो संगसार करना वाजिब हो जाता है. इब्ने सूरिया ने अर्ज़ किया अल्लाह की क़सम ऐसा ही तौरात में है, फिर हुज़ूर ने इब्ने सूरिया से दरियाफ़्त कि अल्लाह के हुक्म में तबदीली किस तरह वाक़े  हुई. उसने अर्ज़ किया कि हमारा दस्तूर यह था कि हम किसी शरीफ़ को पकड़ते तो  छोड़ देते और ग़रीब आदमी पर हद क़ायम करते. इस तरह शरीफ़ों में ज़िना बहुत बढ़ गया, यहाँ तक कि एक बार बादशाह के चचाज़ाद भाई ने ज़िना किया तो हमने उसको संगसार न किया, फिर एक दूसरे शख़्स ने अपनी क़ौम की औरत के साथ ज़िना किया तो बादशाह ने उसको संगसार करना चाहा. उसकी क़ौम उठ खड़ी हुई और उन्होंने कहा कि जब तक बादशाह के भाई को संगसार न किया जाए उस वक़्त तक इसको हरगिज़ संगसार न किया जाएगा. तब हमने जमा होकर ग़रीब शरीफ़ सबके लिये संगसार करने के बजाय यह सज़ा सज़ा निकाली कि चालीस कोड़े मारे जाएं और मुंह काला करके गधे पर उलटा बिठाकर घुमाया जाए. यह सुनकर यहूदी बहुत बिगड़े और इब्ने सूरिया से कहने लगे, तूने हज़रत को बड़ी जल्दी ख़बर दे दी और हमने जितनी तेरी तारीफ़ की थी, तू उसका हक़दार नहीं. इब्ने सूरिया ने कहा कि हुज़ूर ने मुझे तौरात की क़सम दिलाई, अगर मुझे अज़ाब के नाज़िल होने का डर न होता तो मैं आपको ख़बर न देता. इसके बाद हुज़ूर के हुक्म से उन दोनों ज़िना करने वालों को संगसार किया गया. और यह आयत उतरी (खाज़िन).

(12) यह यहूदियों के हाकिमों के बारे में है जो रिशवतें लेकर हराम को हलाल करते और शरीअत के हुक्म बदल देते थे. रिशवत का लेना देना दोनों हराम हैं. हदीस शरीफ़ में रिशवत लेने देने वाले दोनों पर लअनत आई है.
(13) यानी किताब वाले.

(14) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को इख़्तियार दिया गया कि किताब वाले आपके पास कोई मुकदमा लाएं तो आपको इख़्तियार है, फ़ैसला फ़रमाएं या न फ़रमाएं.

(15) क्योंकि अल्लाह तआला आपका निगहबान है.

(16) कि विवाहित मर्द और शौहरदार औरत के ज़िना की सज़ा रज्म यानी संगसार करना है.

(17) इसके बावुज़ूद कि तौरात पर ईमान लाने के दावेदार भी हैं और उन्हें यह भी मालूम है कि तौरात में संगसार का हुक्म है, उसको न मानना और आपकी नबुव्वत के इन्कारी होते हुए भी आपसे फ़ैसला चाहना अत्यन्त आश्चर्य की बात है.

सूरए माइदा – सातवाँ रूकू

सूरए माइदा –  सातवाँ  रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
बेशक हमने तौरात उतारी उसमें हिदायत और नूर है उसके मुताबिक़ यहूद को हुक्म देते थे हमारे फ़रमाँबरदार नबी और आलिम और फ़कीह (धर्मशास्त्री) कि उनसे अल्लाह की किताब की हिफ़ाज़त चाही गई थी (1)
और वो उसपर गवाह थे तो (2)
लोगों से न डरो और मुझसे डरो और मेरी आयतों के बदले ज़लील क़ीमत न लो (3)
और जो अल्लाह के उतारे पर हुक्म न करे  (4)
वही लोग काफ़िर हैं (44) और हमने तौरात में उनपर वाजिब किया (5)
कि जान के बदले जान (6)
और आँख के बदले आँख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और दांत के बदले दांत और ज़ख़्मों में बदला है (7)
फिर जो दिल की ख़ुशी से बदला करा दे तो वह उसका गुनाह उतार देगा (8)
और जो अल्लाह के उतारे पर हुक्म न करे तो वही लोग ज़ालिम हैं (45) और हम उन नबियों के पीछे उनके निशाने क़दम (पदचिन्ह) पर ईसा मरयम के बेटे को लाए, तस्दीक़ (पुष्टि) करता हुआ तौरात की जो उससे पहले थी (9)
और हमने उसे इंजील दी जिसमें हिदायत और नूर है और तस्दीक़ फ़रमाती है तौरात की कि उससे पहले थे और हिदायत (10)
और नसीहत परहेज़गारी को (46) और चाहिये की इंजिल वाले हुक्म करें उसपर जो अल्लाह ने उसमें उतारा (11)
और जो अल्लाह के उतारे पर हुक्म न करें तो वही लोग फ़ासिक़ (दुराचारी) हैं (47) और ऐ मेहबूब हमने तुम्हारी तरफ़ सच्ची किताब उतारी अगली किताबों की तस्दीक़ फ़रमाती (12)
और उनपर मुहाफिज़ और गवाह तो उनमें फ़ैसला करो अल्लाह के उतारे से  (13)
और  ऐ सुनने वाले उनकी ख़्वाहिशों की पैरवी न करना अपने पास आया हुआ हक़ (सत्य) छोड़कर, हमने तुम सबके लिये एक एक शरीअत और रास्ता रखा  (14)
और अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक ही उम्मत कर देता मगर मंजूर यह है कि जो कुछ तुम्हें दिया उसमें तुम्हें आज़माए (15)
तो भलाईयों की तरफ़ सबक़त (पहल करो) चाहो तुम सबका फिरना अल्लाह ही की तरफ़ है तो वह तुम्हें बता देगा जिस बात में तुम झगड़ते थे (48) और यह कि ऐ मुसलमान  अल्लाह के उतारे पर हुक्म कर और उनकी ख़्वाहिशों पर न चल और उनसे बचता रह कि कहीं तुझे लग़ज़िश  (डगमगा) न दे दें किसी हुक्म  में जो तेरी तरफ़ उतरा फिर अगर वो मुंह फेरें (16)
तो जान लो कि अल्लाह उनके कुछ गुनाहों की (17)
सज़ा उनको पहुंचाता है (18)
और बेशक बहुत आदमी बेहुक्म  (49) हैं तो क्या ज़ाहिलियत (अज्ञानता) का हुक्म चाहते हैं(19)
और अल्लाह से बेहतर किसका हुक्म यक़ीन वालों के लिये (50)

तफसीर
सूरए माइदा – सातवाँ रूकू

(1) कि इसको अपने सीनों मे मेहफ़ूज़ रख़ें और इसके पाठ में लगे है ताकि वह किताब भुलाई न जा सके और उसके आदेश ज़ाया न हों.(ख़ाज़िन) तौरात के मुताबकि़ नबियों का हुक्म देना जो इस आयत में आया है उससे साबित होता है कि हम से पहली शरीअतों के जो अहक़ाम अल्लाह और रसूल ने बयान फ़रमाए हों और उनके छोड़ने का हमें हुक्म न दिया हो, स्थगित न किये गए हों, वो हमपर लाज़िम होते हैं. (जुमल व अबूसऊद)

(2) ऐ यहूदियो, तुम सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की प्रशंसा और विशेषताओं और रज्म का हुक्म जो तौरात में आया है, उसके ज़ाहिर करने में.

(3) यानी अल्लाह के आदेशों में हेर फेर हर सूरत मना है, चाहे लोगों के डर और उनकी नाराज़ी के अन्देशे से हो, या माल दौलत और शान व शौकत के लालच से.

(4) इसका इन्कारी होकर.

(5)  इस आयत में अगरचे यह बयान है कि तौरात में यहूदियों पर किसास के ये अहकाम थे लेकिन चूंकि हमें उनके छोड़ देने का हुक्म नहीं दिया गया इसलिये हम पर ये अहकाम लाज़िम रहेंगे, क्योंकि पिछली शरीअतों के जो अहक़ाम ख़ुदा व रसूल के बयान से हम तक पहुंचे और स्थगित न हुए हों वो हमपर लाज़िम हुआ करते हैं जैसा कि ऊपर की आयत से साबित हुआ.

(6) यानी अगर किसी ने किसी को क़त्ल किया तो उसकी जान मक़तूल के बदले में ली जाएगी चाहे वह मक़तूल मर्द हो या औरत, आज़ाद हो या ग़ुलाम, मुस्लिम हो या ज़िम्मी. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि मर्द को औरत के बदले क़त्ल न करते थे. इसपर यह आयत उतरी.  (मदारकि)

(7) यानी एकसा होने और बराबरी की रिआयत ज़रूरी है.

(8) यानी जो क़ातिल या जनाबत करने वाला अपने जुर्म पर शर्मिन्दा होकर गुनाहों के वबाल से बचने के लिये ख़ुशी से अपने ऊपर शरीअत का हुक्म जारी कराए तो किसास उसके जुर्म का कफ़्फ़ारा हो जाएगा और आख़िरत में उसपर अज़ाब न होगा.  (जलालैन व जुमल). कुछ मुफ़स्सिरों ने इसके ये मानी बयान किये हैं कि जो हक़ वाला क़िसास (ख़ून के तावान) को माफ़ कर दे तो यह माफ़ी उसकी लिये कफ़्फ़ारा है. (मदारिक). तफ़सीरे अहमदी में है, यह तमाम क़िसास जब ही होंगे जब कि हक़ वाला माफ़ न करे. और अगर वह माफ़ करदे तो क़िसास साक़ित हो जाएगा.

(9) तौरात के अहकाम के बयान के बाद इंजील के अहकाम का ज़िक्र शुरू हुआ और बताया गया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम तौरात की तस्दीक़ फ़रमाने वाले थे कि वह अल्लाह की तरफ़ से उतरी और स्थगन से पहले इसपर अमल वाजिब था. हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम  की शरीअत में इसके झूठ अहकाम स्थगित हुए.

(10) इस आयत में इंजील के लिये लफ़्ज़ “हुदन” (हिदायत) दो जगह इरशाद हुआ, पहली जगह गुमराही व जिहालत से बचाने के लिये रहनुमाई मुराद है, दूसरी जगह “हुदन” से नबियों के सरदार अल्लाह के हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तशरीफ़ आवरी की बशारत मुराद है. जो हुज़ूर अलैहिस्सलातो वस्सलाम की नबुव्वत की तरफ़ लोगो की राहयाबी का सबब है.

(11) यानी नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने और आपकी नबुव्व्त की तस्दीक़ करने का हुक्म.

(12) जो इससे पहले नबियों पर उतरीं.

(13) यानी जब किताब वाले अपने मुक़दमे आपके पास लाएं तो आप क़ुरआने पाक से फ़ैसला फ़रमाएं.

(14) यानी व्यवहार और कर्म हर एक के ख़ास है और अस्ल दीन सबका एक. हज़रत अली मुर्तज़ा रदीयल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि ईमान हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के ज़माने से यही है कि “ला इलाहा इल्लल्लाह” की शहादत और जो अल्लाह तआला की तरफ़ से आया है उसका इक़रार करना और शरीअत व तरीक़ा हर उम्मत का ख़ास है.

(15) और इम्तिहान में डाले ताकि ज़ाहिर होजाए कि हर ज़माने के मुनासिब जो अहकाम दिये, क्या तुम उनपर इस यक़ीन और अक़ीदे के साथ अमल करते हो कि उनका विराध अल्लाह तआला की मर्ज़ी से हिकमत और दुनिया व आख़िरत की लाभदायक मसलिहतों पर आधारित है या सत्य को छोड़कर नफ़्सके बहकावे का अनुकरण करते हो. (तफ़सीरे अबूसऊद)

(16) अल्लाह के उतारे हुए हुक्म से.

(17) जिन में यह एराज़ यानी अवज़ा भी है.

(18) दुनिया में क़त्ल व गिरफ़्तारी और जिला – वतनी के साथ और तमाम गुनाहों की सज़ा आख़िरत में देगा.

(19) जो सरदार गुमराही और ज़ुल्म और अल्लाह के अहकाम के विरूद्ध होता था. बनी नुज़ैर और बनी क़ुरैज़ा यहुदियों के दो क़बीले थे. उनमें आपस में एक दूसरे का क़त्ल होता रहता था, जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह तशरीफ़ लाए तो ये लोग अपना मुक़दमा हुज़ूर की ख़िदमत में लाए और बनी क़ुरैज़ा ने कहा कि बनी नूज़ैर हमारे भाई हैं. हम वो एक ही दादा की औलाद हैं. एक दीन रखते हैं, एक किताब  (तौरात) मानते हैं, लेकिन अगर बनी नुज़ैर हम में से किसी को क़त्ल करें तो उसके तावान में हम सत्तर वसक़ खजूरें देते हैं, और अगर हममें से कोई उनके किसी आदमी को क़त्ल करे तो हमसे उसके बदले में एक सौ चालीस वसक़ लेते हैं. आप इसका फ़ैसला फ़रमादें. हुज़ूर ने फ़रमाया, मैं हुक्म देता हूँ कि क़ुरैज़ा वालों और नुज़ैर वालों का ख़ून बराबर है. किसी को दूसरे पर बरतरी नहीं. इसपर बनी नुज़ैर बहुत नाराज़ हुए और कहने लगे हम आपके फ़ैसले से राज़ी नहीं हैं, आप हमारे दुश्मन हैं, हमें ज़लील करना चाहते हैं. इस पर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि क्या जाहिलियत की गुमराही और ज़ुल्म का हुक्म चाहते हैं.

सूरए माइदा – आठवाँ रूकू

सूरए माइदा –  आठवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ ईमान वालों यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त न बनाओ (1)
वो आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं (2)
और तुम में जो कोई उनसे दोस्ती रखेगा तो वह उन्हीं में से है(3)
बेशक अल्लाह बे इन्साफ़ों को राह नहीं देता (4)(51)
अब तुम उन्हें देखोगे जिनके दिलों में आज़ार है (5)
कि यहूद और नसारा (ईसाई) की तरफ़ दौड़ते हैं और कहते हैं हम डरते हैं कि हम पर कोई गर्दिश (मुसीबत) आजाए (6)
तो नज़दीक है कि अल्लाह फ़त्ह (विजय) लाए (7)
या अपनी तरफ़ से कोई हुक्म  (8)
फिर उस पर जो अपने दिलों में छुपाया था (9)
पछताते रह जाएं (52) और (10)
ईमान वाले कहते है क्या यही हैं जिन्होंने अल्लाह की क़सम खाई थी अपने हलफ़ मे पुरी कोशिश से कि वो तुम्हारे साथ हैं, उनका किया धरा सब अकारत गया तो रह गए नुक़सान में (11) (53)
ऐ ईमान वालों तुममें जो कोई अपने दीन से फिरेगा (12)
तो बहुत जल्द अल्लाह ऐसे लोग लाएगा कि वो अल्लाह के प्यारे और अल्लाह उनका प्यारा, मुसलमानों पर नर्म और काफ़िरों पर सख़्त अल्लाह की राह में लड़ेंगे और किसी मलामत (भतर्सना) करने वाले की मलामत का अन्देशा (भय) न करेंगे (13)
यह अल्लाह का फ़ज़्ल है जिसे चाहे दे, और अल्लाह वुसअत वाला इल्म वाला है (54) तुम्हारे दोस्त नहीं मगर अल्लाह और उसका रसूल और ईमान वाले (14)
कि नमाज़ क़ायम रखते हैं और ज़कात देते हैं और अल्लाह के हुज़ूर झुके हुए हैं (15) (55)
और जो अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमानों को अपना दोस्त बनाए तो बेशक अल्लाह ही का दल ग़ालिब है (56)

तफसीर
सूरए माइदा – आठवाँ रूकू

(1) इस आयत में यहूदियों और ईसाईयों के साथ दोस्ती और सहयोग यानी उनकी मदद करना, उनसे मदद चाहना, उनके साथ महब्बत के रिश्ते रखना, मना फ़रमाया गया. यह हुक्म आम है अगरचे आयत किसी ख़ास घटना के मौक़े पर उतरी हो. यह आयत हज़रत इबादा बिन सामित सहाबी और अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलोल के बारे में उतरी जो मुनाफ़िक़ों का सरदार था. हज़रत इबादा रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि यहूदियों में मेरे बहुत से दोस्त हैं जो बड़ी शान वाले, बड़ी ताक़त वाले हैं, अब मैं उनकी दोस्ती से बेज़ार हूँ, और अल्लाह व रसूल के सिवा मेरे दिल में और किसी की महब्बत की गुंजायश नहीं. इस पर अब्दुल्लाह बिन उबई ने कहा कि मैं तो यहूदियों की दोस्ती से बेज़ारी नहीं कर सकता. मुझे पेश आने वाले हादसों का डर है, और मुझे उनके साथ राहो रस्म रखनी ज़रूरी है. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उससे फ़रमाया कि यहूदियों की दोस्ती का दम भरना तेरा ही काम है, इबादा का यह काम नहीं. इस पर यह आयत उतरी. (ख़ाज़िन)

(2) इससे मालूम हुआ कि काफ़िर कोई भी हो, उनमें आपस में कितने ही इख़्तिलाफ़ हों, मुसलमानों के मुक़ाबले में वो सब एक है “अल कुफ़्रो उम्मतुन वाहिदतुन” . (मदारिक)

(3) इसमें बहुत सख़्ती और ताकीद है कि मुसलमानों पर यहूदियों और ईसाइयों और इस्लाम के हर विरोधी से अलग रहना वाजिब है. (मदारिक व ख़ाज़िन)

(4) जो काफ़िरों से दोस्ती करके अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं. हज़रत अबू मूसा अशअरी रदियल्लाहो अन्हो का कातिब ईसाई था. हज़रत अमीरूल मूमिनीन उतर रदियल्लाहो अन्हो ने उनसे फ़रमाया कि ईसाई से क्या वास्ता. तुमने यह आयत नहीं सुनी, “या अय्युहल्लज़ीना आमनू ला तत्तख़िज़ुल यहूद” (ऐ ईमान वालों, यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त न बनाओ- सूरए मायदह, आयत 51). उन्होंने अर्ज़ किया, उसका दीन उसके साथ, मुझे तो उसकी किताबत से मतलब है. अमीरूल मूमिनीन ने फ़रमाया कि अल्लाह ने उन्हें ज़लील किया तुम उन्हें इज़्ज़त न दो, अल्लाह ने उनहें दूर किया, तुम उन्हें क़रीब न करो. हज़रत अबू मूसा ने अर्ज़ किया कि बग़ैर उसके बसरा की हुकूमत का काम चलाना कठिन है, यानी इस ज़रूरत से, मजबूरी से उसको रखा है कि इस योग्यता का दूसरा आदमी मुसलमानों में नहीं मिलता. इस पर अमीरूल मूमिनीन ने फ़रमाया, ईसाई मर गया वस्सलाम. यानी फ़र्ज़ करो कि वह मर गया, उस वक़्त जो इन्तिज़ाम करोगे वही अब करो और उससे हरग़िज़ काम न लो, यह आख़िरी बात है. (ख़ाज़िन)

(5) यानी दोहरी प्रवृत्ति.

(6) जैसा कि अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ ने कहा.

(7) और अपने रसूल मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को विजयी और कामयाब करे और उनके दीन को तमाम दीनों पर ग़ालिब करे. और मुसलमानों को उनके दुश्मन यहूदियों और ईसाइयों वग़ैरह काफ़िरों पर ग़लबा दे. चुनांचे यह ख़बर सच्ची साबित हुई और अल्लाह तआला के करम से मक्कए मुकर्रमा और यहूदियों के इलाक़े फ़त्ह हुए. (ख़ाज़िन वग़ैरह)

(8) जैसे कि सरज़मीने हिजाज़ को यहूदियों से पाक करना और वहाँ उनका नामो निशान बाक़ी न रखना या मुनाफ़िक़ों के राज़ खोलकर उन्हें रूस्वा करना. (ख़ाज़िन व जलालैन)

(9) यानी दोग़ली प्रवृत्ति या ऐसी प्रवृत्ति रखने वालों का यह ख़याल कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुक़ाबले में कामयाब न होंगे.

(10) मुनाफ़िक़ों का पर्दा खुलने पर.

(11) कि दुनिया में ज़लील व रूस्वा हुए और आख़िरत में हमेशा के अज़ाब के सज़ावर.

(12) काफ़िरों के साथ दोस्ती और सहयोग बेदीनी और अधर्म के बराबर है, इसके मना किये जाने के बाद अधर्मियों का ज़िक्र फ़रमाया, और मुर्तद होने से पहले लोगों के दीन से फिर जाने की ख़बर दी. चुनांचे यह ख़बर सच हुई और बहुत लोग दीन से फिरे.

(13) यह सिफ़त जिनकी है वो कौन हैं, इसमें कई क़ौल हैं. हज़रत अली मुरतज़ा व हसन व क़तादा ने कहा कि ये लोग हज़रत अबूबक्र और उनके साथी हैं, जिन्हों ने नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के बाद मुर्तद होने और ज़कात से इन्कारी होने वालों पर जिहाद किया. अयाज़ बिन ग़नम अशअरी से रिवायत है कि जब यह आयत उतरी. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत अबू मूसा अशअरी की निस्बत फ़रमाया कि यह उनकी क़ौम है. एक क़ौल यह है कि ये लोग यमन निवासी हैं जिनकी तारीफ़ बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ की हदीसों में आई हैं. सदी का क़ौल है कि ये लोग अन्सार हैं जिन्होंने रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत की और इन क़ौलों में कुछ विरोध नहीं क्योंकि इन सब हज़रात में ये गुण होना सही हैं.

(14) जिनके साथ सहयोग हराम है, उनका ज़िक्र फ़रमाने के बाद उनका बयान फ़रमाया जिनके साथ सहयोग वाजिब है. हज़रत जाबिर रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि यह आयत हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम के हक़ में नाज़िल हुई. उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह, हमारी क़ौम क़ुरैज़ा और नुज़ैर ने हमें छोड़ दिया और क़रमें खालीं कि वो हमारे साथ हम-नशीनी न करेंगे.  इस पर यह आयत उतरी तो अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा हम राज़ी हैं अल्लाह के रब होने पर, उसके रसूल के नबी होने पर, मूमिनीन के दोस्त होने पर और आयत का हुक्म सारे ईमान वालों के लिये आम है. सब एक दूसरे के दोस्त और प्यारे हैं.

(15) वाक्य ” वहुम राकिऊन” (समझ झुके हुए हैं) दो वजह रखता है, एक यह कि पहले जुमलों पर मअतूफ़ हो, दूसरी यह कि हाल वाक़े हो. पहली वजह सबसे ज़ाहिर और मज़बूत है, और आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह का अनुवाद भी इसी के मुताबिक़ है. दूसरी वजह पर दो पहलू हैं, एक यह कि “युक़ीमूना व यूतूना” दोनों क्रियाओं के कर्ताओं से हाल वाक़े हुआ. उस सूरत में मानी ये होंगे कि वह पूरी एकाग्रता और दिल की गहराई से नमाज़ क़ायम करते और ज़कात देते हैं. (तफ़सीरे अबूसऊद). दूसरा पहलू यह है कि सिर्फ़ “यूतून” के कर्ता से हाल वाक़े हुआ. उस सूरत में मानी ये होंगे कि नमाज़ क़ायम करते हैं और विनम्रता के साथ ज़कात देते हैं. (जुमल) कुछ का कहना है कि यह आयत हज़रत अली मुरतज़ा रदियल्लाहो अन्हो की शान में है कि आपने नमाज़ में सवाल करने वाले को अंगूठी सदक़ा दी थी. वह अंगूठी आपकी उंगली में ढीली थी, आसानी से एक ही बार में निकल गई. लेकिन इमाम फ़ख़रूद्दीन राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में इसका सख़्ती से रद किया है और इसके ग़लत होने के कई कारण बताए हैं.

सूरए माइदा – नवाँ रूकू

सूरए माइदा –  नवाँ  रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ ईमान वालो जिन्होंने तुम्हारे दीन को हंसी खेल बना लिया है (1)
वो जो तुमसे पहले किताब दिये गए और काफ़िर (2)
उनमें किसी को अपना दोस्त न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो अगर ईमान रखते हो (3)
(57) और जब तुम नमाज़ के लिये अज़ान दो तो उसे हंसी खेल बनाते हैं (4)
यह इसलिये कि वो निरे बे अक़्ल लोग हैं (5)(58)
तुम फ़रमाओ ऐ किताबियों तुम्हें हमारा क्या बुरा लगा यही न कि हम ईमान लाए अल्लाह पर और उसपर जो हमारी तरफ़ उतरा और उसपर जो पहले उतरा  (6)
और यह कि तुम में अक्सर बेहुक्म हैं  (59) तुम फ़रमाओ क्या मैं बतादूं जो अल्लाह के यहाँ इससे बदतर दर्जे में हैं (7)
वो जिनपर अल्लाह ने लअनत की और उन पर ग़ज़ब फ़रमाया और उनमें से कर दिया बन्दर और सुअर (8)
और शैतान के पुजारी उनका ठिकाना ज़्यादा बुरा है (9)
और ये सीधी राह से ज़्यादा बहके (60) और जब तुम्हारे पास आए (10)
तो कहते हैं कि हम मुसलमान हैं और वो आते वक़्त भी काफ़िर थे और जाते वक़्त भी काफ़िर और अल्लाह ख़ूब जानता है जो छुपा रहे हैं (61) और उन (11)
में तुम बहुतों को देखोगे कि गुनाह और ज़ियादती और हरामख़ोरी पर दौड़ते हैं (12)
बेशक बहुत ही बुरे काम करते हैं (62)  इन्हें क्यों नहीं मना करते उनके पादरी, और दर्वेश गुनाह की बात कहने और हराम खाने से बेशक बहुत ही बुरे काम कर रहे हैं (13)(63)
और यहूदी बोले अल्लाह का हाथ बंधा हुआ है  (14)
उनके हाथ बांधे जाएं (15)
और उनपर इस कहने से लअनत है बल्कि उसके हाथ कुशादा हैं (16)
अता फ़रमाता है जैसे चाहे (17)
और ऐ मेहबूब ये (18)
जो तुम्हारी तरफ़ तुम्हारे रब के पास से उतरा उससे उनमें बहुतों को शरारत और कुछ कुफ्र में तरक़्क़ी होगी (19)
और बैर डाल दिया (20)
जब कभी लड़ाई की आग भड़काते हैं अल्लाह उसे बुझा देता है (21)
और ज़मीन में फ़साद के लिये दौड़ते फिरते हैं और अल्लाह फ़सादियों को नहीं चाहता  (64) और अगर किताब वाले ईमान लाते और परहेज़गारी करते तो ज़रूर हम उनके गुनाह उतार देते और ज़रूर उन्हें चैन के बाग़ों में ले जाते  (65) और अगर वो क़ायम रखते तौरात और इंजील  (22)
और जो कुछ उनकी तरफ़ उनके रब की तरफ़ से उतरा  (23)
तो उन्हें रिज़्क मिलता है ऊपर से और उनके पांव के नीचे से (24)
उनमें कोई गिरोह  (दल) अगर एतिदाल (संतुलन) पर है (25) और उनमें अक्सर बहुत ही बुरे काम कर रहे हैं (26)(66)

तफसीर
सूरए माइदा –  नवाँ  रूकू

(1) रफ़ाआ बिन ज़ैद और सवीद बिन हारिस दोनों इस्लाम ज़ाहिर करने के बाद मुनाफ़िक़ हो गए. कुछ मुसलमान उनसे महब्बत रखते थे. अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी और बताया कि ज़बान से इस्लाम ज़ाहिर करना और दिल में कुफ़्र छुपाए रखना, दीन को हंसी खेल बनाना है.

(2) यानी मूर्तिपूजक मुश्रिक जो किताब वालों से भी बुरे हैं. (ख़ाज़िन)

(3) क्योंकि ख़ुदा के दुश्मनों के साथ दोस्ती करना ईमान वाले का काम नहीं.

(4) कलबी का क़ौल है कि जब रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का मुअज़्ज़िन नमाज़ के लिये अज़ान कहता और मुसलमान उठते तो यहूदी हंसते और ठठ्ठा करते. इस पर यह आयत उतरी. सदी का कहना है कि मदीनए तैय्यिबह में जब मुअज़्ज़िन अज़ान में “अशहदो अन ला इलाहा इल्लल्लाह” और “अशहदो अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह” कहता तो एक यहूदी यह कहा करता कि जल जाए झुटा. एक रात उसका ख़ादिम आग लाया, वह और उसके घर के लोग सो रहे थे. आग से एक चिंगारी उड़ी और वह यहूदी और उसके घर के लोग और सारा घर जल गया.

(5) जो ऐसी बुरी और जिहालत की बातें करते हैं. इस आयत से मालूम हुआ कि अज़ान क़ुरआनी आयत से भी साबित हैं.

(6) यहूदियों की एक जमाअत ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दरियाफ़्त किया कि आप नबियों में से किस को मानते हैं, इस सवाल से उनका मतलब यह था कि आप हज़रत ईसा को न मानें तो वो आप पर ईमान ले आएं. लेकिन हुज़ूर ने इसके जवाब में फ़रमाया कि मैं अल्लाह पर ईमान रखता हूँ और जो उसने हम पर उतारा और जो हज़रत इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक़ व याक़ूब और उनकी औलाद पर उतारा और जो हज़रत मूसा व ईसा को दिया गया यानी तौरात और इंजील और जो और नबियों को उनके रब की तरफ़ से दिया गया, सब को मानता हूँ. हम नबियों में फ़र्क़ नहीं करते कि किसी को मानें और किसी को न मानें. जब उन्हें मालूम हुआ कि आप हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की नबुव्वत को भी मानते हैं तो वो आपकी नबुव्वत का इन्कार कर बैठे और कहने लगे जो ईसा को माने, हम उस पर ईमान न लाएंगे. इस पर यह आयत उतरी.

(7) कि इस सच्चे दीन वालों को तो तुम सिर्फ़ अपनी दुश्मनी ही से बुरा कहते हो और तुमपर अल्लाह तआला ने लअनत की है और ग़ज़ब फ़रमाया और आयत में जो बयान है, वह तुम्हारा हाल हुआ तो बदतर दर्जे में तो तुम ख़ुद हो, कुछ दिल में सोचो.

(8) सूरतें बिगाड़ के.

(9) और वह जहन्नम है.

(10) यह आयत यहूदियों की एक जमाअत के बारे में उतरी जिन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर अपने ईमान और महब्बत का इज़हार किया और कुफ़्र और गुमराही छुपाई. अल्लाह तआला ने यह आयत उतार कर अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उनके हाल की ख़बर दी.

(11) यानी यहूदी.

(12) गुनाह हर बुराई और नाफ़रमानी को शामिल है. कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि गुनाह से तौरात के मज़मून का छुपाना और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की जो विशेषताएं और गुण हैं उनको छुपाना और ज़ियादती से तौरात के अन्दर अपनी तरफ़ से कुछ बढ़ा देना और हरामख़ोरी से रिशवतें वग़ैरह मुराद हैं.  (ख़ाज़िन)
(13) कि लोगों को गुनाहों और बुरे कामों से नहीं रोकते. इससे मालूम हुआ कि उलमा पर नसीहत और बुराई से रोकना वाजिब है, और जो शख़्स बुरी बात से मना करने को छोड़े, और बुराई के इन्कार से रूका रहे, वह गुनाह करने वाले जैसा है.

(14) यानी मआज़ल्लाह वह बख़ील यानी कंजूस है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यहूदी बहुत ख़ुशहाल और काफ़ी मालदार थे. जब उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को झुटलाया और विरोध किया तो उनकी रोज़ी कम हो गई. उस वक़्त एक यहूदी ने कहा कि अल्लाह का हाथ बंधा है, यानी मआज़ल्लाह वह रिज़्क़ देने और ख़र्ज करने में कंजूसी करता है. उनके इस कहने पर किसी यहूदी ने मना न किया बल्कि राज़ी रहे, इसीलिये यह सबका कहा हुआ क़रार दिया गया और यह आयत उनके बारे में उतरी.

(15) तंगी और दादो-दहिश से. इस इरशाद का यह असर हुआ कि यहूदी दुनिया में सबसे ज़्यादा कंजूस हो गए या ये मानी हैं कि उनके हाथ जहन्नम में बांधे जाएं और इस तरह उन्हें दोज़ख़ की आग में डाला जाए, उनकी इस बेहूदा बात और गुस्ताख़ी की सज़ा में.

(16) वह सख़ावत वाला और करम वाला है.
(17) अपनी हिकमत के अनुसार, इसमें किसी को ऐतिराज़ की मजाल नहीं.

(18) क़ुरआन शरीफ़.

(19) यानी जितना क़ुरआने पाक उतरता जाएगा उतना हसद और दुश्मनी बढ़ती जाएगी और वो उसके साथ कुफ़्र और सरकशी में बढ़ते रहेंगे.

(20) वो हमेशा आपस में अलग अलग रहेंगे और उनके दिल कभी न मिलेंगे.

(21) और उनकी मदद नहीं फ़रमाता, वह ज़लील होता है.

(22) इस तरह कि नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाते और आपकी फ़रमाँबरदारी करते कि तौरात व इंजील में इसका हुक्म दिया गया है.

(23) यानी तमाम किताबें जो अल्लाह तआला ने अपने रसूलों पर उतारीं, सबमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़िक्र और आप पर ईमान लाने का हुक्म है.

(24) यानी रिज़्क़ की बहुतात होती और हर तरफ़ से पहुंचता. इस आयत से मालूम हुआ कि दीन की पाबन्दी और अल्लाह तआला की फ़रमाँबरदारी से रिज़्क़ में विस्तार होता है.

(25) हद से आगे नहीं जाता, ये यहूदियों में से वो लोग हैं जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाए.

(26) जो कुफ़्र पर जमे हुए है.

सूरए माइदा – दसवाँ रूकू

सूरए माइदा – दसवाँ रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ रसूल पहुंचादो जो कुछ उतरा तुम्हें तुम्हारे रब की तरफ़ से (1)
और ऐसा न हो तो तुम ने उसका पयाम (संदेश) न पहुंचाया और अल्लाह तुम्हारी निगहबानी करेगा लोगों से (2)
बेशक अल्लाह काफ़िरों को राह नहीं देता (67) तुम फ़रमादो ऐ किताब वालों तुम कुछ भी नहीं हो (3)
जब तक न क़ायम करो तौरात और इंजिल और जो कुछ तुम्हारी तरफ़ तुम्हारे रब के पास से उतरा (4)
और बेशक ऐ मेहबूब वह जो तुम्हारी तरफ़ तुम्हारे रब के पास से उतरा उस से उनमें बहुतों को शरारत और कुफ़्र की ओर तरक़्की होगी (5)
तो तुम काफ़िरों को कुछ ग़म न खाओ (68) बेशक वो जो अपने आपको मुसलमान कहते हैं (6)
और इस तरह यहूदी और सितारों को पूजने वाले और ईसाई, इनमें जो कोई सच्चे दिल से अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाए और अच्छे काम करे तो उनपर न कुछ डर है और न कुछ ग़म (69) बेशक हमने बनी इस्राईल से एहद लिया(7)
और उनकी तरफ़ रसूल भेजे जब कभी उनके पास कोई रसूल वह बात लेकर आया जो उनके नफ़्स की ख़्वाहिश न थी (8)
एक दल को झुटलाया और एक दल को शहीद करते हैं (9)(70)
और इस ग़ुमान में हैं कि कोई सज़ा न होगी (10)
तो अंधे और बेहरे हो गए (11)
फिर अल्लाह ने उनकी तौबह क़ुबूल की (12)
फिर उनमें बहुतेरे अंधे और बेहरे हो गए और अल्लाह उनके काम देख रहा है(71) बेशक काफ़िर हैं वो जो कहते हैं कि अल्लाह वही मसीह मरयम का बेटा है (13)
और मसीह ने तो यह कहा था कि ऐ बनी इस्राईल अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब (14)
है और तुम्हारा रब बेशक जो अल्लाह का शरीक ठहराए तो अल्लाह ने उसपर जन्नत हराम करदी और उसका ठिकाना दोज़ख़ है.और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं  (72) बेशक काफ़िर हैं वो जो कहते हैं अल्लाह तीन ख़ुदाओ में का तीसरा हैं (15)
और ख़ुदा तो नहीं मगर एक ख़ुदा (16)
और अगर अपनी बात से बाज़ न आए  (17)
तो जो उनमें काफ़िर मरेंगे उनको ज़रूर दर्दनाक अज़ाब पहुंचेगा  (73) तो क्यों नहीं रूजू करते अल्लाह की तरफ़ और उससे बख़्शिश मांगते और अल्लाह बख़्श्ने वाला मेहरबान (74) मसीह मरयम का बेटा नहीं मगर एक रसूल  (18)
उससे पहले बहुत रसूल हो गुज़रे  (19)
और उसकी माँ सिद्दीक़ा (सच्ची) है (20)
दोनो खाना खाते थे (21)
देखो तो हम कैसी साफ़ निशानियां इनके लिये बयान करते हैं फिर देखो वो कैसे औंध जाते हैं  (75)
तुम फ़रमाओ क्या अल्लाह के सिवा ऐसे को पूजते हो जो तुम्हारे नुक़सान का मालिक न नफ़ा का (22)
और अल्लाह ही सुनता जानता है  (76) तुम फ़रमाओ ऐ किताब वालो अपने दीन में नाहक़ ज़ियादती न करो  (23)
और ऐसे लोगों की ख़्वाहिश पर न चलो (24)
जो पहले गुमराह हो चुके और बहुतो को गुमराह किया और सीधी राह से बहक गए (77)

तफसीर
सूरए माइदा –  चौथा रूकू

(1) और कुछ अन्देशा न करो.

(2) यानी काफ़िरों से जो आपके क़त्ल का इरादा रखते हैं. सफ़रों में रात को हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का पहरा दिया जाता था, जब यह आयत उतरी, पहरा हटा दिया गया और हुज़ूर ने पहरेदारों से फ़रमाया कि तुम लोग चले जाओ. अल्लाह तआला ने मेरी हिफ़ाज़त फ़रमाई.

(3) किसी दीन व मिल्लत में नहीं.

(4) यानी क़ुरआने पाक इन किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नात और आप पर ईमान लाने का हुक्म है, जब तक हुज़ूर पर ईमान न लाएं. तौरात व इन्जील के अनुकरण का दावा सही नहीं हो सकता.

(5) क्योंकि जितना क़ुरआने पाक उतरता जाएगा, ये मक्कार दुश्मनी से इसके इन्कार में और सख़्ती करते जाएंगे.

(6) और दिल में ईमान नहीं रखते, मुनाफ़िक़ है.

(7) तौरात में, कि अल्लाह तआला और उसके रसूलों पर ईमान लाएं और अल्लाह के हुक्म के मुताबिक अमल करें.

(8) और उन्होंने नबियों के आदेशों को अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़ पाया तो उनमें से.

(9) नबियों को झुटलाने में तो यहूदी और ईसाई सब शरीक हैं मगर क़त्ल करना, यह ख़ास यहूदियों का काम है. उन्होंने बहुत से नबियों को शहीद किया जिनमें से हज़रत ज़करिया और हज़रत यहया अलैहुमस्सलाम भी है.

(10) और ऐसे सख़्त जुर्मों पर भी अज़ाब न किया जाएगा.

(11) सच्चाई को देखने और सुनने से, यह उनकी असीम अज्ञानता और अत्यन्त कुफ़्र और सत्य क़ुबूल करने से बिल्कुल ही मुँह फेर लेने का बयान है.

(12) जब उन्होंने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के बाद तौबह की उसके बाद दोबारा.

(13) ईसाइयों के कई सम्प्रदाय हैं उनमें से याक़ूबिया और मल्कानिया का यह कहना था कि मरयम ने मअबूद जना और यह भी कहते थे कि मअबूद ने ईसा की ज़ात में प्रवेश किया और वह उनके साथ एक हो गया तो ईसा मअबूद हो गए.
(14) और मैं उसका बन्दा हूँ, मअबूद नहीं.

(15) यह क़ौल ईसाइयों के सम्प्रदाय मरक़सिया व नस्तूरिया का है. अकसर मुफ़िस्सरों का क़ौल है कि इससे उनकी मुराद यह थी कि अल्लाह और मरयम और ईसा तीनों इलाह हैं और इलाह होना इन सब में मुश्तरक है. मुतकल्लिमीन फ़रमाते हैं कि ईसाई कहते हैं कि बाप, बेटा, रूहुलक़ुदुस, ये तीनों एक इलाह हैं.

(16) न उसका कोई सानी न सालिस. वह वहदानियत के साथ मौसूफ़ है, उसका कोई शरीक नहीं. बाप, बेटे, बीबी, सबसे पाक.

(17) और त्रिमूर्ति के मानने वाले रहे, तौहीद इख़्तियार न की.

(18) उनको मअबूद मानना ग़लत, बातिल और कुफ़्र है.

(19) वो भी चमत्कार रखते थे. ये चमत्कार उनके सच्चे नबी होने की दलील थे. इसी तरह हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम भी रसूल हैं, उनके चमत्कार भी उनकी नबुव्वत के प्रमाण हैं, उन्हें रसूल ही मानना चाहिये, जैसे  और नबियों को चमत्कार पर ख़ुदा नहीं मानते, उनको भी ख़ुदा न मानो.

(20) जो अपने रब के कलिमात और उसकी किताबों की तस्दीक़ करने वाली हैं.

(21) इसमें ईसाइयों का रद है कि इलाह यानी मअबूद ग़िज़ा का मोहताज़ नहीं हो सकता, तो जो ग़िज़ा खाए, जिस्म रखे, उस जिस्म में तबदील हो, ग़िज़ा उसका बदल बने, वह कैसे मअबूद हो सकता है.

(22) यह शिर्क के बातिल होने की एक और दलील है इसका ख़ुलासा यह है कि मअबूद (जिसकी पूजा की जा सके) वही हो सकता है जो नफ़ा नुक़सान वग़ैरह हर चीज़ पर ज़ाती क़ुदरत और इख़्तियार रखता हो. जो ऐसा न हो, वह इलाह यानी पूजनीय नहीं हो सकता और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम नफ़ा नुक़सान के अपनी ज़ात से मालिक न थे, अल्लाह तआला के मालिक करने से मालिक हुए, तो उनकी निस्बत अल्लाह होने का अक़ीदा बातिल है. (तफ़सीरे अबूसउद)

(23) यहूदियों की ज़ियादती तो यह है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की नबुव्वत ही नहीं मानते और ईसाइयों की ज़ियादती यह कि उन्हें मअबूद ठहराते हैं.

(24) यानी अपने अधर्मी बाप दादा वग़ैरह की.

सूरए माइदा – ग्यारहवाँ रूकू

सूरए माइदा – ग्यारहवाँ रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
लअनत किये गए वो जिन्होंने कुफ़्र किया बनी इस्राईल में दाऊद और ईसा मरयम के बेटे की ज़बान पर  (1)
ये (2)
बदला उनकी नाफ़रमानी और सरकशी का (78) जो बुरी बात करते आपस में एक दूसरे को न रोकते ज़रूर बहुत ही बुरे काम करते थे (3)(79)
उनमें तुम बहुतों को देखोगे कि काफ़िरों से दोस्ती करते हैं क्या ही बुरी चीज़ अपने लिये ख़ुद आगे भेजी यह कि अल्लाह का उनपर ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ और वो अज़ाब में हमेशा रहेंगे (4) (80)
और अगर वो ईमान लाते  (5)
अल्लाह और नबी पर और उसपर जो उनकी तरफ़ उतरा तो काफ़िरों से दोस्ती न करते  (6)
मगर उनमें तो बहुतेरे फ़ासिक़ (दुराचारी) हैं (81)
ज़रूर तुम मुसलमानों का सबसे बढ़कर दुश्मन यहूदियों और मुश्रिकों को पाओगे और ज़रूर तुम मुसलमानों की दोस्ती में सबसे ज़्यादा क़रीब उनको पाओगे  जो कहते थे हम नसारा (ईसाई) हैं (7)
यह इसलिये कि उनमें आलिम और दर्वेश (महात्मा) हैं और ये घमण्ड नहीं करते (8) (82)

सातवाँ पारा – व इज़ासमिऊ
(सुरए माइदा जारी )

और जब सुनते हैं वह जो रसूल की तरफ़ उतरा (9)
उनकी आँखें देखो कि आँसुओं से उबल रही हैं (10)
इसलिये कि वो हक़ को पहचान गए कहते हैं ऐ हमारे रब हम ईमान लाए (11)
तो हमें हक़ के गवाहों मे लिख ले (12) (83)
और हमें क्या हुआ कि हम ईमान न लाएं अल्लाह पर और उस हक़ पर कि हमारे पास आया और हम तमा (लालच) करते हैं कि हमें हमारा रब नेक लोगों के साथ दाख़िल करे (13) (84)
तो अल्लाह ने उनके इस कहने के बदले उन्हें बाग़ दिये जिनके नीचे नहरें बहें हमेशा उनमें रहेंगे यह बदला है नेकों का (14) (85)
और वो जिन्होंने कुफ़्र किया और हमारी आयतें झुटलाई वो हैं दोज़ख़ वाले (83)

तफसीर
सूरए माइदा – ग्यारहवाँ रूकू

(1)  ईला के रहने वालों ने जब सीमा का उल्लंघन किया और सनीचर के दिन शिकार न करने का जो हुक्म था, उसकी अवहेलना की तो हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम ने उनपर लअनत की और उनके हक़ में बददुआ फ़रमाई तो वो बन्दरों और सुअरों की सूरत में कर दिये गए, और मायदा वालों ने जब आसमान से उतरी नेमतें खाने के बाद कुफ़्र किया तो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने उनके हक़ में बददुआ की तो वो सुअर और बन्दर हो गए और उनकी संख्या पांच हज़ार थी. (जुमल वग़ैरह) कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि यहूदी अपने पूर्वजों पर गर्व किया करते थे और कहते थे हम नबियों की औलाद हैं, इस आयत में उन्हें बताया गया कि इन नबियों ने उनपर लअनत की है, एक क़ौल यह है कि हज़रत दाऊद और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने सैयदे आलम मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशख़बरी दी और हुज़ूर पर ईमान न लाने और कुफ़्र करने वालों पर लअनत की.

(2) लअनत.

(3) आयत से साबित हुआ कि बुराई से लोगो को रोकना वाजिब है,  और बुराई को मना करने से रूका रहना सख़्त गुनाह है. तिरमिज़ी की हदीस में है कि जब बनी इस्राईल गुनाहों में गिरफ्तार हुए तो उनके उलमा ने पहले तो उन्हें मना किया, जब वो न माने तो फिर वो उलमा भी उनसे मिल गए और खाने पीने उठने बैठने में उनके साथ शामिल हो गए. उनके इस गुनाह और ज़िद का यह नतीजा हुआ कि अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की ज़बान से उनपर लअनत उतारी.

(4) इस आयत से साबित हुआ कि क़ाफ़िरों से दोस्ती और उनके साथ रिश्तेदारी हराम और अल्लाह तआला के गज़ब का कारण है.

(5) सच्चाई और महब्बत के साथ, बग़ैर दोग़ली प्रवृति के.

(6) इससे साबित हुआ कि मुश्रिकों के साथ दोस्ती और सहयोग दोग़ली प्रवृति की निशानी है.

(7) इस आयत में उनकी प्रशंसा है जो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने तक हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दीन पर रहे और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत मालूम होने पर हुज़ूर पर ईमान ले आए, इस्लाम की शुरूआत में जब क़ुरैश के काफ़िरों ने मुसलमानों को बहुत तकलीफ़ दीं तो सहाबए किराम में से ग्यारह मर्द और चार औरतों ने हुज़ूर के हुक्म से हबशा की तरफ़ हिज़रत की. इन मुहाजिरों के नाम ये है : हज़रत उस्मान और उनकी ज़ौजए ताहिरा हज़रत रूक़ैया दुख़्तरे रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हज़रत जुबैर, हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद, हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़, हज़रत अबू हुज़ैफ़ा और बीवी हज़रत सहला बिन्ते सुहैल और हज़रत मुसअब बिन उमैर, हज़रत अबू सलमा और उनकी बीवी हज़रत उम्मे सलमा बिन्ते उमैया, हज़रत उस्मान बिन मतऊन, हज़रत आमिर बिन रबीआ और उनकी बीवी हज़रत लैला बिन्ते अबी ख़सीमा, हज़रत हातिब बिन अम्र,  हज़रत सुहैल बिन बैदा रदियल्लाहो अन्हुम. ये हज़रात नबुव्वत के पांचवे साल रजब मास में दरिया का सफ़र करके हबशा पहुंचे. इस हिजरत को हिजरते ऊला कहते हैं. उनके बाद हज़रत जअफ़र बिन अबी तालिब गए और फिर मुसलमान रवाना होते रहे यहाँ तक कि बच्चो और औरतों के अलावा मुहाजिरों की तादाद बयासी मर्दों तक पहुंच गई. जब क़रैश को इस हिजरत के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने एक जमाअत तोहफ़े वग़ैरह लेकर नजाशी बादशाह के पास भेजी. उन लोगों ने शाही दरबार में जाकर बादशाह से कहा कि हमारे मुल्क में एक शख़्स ने नबुव्वत का दावा किया है और लोगों को नादान बना डाला है. उनकी जमाअत जो आपके मुल्क में आई है वह यहाँ फ़साद फैलाएगी और आपकी रिआया को बाग़ी बनाएगी. हम आपको ख़बर देने के लिये आए है और हमारी क़ौम दरख़्वास्त करती है कि आप उन्हें हमारे हवाले कीजिये. नजाशी बादशाह ने कहा, हम उन लोगो से बात करलें. यह कहकर मुसलमानों को तलब किया और उनसे पूछा कि तुम हज़रत ईसा और उनकी वालिदा के हक़ में क्या अक़ीदा रखते हो. हज़रत जअफ़र बिन अबी तालिब ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा अल्लाह के बंदे और उसके रसूल और कलिमतुल्लाह और रूहुल्लाह है और हज़रत मरयम कुंवारी पाक हैं. यह सुनकर नजाशी ने ज़मीन से एक लकड़ी का टुकड़ा उठाकर कहा, खुदा की क़सम तुम्हारे आक़ा ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के कलाम में इतना भी नहीं बढ़ाया जितनी यह लकड़ी, यानी हुज़ूर का इरशाद हज़रत ईसा के कलाम के बिलकुल अनुकूल है. यह देखकर मक्के के मुश्रिकों के चेहरे उतर गए. फिर नजाशी ने क़ुरआन शरीफ़ सुनने की ख़्वाहिश की, हज़रत जअफ़र ने सूरए मरयम तिलावत की. उस वक़्त दरबार में ईसाई आलिम और दर्वेश मौजूद थे. कुरआन करीम सुनकर बे इख़्तियार रोने लगे नजाशी ने मुसलमानों से कहा तुम्हारे लिये मेरी सल्तनत में कोई ख़तरा नहीं. मक्के के मुश्रिक नाकाम फिरे और मुसलमान नजाशी के पास बहुत इज़्ज़त और आसायश के साथ रहे और अल्लाह के फ़ज़्ल से नजाशी को ईमान की दौलत हासिल हुई. इस घटना के बारे में यह आयत उतरी.

(8) इससे साबित हुआ कि इल्म हासिल करना और अहंकार और घमण्ड छोड़ देना बहुत काम आने वाली चीज़ें हैं और इनकी बदौलत हिदायत नसीब होती है.

(9) यानी क़ुरआन शरीफ़.

(10) यह उनके दिल की रिक़्क़त का बयान है कि क़ुरआने करीम के दिल पर असर करने वाली बातें सुनकर रो पड़ते हैं. चुनांचे नजाशी बादशाह की दरख़्वास्त पर हज़रत जअफ़र ने उसके दरबार में सूरए मरयम और सूरए तॉहा की आयतें पढ़ कर सुनाई तो नजाशी बादशाह और उसके दरबारी जिनमें उसकी क़ौम के उलमा मौजूद थे सब फूटफूट कर रोने लगे. इसी तरह नजाशी की क़ौम के सत्तर आदमी जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे, हुज़ूर से सूरए यासीन सुन कर बहुत रोए.

(11) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर और हमने उनके सच्चे होने की गवाही दी.

(12) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्मत में दाख़िल कर जो क़यामत के दिन सारी उम्मतों के गवाह होंगे. (ये उन्हें इंजील से मालूम हो चुका था)

(13) जब हबशा का प्रतिनिधि मण्डल इस्लाम अपनाकर वापस हुआ तो यहूदियों ने उसपर मलामत की, उसके जवाब में उन्होंने यह कहा कि सच्चाई साफ़ हो गई तो हम क्यों ईमान न लाते यानी ऐसी हालत में ईमान न लाना मलामत की बात है, न कि ईमान लाना क्योंकि यह दोनो जगत में भलाई का कारण है.

(14) जो सच्चाई और दिल की गहराई के साथ ईमान लाएं और सच्चाई का इक़रार करें.

सूरए माइदा – बारहवाँ रूकू

सूरए माइदा – बारहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
ऐ ईमान वालो (1)
हराम न ठहराओ वो सुथरी चीज़ें कि अल्लाह ने तुम्हारे लिये हलाल कीं (2)
और हद से न बढ़ो बेशक हद से बढ़ने वाले अल्लाह को नापसन्द हैं (87) और खाओ जो कुछ तुम्हें अल्लाह ने रोज़ी दी हलाल पाकीज़ा और डरो अल्लाह से जिसपर तुम्हें ईमान है (88) अल्लाह तुम्हें नहीं पकङता तुम्हारी ग़लतफ़हमी की क़समों पर (3)
हाँ उन क़समों पर पकङ फ़रमाता है जिन्हें तुमने मज़बूत किया(4)
तो ऐसी क़सम का बदला दस मिस्कीनों (ग़रीवों) को खाना देना (5)
अपने घर वालों को जो खिलाते है उसके औसत में से (6)
या उन्हें कपङे देना (7)
या एक ग़ुलाम आज़ाद करना तो  जो इन में से कुछ न पाए तो तीन दिन के रोज़े (8)
यह बदला है तुम्हारी क़समों का जब तुम क़सम खाओ (9)
और अपनी क़समों की हिफ़ाज़त करों (10)
इसी तरह अल्लाह तुम से अपनी आयतें बयान फ़रमाता है कि कहीं तुम एहसान मानो (89) ऐ ईमान वालो शराब और जुआ और बुत और पांसे नापाक ही हैं शैतानी काम तो इन से बचते रहना कि तुम भलाई पाओ (90) शैतान यही चाहता है कि तुम में बैर और दुश्मनी डलवा दे. शराब और जुए में और तुम्हें अल्लाह की याद और नमाज़ से रोके (11)
तो क्या तुम बाज़ आए (91) और हुक्म मानो अल्लाह का और हुक्म मानो रसूल का और होशियार रहो फिर अगर तुम फिर जाओ (12)
तो जान लो कि हमारे रसूल का ज़िम्मा सिर्फ़ खुले तौर पर हुक्म पहुंचा देना है (13)(92)
जो ईमान लाए और नेक काम किये उनपर कुछ गुनाह नहीं (14)
जो कुछ उन्होंने चखा जब कि डरें और ईमान रखें और नेकियां करें फिर डरें और ईमान रखें फिर डरें और अल्लाह नेकों को दोस्त रखता है (15)(93)

तफसीर
सूरए माइदा – बारहवाँ रूकू

(1) सहाब की एक जमाअत रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का वअज़ (व्याख्यान) सुनकर एक रोज़ हज़रत उस्मान बिन मतऊन के यहाँ जमा हुई और उन्होंने आपस में दुनिया छोड़ने का एहद किया और इस पर सहमति हुई कि वो टाट पहनेंगे, हमेशा दिन में रोज़ा रखेंगे, रात अल्लाह की इबादत में जाग कर गुज़ारा करेंगे, बिस्तर पर न लेटेंगे, गोश्त और चिकनाई न खाएंगे, औरतों से जुदा रहेंगे, ख़ुश्बू न लगाएंगे, इस पर यह आयत उतरी और उन्हें इस इरादे से रोक दिया गया.

(2) यानी जिस तरह हराम को छोड़ा जाता है उस तरह हलाल चीज़ों को मत छोड़ो और न किसी हलाल चीज़ को बढ़ा चढ़ाकर यह कहो कि हमने इसे अपने ऊपर हराम कर लिया.

(3)  ग़लत फ़हमी की क़सम यह है कि आदमी किसी घटना को अपने ख़्याल से सही जान कर क़सम खाले और हक़ीक़त में वह ऐसी न हो, ऐसी क़सम पर कफ़्फ़ारा नहीं.

(4) यानी ऐसी क़सम पर जो किसी आयंदा बात पर जान बूझकर खाई जाए. ऐसी क़सम तोड़ना गुनाह भी है और उसपर कफ़्फ़ारा भी लाज़िम है.

(5) दोनो वक़्त का, चाहे उन्हें खिलाए या पौने दो सेर गेँहू या साढ़े तीन सेर जौ सदकए फ़ित्र की तरह दे दे. यह भी जायज़ है कि एक मिस्कीन को दस दिन दे दे या खिला दिया करे.

(6) यानी न बहुत आला दर्जे का न बिल्कुल कमतर बल्कि औसत.

(7)  औसत दर्जे के जिनसे अक्सर बदन ढक सके. हज़रत इब्ने उमर रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि एक तहबन्द या कुर्ता या एक तहबन्द और एक चादर हो. कफ़्फ़ारे में इन तीन बातों का इख़्तियार है चाहे खाना दे, चाहे कपड़े, चाहे ग़ुलाम आज़ाद करे, हर एक से कफ़्फ़ारा अदा हो जाएगा.

(8) रोज़े से कफ़्फ़ारा जब ही अदा हो सकता है जबकि खाना कपड़ा देने और ग़ुलाम आज़ाद करने की क़ुदरत न हो. यह भी ज़रूरी है कि ये रोज़े एक पर एक रखे जाएं.

(9) और क़सम खाकर तोड़ दो यानी उसको पूरा न करो. क़सम तोड़ने से पहले कफ़्फ़ारा देना दुरूस्त नहीं.

(10) यानी उन्हें पूरा करो, अगर उसमें शरीअत के लिहाज़ से कोई हर्ज न हो और यह भी हिफ़ाज़त है कि क़सम खाने की आदत तर्क की जाए.

(11) इस आयत में शराब और जुए के नतीजे और वबाल बयान फ़रमाए गए कि शराब पीने और जुआ खेलने का एक वबाल तो यह है कि इससे आपस में दुश्मनी पैदा होती है और जो इन बुराईयों में फंसा हो वह अल्लाह के ज़िक्र और नमाज़ के वक़्तो की पाबन्दी से मेहरूम हो जाता है.

(12) ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी और रसूल के अनुकरण से.

(13) यह चेतावती है कि जब रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म ने अल्लाह का हुक्म साफ़ साफ़ पहुंचा दिया तो उनका जो फ़र्ज़ था अदा हो चुका अब जो विराध करे वह अज़ाब का हक़दार है.

(14) यह आयत उन लोगों के बारे में उतरी जो शराब हराम किये जाने से पहले वफ़ात पा चुके थे. शराब हराम होने का हुक्म उतरने के बाद सहाबा को उनकी फ़िक्र हुई कि उनसे इसका हिसाब होगा या न होगा, उनके बारे में यह आयत उतरी और बताया गया कि हराम होने का हुक्म उतरने से पहले जिन ईमानदारों न कुछ खाया पिया वो गुनहगार नहीं.

(15) आयत में शब्द “इत्तक़ू” जिसके मानी डरने और परहेज़ करने के हैं, तीन बार आया है. पहले से शिर्क से डरना और परहेज़ करना, दूसरे से शराब और जुए से बचना और तीसरे से तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करना मुराद है. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि पहले से शिर्क छोड़ना, दूसरे से गुनाह और हराम काम छोड़ना और तीसरे से शुबहात का छोड़ना मुराद है. कुछ कहते है कि पहले से तमाम हराम चीज़ों से बचना, दूसरे से उसपर क़ायम रहना और तीसरे से वही उतरने के दिनों में या उसके बाद जो चीज़ें मना की जाएं उनको छोड़ देना मुराद है.  (मदारिक, ख़ाज़िन, जुमल वग़ैरह)

सूरए माइदा _ तैरहवाँ रूकू

सूरए माइदा _  तैरहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ ईमान वालो ज़रूर अल्लाह तुम्हें आज़माएगा ऐसे कुछ शिकार से जिस तक तुम्हारा हाथ और नेज़े (भाले) पहुंचें (1)
कि अल्लाह पहचान करा दे उनकी जो उससे बिन देखे डरते हैं फिर इसके बाद जो हद से वढ़े (2)
उसके लिये दर्दनाक अज़ाब है (94) ऐ ईमान वालो शिकार न मारो जब तुम एहराम में हो (3)
और तुम में से जो उसे जान बूझकर क़त्ल करे (4)
तो उसका बदला यह है कि वैसा ही जानवर मवेशी से दे (5)
तुम में के दो सिक़ह (विश्वस्त) आदमी उसका हुक्म करें (6)
यह क़ुरबानी हो काबा को पहुंचती (7)
या कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) दे कुछ मिस्कीनों का खाना (8)
या उसके बराबर रोज़े कि अपने काम का बवाल चखो अल्लाह ने माफ़ किया जो हो गुज़रा (9)
और जो अब करेगा अल्लाह उससे बदला लेगा और अल्लाह ग़ालिब है बदला लेने वाला (95) हलाल है तुम्हारे लिये दरिया का शिकार और उसका खाना तुम्हारे और मुसाफ़िरों के फ़ायदे को और तुम पर हराम है ख़ुश्की का शिकार (10)
जब तक तुम एहराम में हो और अल्लाह से डरो जिसकी तरफ़ तुम्हें उठना है (96) अल्लाह ने अदब वाले घर काबे को लोगों के क़याम का वाइस (कारण) किया (11)
और हुरमत (इज़्ज़त) वाले महीने (12)
और हरम की क़ुरबानी और गले में अलामत (निशानी) लटकी जानवरों को (13)
यह इसलिये कि तुम यक़ीन करो कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में और यह कि अल्लाह सब कुछ जानता है (97) जान रखो कि अल्लाह का अज़ाब सख़्त है (14)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान (98) रसूल पर नहीं मगर हुक्म पहुंचाना (15)
और अल्लाह जानता है जो तुम ज़ाहिर करते और जो तुम छुपाते हो (16)(99)
तुम फ़रमादो कि गन्दा और सुथरा बराबर नहीं (17)
अगरचे तुम गन्दे की कसरत (बहुतात) भाए तो अल्लाह से डरते रहो ऐ अक़्ल वालो कि तुम फ़लाह (भलाई) पाओ (100)

तफसीर
सूरए माइदा –  तैरहवाँ रूकू

(1) सन छ हिजरी जिसमें हुदैबिया का वाक़िया पेश आया, उस साल मुसलमान एहराम पहने हुए थे. इस हालम में वो इस आज़माइश में डाले गए कि जंगली जानवर और चिड़ियाँ बहुतात से आई और उनकी सवारियों पर छा गई. हाथ से पकड़ना, हथियार से शिकार कर लेना बिल्कुल इख़्तियार में था. अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी और इस आज़माइश में वो अल्लाह के फ़ज़्ल से फ़रमाँबरदार साबित हुए और अल्लाह के हुक्म के अनुकरण में डटे रहे.(ख़ाज़िन वग़ैरह)

(2) और मुसीबत के बाद नाफ़रमानी करे.

(3) एहराम पहने हुए आदमी पर शिकार यानी ख़ुश्की के किसी बहशी जानवर को मारना हराम है. जानवर की तरफ़ शिकार करने के लिये इशारा करना या किसी तरह बताना भी शिकार में दाख़िल और मना है. एहराम की हालत में हर वहशी जानवर का शिकार मना है चाहे वह हलाल हो या न हो. काटने वाला कुत्ता और कौआ और बिच्छू  और चील और चूहा और भेड़िया और साँप इन जानवरों को हदीसों में बुरे या मूज़ी जानवर कहा गया और इनके क़त्ल की इजाज़त दी गई, मच्छर, पिस्सू, चींटी,मक्खी और कीड़े और मकोड़े और आक्रमक दरिन्दों को मारना माफ़ है. (तफ़सीरे अहमदी वग़ैरह)

(4) एहराम की हालत में जिन जानवरों का मारना मना है वो हर हाल में मना है चाहे जान बूझकर हो या भूले से. जान बूझकर मारने का हुक्म तो इस आयत से मालूम हुआ और भूले से मारने का हदीस शरीफ़ से साबित है. (मदारिक)

(5) वैसा ही जानवर देने से मुराद यह है कि क़ीमत में मारे हुए जानवर के बराबर हो. हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम अबू यूसुफ़ रहमतुल्लाह अलैहिमा का यही क़ौल है और इमाम मुहम्मद व इमाम शाफ़ई रहमतुल्लाहे अलैहिमा के नज़दीक बनावट और सूरत में मारे हुए जानवर की तरह होना मुराद है. (मदारिक व तफ़सीरे अहमदी)

(6) यानी क़ीमत का अन्दाज़ा करें और क़ीमत वहाँ की मानी जाएगी जहाँ शिकार मारा गया हो या उसके क़रीब के मक़ाम की.

(7) यानी कफ़्फ़ारे के जानवर का हरम शरीफ़ के बाहर ज़िब्ह करना दुरूस्त नहीं है. मक्कए मुकर्रमा में होना चाहिये और ख़ास काबे में भी ज़िब्ह जायज़ नहीं, इसीलिये काबे को पहुंचती फ़रमाया, काबे के अन्दर न फ़रमाया और कफ़्फ़ारा खाने या रोज़े से अदा किया जाए तो उसके लिये मक्कए मुकर्रमा में होने की क़ैद नहीं, बाहर भी जायज़ है. (तफ़सीरे अहमदी वग़ैरह)

(8) यह भी जायज़ है कि शिकार की क़ीमत का ग़ल्ला ख़रीद कर फ़क़ीरों को इस तरह दे कि हर मिस्कीन को सदक़ए फ़ित्र के बराबर पहुंचे और यह भी जायज़ है कि इस क़ीमत में जितने मिस्कीनों के ऐसे हिस्से होते थे उतरे रोज़े रखे.

(9) यानी इस हुक्म से पहले जो शिकार मारे.

(10) इस आयत में यह मसअला बयान फ़रमाया गया कि एहराम पहने आदमी के लिये दरिया का शिकार हलाल है और ख़ुश्की का हराम. दरिया का शिकार वह है जिसकी पैदाइश दरिया में हो और ख़ुश्की का वह जिसकी पैदाइश ख़ुश्की में हो.

(11) कि वहाँ दीनी और दुनियावी कामों का क़याम होता है. डरा हुआ वहाँ पनाह लेता है. बूढ़ों को वहाँ अम्न मिलता है, व्यापारी वहाँ नफ़ा पाते हैं, हज उमरा करने वाले वहाँ हाज़िर होकर मनासिक (संस्कार) अदा करते हैं.

(12) यानी ज़िल्हज को जिसमें हज किया जाता है.

(13) कि उनमें सवाब ज़्यादा है. उन सब को तुम्हारी भलाइयों के क़याम का कारण बनाया.

(14) तो हरम और एहराम की पाकी का ख़याल रखो. अल्लाह तआला ने अपनी रहमतों का ज़िक्र फ़रमाने के बाद अपनी सिफ़त “शदीदुल इक़ाब” (सख़्त अज़ाब देने वाला) ज़िक्र फ़रमाई ताकि ख़ौफ़ और  रिजा से ईमान की पूर्ति हो. इसके बाद अपनी वुसअत व रहमत का इज़हार फ़रमाया.

(15) तो जब रसूल हुक्म पहुंचाकर फ़ारिग़ हो गए तो तुम पर फ़रमाँबरदारी लाज़िम और हुज्जत क़ायम हो गई और बहाने की गुंजाइश बाक़ी न रही.

(16) उसको तुम्हारे ज़ाहिर और बातिन, दोग़लेपन और फ़रमाँबरदारी सब की जानकारी है.

(17) यानी हलाल व हराम, अच्छे और बुरे, मुस्लिम और काफ़िर और खरा व खोटा एक दर्जे में नहीं हो सकता.

सूरए माइदा – चौदहवाँ रूकू

सूरए माइदा – चौदहवाँ रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

ऐ ईमान वालो ऐसी बातें न पूछो जो तुमपर ज़ाहिर की जाएं तो तुम्हें बुरी लगें (1)
और अगर उन्हें उस वक़्त पूछोगे कि क़ुरआन उतर रहा है तो तुमपर ज़ाहिर करदी जाएंगी अल्लाह उन्हें माफ़ कर चुका है (2)
और अल्लाह बख़्शने वाला हिल्म (सहिष्णुता) वाला है  (101) तुमसे अगली एक क़ौम ने उन्हें पूछा (3)
फिर उनसे इन्कारी हो बैठे (102) अल्लाह ने मुक़र्रर नहीं किया है काम चरा हुआ और न बिजार और न वसीला और न हामी (4)
हाँ, काफ़िर लोग अल्लाह पर झूठ इफ़तिरा (मिथ्यारोप) बांधते हैं (5)
और उनमें अकसर निरे बेअक़्ल हैं (6) (103)
और जब उनसे कहा जाए आओ उस तरफ़ जो अल्लाह ने उतारा और रसूल की तरफ़ (7)
कहें हमें वह बहुत है जिसपर हमने अपने बाप दादा को पाया, क्या अगरचे उनके बाप दादा न कुछ जानें न राह पर हों (8)(104)
ऐ ईमान वालो तुम अपनी फिक़्र रखो तुम्हारा कुछ न बिगाड़ेगा जो गुमराह हुआ जब कि तुम राह पर हो (9)
तुम सबकी रूजू (पलटना) अल्लाह ही की तरफ़ है फिर वह तुम्हें बता देगा जो तुम करते थे (105) ऐ ईमान वालो (10)
तुम्हारी आपस की गवाही जब तुममे किसी को मौत आए (11)
वसीयत करते वक़्त तुम में के दो विश्वसनीय शख़्स हैं या ग़ैरों में के दो जब तुम मुल्क में सफ़र को जाओ फिर तुम्हें मौत का हादसा पहुंचे उन दोनों को नमाज़ के बाद रोको (12)
वो अल्लाह की क़सम खाएं अगर तुम्हें कुछ शक पड़े (13)
हम हलफ़ के बदले कुछ माल न खरीदेंगे (14)
अगरचे क़रीब का रिश्तेदार हो और अल्लाह की गवाही ने छुपाएंगे ऐसा करें तो हम ज़रूर गुनाहगारों में हैं (106) फिर अगर पता चले कि वो किसी गुनाह के सज़ावार (हक़दार) हुए (15)
तो उनकी जगह दो और खड़े हों उनमें से कि उस गुनाह यानी झूठी गवाही ने उनका हक़ लेकर उनको नुक़सान पहुंचाया (16)
जो मैयत से ज़्यादा क़रीब हों अल्लाह की क़सम खाए कि हमारी गवाही ज्यादा ठीक है उन दो की गवाही से और हम हद से न बढ़े (17)
ऐसा हो तो हम ज़ालिमों में हों (107) यह क़रीबतर है उससे कि गवाही जैसी चाहिये अदा करें या डरें कि कुछ क़समें रद करदी जाएं उनकी क़समों के बाद (18)
और अल्लाह से डरो और हुक्म सुनो और अल्लाह बेहुक्मों को राह नहीं देता (108)

तफसीर
सूरए माइदा –  चौदहवाँ रूकू

(1) कुछ लोग सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से बहुत से बेफ़ायदा सवाल किया करते थे. यह सरकार के मिज़ाज पर बोझ होता था. एक दिन फ़रमाया कि जो जो पूछना हो पूछ लो. मैं हर बात का जवाब दूंगा. एक शख़्स ने पूछा कि मेरा अंजाम क्या है. फ़रमाया जहन्नम. दूसरे ने पूछा कि मेरा बाप कौन है, आपने उसके असली बाप का नाम बता दिया जिसके नुत्फ़े से वह था जबकि उसकी माँ का शौहर और था जिसका यह शख़्स बेटा कहलाता था. इसपर यह आयत उतरी. और फ़रमाया गया कि ऐसी बाते न पूछो जो ज़ाहिर की जाएं तो तुम्हें नागवार गुज़रें. (तफ़सीरे अहमदी) बुखारी व मुस्लिम की हदीस शरीफ़ में है कि एक रोज़ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने खुत्बा देते हुए फ़रमाया कि जिसको जो पूछना हो पूछ ले. अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सहमी ने खड़े होकर पूछा कि मेरा बाप कौन है. फ़रमाया हुज़ाफ़ा. फिर फ़रमाया और पूछो हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने उठकर ईमान और रिसालत के इक़रार के साथ माज़िरत पेश की. इब्ने शहाब की रिवायत है कि अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा की माँ ने उनसे शिकायत की और कहा कि तू बहुत नालायक बेटा है, तुझे क्या मालूम कि ज़िहालत के ज़माने की औरतों का क्या हाल था. अल्लाह न करे तेरी माँ से कोई क़ुसूर हुआ होता तो आज वह कैसी रूस्वा होती, इसपर अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा ने कहा कि अगर हुज़ूर किसी हबशी ग़ुलाम को मेरा बाप बता देते तो मैं यक़ीन के साथ मान लेता. बुखारी शरीफ़ की हदीस में है कि लोग ठट्ठा बनाने के अन्दाज़ में इस क़िस्म के सवाल किया करते थे, कोई कहता मेरा बाप कौन है, कोई पूछता मेरी ऊंटनी गुम हो गई है वह कहाँ है. इस पर यह आयत उतरी. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ख़ुत्बे में हज फ़र्ज़ होने का बयान फ़रमाया. इसपर एक शख़्स ने कहा क्या हर साल हज फ़र्ज़ है. हुज़ूर ने ख़ामोशी रखी. सवाल करने वाले ने सवाल दोहराया तो इरशाद फ़रमाया कि जो मैं बयान न करूं उसपर मत अड़ो. अगर मैं हाँ कह देता तो हर साल हज फर्ज़ हो जाता और तुम न कर सकते. इससे मालूम हुआ कि अहकाम हुज़ूर के इरशाद के तहत है, जो फ़र्ज़ फ़रमा दे वह फ़र्ज़ हो जाए, न फ़रमाएं, न हो.

(2)  इस आयत से साबित हुआ कि जिस काम की शरीअत में मना न आए वह किया जा सकता है. हज़रत सलमान रदियल्लाहो अन्हो की हदीस में है कि हलाल वह है जो अल्लाह ने अपनी किताब में हलाल फ़रमाया, हराम वह है जिसको उसने अपनी किताब में हराम फ़रमाया और जिसके बारे में कुछ न फ़रमाया वह माफ़ है तो तकलीफ़ में न पड़ो. (ख़ाजिन)

(3)  अपने नबियों से और बे ज़रूरत सवाल किये. नबियों ने अहकाम बयान फ़रमाए तो उनपर अमल न कर सके.

(4) जिहालत के ज़माने में काफ़िरों का यह तरीक़ा था कि जो ऊंटनी पाँच बार बच्चे जनती और आख़िरी बार उसके नर होता उसका कान चीर देते, फिर न उसपर सवारी करते न उसको ज़िबह करते.न पानी और चारे से हंकाते. और जब सफ़र पेश होता या कोई बीमार होता तो यह मन्नत मानते कि अगर मैं सफ़र से सकुशल वापस आऊं या स्वस्थ हो जाऊं तो मेरी ऊंटनी  साइबा (बिजार) है और उससे भी नफ़ा उठाना हराम जानते और उसको आज़ाद छोड़ देते और बकरी जब सात बार बच्चा जन चुकती तो अगर सातवाँ बच्चा नर होता तो उसको मर्द खाते और अगर मादा होती तो बकरियों में छोड़ देते और ऐसे ही अगर नर व मादा दोनो होते और कहते कि यह अपने भाई से मिल गई है उसको वसीला कहते और जब नर ऊंट से दस गर्भ हासिल होजाते तो उसको छोड़ देते न उसपर सवारी करते न उससे काम लेते न उसको चारे पानी पर से रोकते, उसको हामी कहते.  (मदारिक) बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में है कि बहीरा वह है जिसका दूध बूतों के लिये रोकते थे, कोई उस जानवर का दूध न दोहता और साइबा वह जिसको अपने बुतों के लिये छोड़ देते थे कोई उससे काम न लेता. ये रस्में जिहालत के ज़माने से इस्लाम के दौर तक चली आ रही थीं. इस आयत में उनको ग़लत क़रार दिया गया.

(5) क्योंकि अल्लाह तआला ने इन जानवरों को हराम नहीं किया. उसकी तरफ़ इसकी निस्बत ग़लत है.

(6) जो अपने सरदारों के कहने से इन चीज़ों को हराम समझते है, इतनी समझ नहीं रखते कि जो चीज़ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम न की उसको कोई हराम नहीं कर सकता.

(7) यानी अल्लाह और रसूल के हुक्म का अनुकरण करो और समझलो कि ये चीज़ें हराम नहीं.

(8) यानी बाप दादा का अनुकरण जब दुरूस्त होता कि वो जानकारी रखते और सीधी राह पर होते.

(9) मुसलमान काफ़िरों की मेहरूमी पर अफ़सोस करते थे और उन्हें दुख होता था कि काफ़िर दुश्मनी में पड़कर इस्लाम की दौलत से मेहरूम रहे. अल्लाह तआला ने उनकी तसल्ली फ़रमादी कि इसमें तुम्हारा कुछ नुक़सान नहीं. अल्लाह की हाँ को हाँ और ना को ना मानने का फ़र्ज़ अदा करके तुम अपना कर्तव्य पूरा कर चुके. तुम अपनी नेकी का सवाब पाओगे. अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने फ़रमाया इस आयत में “अम्र बिल मअरूफ़ व नहीये अनिल मुन्कर” यानी अल्लाह ने जिस काम का हुक्म दिया उसे करना और जिससे मना किया उससे रूके रहना, इसकी अनिवार्यता की बहुत ताकीद की है. क्योंकि अपनी फ़िक्र रखने के मानी ये है कि एक दूसरे की ख़बरगीरी करें, नेकियों की रूचि दिलाए, और बुराइयों से रोके. (ख़ाज़िन)

(10) मुहाजिरों में से बदील, जो हज़रत अम्र इब्ने आस के मवाली में से थे, तिजारत के इरादे से शाम की तरफ़ दो ईसाइयों के साथ रवाना हुए. उनमें से एक का नाम तमीम बिन औस दारी था और दूसरे का अदी बिन बुदए शाम पहुंचते ही बदील बीमार हो गए और उन्होंने अपने सारे सामान की एक सूची लिखकर सामान में डाल दी और साथियों को इसकी सूचना न दी. जब बीमारी बढ़ी तो बदील ने तमीम व अदी दोनो को वसीयत की कि उनकी सारी पूंजी मदीना शरीफ़ पहुंच कर उनके घरवालों को दें. बदील की वफ़ात हो गई. इन दोनों ने उनकी मौत के बाद उनका सामान देखा. उसमें एक चांदी का प्याला था. जिसपर सोने का काम बना हुआ था. उसमें तीन सौ मिरक़ाल चांदी था. बदील यह प्याला बादशाह को भेंट करने के इरादे से लाए थे. उनकी मृत्यु के बाद उनके दोनों साथियों ने इस प्याले को ग़ायब कर दिया और अपने काम से निपटने के बाद जब ये लोग मदीनए तैय्यिबह पहुंचे तो उन्होंने बदील का सामान उनके घर वालों के सुपुर्द कर दिया. सामान खोलने पर सूची उसके हाथ आ गई जिसमें सारी पूंजी की तफ़सील थी. जब सामान को सूची से मिलाया तो प्याला न पाया. अब वो तमीम  और अदी के पास पहुंचे और उन्होंने पूछा कि क्या बदील ने कुछ सामान बेचा भी था. उन्होंने कहा, नहीं पूछा, क्या कोई तिजारती मामला किया था. उन्होंने कहा, नहीं. फिर पूछा बदील बहुत समय तक बीमार रहे, क्या उन्होंने अपने इलाज में कुछ ख़र्च किया. उन्होंने कहा, नहीं वो तो शहर पहुंचते ही बीमार हो गए और जल्द ही उनका इन्तिक़ाल हो गया. इस पर घरवालों ने कहा कि उनके सामान में एक सूची मिली है उसमें चांदी का एक प्याला सोने का काम किया हुआ, जिसमें तीन सौ मिस्क़ाल चांदी है, यह भी लिखा है. तमीम व अदी ने कहा हमें नहीं मालूम. हमें तो जो वसीयत की थी उसके अनुसार सामान हमने तुम्हें दे दिया. प्याले की हमें ख़बर भी नहीं. मुकदमा रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के दरबार में पेश हुआ. तमीम व अदी वहाँ भी इन्कार पर जमे रहे और क़सम खाली. इसपर यह आयत उतरी. (खाजिन) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा की रिवायत में है कि फिर वह प्याला मक्कए मुकर्रमा में पकड़ा गया. जिस व्यक्ति के पास था उसने कहा कि मैंने यह प्याला तमीम व अदी से खरीदा है. प्याले के मालिक के सरपरस्तों में से दो व्यक्तियों ने खड़े होकर क़सम खाई कि हमारी गवाही इनकी गवाही से ज़्यादा सच्ची है. यह प्याला हमारे बुज़ुर्ग का है. इस बारे में यह आयत उतरी. (तिरमिज़ी)

(11) यानी मौत का वक़्त करीब आए, ज़िन्दगी की उम्मीद न रहे, मौत की निशानियाँ ज़ाहिर हो.

(12) इस नमाज़ से अस्र की नमाज़ मुराद है, क्योंकि वह लोगों के जमा होने का वक़्त होता है. हसन रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया कि नमाज़े ज़ोहर या अस्र, क्योंकि हिजाज़ के लोग मुकदमें उसी वक़्त करते थे. हदीस शरीफ़ में है कि जब यह आयत उतरी तो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अस्र की नमाज़ पढ़कर अदी और तमीम को बुलाया. उन दोनो ने क़समें खाई. इसके बाद मक्कए मुकर्रमा में यह प्याला पकड़ा गया तो जिस व्यक्ति के पास था उसने कहा कि मैंने अदी  और तमीम से खरीदा है.  (मदारिक)

(13) उनकी अमानत और दयानत में और वो यह कहें कि……..

(14) यानी झूठी क़सम न खाएंगे और किसी की ख़ातिर ऐसा न करेंगे.

(15) ख़ियानत के या झूठ वग़ैरह के.

(16) और वो मरने वाले के घर वाले और रिश्तेदार है.

(17) चुनांचे बदील की घटना में जब उनके दोनो साथियों की ख़ियानत ज़ाहिर हुई तो बदील के वारिसों में से दो व्यक्ति खड़े हुए और उन्होंने क़सम खाई कि यह प्याला हमारे बुजुर्ग का है, और हमारी गवाही इन दोनो की गवाही से ज़्यादा ठीक है.

(18) मानी का हासिल यह है कि इस मामले में जो हुक्म दिया गया कि अदी व तमीम की क़समों के बाद माल बरामद होने पर मरने वाले के वारिसों की क़समें ली गई, यह इसलिये कि लोग इस घटना से सबक़ लें और इससे डरते रहे कि झूठी गवाही का अंजाम शर्मिन्दगी और रूस्वाई है. मुदई पर क़सम नहीं, लेकिन यहाँ जब माल पाया गया तो मुदआ अलैहिमा ने दावा किया कि उन्होंने मरने वाले से ख़रीद लिया था. अब उनकी हेसियत मुदई की हो गई और उनके पास इसका कोई सुबूत न था लिहाज़ा उनके ख़िलाफ़ मरने वाले के वारिसों से क़सम ली गई.

सूरए माइदा – पन्द्रहवाँ रूकू

सूरए माइदा – पन्द्रहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

जिस दिन अल्लाह जमा फ़रमाएगा रसूलों को (1)
फिर फ़रमाएगा तुम्हें क्या जवाब मिला (2)
अर्ज़ करेंगे हमें कुछ इल्म नहीं बेशक तू ही है सब ग़ैबों (अज्ञात) का जानने वाला (3) (109)
जब अल्लाह फ़रमाएगा ऐ मरयब के बेटे ईसा याद करो मेरा एहसान अपने ऊपर और अपनी माँ पर (4)
जब मैंने पाक रूह से तेरी मदद की (5)
तू लोगों से बातें करता पालने में (6)
और पक्की उम्र होकर (7)
और  जब मैं ने तुझे सिखाई किताब और हिकमत (बोध) (8)
और तौरात और इंजील और जब तू मिट्टी से परिन्द की सी मूरत मेरे हुक्म से बनाता फिर उसमें फूंक मारता तो वह मेरे हुक्म से उड़ने लगती (9)
और तू मादरज़ाद (जन्मजात) अन्धे और सफ़ेद दाग़ वाले को मेरे हुक्म से शिफ़ा देता और जब तू मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िन्दा निकालता (10)
और जब मैं ने बनी इस्राईल को तुझ से रोका (11)
जब तू उन के पास रौशन निशानियां लेकर आया तो उनमें के काफ़िर बोले कि यह (12)
तो नहीं मगर खुला जादू (110) और जब मैं न हवारियों (अनुयाइयों) (13)
के दिल में डाला कि मुझ पर और मेरे रसूल पर (14)
ईमान लाओ बोले हम ईमान लाए और गवाह रह कि हम मुसलमान हैं (15)  (111)
जब हवारियों ने कहा ऐ ईसा मरयम के बेटे क्या आपका रब ऐसा करेगा कि हम पर आसमान से एक ख़्वान उतारे (16)
कहा अल्लाह से डरो अगर ईमान रखते हो  (17) (112)
बोले हम चाहते हैं (18)
कि उसमें से खाएं और हमारे दिल ठहरें (19)
और हम आँखों देख लें कि आपने हम से सच फ़रमाया (20)
और हम उसपर गवाह हो जाएं  (21)  (113)
ईसा मरयम के बेटे ने अर्ज़ की ऐ अल्लाह ऐ रब हमारे हम पर आसमान से एक ख़्वान उतार कि वह हमारे लिये ईद हो (22)
हमारे अगले पिछलों की  (23)
और तेरी तरफ़ से निशानी  (24)
और हमें रिज़्क दे और तू सब से बेहतर रोज़ी देने वाला है (114) अल्लाह ने फ़रमाया कि मैं इसे तुम पर उतारता हूँ फिर अब जो तुम में कुफ़्र करेगा (25)
तो बेशक मैं उसे वह अज़ाब दूंगा कि सारे जहान में किसी पर न करूंगा  (26) (115)

तफसीर
सूरए माइदा –  पन्द्रहवाँ रूकू

(1) यानी क़यामत के दिन.

(2) यानी जब तुमने अपनी उम्मतों को ईमान की दावत दी तो उन्होंने क्या जवाब दिया. इस सवाल में इन्कार करने वालों की तरफ़ इशारा है.

(3) नबियों का यह जवाब उनके हद दर्जा अदब की शान ज़ाहिर करता है कि वो अल्लाह के इल्म के सामने अपने इल्म को बिल्कुल नज़र में न लाएंगे और क़ाबिले ज़िक्र क़रार न देंगे और मामला अल्लाह तआला के इल्म और इन्साफ़ पर छोड़ देंगे.

(4) कि मैंने उनको पाक किया और जगत की औरतों पर उनको फ़ज़ीलत दी.

(5) यानी हज़रत जिब्रील से कि वह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के साथ रहते और ज़रूरत पड़ने पर उनकी मदद करते.

(6) कम उम्र में, और यह चमत्कार है.

(7) इस आयत से साबित होता है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम क़यामत से पहले तशरीफ़ लाएंगे क्योंकि पक्की उम्र का वक़्त आने से पहले आप उठा लिये गए. दोबारा तशरीफ़ लाने के वक़त आप तैंतीस साल के जवान की सूरत में होंगे और इस आयत के अनुसार कलाम फ़रमाएंगे और जो पालने में फ़रमाया “इन्नी अब्दुल्लाह” (मैं अल्लाह का बन्दा हूँ) वही फ़रमाएंगे. (जुमल)

(8) यानी इल्मों के राज़.

(9) यह भी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम का चमत्कार था.

(10) अंधे और सफ़ेद दाग़ वाले को आँख वाला और स्वस्थ करना और मुर्दों को कब्रों से ज़िन्दा करके निकालना, यह सब अल्लाह के हुक्म से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के महान चमत्कार हैं.

(11) यह एक और नेअमत का बयान है कि अल्लाह तआला ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को यहूदियों की शरारतों से मेहफ़ूज़ रखा जिन्होंने हज़रत के खुले चमत्कार देखकर आपके क़त्ल का इरादा किया. अल्लाह तआला ने आप को आसमान पर उठा लिया और यहूदी नामुराद रह गए.

(12) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के चमत्कार.

(13) हवारी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के साथी और आपके ख़ास लोग हैं.

(14) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर.

(15) ज़ाहिर और बातिन में महब्बत रखने वाले और फ़रमाँबरदार.

(16)  मानी ये है कि क्या अल्लाह तआला इस बारे में आपकी दुआ क़ूबूल फ़रमाएगा.

(17) और अल्लाह से डरो ताकि यह मुराद हासिल हो. कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा, मानी ये हैं कि तमाम उम्मतों से निराला सवाल करने में अल्लाह से डरो, या ये मानी हैं कि उसकी क़ुदरत पर ईमान रखते हो तो इसमें आगे पीछे न हो. हवारी ईमान वाले, अल्लाह को पहचानने वाले और उसकी क़ुदरत पर यक़ीन करने वाले थे. उन्होंने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया.

(18)   बरक़त हासिल करने के लिये.

(19) और पक्का यक़ीन हो और जैसा कि हमने अल्लाह की क़ुदरत को दलील से जाना है, आँखों से देखकर उसको और पक्का कर ले.

(20) बेशक आप अल्लाह के रसूल हैं.

(21) अपने बाद वालों के लिये, हवारियों के यह अर्ज़ करने पर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने उन्हें तीस रोज़े रखने का हुक्म फ़रमाया और कहा जब तुम इन रोज़ों से फ़ारिग़ हो जाओगे तो अल्लाह तआला से जो दुआ करोगे, क़ुबूल होगी. उन्होंने रोज़े रखकर आसमान से खाना उतरने की दुआ की. उस वक़्त हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने गुस्ल फ़रमाया और मोटा लिबास पहना और दो रकअत नमाज़ अदा की और सर झुकाया और रोकर यह दुआ की जिसका अगली आयत में बयान है.

(22)  यानी हम इसके उतरने के दिन को ईद बनाएं, इसका आदर करें, खुशियाँ मनाएं, तेरी इबादत करें, शुक्र अदा करें. इस से मालूम हुआ कि जिस रोज़ अल्लाह तआला की खास रहमत उतरे उस दिन को ईद बनाना और खुशियाँ मनाना, ईबादते करना, अल्लाह का शुक्र अदा करना नेक लोगो का तरीक़ा है और कुछ शक नहीं कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का तशरीफ़ लाना अल्लाह तआला की सबसे बड़ी नेअमत और रहम है, इसीलिये हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पैदायश के दिन ईद मनाना और मीलाद शरीफ़ पढ़कर अल्लाह का शुक्र अदा करना और खुशी ज़ाहिर करना अच्छी बात है और अल्लाह के प्यारे बन्दो का तरीक़ा है.

(23)  जो दीनदार हमारे ज़माने में हैं उनकी और जो हमारे बाद आएं उनकी.

(24) तेरी क़ुदरत की और मेरी नबुव्वत की.

(25) यानी आसमान से खाना उतरने के बाद.

(26) चुनांचे आसमान से खाना उतरा, इसके बाद जिन्होंने उनमें से कुफ़्र किया उनकी शक्लें बिगाड़ दी गई और वो सुअर बना दिये गये और तीन दीन के अन्दर सब मर गए.

सूरए माइदा – सोलहवाँ रूकू

सूरए माइदा – सोलहवाँ रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

और जब अल्लाह फ़रमाएगा (1)
ऐ मरयम के बेटे ईसा क्या तूने लोगों से कह दिया था कि मुझे और मेरी माँ को दो ख़ुदा बना लो अल्लाह के सिवा (2)
अर्ज़ करेगा पाकी है तुझे (3)
मुझे रवा नहीं कि वह बात कहूँ जो मुझे नहीं पहुंचती (4)
अगर मैं ने ऐसा कहा हो तो ज़रूर तुझे मालूम होगा तू जानता है जो मेरे जी में है और मैं नहीं जानता जो तेरे इल्म में है बेशक तू ही है सब ग़ैबों (अज्ञात) का जानने वाला (5)(116)
मैंने तो उनसे न कहा मगर वही जो तूने मुझे हुक्म दिया था कि अल्लाह को पूजो जो मेरा भी रब और तुम्हारा भी रब और मैं उनपर मुत्तला (बाख़बर) था जब तक मैं उनमें रहा फिर जब तूने मुझे उठा लिया (6)
तू ही उनपर निगाह रखता था और हर चीज़ तेरे सामने हाज़िर है (7) (117)
अगर तू उन्हें अज़ाब करे तो वो तेरे बन्दे हैं और अगर तू उन्हें बख़्श दे तो बेशक तू ही है ग़ालिब हिकमत वाला  (8) (118)
अल्लाह ने फ़रमाया कि यह (9)
है वह दिन जिसमें सच्चों को (10)
उनका सच काम आएगा उनके लिये बाग़ हैं जिनके नीचे नेहरें बहें हमेशा हमेशा उनमें रहेंगे अल्लाह उनसे राज़ी और वो अल्लाह से राज़ी यह है बड़ी कामयाबी (119) अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन और जो कुछ उनमें है सब की सल्तनत और वह हर चीज़ पर क़ादिर है (11)(120)

तफसीर
सूरए माइदा –  सोलहवाँ रूकू

(1) क़यामत के दिन ईसाइयों की तौबीख़ के लिये.

(2) इस सम्बोधन को सुनकर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम काँप जाएंगे और..

(3) सारे दोषों और बुराईयों से और इससे कि तेरा कोई शरीक हो सके.

(4) यानी जब कोई तेरा शरीक नहीं हो सकता तो मैं यह लोगों से कैसे कह सकता था.

(5) इल्म को अल्लाह की तरफ़ निस्बत करना और मामला उसको सौंप देना और अल्लाह की बड़ाई के सामने अपनी मिस्कीनी ज़ाहिर करना, यह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के अदब की शान है..

(6) “तवफ़्फ़ैतनी” (तूने मुझे उठा लिया) के शब्द से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की मौत साबित करना सही नहीं क्योंकि अव्वल तो शब्द “तवफ़्फ़ा” यानी उठा लेना मौत के लिये ख़ास नहीं. किसी चीज़ के पूरे तौर पर लेने को कहते हैं चाहे वह बिना मौत के हो जैसा कि क़ुरआन शरीफ़ में इरशाद हुआ “अल्लाहो यतवफ्फ़ल अनफ़ुसा मौतिहा वल्लती लम तमुत फ़ी मनामिहा”  (अल्लाह जानों को वफ़ात देता है उनकी मौत के वक़्त और जो न मरे उन्हें उनके सोते में)   (सूरए जुमर, आयत 42). दूसरे, जब यह सवाल जवाब क़यामत के दिन का है तो अगर शब्द “तवफ़्फा़” मौत के मानी में भी मान लिया जाये जब भी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की मौत दोबारा उतरने से पहले इससे साबित न हो सकेगी.

(7) और मेरा इनका किसी का हाल तुझसे छुपा नहीं.

(8) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को मालूम है कि क़ौम में कुछ लोग कुफ़्र पर अड़े रहे, कुछ ईमान की दौलत से मालामाल हुए, इसलिये आप अल्लाह की बारग़ाह में अर्ज़ करते हैं कि इनमें से जो कुफ़्र पर क़ायम रहे, उनपर तू अज़ाब फ़रमाए तो बिल्कुल सही और मुनासिब और इन्साफ़ है क्योंकि इन्होंने तर्क पूरा होने के बाद कुफ़्र अपनाया. और जो ईमान लाए उन्हें तू बख़्शे तो तेरी मेहरबानी है और तेरा हर काम हिकमत है.

(9) क़यामत का दिन.

(10) जो दुनिया में सच्चाई पर रहे, जैसे कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम.

(11) सच्चे को सवाब देने पर भी और झूठे को अज़ाब फ़रमाने पर भी. आयत के मानी ये है कि अल्लाह तआला हर चीज़ पर, जो हो सकती है, क़ुदरत रखता है. (जुमल) झूठ वग़ैरह ऐब और बुराईयाँ अल्लाह तआला के लिये सोची भी नहीं जा सकती. उनको अल्लाह की क़ुदरत के अन्तर्गत और इस आयत से साबित करना ग़लत और बातिल है.

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