Tafseer Surah Al-Baqrah from Kanzul Imaan

सूरतुल बक़रह

सूरतुल बक़रह

यह क़ुरआन शरीफ़ की दूसरी सूरत है. मदीने में उतरी,

आयतें: 286 रूकू 40.

सूरतुल बक़रह पहला रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
अलिफ़ लाम मीम(2)
वह बुलन्द रूत्बा किताब कोई शक की जगह नहीं(3)
इसमें हिदायत है डर वालों को,(4)
वो जो बेदेखे ईमान लाएं,(5)
और नमाज़ क़ायम रखें,(6)
और हमारी दी हुई रोज़ी में से हमारी राह में उठाएं(7)
और वो कि ईमान लाएं उस पर जो ए मेहबूब तुम्हारी तरफ़ उतरा और जो तुम से पहले उतरा,(8)
और आख़िरत पर यक़ीन रख़े (9)
वही लोग अपने रब की तरफ़ से हिदायत पर हैं और वही मुराद को पहुंचने वाले
बेशक वो जिन की क़िसमत में कुफ्र है(10)
उन्हें बराबर है चाहे तुम उन्हें डराओ या न डराओ वो ईमान लाने के नहीं
अल्लाह ने उनके दिलों पर और कानों पर मुहर कर दी और आखों पर घटा टोप है(11)
और उनके लिये बड़ा अज़ाब

 

Table of Contents

तफ़सीर : सूरए बक़रह _ पहला रूकू

 

1. सूरए बक़रह: यह सूरत मदीना में उतरी. हज़रत इब्ने अब्बास (अल्लाह तआला उनसे राज़ी रहे) ने फ़रमाया मदीनए तैय्यिबह में सबसे पहले यही सूरत उतरी, सिवाय आयत “वत्तक़ू यौमन तुर जऊन” के कि नबीये करीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के आख़िरी हज में मक्कए मुकर्रमा में उतरी. (ख़ाज़िन) इस सूरत में 286 आयतें, चालीस रूकू, छ: हज़ार एक सौ अक्कीस कलिमे (शब्द) 25500 अक्षर यानी हुरूफ़ हैं.(ख़ाज़िन)

पहले क़ुरआन शरीफ़ में सूरतों के नाम नहीं लिखे जाते थे. यही तरीक़ा हज्जाज बिन यूसुफे़ सक़फ़ी ने निकाला. इब्ने अरबी का कहना है कि सूरए बक़रह में एक हज़ार अम्र यानी आदेश, एक हज़ार नही यानी प्रतिबन्ध, एक हज़ार हुक्म और एक हज़ार ख़बरें हैं. इसे अपनाने में बरक़त और छोड़ देने में मेहरूमी है. बुराई वाले जादूगर इसकी तासीर बर्दाश्त करने की ताक़त नहीं रखते. जिस  घर में ये सूरत पढ़ी जाए, तीन दिन तक सरकश शैतान उस में दाख़िल नहीं हो सकता. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि शैतान उस घर से भागता है जिस में यह सूरत पढ़ी जाय. बेहक़ी और सईद बिन मन्सूर ने हज़रत मुग़ीरा से रिवायत की कि जो कोई सोते वक्त़ सूरए बक़रह की दस आयतें पढ़ेगा, वह क़ुरआन शरीफ़ को नहीं भूलेगा. वो आयतें ये है: चार आयतें शुरू की और आयतल कुर्सी और दो इसके बाद की और तीन सूरत के आख़िर की.

तिबरानी और बेहक़ी ने हज़रत इब्ने उमर (अल्लाह उन से राज़ी रहे) से रिवायत की कि हुज़ूर (अल्लाह के दूरूद और सलाम हों उनपर) ने फ़रमाया _मैयत को दफ्न करके क़ब्र के सिरहाने सूरए बक़रह की शुरू की आयतें और पांव की तरफ़ आख़िर की आयतें पढ़ो.

 

शाने नुज़ूल यानी किन हालात में उतरी:

अल्लाह तआला ने अपने हबीब (अल्लाह के दूरूद और सलाम हों उनपर) से एक ऐसी किताब उतारने का वादा फ़रमाया था जो न पानी से धोकर मिटाई जा सके, न पुरानी हो. जब क़ुरआन शरीफ़ उतरा तो फ़रमाया “ज़ालिकल किताबु” कि वह किताब जिसका वादा था, यही है. एक कहना यह है कि अल्लाह तआला ने बनी इस्त्राईल से एक किताब उतारने का वादा फ़रमाया था, जब हुज़ूर ने मदीनए तैय्यिबह को हिज़रत फ़रमाई जहाँ यहूदी बड़ी तादाद में थे तो “अलिफ़, लाम मीम, ज़ालिकल किताबु” उतार कर उस वादे के पूरे होने की ख़बर दी. (ख़ाजिन)

2. अलिफ़ लाम मीम:_ सूरतों के शुरू में जो अलग से हुरूफ़ या अक्षर आते है उनके बारे में यही मानना है कि अल्लाह के राज़ों में से है और मुतशाबिहात यानी रहस्यमय भी. उनका मतलब अल्लाह और रसूल जानें. हम उसके सच्चे होने पर ईमान लाते

3. इसलिये कि शक उसमें होता है जिसका सूबूत या दलील या प्रमाण न हो. क़ुरआन शरीफ़ ऐसे खुले और  ताक़त वाले सुबूत या प्रमाण रखता है जो जानकार और इन्साफ वाले आदमी को इसके किताबे इलाही और सच होने के यक़ीन पर मज़बूत करते हैं. तो यह किताब किसी तरह शक के क़ाबिल नहीं, जिस तरह अन्धे के इन्कार से सूरज का वुजूद या अस्तित्व संदिग्ध या शुबह वाला नहीं होता, ऐसे ही दुश्मनी रखने वाले काले दिल के इन्कार से यह किताब शुबह वाली नहीं हो सकती.

4. “हुदल लिल मुत्तक़ीन” (यानि इसमें हिदायत है डर वालों को) हालांकि क़ुरआन शरीफ़ की हिदायत या मार्गदर्शन हर पढ़ने वाले के लिये आम है, चाहे वह मूमिन यानी ईमान वाला हो या काफ़िर, जैसा कि दूसरी आयत में फ़रमाया “हुदल लिन नासे” यानी “हिदायत सारे इन्सानों के लिये” लेकिन चूंकि इसका फ़ायदा अल्लाह से डरने वालों या एहले तक़वा को होता है इसीलिये फ़रमाया गया _ हिदायत डरवालों को. जैसे कहते हैं बारिश हरियाली के लिये है यानी फ़ायदा इससे हरियाली का ही होता है हालांकि यह बरसती  ऊसर और बंजर ज़मीन पर भी है.

“तक़वा” के कई मानी आते हैं, नफ्स या अन्त:करण को डर वाली चीज़ से बचाना तक़वा कहलाता है. शरीअत की भाषा में तक़वा कहते हैं अपने आपको गुनाहों और उन चीज़ों से बचाना जिन्हें अपनाने से अल्लाह तआला ने मना फ़रमाया हैं. हज़रत इब्ने अब्बास (अल्लाह उन से राज़ी रहे) ने फ़रमाया मुत्तक़ी या अल्लाह से डरने वाला वह है जो अल्लाह के अलावा किसी की इबादत और बड़े गुनाहों और बुरी बातों से बचा रहे. दूसरों ने कहा है मुत्तक़ी अपने आप को दूसरों से बेहतर न समझे. कुछ कहते हैं तक़वा हराम या वर्जित चीज़ों का छोड़ना और अल्लाह के आदेशों या एहकामात का अदा करना है. औरों के अनुसार आदेशों के पालन पर डटे रहना और ताअत पर ग़ुरूर से बचना तक़वा है. कुछ का कहना है कि तेरा रब तुझे वहाँ न पाए जहाँ उसने मना फ़रमाया है. एक कथन यह भी है कि तक़वा हुज़ूर (अल्लाह के दूरूद और सलाम हों उनपर) और उनके साथी सहाबा (अल्लाह उन से राज़ी रहे) के रास्ते पर चलने का नाम है.(ख़ाज़िन)
यह तमाम मानी एक दूसरे से जुड़े हैं.
तक़वा के दर्जें बहुत हैं_ आम आदमी का तक़वा ईमान लाकर कु्फ्र से बचना, उनसे ऊपर के दर्जें के आदिमयों का तक़वा उन बातों पर अमल करना जिनका अल्लाह ने हुक्म दिया है और उन बातों से दूर रहना जिनसे अल्लाह ने मना किया है. ख़वास यानी विशेष दर्जें के आदमियों का तक़वा एसी हर चीज़ का छोड़ना है जो अल्लाह तआला से दूर कर दे या उसे भुला दे.(जुमल) इमाम अहमद रज़ा खाँ, मुहद्सि _ए बरेलवी (अल्लाह की रहमत हो उनपर)ने फ़रमाया _ तक़वा सात तरह का है.

(1) कुफ्र से बचना, यह अल्लाह तआला की मेहरबानी से हर मुसलमान को हासिल है
(2) बद_मज़हबी या अधर्म से बचना _ यह हर सुन्नी को नसीब है,
(3) हर बड़े गुनाह से बचना
(4) छोटे गुनाह से भी दूर रहना
(5) जिन बातों की अच्छाई में शक या संदेह हो उनसे बचना
(6) शहवत यानी वासना से बचना
(7) गै़र की तरफ़ खिंचने से अपने आप को रोकना. यह बहुत ही विशेष आदमियों का दर्जा है. क़ुरआन शरीफ़ इन सातों मरतबों या श्रेणियों के लिये हिदायत है.

(5) “अल लज़ीना यूमिनूना बिल ग़ैब” (यानी वो जो बे देखे ईमान लाएं) से लेकर “मुफ़लिहून” (यानी वही मुराद को पहुंचने वाले ) तक की आयतें सच्चे दिल से ईमान लाने और उस ईमान को संभाल कर रखने वालों के बारे में हैं. यानी उन लोगों के हक़ में जो अन्दर बाहर दोनों से ईमानदार हैं. इसके बाद जो आयतें खुले काफ़िरों के बारे में हैं जो अन्दर बाहर दोनों तरह से काफ़िर हैं. इसके बाद “व मिनन नासे” (यानी और कुछ कहते हैं) से तेरह आयतें मुनाफ़िकों के बारे में हैं जो अन्दर से काफ़िर हैं और बाहर से अपने आपको मुसलमान ज़ाहिर करते हैं. (जुमल) “ग़ैब” वह है जो हवास यानी इन्दि्यों और अक्ल़ से मालूम न हो सके. इसकी दो क़िसमें हैं _ एक वो जिसपर कोई दलील या प्रमाण न हो, यह इल्मे ग़ैब यानी अज्ञात की जानकारी जा़ती या व्यक्तिगत है और यही मतलब निकलता है आयत “इन्दहू मफ़ातिहुल ग़ैबे ला यालमुहा इल्ला हू” (और अल्लाह के पास ही अज्ञात की कुंजी है), और अज्ञात की जानकारी उसके अलावा किसी को नहीं) में और उन सारी आयतों में जिनमें अल्लाह के सिवा किसी को भी अज्ञात की जानकारी न होने की बात कही गई है. इस क़िस्म का इल्में ग़ैब यानी ज़ाती जिस पर कोई दलील या प्रमाण न हो, अल्लाह तआला के साथ विशेष या ख़ास है.
गै़ब की दूसरी क़िस्म वह है जिस पर दलील या प्रमाण हो जैसे दुनिया और इसके अन्दर जो चीज़ें हैं उनको देखते हुए अल्लाह पर ईमान लाना, जिसने ये सब चीज़ें बनाई हैं, इसी क़िस्म के तहत आता है क़यामत या प्रलय के दिन का हाल, हिसाब वाले दिन अच्छे और बुरे कामों का बदला इत्यादि की जानकारी, जिस पर दलीलें या प्रमाण मौजूद हैं और जो जानकारी अल्लाह तआला के बताए से मिलती है. इस दूसरे क़िस्म के गै़ब, जिसका तअल्लुक़ ईमान से है, की जानकारी और यक़ीन हर ईमान वाले को हासिल है, अगर न हो तो वह आदमी मूमिन ही न हो.

अल्लाह तआला अपने क़रीबी चहीते बन्दों, नबियों और वलियों पर जो गै़ब के दरवाज़े खोलता है वह इसी क़िस्म का ग़ैब है. गै़ब की तफ़सीर या व्याख्या में एक कथन यह भी है कि ग़ैब से क़ल्ब यानी दिल मुराद है. उस सूरत में मानी ये होंगे कि वो दिल से ईमान लाएं.(जुमल)

ईमान : जिन चीज़ों के बारे में हिदायत और यक़ीन से मालूम है कि ये दीने मुहम्मदी से हैं, उन सबको मानने और दिल से तस्दीक़ या पुष्टि करने और ज़बान से इक़रार करने का नाम सही ईमान है. कर्म या अमल ईमान में दाख़िल नहीं इसीलिये “यूमिनूना बिल गै़बे” के बाद “युक़ीमूनस सलाता” (और नमाज़ क़ायम रखें) फ़रमाया गया.

(6) नमाज़ के क़ायम रखने से ये मुराद है कि इसपर सदा अमल करते हैं और ठीक वक्तों पर पूरी पाबन्दी के साथ सभी अरकान यानी संस्कारों के साथ नमाज़ की अदायगी करते हैं और फ़र्ज़, सुन्नत और मुस्तहब अरकान की हिफ़ाज़त करते है, किसी में कोई रूकावट नहीं आने देते. जो बातें नमाज़ को ख़राब करती हैं उन का पूरा पूरा ध्यान रखते हैं और जैसी नमाज़ पढ़ने का हुक्म हुआ है वैसी नमाज़ अदा करते हैं.

नमाज़ के संस्कार : नमाज़ के हुक़ूक़ या संस्कार दो तरह के हैं एक ज़ाहिरी, ये वो हैं जो अभी अभी उपर बताए गए. दूसरे बातिनी, यानी आंतरिक, पूरी यकसूई या एकाग्रता, दिल को हर तरफ़ से फेरकर सिर्फ अपने पैदा करने वाले की तरफ़ लगा देना और दिल की गहराईयों से अपने रब की तारीफ़ या स्तुति और उससे प्रार्थना करना.

(7) अल्लाह की राह में ख़र्च करने का मतलब या ज़कात है, जैसा दूसरी जगह फ़रमाया “युक़ीमूनस सलाता व यूतूनज़ ज़काता” (यानी नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात अदा करते है), या हर तरह का दान पुण्य मुराद है चाहे फ़र्ज़ हो या वाजिब, जैसे ज़कात, भेंट, अपनी और अपने घर वालों की गुज़र बसर का प्रबन्ध. जो क़रीबी लोग इस दुनिया से जा चुके हैं उनकी आत्मा की शान्ति के लिये दान करना भी इसमें आ सकता है. बग़दाद वाले पीर हुज़ूर ग़ौसे आज़म की ग्यारहवीं की नियाज़, फ़ातिहा, तीजा चालीसवां वग़ैरह भी इसमें दाख़िल हैं कि ये सब अतिरिक्त दान हैं. क़ुरआन शरीफ़ का पढ़ना और कलिमा पढ़ना नेकी के साथ अतिरिक्त नेकी मिलाकर अज्र और सवाब बढ़ाता है.

क़ुरआन शरीफ़ में इस तरफ़ ज़रूर इशारा किया गया है कि अल्लाह की राह में ख़र्च करते वक्त़, चाहे अपने लिये हो या अपने क़रीबी लोगों के लिये, उसमें बीच का रास्ता अपनाया जाए, यानी न बहुत कम, न बहुत ज्यादा.

“रज़क़नाहुम” (और हमारी दी हुई रोज़ी में से) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि माल तुम्हारा पैदा किया हुआ नहीं, बल्कि हमारा दिया हुआ है. इसको अगर हमारे हुक्म से हमारी राह में ख़र्च न करो तो तुम बहुत ही कंजूस हो और ये कंजूसी बहुत ही बुरी है.

(8) इस आयत में किताब वालों से वो ईमान वाले मुराद हैं जो अपनी किताब और सारी पिछली किताबों और नबियों (अल्लाह के दुरूद और सलाम हों उनपर) पर भेजे गए अल्लाह के आदेशों पर भी ईमान लाए और क़ुरआन शरीफ़ पर भी. और “मा उन्जिला इलैका” (जो तुम्हारी तरफ़ उतरा) से तमाम क़ुरआन शरीफ़ और सारी शरीअत मुराद है. (जुमल)
जिस तरह क़ुरआन शरीफ़ पर ईमान लाना हर मुसलमान के लिये ज़रूरी है उसी तरह पिछली आसमानी किताबों पर ईमान लाना भी अनिवार्य है जो अल्लाह तआला ने हुज़ूर (अल्लाह के दुरूद और सलाम हो उनपर) से पहले नबियों पर उतारीं. अलबत्ता उन किताबों के जो अहकाम या आदेश हमारी शरीअत में मन्सूख़ या स्थगित कर दिये गए उन पर अमल करना दुरूस्त नहीं, मगर ईमान रखना ज़रूरी है. जैसे पिछली शरीअतों में बैतुल मक़दिस क़िबला था, इसपर ईमान लाना तो हमारे लिये ज़रूरी है मगर अमल यानी नमाज़ में बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुंह करना जायज़ नहीं, यह हुक्म उठा लिया गया.

क़ुरआन शरीफ़ से पहले जो कुछ अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके नबियों पर उतरा उन सब पर सामूहिक रूप से ईमान लाना फ़र्ज़े एेन और क़ुरआन शरीफ़ में जो कुछ है उस पर ईमान लाना फ़र्ज़े किफ़ाया है, इसीलिये आम आदमी पर क़ुरआन शरीफ़ की तफसीलात की जानकारी फ़र्ज़ नहीं जबकि क़ुरआन शरीफ़ के जानकार मौजूद हों जिन्होंने क़ुरआन के ज्ञान को हासिल करने में पूरी मेहनत
की हो.

(9) यानी दूसरी दुनिया और जो कुछ उसमें है, अच्छाइयों और बुराइयों का हिसाब वग़ैरह सब पर एेसा यक़ीन और इत्मीनान रखते हैं कि ज़रा शक और शुबह नहीं, इसमें एहले किताब (ईसाई और यहूदी)और काफ़िरों वग़ैरह से बेज़ारी है जो आख़िरत यानी दूसरी दुनिया के बारे में ग़लत विचार रखते हैं.
(10) अल्लाह वालों के बाद, अल्लाह के दुश्मनों का बयान फ़रमाना हिदायत के लिये है कि इस मुक़ाबले से हर एक को अपने किरदार की हक़ीक़त और उसके नतीजों या परिणाम पर नज़र हो जाए.
यह आयत अबू जहल, अबू लहब वग़ैरह काफ़िरों के बारे में उतरी जो अल्लाह के इल्म के तहत ईमान से मेहरूम हैं, इसी लिये उनके बारे में अल्लाह तआला की मुख़ालिफ़त या दुश्मनी से डराना या न डराना दोनों बराबर हैं, उन्हें फ़ायदा न होगा. मगर हुज़ूर की कोशिश बेकार नहीं क्योंकि रसूल का काम सिर्फ़ सच्चाई का रास्ता दिखाना और अच्छाई की तरफ़ बुलाना है. कितने लोग सच्चाई को अपनाते है और कितने नहीं, यह रसूल की जवाबदारी नहीं है, अगर क़ौम हिदायत क़ुबूल न करे तब भी हिदायत देने वाले को हिदायत का पुण्य या सवाब मिलेगा ही.

इस आयत में हुज़ूर (अल्लाह के दुरूद व सलाम हो उनपर) की तसल्ली की बात है कि काफ़िरों के ईमान न लाने से आप दुखी न हों, आप की तबलीग़ या प्रचार की कोशिश पूरी है, इसका अच्छा बदला मिलेगा. मेहरूम तो ये बदनसीब है जिन्होंने आपकी बात न मानी.
कुफ़्र के मानी : अल्लाह तआला की ज़ात या उसके एक होने या किसी के नबी होने या दीन की ज़रूरतों में से किसी एक का इन्कार करना या कोई एेसा काम जो शरीअत से मुंह फेरने का सुबूत हो, कुफ्र है.

(11) इस सारे मज़मून का सार यह है कि काफ़िर गुमराही में एेसे डूबे हुए हैं कि सच्चाई के देखने, सुनने, समझने से इस तरह मेहरूम हो गए जैसे किसी के दिल और कानों पर मुहर लगी हो और आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ हो.
इस आयत से मालूम हुआ कि बन्दों के कर्म भी अल्लाह की क़ुदरत के तहत हैं.

सूरए बक़रह _ दूसरा रूकू

 

Surah Baqarah 2nd ruku with
Surah Baqarah 2nd ruku with

 

 

Surah Baqarah 2nd ruku
Surah Baqarah 2nd ruku with

 

 

सूरए बक़रह _ दूसरा रूकू

और कुछ लोग कहते हैं(1)
कि हम अल्लाह और पिछले दीन पर ईमान लाए और वो ईमान वाले नहीं धोखा देना चाहते हैं अल्लाह और ईमान वालों को(2)
और हक़ीक़त में धोखा नहीं देते मगर अपनी जानों को और उन्हें शउर (या आभास)
नहीं उनके दिलों में बीमारी है (3)
तो अल्लाह ने उनकी बीमारी और बढ़ाई और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है बदला उनके झूठ का(4)
और जो उनसे कहा जाए ज़मीन में फ़साद न करो (5)
तो कहते हैं हम तो संवारने वाले हैं, सुनता है। वही फ़सादी हैं मगर उन्हें शउर नहीं,
और जब उनसे कहा जाए ईमान लाऔ जैसे और लोग ईमान लाए हैं(6)
तो कहें क्या हम मूर्खों की तरह ईमान लाएं(7)
सुनता है । वही मूर्ख हैं मगर जानते नहीं (8)
और जब ईमान वालों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए और जब अपने शैतानों के पास अकेले हों(9)
तो कहें हम तुम्हारे साथ हैं, हम तो यूं ही हंसी करते हैं (10)
अल्लाह उनसे इस्तहज़ा फ़रमाता है (अपनी शान के मुताबिक़)(11)
और उन्हें ढील देता है कि अपनी सरकशी में भटकते रहें. ये वो लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदी(12)
तो उनका सौदा कुछ नफ़ा न लाया और वो सौदे की राह जानते ही न थे(13)
उनकी कहावत उसकी तरह है जिसने आग रौशन की तो जब उससे आसपास सब जगमगा उठा, अल्लाह उनका नूर ले गया और उन्हें अंधेरियों में छोड़ दिया कि कुछ नहीं सूझता (14)
बहरे, गूंगे, अन्धे, तो वो फिर आने वाले नहीं या जैसे आसमान से उतरता पानी कि उसमें अंधेरियां हैं और गरज और चमक(15)
अपने कानों में उंगलियां ठूंस रहे हैं,कड़क के कारण मौत के डर से(16)
और अल्लाह काफ़िरों को घेरे हुए है(17)
बिजली यूं ही मालूम होती है कि उनकी निगाहें उचक ले जाएगी(18)
जब कुछ चमक हुई उस में चलने लगे(19)
और जब अंधेरा हुआ, खड़े रह गए और अल्लाह चाहता तो उनके कान और
आंखें ले जाता(20)
बेशक अल्लाह सबकुछ कर सकता हैं(21)

तफ़सीर : सूरए बक़रह _ दूसरा रूकू

1. इससे मालूम हुआ कि हिदायत की राहें उनके लिए पहले ही बन्द न थीं कि बहाने की गुंजायश होती. बल्कि उनके कुफ़्र, दुश्मनी और सरकशी व बेदीनी, सत्य के विरोध और नबियों से दुश्मनी का यह अंजाम है जैसे कोई आदमी डाक्टर का विरोध करें और उसके लिये दवा से फ़ायदे की सूरत न रहे तो
वह ख़ुद ही अपनी दुर्दशा का ज़िम्मेदार ठहरेगा.

2. यहां से तैरह आयतें मुनाफ़िक़ों (दोग़ली प्रवृत्ति वालों) के लिये उतरीं जो अन्दर से काफिर थे और अपने आप को मुसलमान ज़ाहिर करते थे. अल्लाह तआला ने फ़रमाया “माहुम बिमूमिनीन” वो ईमान वाले नहीं यानी कलिमा पढ़ना, इस्लाम का दावा करना, नमाज़ रोज़े अदा करना मूमिन होने के लिये काफ़ी नहीं, जब तक दिलों में तस्दीक़ न हो. इससे मालूम हुआ कि जितने फ़िरक़े (समुदाय) ईमान का दावा करते हैं और कुफ़्र का अक़ीदा रखते हैं सब का यही हुक्म है कि काफ़िर इस्लाम से बाहर हैं.शरीअत में एसों को मुनाफ़िक़ कहते हैं. उनका नुक़सान खुले काफ़िरों से ज्य़ादा है. मिनन नास (कुछ लोग) फ़रमाने में यह इशारा है कि यह गिरोह बेहतर गुणों और इन्सानी कमाल से एसा ख़ाली है कि इसका ज़िक्र किसी वस्फ़ (प्रशंसा) और ख़ूबी के साथ नहीं किया जाता, यूं कहा जाता है कि वो भी आदमी हैं. इस से मालूम हुआ कि किसी को बशर कहने में उसके फ़जा़इल और कमालात (विशेष गुणों) के इन्कार का पहलू निकलता है. इसलिये कुरआन में जगह जगह नबियों को बशर कहने वालों को काफ़िर कहा गया और वास्तव में नबियों की शान में एसा शब्द अदब से दूर और काफ़िरों का तरीक़ा है. कुछ तफसीर करने वालों ने फरमाया कि मिनन नास (कुछ लोगों) में सुनने वालों को आश्चर्य दिलाने के लिये फ़रमाया धोख़ेबाज़, मक्कार और एसे महामूर्ख भी आदमियों में हैं.

3. अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको कोई धोख़ा दे सके. वह छुपे रहस्यों का जानने वाला है. मतलब यह कि मुनाफ़िक़ अपने गुमान में ख़ुदा को धोख़ा देना चाहते हैं या यह कि ख़ुदा को धोख़ा देना यही है कि रसूल अलैहिस्सलाम को धोख़ा देना चाहें क्योंकि वह उसके ख़लीफ़ा हैं, और अल्लाह तआला ने अपने हबीब को रहस्यों (छुपी बातों) का इल्म दिया है, वह उन दोग़लों यानि मुनाफ़िक़ों के छुपे कुफ़्र के जानकार हैं और मुसलमान उनके बताए से बाख़बर, तो उन अधर्मियों का धोख़ा न ख़ुदा पर चले न रसूल पर, न ईमान वालों पर, बल्कि हक़ीक़त में वो अपनी जानों को धोख़ा दे रह हैं. इस
आयत से मालूम हुआ कि तक़ैय्या (दिलों में कुछ और ज़ाहिर कुछ) बड़ा एब है. जिस धर्म की बुनियाद तक़ैय्या पर हो, वो झूठा है. तक़ैय्या वाले का हाल भरोसे के क़ाबिल नहीं होता, तौबह इत्मीनान के क़ाबिल नहीं होती, इसलिये पढ़े लिखों ने फ़रमाया है “ला तुक़बलो तौबतुज़ ज़िन्दीक़ यानी अधर्मी की
तौबह क़बुल किये जाने के क़ाबिल नहीं.

4. बुरे अक़ीदे को दिल की बीमारी बताया गया है. मालूम हुआ कि बुरा अक़ीदा रूहानी ज़िन्दग़ी के लिये हानिकारक है. इस आयत से साबित हुआ कि झूठ हराम है, उसपर भारी अजाब दिया जाता है.

5. काफ़िरों से मेल जोल, उनकी ख़ातिर दीन में कतर ब्यौंत और असत्य पर चलने वालों की ख़ुशामद और चापलूसी और उनकी ख़ुशी के लिये सुलह कुल्ली (यानी सब चलता है) बन जाना और सच्चाई से दूर रहना, मुनाफ़िक़ की पहचान और हराम है. इसी को मुनाफ़िकों का फ़साद फ़रमाया है कि जिस जल्से में गए, वैसे ही हो गए, इस्लाम में इससे मना फ़रमाया गया है. ज़ाहिर और बातिन (बाहर और अन्दर) का एकसा न होना बहुत बड़ी बुराई है.

6. यहां “अन्नासो”से या सहाबए किराम मुराद है या ईमान वाले, क्योंकि ख़ुदा के पहचानने, उसकी फ़रमाबरदारी और आगे की चिन्ता रखने की बदौलत वही इन्सान कहलाने के हक़दार हैं. “आमिनु कमा आमना” (ईमान लाओ जैसे और लोग ईमान लाए) से साबित हुआ कि अच्छे लोगों का इत्तिबाअ
(अनुकरण) अच्छा और पसन्दीदा है. यह भी साबित हुआ कि एहले सुन्नत का मज़हब सच्चा है क्योंकि इसमें अच्छे नेक लोगों का अनुकरण है. बाक़ी सारे समुदाय अच्छे लोगों से मुंह फेरे हैं इसलिये गुमराह हैं. कुछ विद्वानों ने इस आयत को जि़न्दीक़ (अधर्मी) की तौबह क़ुबूल होने की दलील क़रार दिया है. (बैज़ावी) ज़िन्दीक़ वह है जो नबुवत को माने, इस्लामी उसूलों को ज़ाहिर करे मगर दिल ही दिल में ऐसे अक़ीदे रखे जो आम राय में कुफ़्र हों, यह भी मुनाफ़िकों में दाखि़ल हैं.

7. इससे मालूम हुआ कि अच्छे नेक आदमियों को बुरा कहना अधर्मियों और असत्य को मानने वालों का पुराना तरीक़ा है. आजकल के बातिल फ़िर्के भी पिछले बुज़ुर्गों को बुरा कहते हैं. राफ़ज़ी समुदाय वाले ख़ुलफ़ाए राशिदीन और बहुत से सहाबा को, ख़ारिजी समुदाय वाले हज़रत अली और उनके साथियों को, ग़ैर मुक़ल्लिद अइम्मए मुज्तहिदीन (चार इमामों) विशेषकर इमामे अअज़म अबू हनीफ़ा को, वहाबी समुदाय के लोग अक्सर औलिया और अल्लाह के प्यारों को, मिर्जाई समुदाय के लोग पहले नबियों तक को, चकड़ालवी समुदाय के लोग सहाबा और मुहद्दिसीन को, नेचरी तमाम बुज़ुर्गाने दीन को बुरा कहते है और उनकी शान में गुस्ताख़ी करते हैं. इस आयत से मालूम हुआ कि ये सब सच्ची सीधी राह से हटे हुए हैं. इसमें दीनदार आलिमों के लिये तसल्ली है कि वो गुमराहों की बदज़बानियों से बहुत दुखी न हों, समझ लें कि ये अधर्मियों का पुराना तरीक़ा है. (मदारिक)

8. मुनाफ़िक़ो की ये बद _ ज़बानी मुसलमानों के सामने न थी. उनसे तो वो यही कहते थे कि हम सच्चे दिल से ईमान लाए है जैसा कि अगली आयत में है “इज़ा लक़ुल्लज़ीना आमनू क़ालू आमन्ना”(और जब इमान वालों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए).ये तबर्राबाज़ियां (बुरा भला कहना) अपनी ख़ास मज्लिसों में करते थे. अल्लाह तआला ने उनका पर्दा खोल दिया. (ख़ाजिन)  उसी तरह आजकल के गुमराह फ़िर्कें (समुदाय) मुसलमानों से अपने झूटे ख्यालों को छुपाते हैं मगर अल्लाह तआला उनकी किताबों और उनकी लिखाईयों से उनके राज़ खोल देता है. इस आयत से मुसलमानों को ख़बरदार किया जाता है कि अधर्मियों की धोख़े बाज़ियों से होशियार रहें, उनके जाल में न आएं.

9. यहां शैतानों से काफ़िरों के वो सरदार मुराद है जो अग़वा (बहकावे) में मसरूफ़ रहते हैं. (ख़ाज़िन और बैज़ावी) ये मुनाफ़िक़ जब उनसे मिलते है तो कहते है हम तुम्हारे साथ हैं और मुसलमानों से मिलना सिर्फ़ धोख़ा और मज़ाक उड़ाने की ग़रज़ से इसलिये है कि उनके राज़ मालूम हों और उनमें फ़साद फैलाने के अवसर मिलें. (ख़ाजिन)

10.यानी ईमान का ज़ाहिर करना यानी मज़ाक उड़ाने के लिये किया, यह इस्लाम का इन्कार हुआ.नबियों और दीन के साथ मज़ाक करना और उनकी खिल्ली उड़ाना कुफ़्र है. यह आयत अब्दुल्लाह बिन उबई इत्यादि मुनाफ़िक़ के बारे़ में उतरी. एक रोज़ उन्होंने सहाबए किराम की एक जमाअत को आते देखा तो इब्ने उबई ने अपने यारों से कहा _ देखों तो मैं इन्हें कैसा बनाता हूं. जब वो हज़रात क़रीब पहुंचे तो इब्ने उबई ने पहले हज़रत सिद्दीके अकबर का हाथ अपने हाथ में लेकर आपकी तअरीफ़ की फिर इसी तरह हज़रत उमर और हज़रत अली की तअरीफ़ की. हज़रत अली मुर्तज़ा ने फ़रमाया _ ए इब्ने उबई, ख़ुदा से डर, दोग़लेपन से दूर रह, क्योंकि मुनाफ़िक़ लोग बदतरीन लोग हैं. इसपर वह कहने लगा कि ये बातें दोग़लेपन से नहीं की गई. खु़दा की क़सम, हम आपकी तरह सच्चे ईमान वाले हैं. जब ये हज़रात तशरीफ़ ले गए तो आप अपने यारों में अपनी चालबाज़ी पर फ़ख्र करने लगा. इसपर यह आयत उतरी कि मुनाफ़िक़ लोग ईमान वालों से मिलते वक्त ईमान और महब्बत जा़हिर करते हैं और उनसे अलग होकर अपनी ख़ास बैठकों में उनकी हंसी उड़ाते और खिल्ली करते हैं. इससे मालूम हुआ कि सहाबए किराम और दीन के पेशवाओ की खिल्ली उड़ाना कुफ़्र हैं.

11. अल्लाह तआला इस्तहज़ा (हंसी करने और खिल्ली उड़ाने) और तमाम ऐबों और बुराइयों से पाक है. यहां हंसी करने के जवाब को इस्तहज़ा फ़रमाया गया ताकि ख़ूब दिल में बैठ जाए कि यह सज़ा उस न करने वाले काम की है. ऐसे मौके़ पर हंसी करने के जवाब को अस्ल क्रिया की तरह बयान करना
फ़साहत का क़ानून है. जैसे बुराई का बदला बुराई. यानी जो बुराई करेगा उसे उसका बदला बुराई की सूरत में मिलेगा.

12. हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदना यानी ईमान की जगह कुफ़्र अपनाना बहुत नुक़सान औरघाटे की बात है. यह आयत या उन लोगों के बारे में उतरी जो ईमान लाने के बाद काफ़िर हो गए, या यहूदियों के बारे में जो पहले से तो हुज़ूर सल्लल्लाहो तआला अलैहे वसल्लम पर ईमान रखते थे मगर जब हुज़ूर तशरीफ़ ले आए तो इन्कार कर बैठे, या तमाम काफ़िरों के बारे में कि अल्लाह तआला ने उन्हें समझने वाली अक़्ल दी, सच्चाई के प्रमाण ज़ाहिर फ़रमाए, हिदायत की राहें खोलीं, मगर उन्होंने अक़्ल और इन्साफ़ से काम न लिया और गुमराही इख्तियार की. इस आयत से साबित हुआ कि ख़रीदों फ़रोख्त (क्रय विक्रय) के शब्द कहे बिना सिर्फ़ रज़ामन्दी से एक चीज़ के बदले दूसरी चीज़ लेना जायज़ है.

13. क्योंकि अगर तिजारत का तरीक़ा जानते तो मूल पूंजी (हिदायत) न खो बैठते.

14. यह उनकी मिसाल है जिन्हें अल्लाह तआला ने कुछ हिदायत दी या उसपर क़ुदरत बख्शी,फिर उन्होंने उसको ज़ाया कर दिया और हमेशा बाक़ी रहने वाली दौलत को हासिल न किया. उनका अंजाम हसरत, अफसोस, हैरत और ख़ौफ़ है. इसमें वो मुनाफ़िक़ भी दाखि़ल हैं जिन्होंने ईमान की नुमाइश की और दिल में कुफ़्र रखकर इक़रार की रौशनी को ज़ाया कर दिया, और वो भी जो ईमान  लाने के बाद दीन से निकल गए, और वो भी जिन्हें समझ दी गई और दलीलों की रौशनी ने सच्चाई को साफ़ कर दिया मगर उन्होंने उससे फ़ायदा न उठाया और गुमराही अपनाई और जब हक़ सुनने, मानने, कहने और सच्चाई की राह देखने से मेहरूम हुए तो कान, ज़बान, आंख, सब बेकार हैं.

15. हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदने वालों की यह दूसरी मिसाल है कि जैसे बारिश ज़मीन की ज़िन्दग़ी का कारण होती है और उसके साथ खौफ़नाक अंधेरियां और ज़ोरदार गरज और चमक होती है, उसी तरह क़ुरआन और इस्लाम दिलों की ज़िन्दग़ी का सबब हैं और कुफ़्र, शिर्क, निफ़ाक़ दोगलेपन का
बयान तारीकी (अंधेरे) से मिलता जुलता है. जैसे अंधेरा राहगीर को मंज़िल तक पहुंचने से रोकता  है, एैसे ही कुफ़्र और निफ़ाक़ राह पाने से रोकते हैं.
और सज़ाओ का ज़िक्र गरज से और हुज्जतों का वर्णन चमक से मिलते जुलते हैं.
मुनाफ़िक़ों में से दो आदमी हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास से मुश्रिकों की तरफ भागे, राह में यही बारिश आई जिसका आयत में ज़िक्र है. इसमें ज़ोरदार गरज, कड़क और चमक थी. जब गरज होती तो कानों में उंगलियां ठूंस लेते कि यह कानों को फाड़ कर मार न डाले, जब चमक होती चलने
लगते, जब अंधेरी होती, अंधे रह जाते, आपस में कहने लगे _ ख़ुदा ख़ैर से सुबह करे तो हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर होकर अपने हाथ हुज़ूर के मुबारक हाथों में दे दें. फिर उन्होंने एेसा ही किया और इस्लाम पर साबित क़दम रहे. उनके हाल को अल्लाह तआला ने मुनाफ़िक़ों के लिये कहावत बनाया जो हुज़ूर की पाक मज्लिस में हाज़िर होते तो कानों में उंगलियां ठूंस लेते कि कहीं हुज़ूर का कलाम उनपर असर न कर जाए जिससे मर ही जाएं और जब उनके माल व औलाद ज्यादा होते और फ़तह और ग़नीमत का माल मिलता तो बिजली की चमक वालों की तरह चलते और कहते कि अब तो मुहम्मद का दीन ही सच्चा है. और जब माल और औलाद का नुक़सान होता और बला आती तो बारिश की अंधेरियों में ठिठक रहने वालों की तरह कहते कि यह मुसीबतें इसी दीन की वजह से हैं और इस्लाम से हट जाते.

16. जैसे अंधेरी रात में काली घटा और बिजली की गरज _ चमक जंगल में मुसाफिरों को हैरान करती हो और वह कड़क की भयानक आवाज़ से मौत के डर से माने कानों में उंगलियां ठूंसते हों. ऐसे ही काफ़िर क़ुरआन पाक के सुनने से कान बन्द करते हैं और उन्हें ये अन्देशा या डर होता है कि कहीं इसकी दिल में घर कर जाने वाली बातें इस्लाम और ईमान की तरफ़ खींच कर बाप दादा का कुफ़्र वाला दीन न छुड़वा दें जो उनके नज्दीक मौत के बराबर है.

17. इसलियें ये बचना उन्हें कुछ फ़ायदा नहीं दे सकता क्योंकि वो कानों में उंगलियां ठूंस कर अल्लाह के प्रकोप से छुटकारा नहीं पा सकते.

18. जैसे बिजली की चमक, मालूम होता है कि दृष्टि को नष्ट कर देगी, ऐसे ही खुली साफ़ दलीलों की रोशनी उनकी आंखों और देखने की क़ुव्वत को चौंधिया देती है.

19. जिस तरह अंधेरी रात और बादल और बािरश की तारीकियों में मुसाफिर आश्चर्यचकित होता है, जब बिजली चमकती है तो कुछ चल लेता है, जब अंधेरा होता है तो खड़ा रह जाता है, उसी तरह इस्लाम के ग़लबे और मोजिज़ात की रोशनी और आराम के वक्त़ मुनाफ़िक़ इस्लाम की तरफ़ राग़िब होते (खिंचते) हैं और जब कोई मशक्कत पेश आती है तो कुफ़्र की तारीक़ी में खड़े रह जाते हैं और इस्लाम से हटने लगते हैं. इसी मज़मून (विषय) को दूसरी आयत में इस तरह इरशाद फ़रमाया “इज़ा दुउ इलल्लाहे व रसूलिही लियहकुमा बैनहुम इज़ा फ़रीक़ुम मिन्हुम मुअरिदुन.”(सूरए नूर, आयत 48) यानी जब बुलाए जाएं अल्लाह व रसूल की तरफ़ कि रसूल उनमें फ़रमाए तो जभी उनका एक पक्ष मुंह फेर जाता है. (ख़ाज़िन वग़ैरह)

20. यानी यद्दपि मुनाफ़िक़ों की हरकतें इसी की हक़दार थीं, मगर अल्लाह तआला ने उनके सुनने और देखने की ताक़त को नष्ट न किया. इससे मालूम हुआ कि असबाब की तासीर अल्लाह की मर्ज़ी के साथ जुड़ी हुई है कि अल्लाह की मर्ज़ी के बिना किसी चीज़ का कुछ असर नहीं हो सकता. यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह की मर्ज़ी असबाब की मोहताज़ नहीं, अल्लाह को कुछ करने के लिये किसी वजह की ज़रूरत नहीं.

21. “शै” उसी को कहते है जिसे अल्लाह चाहे और जो उसकी मर्ज़ी के तहत आ सके. जो कुछ भी है सब “शै” में दाख़िल हैं इसलिये वह अल्लाह की क़ुदरत के तहत है. और जो मुमकिन नहीं यानी उस जैसा दूसरा होना सम्भव नहीं अर्थात वाजिब, उससे क़ुदरत और इरादा सम्बन्धित नहीं होता जैसे
अल्लाह तआला की ज़ात और सिफ़ात वाजिब है, इस लिये मक़दूर (किस्मत) नहीं. अल्लाह तआला के लिये झूट बोलना और सारे ऐब मुहाल (असंभव) है इसीलिये क़ुदरत को उनसे कोई वास्ता नहीं.

सूरए बक़रह _ तीसरा रूकू

सूरए बक़रह _ तीसरा रूकू

ऐ लोगों(1)
अपने रब को पूजो जिसने तुम्हें और तुम से अगलों को पैदा किया ये उम्मीद करते हुए कि तुम्हें परहेज़गारी मिले (2)
और जिसने तुम्हारे लिये ज़मीन को बिछौना और आसमान को इमारत बनाया और आसमान से पानी उतारा (3)
तो उससे कुछ फल निकाले तुम्हारे खाने को तो अल्लाह के लिये जानबूझकर बराबर वाले न ठहराओ (4)
और अगर तुम्हें कुछ शक हो उसमें जो हमने अपने  (उन ख़ास) बन्दे(5)
पर उतारा तो उस जैसी सूरत तो ले आओ (6)
और अल्लाह के सिवा अपने सब हिमायतियों को बुला लो अगर तुम सच्चे हो, फिर अगर न ला सको और हम फ़रमाए देते है कि हरगिज़ न ला सकोगे तो डरो उस आग से जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं (7)
तैयार रखी है काफ़िरों के लिये (8)
और ख़ुशख़बरी दे उन्हें जो ईमान लाए और अच्छे काम किये कि उनके लिये बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहें(9)
जब उन्हें उन बागों से कोई फल खाने को दिया जाएगा (सूरत देखकर) कहेंगे यह तो वही रिज्क़ (जीविका) है जो हमें पहले मिला था (10)
और वह (सूरत में) मिलता जुलता उन्हें दिया गया और उनके लिये उन बाग़ों में सुथरी बीबियां हैं (11)
और वो उनमें हमेशा रहेंगे (12)
बेशक अल्लाह इस से हया नहीं फ़रमाता कि मिसाल समझाने को कैसी ही चीज़ का जि़क्र या वर्णन फ़रमाए मच्छर हो या उससे बढ़कर(13)
तो वो जो ईमान लाए वो तो जानते हैं कि यह उनके रब की तरफ़ से हक़ (सत्य) है (14)
रहे काफ़िर वो कहते हैं एसी कहावत में अल्लाह का क्या मक़सूद है, अल्लाह बहुतेरों को इससे गुमराह करता है (15)
और बहुतेरों को हिदायत फ़रमाता है और उससे उन्हें गुमराह करता है जो बेहुक्म हैं (16)
वह जो अल्लाह के अहद (इक़रार) को तोड़ देते हैं (17)
पक्का होने के बाद और काटते हैं उस चीज़ को जिसके जोड़ने का ख़ुदा ने हुक्म दिया है और जमीन में फ़साद फैलाते हैं (18)
वही नुक़सान में हैं भला तुम कैसे ख़ुदा का इन्कार करोगे हालांकि तुम मुर्दा थे उसने तुम्हें जिलाया (जीवंत किया) फिर तुम्हें मारेगा फिर तुम्हें ज़िन्दा करेगा फिर उसी की तरफ़ पलटकर जाओगे (19)
वही है जिसने तुम्हारे लिये बनाया जो कुछ ज़मीन में है (20) फिर आसमान की तरफ़ इस्तिवा (क़सद, इरादा) फ़रमाया तो ठीक सात आसमान बनाए और वह सब कुछ जानता हैं (21)

तफ़सीर : सूरए बक़रह  तीसरा रूकू

(1) सूरत के शुरू में बताया गया कि यह किताब अल्लाह से डरने वालों की हिदायत के लिये उतारी गई है, फिर डरने वालों की विशेषताओ का ज़िक्र फरमाया, इसके बाद इससे मुंह फेरने वाले समुदायो का और उनके हालात का ज़िक्र फरमाया कि फ़रमांबरदार  और क़िस्मत वाले इन्सान हिदायत और तक़वा की तरफ़ राग़िब हों और नाफ़रमानी व बग़ावत से बचें. अब तक़वा हासिल करने का तरीक़ा बताया जा रहा है. “ऐ लोगो” का ख़िताब (सम्बोधन) अकसर मक्के वालों को और “ऐ ईमान वालों” का सम्बोधन मदीने वालों को होता है. मगर यहां यह सम्बोधन ईमान वालों और काफ़िर सब को आम है, इसमें इशारा है कि इन्सानी शराफ़त इसी में है कि आदमी अल्लाह से डरे यानी तक़वा हासिल करे और इबादत में लगा रहे. इबादत वह संस्कार (बंदगी) है जो बन्दा अपनी अब्दीयत और माबूद की उलूहियत (ख़ुदा होना) के एतिक़ाद और एतिराफ़ के साथ पूरे करे. यहां इबादत आम है अर्थात पूजा पाठ की सारी विधियों, तमाम उसूल और तरीको को समोए हुए है. काफ़िर इबादत के मामूर (हुक्म किये गए) हैं जिस तरह बेवुज़ू नमाज़ के  फर्ज़  होने को नहीं रोकता उसी तरह काफ़िर होना इबादत के वाजिब होने को मना नहीं करता और जैसे बेवुज़ू व्यक्ति पर नमाज़ की अनिवार्यता बदन की पाकी को ज़रूरी बनाती है ऐसे ही काफ़िर पर इबादत के वाजिब होने से कुफ़्र का छोड़ना अनिवार्य ठहरता है.

(2) इससे मालूम हुआ कि इ़बादत का फ़ायदा इबादत करने वाले ही को मिलता है, अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको इबादत या और किसी चीज़ से नफ़ा हासिल हो.

(3) पहली आयत में बयान फ़रमाया कि तुम्हें और तुम्हारे पूर्वजों को शून्य से अस्तित्व किया और दूसरी आयत में गुज़र बसर, जीने की सहूलतों, अन्न और पानी का बयान फ़रमाकर स्पष्ट कर दिया कि अल्लाह ही सारी नेअमतों का मालिक है. फिर अल्लाह को छोडकर दूसरे की पूजा सिर्फ बातिल है.

(4) अल्लाह तआला के एक होने के बयान के बाद हुज़ूर सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत और क़ुरआने करीम के देववाणी और नबी का मोजिज़ा होने की वह ज़बरदस्त दलील बयान फरमाई जाती है जो सच्चे दिल वाले को इत्मीनान बख्शे  और इंकार करने वालों को लाजवाब कर दे.

(5) ख़ास बन्दे से हुज़ूर पुरनूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मुराद हैं.

(6) यानी ऐसी सूरत बनाकर लाओ   जो फ़साहत (अच्छा कलाम) व बलाग़त और शब्दों के सौंदर्य और प्रबंध और ग़ैब की ख़बरें देने में क़ुरआने पाक की तरह हो.

(7) पत्थर से वो बुत मुराद हैं जिन्हे काफ़िर पूजते हैं और उनकी महब्बत में क़ुरआने पाक और रसूले करीम का इन्कार दुश्मनी के तौर पर करते हैं.

(8) इस से मालूम हुआ कि दोज़ख पैदा हो चुकी है. यह भी इशारा है कि ईमान वालों के लिये अल्लाह के करम से हमेशा जहन्नम में रहना नहीं.

(9) अल्लाह तआला की सुन्नत है कि किताब में तरहीब (डराना) के साथ तरग़ीब ज़िक्र फ़रमाता है. इसीलिये काफ़िर और उनके कर्मों और अज़ाब के ज़िक्र के बाद ईमान वालों का बयान किया और उन्हे जन्नत की बशारत दी. “सालिहातुन” यानी नेकियां वो कर्म हैं जो शरीअत की रौशनी में अच्छे हों. इनमें फ़र्ज़ और नफ़्ल सब दाख़िल हैं. (जलालैन) नेक अमल का ईमान पर अत्फ़ इसकी दलील है कि अमल ईमान का अंग नहीं. यह बशारत ईमान वाले नेक काम करने वालों के लिये बिना क़ैद है और गुनाहगारों को जो बशारत दी गई है वह अल्लाह की मर्ज़ी की शर्त के साथ है कि अल्लाह चाहे तो अपनी कृपा से माफ़ फ़रमाए, चाहे गुनाहों की सज़ा देकर जन्नत प्रदान करें. (मदारकि)

(10) जन्नत के फल एक दूसरे से मिलते जुलते होंगे और उनके मज़े अलग अलग. इतलिये जन्नत वाले कहेंगे कि यही फल तो हमें पहले मिल चुका है, मगर खाने से नई लज़्ज़त पाएंगे तो उनका लुत्फ़ बहुत ज़्यादा हो जाएगा.

(11) जन्नती बीबियां चाहें हूरें हों या और, स्त्रियों की सारी जिस्मानी इल्लतों (दोषों)और तमाम नापाकियों और गंदगियों से पाक होंगी, न जिस्म पर मैल होगा, न पेशाब पख़ाना, इसके साथ ही वो बदमिज़ाजी और बदख़ल्क़ी (बुरे मिजाज़) से भी पाक होंगी.(मदारिक व ख़ाज़िन)

(12) यानी जन्नत में रहने वाले न कभी फ़ना होंगे, न जन्नत से निकाले जाएंगे, इससे मालूम हुआ कि जन्नत और इसमें रहने वालों के लिये फ़ना नही.

(13) जब अल्लाह तआला ने आयत मसलुहुम कमसलिल लज़िस्तौक़दा नारा (उनकी कहावत उसकी तरह है जिसने आग रौशन की) और आयत “कसैय्यिबिम मिनस समाए” (जैसे आसमान से उतरता पानी) में मुनाफ़िक़ो की दो मिसालें बयान फ़रमाई तो मुनाफ़िको ने एतिराज किया कि अल्लाह तआला इससे बालातर है कि ऐसी मिसालें बयान फ़रमाए. उसके रद में यह आयत उतरी.

(14) चूंकि मिसालों का बयान हिकमत (जानकारी, बोध ) देने और मज़मून को दिल में घर करने वाला बनाने के लिये होता है और अरब के अच्छी ज़बान वालों का तरीक़ा है, इसलिये मुनाफ़िक़ो का यह एतिराज ग़लत और बेजा है और मिसालों का बयान सच्चाई से भरपूर है.

(15) “युदिल्लो बिही” (इससे गुमराह करता है) काफ़िरों के उस कथन का जवाब है कि अल्लाह का इस कहावत से क्या मतलब है. “अम्मल लज़ीना आमनू” (वो जो ईमान लाए) और “अम्मल लज़ीना कफ़रू” (वो जो काफ़िर रहे), ये दो जुम्ले जो ऊपर इरशाद हुए, उनकी तफ़सीर है कि इस कहावत या मिसाल से बहुतो को गुमराह करता है जिनकी अक़्लो पर अज्ञानता या जिहालत ने ग़लबा किया है और जिनकी आदत बड़ाई छांटना और दुश्मनी पालना है और जो हक़ बात और खुली हिकमत के इन्कार और विरोध के आदी हैं और इसके बावजूद कि यह मिसाल बहुत मुनासिब है, फिर भी इन्कार करते हैं और इससे अल्लाह तआला बहुतों को हिदायत फ़रमाता है जो ग़ौर और तहक़ीक़ (अनुसंधान) के आदी हैं और इन्साफ के ख़िलाफ बात नही कहते कि हिकमत (बोध) यही है कि बड़े रूत्बे वाली चीज़ की मिसाल किसी क़द्र वाली चीज़ से और हक़ीर (तुच्छ) चीज़ की अदना चीज़ से दी जाए जैसा कि ऊपर की आयत में हक़ (सच्चाई) की नूर (प्रकाश) से और बातिल (असत्य) की ज़ुलमत (अंधेरे) से मिसाल दी गई.

(16) शरीअत में फ़ासिक़ उस नाफ़रमान को कहते हैं जो बड़े गुनाह करे. “फिस्क़” के तीन दर्जे हैं – एक तग़ाबी, वह यह कि आदमी इत्तिफ़ाक़िया किसी गुनाह का मुर्तकिब (करने वाला) हुआ और उसको बुरा ही जानता रहा, दूसरा इन्हिमाक कि बड़े गुनाहों का आदी हो गया और उनसे बचने की परवाह न रही, तीसरा जुहूद कि हराम को अच्छा जान कर इर्तिकाब करे. इस दर्जे वाला ईमान से मेहरूम हो जाता है, पहले दो दर्जो में जब तक बड़ो में बड़े गुनाह (शिर्क व कुफ़्र) का इर्तिकाब न करे, उस पर मूमिन का इतलाक़ (लागू होना) होता है, यहां “फ़ासिकीन” (बेहुक्म) से वही नाफ़रमान मुराद हैं जो ईमान से बाहर हो गए. क़ुरआने करीम में काफ़िरों पर भी फ़ासिक़ का इत्लाक़ हुआ है: इन्नल मुनाफ़िक़ीना हुमुल फ़ासिक़ून” (सूरए तौबह, आयत 67) यानी बेशक मुनाफिक़ वही पक्के बेहुक्म है. कुछ तफ़सीर करने वालों ने यहां फ़ासिक़ से काफ़िर मुराद लिये कुछ ने मुनाफिक़, कुछ ने यहूद.

(17) इससे वह एहद मुराद है जो अल्लाह तआला ने पिछली किताबो में हूजुर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने की निस्बत फ़रमाया. एक क़ौल यह है कि एहद तीन हैं- पहला एहद वह जो अल्लाह तआला ने तमाम औलादे आदम से लिया कि उसके रब होने का इक़्रार करें. इसका बयान इस आयत में है “व इज़ अख़ज़ा रब्बुका मिम बनी आदमा….” (सूरए अअराफ, आयत 172) यानी और ऐ मेहबूब, याद करो जब तुम्हारे रब ने औलादे आदम की पुश्त से उनकी नस्ल निकाली और उन्हे ख़ुद उन पर गवाह किया, क्या मैं तुम्हारा रब नहीं, सब बोले- क्यों नहीं, हम गवाह हुए. दूसरा एहद नबियों के साथ विशेष है कि रिसालत की तबलीग़ फ़रमाएं और दीन क़ायम करें. इसका बयान आयत “व इज़ अख़ज़ना मिनन नबिय्यीना मीसाक़हुम” (सूरए अलअहज़ाब, आयत सात) में है, यानी और ऐ मेहबूब याद करो जब हमने नबियो से एहद लिया और तुम से और नूह और इब्राहीम और मूसा और ईसा मरयम के बेटे से और हम ने उनसे गाढ़ा एहद लिया. तीसरा एहद उलमा के साथ ख़ास है कि सच्चाई को न छुपाएं. इसका बयान “वइज़ अख़ज़ल्लाहो मीसाक़ल्लजीना उतुल किताब” में है, यानी और याद करो जब अल्लाह ने एहद लिया उनसे जिन्हे किताब अता हुई कि तुम ज़रूर उसे उन लोगो से बयान कर देना और न छुपाना. (सूरए आले इमरान, आयत 187)

(18) रिश्ते और क़राबत के तअल्लुक़ात (क़रीबी संबंध) मुसलबानों की दोस्ती और महब्बत, सारे नबियों को मानना, आसमानी किताबो की तस्दीक, हक़ पर जमा होना, ये वो चीज़े है जिनके मिलाने का हुकम फरमाया गया. उनमें फूट डालना, कुछ को कुछ से नाहक़ अलग करना, तफ़र्क़ो (अलगाव) की बिना डालना हराम करार दिया गया.

(19) तौहीद और नबुव्वत की दलीलों और कुफ़्र और ईमान के बदले के बाद अल्लाह तआला ने अपनी आम और ख़ास नेअमतो का, और क़ुदरत की निशानियों, अजीब बातों और हिकमतो का ज़िक्र फ़रमाया और कुफ़्र की ख़राबी दिल में बिठाने के लिये काफ़िरों को सम्बोधित किया कि तुम किस तरह ख़ुदा का इन्कार करते हो जबकि तुम्हारा अपना हाल उस पर ईमान लाने का तक़ाज़ा करता है कि तुम मुर्दा थे. मुर्दा से बेजान जिस्म मुराद है. हमारे मुहावरे में भी बोलते हैं- ज़मीन मुर्दा हो गई. मुहावरे में भी मौत इस अर्थ में आई. ख़ुद क़ुरआने पाक में इरशाद हुआ “युहयिल अरदा बअदा मौतिहा” (सूरए रूम, आयत 50) यानी हमने ज़मीन को ज़िन्दा किया उसके मरे पीछे. तो मतलब यह है कि तुम बेजान जिस्म थे, अन्सर (तत्व) की सुरत में, फिर ग़िजा की शक्ल में, फिर इख़लात (मिल जाना) की शान में, फिर नुत्फ़े (माद्दे) की हालत में. उसने तुमको जान दी, ज़िन्दा फ़रमाया. फिर उम्र् की मीआद पूरी होने पर तुम्हें मौत देगा. फिर तुम्हें ज़िन्दा करेगा. इससे या क़ब्र की ज़िन्दगी मुराद है जो सवाल के लिये होगी या हश्र की. फिर तुम हिसाब और जज़ा के लिये उसकी तरफ़ लौटाए जाओगे. अपने इस हाल को जानकर तुम्हारा कुफ़्र करना निहायत अजीब है. एक क़ौल मुफ़स्सिरीन का यह भी है कि “कैफ़ा तकफ़ुरूना” (भला तुम कैसे अल्लाह के इन्कारी हो गए) का ख़िताब मूमिनीन से है और मतलब यह है कि तुम किस तरह काफ़िर हो सकते हो इस हाल में कि तुम जिहालत की मौत से मुर्दा थे, अल्लाह तआला ने तुम्हें इल्म और ईमान की ज़िन्दगी अता फ़रमाई, इसके बाद तुम्हारे लिये वही मौत है जो उम्र गुज़रने के बाद सबको आया करती है. उसके बाद तुम्हें वह हक़ीक़ी हमेशगी की ज़िन्दगी अता फ़रमाएगा, फिर तुम उसकी तरफ़ लौटाए जाओगे और वह तुम्हें ऐसा सवाब देगा जो न किसी आंख ने देखा, न किसी कान ने सुना, न किसी दिल ने उसे मेहसूस किया.

(20) यानी खानें, सब्ज़े, जानवर, दरिया, पहाड जो कुछ ज़मीन में है सब अल्लाह तआला ने तुम्हारे दीनी और दुनियावी नफ़े के लिये बनाए. दीनी नफ़ा इस तरह कि ज़मीन के अजायबात देखकर तुम्हें अल्लाह तआला की हिकमत और कुदरत की पहचान हो और दुनियावी मुनाफ़ा यह कि खाओ पियो, आराम करो, अपने कामों में लाओ तो इन नेअमतो के बावुजूद तुम किस तरह कुफ़्र करोगे. कर्ख़ी और अबूबक्र राज़ी वग़ैरह ने “ख़लक़ा लकुम” (तुम्हारे लिये बनाया) को फ़ायदा पहुंचाने वाली चीज़ों की मूल वैघता (मुबाहुल अस्ल) की दलील ठहराया है.

(21) यानी यह सारी चीज़ें पैदा करना और बनाना अल्लाह तआला के उस असीम इल्म की दलील है जो सारी चीज़ों को घेरे हुए है, क्योंकि ऐसी सृष्टि का पैदा करना, उसकी एक-एक चीज़ की जानकारी के बिना मुमकिन नहीं. मरने के बाद ज़िन्दा होना काफ़िर लोग असम्भव मानते थे. इन आयतों में उनकी झूठी मान्यता पर मज़बूत दलील क़ायम फ़रमादी कि जब अल्लाह तआला क़ुदरत वाला (सक्षम) और जानकार है और शरीर के तत्व जमा होने और जीवन की योग्यता भी रखते हैं तो मौत के बाद ज़िन्दगी कैसे असंभव हो सकती है, आसमान और ज़मीन की पैदाइश के बाद अल्लाह तआला ने आसमान में फरिश्तों को और ज़मीन में जिन्नों को सुकूनत दी. जिन्नों ने फ़साद फैलाया तो फ़रिश्तो की एक जमाअत भेजी जिसने उन्हें पहाडों और जज़ीरों में निकाल भगाया.

सूरए बक़रह _ चौथा रूकू

सूरए बक़रह _ चौथा रूकू

और याद करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से फ़रमाया मैं ज़मीन में अपना नायब बनाने वाला हूं(1)
बोले क्या ऐसे को (नायब) करेगा जो उसमें फ़साद फैलाएगा और ख़ून बहाएगा (2)
और तुझे सराहते हुए तेरी तस्बीह (जाप) करते हैं और तेरी पाकी बोलते हैं फ़रमाया मुझे मालूम है जो तुम नहीं जानते (3)
और अल्लाह तआला ने आदम को सारी (चीज़ों के) नाम सिखाए(4)
फिर सब (चीज़ों) को फ़रिश्तों पर पेश करके फ़रमाया सच्चे हो तो उनके नाम तो बताओ (5)
बोले पाकी है तुझे हमें कुछ इल्म नहीं मगर जितना तूने हमें सिखाया बेशक तू ही इल्म और हिकमत वाला है(6)
फ़रमाया ऐ आदम बतादे उन्हें सब (चीज़ों) के नाम जब उसने (यानि आदम ने)उन्हें सब के नाम बता दिये(7)
फ़रमाया मैं न कहता था कि मैं जानता हूं जो कुछ तुम ज़ाहिर करते और जो कुछ तुम छुपाते हो (8)
और (याद करो) जब हमने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम को सिजदा करो तो सबने सिजदा किया सिवाए इबलीस (शैतान) के कि इन्कारी हुआ और घमन्ड किया ओर काफ़िर हो गया(9)
और हमने फ़रमाया ऐ आदम तू और तेरी बीवी इस जन्नत में रहो और खाओ इसमें से बे रोक टोक जहां तुम्हारा जी चाहे मगर उस पेड़ के पास न जाना(10)
कि हद से बढ़ने वालों में हो जाओगे(11)
तो शैतान ने उससे (यानी जन्नत से) उन्हें लग़ज़िश (डगमगाहट) दी और जहां रहते थे वहां से उन्हें अलग कर दिया (12)
और हमने फ़रमाया नीचे उतरो(13)
आपस में एक तुम्हारा दूसरे का दुश्मन और तुम्हें एक वक्त़ तक ज़मीन में ठहरना और बरतना है(14)
फिर सीख लिये आदम ने अपने रब से कुछ कलिमे (शब्द) तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़ुबूल की(15)
बेशक वही है बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान हमने फ़रमाया तुम सब जन्नत से उतर जाओ फिर अगर तुम्हारे पास मेरी तरफ़ से कोई हिदायत आए तो जो मेरी हिदायत का पालन करने वाला हुआ उसे न कोई अन्देशा न कुछ ग़म (16)
और वो जो कुफ्र और मेरी आयतें झुटलांएगे वो दोज़ख़ वाले है उनको हमेशा उस में रहना(39) –

तफ़सीर : सूरए बक़रह चौथा रूकू

(1) ख़लीफ़ा निर्देशो और आदेशों के जारी करने और दूसरे अधिकारों में अस्ल का नायब होता है. यहाँ ख़लीफ़ा से हज़रत आदम (अल्लाह की सलामती उनपर) मुराद है. अगरचे और सारे नबी भी अल्लाह तआला के ख़लीफ़ा हैं. हज़रत दाउद  अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाया : “या दाउदो इन्ना जअलनाका ख़लीफ़तन फ़िलअर्दे” (सूरए सॉद, आयत 26) यानी ऐ दाऊद,  बेशक हमने तुझे ज़मीन में नायब किया, तो लोगो में सच्चा हुक्म कर.फ़रिश्तों को हज़रत आदम की ख़िलाफ़त की ख़बर इसलिये दी गई कि वो उनके ख़लीफ़ा बनाए जाने की हिकमत (रहस्य) पूछ कर मालूम करलें और उनपर ख़लीफ़ा की बुज़र्गी और शान ज़ाहिर हो कि उनको पैदाइश से पहले ही ख़लीफ़ा का लक़ब अता हुआ और आसमान वालों को उनकी पैदाइश की ख़ुशख़बरी दी गई. इसमें बन्दों को तालीम है कि वो काम से पहले मशवरा किया करें और अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको मशवरे की ज़रूरत हो.

(2) फ़रिश्तों को मक़सद एतिराज या हज़रत आदम पर लांछन नहीं, बल्कि ख़िलाफ़त का रहस्य मालूम करना है, और इंसानों की तरफ़ फ़साद फैलाने की बात जोड़ना इसकी जानकारी या तो उन्हें अल्लाह तआला की तरफ़ से दी गई हो या लौहे मेहफ़ूज से प्राप्त हुई हो या ख़ुद उन्होंने जिन्नात की तुलना में अन्दाज़ा लगाया हो.

(3) यानी मेरी हिकमतें (रहस्य) तुम पर ज़ाहिर नहीं. बात यह है कि इन्सानों में नबी भी होंगे, औलिया भी, उलमा भी, और वो इल्म और अमल दोनों एतिबार से फज़ीलतों (महानताओ) के पूरक होंगे.

(4) अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम पर तमाम चीज़ें और सारे नाम पेश फ़रमाकर उनके नाम, विशेषताएं, उपयोग, गुण इत्यादि सारी बातों की जानकारी उनके दिल में उतार दी.

(5) यानी अगर तुम अपने इस ख़याल में सच्चे हो कि मैं कोई मख़लूक़ (प्राणी जीव) तुमसे ज़्यादा जगत में पैदा न करूंगा और ख़िलाफ़त के तुम्हीं हक़दार हो तो इन चीज़ों के नाम बताओ क्योंकि ख़लीफ़ा का काम तसर्रूफ़ (इख़्तियार) और तदबीर, इन्साफ और अदल है और यह बग़ैर इसके सम्भव नहीं कि ख़लीफ़ा को उन तमाम चीज़ों की जानकारी हो जिनपर उसको पूरा अधिकार दिया गया और जिनका उसको फ़ैसला करना है. अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के फ़रिश्तों पर अफ़ज़ल (उच्चतर) होने का कारण ज़ाहिरी इल्म फ़रमाया. इससे साबित हुआ कि नामों का इल्म अकेलेपन और तनहाइयों की इबादत से बेहतर है. इस आयत से यह भी साबित हुआ कि नबी फ़रिश्तों से ऊंचे हैं.

(6) इसमें फ़रिश्तों की तरफ़ से अपने इज्ज़ (लाचारी) और ग़लती का ऐतिराफ और इस बात का इज़हार है कि उनका सवाल केवल जानकारी हासिल करने के लिये था, न कि ऐतिराज़ की नियत से. और अब उन्हें इन्सान की फ़ज़ीलत (बड़ाई) और उसकी पैदाइश का रहस्य मालूम हो गया जिसको वो पहले न जानते थे.

(7) यानी हज़रत आदम अहैहिस्सलाम ने हर चीज़ का नाम और उसकी पैदाइश का राज़ बता दिया.

(8) फ़रिश्तों ने जो बात ज़ाहिर की थी वह थी कि इन्सान फ़साद फैलाएगा, ख़ून ख़राबा करेगा और जो बात छुपाई थी वह यह थी कि ख़िलाफ़त के हक़दार वो ख़ुद हैं और अल्लाह तआला उनसें ऊंची और जानकार कोई मख़लूक़ पैदा न फ़रमाएगा. इस आयत से इन्सान की शराफ़त और इल्म की बड़ाई साबित होती है और यह भी कि अल्लाह तआला की तरफ तालीम की निस्बत करना सही हैं. अगरचे उसको मुअल्लिम (उस्ताद) न कहा जाएगा, क्योंकि उस्ताद पेशावर तालीम देने वाले को कहते हैं. इससे यह भी मालूम हुआ कि सारे शब्दकोष, सारी ज़बानें अल्लाह तआला की तरफ़ से हैं. यह भी साबित हुआ कि फ़रिश्तों के इल्म और कमालात में बढ़ौत्री होती है.

(9) अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को सारी सृष्टि का नमूना और रूहानी व जिस्मानी दुनिया का मजमूआ बनाया और फ़रिश्तों के लिये कमाल हासिल करने का साधन किया तो उन्हें हुक्म फ़रमाया कि हज़रत आदम को सज्दा करें क्योंकि इसमें शुक्रगुज़ारी (कृतज्ञता) और हज़रत आदम के बड़प्पन के एतिराफ़ और अपने कथन की माफ़ी की शान पाई जाती है. कुछ विद्वानो ने कहा है कि अल्लाह तआला ने हज़रत आदम को पैदा करने से पहले ही सज्दे का हुक्म दिया था, उसकी सनद (प्रमाण) यह आयत है : “फ़ इज़ा सव्वैतुहू व नफ़ख़्तो फ़ीहे मिर रूही फ़क़ऊ लहू साजिदीन” (सूरए अल-हिजर, आयत 29) यानी फिर जब मैं उसे ठीक बनालूं और उसमें अपनी तरफ़ की ख़ास इज़्ज़त वाली रूह फूंकूं तो तुम उसके लिये सज्दे में गिरना.(बैज़ावी). सज्दे का हुक्म सारे फ़रिश्तों को दिया गया था, यही सब से ज़्यादा सही है. (ख़ाज़िन) सज्दा दो तरह का होता है एक इबादत का सज्दा जो पूजा के इरादे से किया जाता है, दूसरा आदर का सज्दा जिससे किसी की ताज़ीम मंजूर होती है न कि इबादत. इबादत का सज्दा अल्लाह तआला के लिए ख़ास है, किसी और के लिये नहीं हो सकता न किसी शरीअत में कभी जायज़ हुआ. यहाँ जो मुफ़स्सिरीन इबादत का सज्दा मुराद लेते हैं वो फ़रमाते हैं कि सज्दा ख़ास अल्लाह तआला के लिए था और हज़रत आदम क़िबला बनाए गए थे. मगर यह तर्क कमज़ोर है क्योंकि इस सज्दे से हज़रत आदम का बड़प्पन, उनकी बुज़ुर्गी और महानता ज़ाहिर करना मक़सूद थी. जिसे सज्दा किया जाए उस का सज्दा करने वाले से उत्तम होना कोई ज़रूरी नहीं, जैसा कि काबा हूज़ुर सैयदुल अंबिया का क़िबला और मस्जूद इलैह (अर्थात जिसकी तरफ़ सज्दा हो) है, जब कि हुज़ूर उससे अफ़ज़ल (उत्तम) है. दूसरा कथन यह है कि यहां इबादत का सज्दा न था बल्कि आदर का सज्दा था और ख़ास हज़रत आदम के लिये था, ज़मीन पर पेशानी रखकर था न कि सिर्फ़ झुकना. यही कथन सही है, और इसी पर सर्वानुमति है. (मदारिक). आदर का सज्दा पहली शरीअत में जायज़ था, हमारी शरीअत में मना किया गया. अब किसी के लिये जायज़ नहीं क्योंकि जब हज़रत सलमान (अल्लाह उनसे राज़ी हो) ने हूज़ुर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को सज्दा करने का इरादा किया तो हूजु़र ने फ़रमाया मख़लूक़ को न चाहिये कि अल्लाह के सिवा किसी को सज्दा करें. (मदारिक). फ़रिश्तों में सबसे पहले सज्दा करने वाले हज़रत जिब्रील हैं, फिर मीकाईल, फिर इसराफ़ील, फिर इज़्राईल, फिर और क़रीबी फ़रिश्तें. यह सज्दा शुक्रवार के रोज़ ज़वाल के वक़्त से अस्त्र तक किया गया. एक कथन यह भी है कि क़रीबी फ़रिश्तें सौ बरस और एक कथन में पाँच सौ बरस सज्दे में रहे. शैतान ने सज्दा न किया और घमण्ड के तौर पर यह सोचता रहा कि वह हज़रत आदम से उच्चतर है, और उसके लिये सज्दे का हुक्म (मआज़ल्लाह) हिक़मत (समझदारी) के ख़िलाफ़ है. इस झूटे अक़ीदे से वह काफिर हो गया. आयत में साबित है कि हज़रत आदम फ़रिश्तों से ऊपर हैं कि उनसे उन्हें सज्दा कराया गया. घमण्ड बहुत बुरी चीज़ है. इससे कभी घमण्डी की नौबत कुफ़्र तक पहुंचती है. (बैज़ावी और जुमल)

(10) इससे गेहूँ या अंगूर वग़ैरह मुराद हैं. (जलालैन)

(11) ज़ुल्म के मानी हैं किसी चीज़ को बे-महल वज़अ यह मना है. और अंबियाए किराम मासूम हैं, उनसे गुनाह सरज़द नहीं होता. और अंबियाए किराम को ज़ालिम कहना उनकी तौहीन और कुफ़्र है, जो कहे वह काफ़िर हो जाएगा. अल्लाह तआला मालिक व मौला है जो चाहे फ़रमाए, इसमें उनकी इज़्ज़त है, दूसरे की क्या मजाल कि अदब के ख़िलाफ कोई बात ज़बान पर लाए और अल्लाह तआला के कहे को अपने लिये भी मुनासिब जाने. हमें अदब, इज़्ज़त, फ़रमाँबरदारी का हुक्म फ़रमाया, हम पर यही लाज़िम है.

(12) शैतान ने किसी तरह हज़रत आदम और हव्वा के पास पहुंचकर कहा, क्या मैं तुम्हें जन्नत का दरख़्त बता दूँ ? हज़रत आदम ने इन्कार किया. उसने क़सम खाई कि में तुम्हारा भला चाहने वाला हूँ. उन्हें ख़याल हुआ कि अल्लाह पाक की झूठी क़सम कौन खा सकता है. इस ख़याल से हज़रत हव्वा ने उसमें से कुछ खाया फिर हज़रत आदम को दिया, उन्होंने भी खाया. हज़रत आदम को ख़याल हुआ कि “ला तक़रबा” (इस पेड़ के पास न जाना) की मनाही तन्ज़ीही (हल्की ग़ल्ती) है, तहरीमी नहीं क्योंकि अगर वह हराम के अर्थ में समझते तो हरगिज ऐसा न करते कि अंबिया मासूम होते हैं, यहाँ हज़रत आदम से इज्तिहाद (फैसला) में ग़लती हुई और इज्तिहाद की ग़लती गुनाह नहीं होती.

(13) हज़रत आदम और हव्वा और उनकी औलाद को जो उनके सुल्ब (पुश्त) में थी जन्नत से ज़मीन पर जाने का हुक्म हुआ. हज़रत आदम हिन्द की धरती पर सरअन्दीप (मौजूदा श्रीलंका) के पहाड़ों पर और हज़रत हव्वा जिद्दा में उतारे गए (ख़ाज़िन). हज़रत आदम की बरकत से ज़मीन के पेड़ों में पाकीज़ा ख़ुश्बू पैदा हुई. (रूहुल बयान)

(14) इससे उम्र का अन्त यानी मौत मुराद है. और हज़रत आदम के लिए बशारत है कि वह दुनिया में सिर्फ़ उतनी मुद्दत के लिये हैं उसके बाद उन्हे जन्नत की तरफ़ लौटना है और आपकी औलाद के लिये मआद (आख़िरत) पर दलालत है कि दुनिया की ज़िन्दगी निश्चित समय तक है. उम्र पूरी होने के बाद उन्हें आख़िरत की तरफ़ पलटना है.

(15) आदम अलैहिस्सलाम ने ज़मीन पर आने के बाद तीन सौ बरस तक हया (लज्जा) से आसमान की तरफ़ सर न उठाया, अगरचे हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम बहुत रोने वाले थे, आपके आंसू तमाम ज़मीन वालों के आँसूओं से ज़्यादा हैं, मगर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम इतना रोए कि आप के आँसू हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम और तमाम ज़मीन वालों के आंसुओं के जोड़ से बढ़ गए (ख़ाज़िन). तिब्रानी, हाकिम, अबूनईम और बैहक़ी ने हज़रत अली मुर्तज़ा (अल्लाह उनसे राज़ी रहे) से मरफ़ूअन रिवायत की है कि जब हज़रत आदम पर इताब हुआ तो आप तौबह की फ़िक़्र में हैरान थे. इस परेशानी के आलम में याद आया कि पैदाइश के वक़्त मैं ने सर उठाकर देखा था कि अर्श पर लिखा है “ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” मैं समझा था कि अल्लाह की बारगाह में वह रूत्बा किसी को हासिल नहीं जो हज़रत मुहम्मद (अल्लाह के दुरूद हों उन पर और सलाम) को हासिल है कि अल्लाह तआला ने उनका नाम अपने पाक नाम के साथ अर्श पर लिखवाया. इसलिये आपने अपनी दुआ में “रब्बना ज़लमना अन्फुसना व इल्लम तग़फ़िर लना व तरहमना लनकूनन्ना मिनल ख़ासिरीन.” यानी ऐ रब हमारे हमने अपना आप बुरा किया तो अगर तू हमें न बख्शे और हम पर रहम न करे तो हम ज़रूर नुक़सान वालों में हुए. (सूरए अअराफ़, आयत 23) के साथ यह अर्ज़ किया “अस अलुका बिहक्क़े मुहम्मदिन अन तग़फ़िर ली” यानी ऐ अल्लाह मैं मुहम्मद के नाम पर तुझसे माफ़ी चाहता हूँ. इब्ने मुन्ज़र की रिवायत में ये कलिमे हैं “अल्लाहुम्मा इन्नी असअलुका बिजाहे मुहम्मदिन अब्दुका व करामतुहू अलैका व अन तग़फ़िर ली ख़तीअती” यानी यारब मैं तुझ से तेरे ख़ास बन्दे मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की इज़्ज़त और मर्तबे के तुफ़ैल में, और उस बुज़ुर्गी के सदक़े में, जो उन्हें तेरे दरबार में हासिल है, मग़फ़िरत चाहता हूँ”. यह दुआ करनी थी कि हक़ तआला ने उनकी मग़फ़िरत फ़रमाई. इस रिवायत से साबित है कि अल्लाह के प्यारों के वसीले से दुआ उनके नाम पर, उनके वसीले से कहकर मांगना जायज़ है और हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है. अल्लाह तआला पर किसी का हक़ (अधिकार) अनिवार्य नहीं होता लेकिन वह अपने प्यारों को अपने फ़ज़्ल और करम से हक़ देता है. इसी हक़ के वसीले से दुआ की जाती है. सही हदीसों से यह हक़ साबित है जैसे आया “मन आमना बिल्लाहे व रसूलिही व अक़ामस सलाता व सौमा रमदाना काना हक्क़न अलल्लाहे  अैयं यदख़ुलल जन्नता”. हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की तौबह दसवीं मुहर्रम को क़ुबुल हुई. जन्नत से निकाले जाने के वक़्त और नेअमतों के साथ अरबी ज़बान भी आप से सल्ब कर ली गई थी उसकी जगह ज़बाने मुबारक पर सुरियानी जारी कर दी गई थी, तौबह क़ुबुल होने के बाद फिर अरबी ज़बान अता हुई.  (फ़तहुल अज़ीज़) तौबह की अस्ल अल्लाह की तरफ़ पलटना है. इसके तीन भाग हैं- एक ऐतिराफ़ यानी अपना गुनाह तस्लीम करना, दूसरे निदामत यानी गुनाह की शर्म, तीसरे कभी गुनाह न करने का एहद. अगर गुनाह तलाफ़ी (प्रायश्चित) के क़ाबिल हो तो उसकी तलाफ़ी भी लाज़िम है. जैसे नमाज़ छोड़ने वाले की तौबह के लिये पिछली नमाज़ों का अदा करना अनिवार्य है. तौबह के बाद हज़रत जिब्रील ने ज़मीन के तमाम जानवरों में हज़रत अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त का ऐलान किया और सब पर उनकी फ़रमाँबरदारी अनिवार्य होने का हुक्म सुनाया. सबने हुकम मानने का इज़हार किया. ( फ़त्हुल अज़ीज़)

(16) यह ईमान वाले नेक आदमियों के लिये ख़ुशख़बरी है कि न उन्हें बड़े हिसाब के वक़्त ख़ौफ़ हो और न आख़िरत में ग़म. वो बेग़म जन्नत में दाख़िल होंगे.

सूरए बक़रह _ पांचवा रूकू

सूरए बक़रह _ पांचवा रूकू

ऐ याक़ूब की सन्तान (1)
याद करो मेरा वह एहसान जो मैं ने तुम पर किया(2)
और मेरा अहद पूरा करो मैं तुम्हारा अहद पूरा करूंगा(3)
और ख़ास मेरा ही डर रखो(4)
और ईमान लाओ उस पर जो मैं ने उतारा उसकी तस्दीक़ (पुष्टि) करता हुआ जो तुम्हारे साथ है और सबसे पहले उसके मुनकिर यानी इन्कार करने वाले न बनो(5)
और मेरी आयतों के बदले थोड़े दाम न लो(6)
और मुझी से डरो और हक़ (सत्य) से बातिल (झूठ) को न मिलाओ और जान बूझकर हक़ न छुपाओ और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो और रूकू करने वालों (झुकने वालों) के साथ रूकू करो (7)
क्या लोगों को भलाई का हुक्म देते हो और अपनी जानों को भूलते हो हालांकि तुम किताब पढ़ते हो तो क्या तुम्हें अक्ल़ नहीं(8)
और सब्र और नमाज़ से मदद चाहो और बेशक नमाज़ ज़रूर भारी है मगर उनपर (नही) जो दिल से मेरी तरफ़ झुकते हैं (9)
जिन्हें यक़ीन है कि उन्हें अपने रब से मिलना है और उसी की तरफ़ फिरना(10) (46)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – पाँचवा रूकू

(1) इस्त्राईल यानी अब्दुल्लाह, यह इब्रानी ज़बान का शब्द है. यह हज़रत यअक़ूब अलैहिस्सलाम का लक़ब है. (मदारिक). कल्बी मुफ़स्सिर ने कहा अल्लाह तआला ने “या अय्युहन्नासोअ बुदू” (ऐ लोगो इबादत करो) फ़रमाकर पहले सारे इन्सानों को आम दावत दी, फिर “इज़क़ाला रब्बुका” फ़रमाकर उनके मुब्दअ का ज़िक्र किया. इसके बाद ख़ुसूसियत के साथ बनी इस्त्राईल को दावत दी. ये लोग यहूदी हैं और यहाँ से “सयक़ूल” तक उनसे कलाम जारी है. कभी ईमान की याद दिलाकर दावत की जाती है, कभी डर दिलाया जाता है, कभी हुज्जत (तर्क) क़ायम की जाती है, कभी उनकी बदअमली पर फटकारा जाता है. कभी पिछली मुसीबतों का ज़िक्र किया जाता है.

(2) यह एहसान कि तुम्हारे पूर्वजों को फ़िरऔन से छुटकारा दिलाया, दरिया को फाड़ा, अब्र को सायबान किया. इनके अलावा और एहसानात, जो आगे आते हैं, उन सब को याद करो. और याद करना यह है कि अल्लाह तआला की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी करके शुक्र बजा लाओ क्योंकि किसी नेअमत का शुक्र न करना ही उसका  भुलाना है.

(3) यानी तुम ईमान लाकर और फ़रमाँबरदारी करके मेरा एहद पूरा करो, मैं नेक बदला और सवाब देकर तुम्हारा एहद पूरा करूंगा. इस एहद का बयान आयत : “व लक़द अख़ज़ल्लाहो मीसाक़ा बनी इस्त्राईला” यानी और बेशक अल्लाह ने बनी इस्त्राईल से एहद लिया. (सूरए मायदा, आयत 12) में है.

(4) इस आयत में नेअमत का शुक्र करने और एहद पूरा करने के वाजिब होने का बयान है और यह भी कि मूमिन को चाहिये कि अल्लाह के सिवा किसी से न डरे.

(5) यानी क़ुरआने पाक और तौरात और इंजील पर, जो तुम्हारे साथ हैं, ईमान लाओ और किताब वालों में पहले काफ़िर न बनो कि जो तुम्हारे इत्तिबाअ (अनुकरण) में कुफ़्र करे उसका वबाल भी तुम पर हो.

(6) इन आयतों से तौरात व इंजील की वो आयतें मुराद है जिन में हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और बड़ाई है. मक़सद यह है कि हुज़ूर की नअत या तारीफ़ दुनिया की दौलत के लिये मत छुपाओ कि दुनिया का माल छोटी पूंजी और आख़िरत की नेअमत के मुक़ाबले में बे हक़ीक़त है.
यह आयत कअब बिन अशरफ़ और यहूद के दूसरे रईसों और उलमा के बारे में नाज़िल हुई जो अपनी क़ौम के जाहिलों और कमीनों से टके वुसूल कर लेते और उन पर सालाने मुक़र्रर करते थे और उन्होने फलों और नक़्द माल में अपने हक़ ठहरा लिये थे. उन्हें डर हुआ कि तौरात में जो हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नअत और सिफ़त (प्रशंसा) है, अगर उसको ज़ाहिर करें तो क़ौम हुज़ूर पर ईमान ले जाएगी और उन्हें कोई पूछने वाला न होगा. ये तमाम फ़ायदे और मुनाफ़े जाते रहेंगे. इसलिये उन्होंने अपनी किताबों में बदलाव किया और हुजू़र की पहचान और तारीफ़ को बदल डाला. जब उनसे लोग पूछते कि तौरात में हुज़ूर की क्या विशेषताएं दर्ज हैं तो वो छुपा लेते और हरगिज़ न बताते. इस पर यह आयत उतरी. (ख़ाज़िन वग़ैरह)

(7) इस आयत में नमाज़ और ज़कात के फ़र्ज़ होने का बयान है और इस तरफ़ भी इशारा है कि नमाज़ों को उनके हुक़ूक़ (संस्कारों) के हिसाब से अदा करो. जमाअत (सामूहिक नमाज़) की तर्ग़ीब भी है. हदीस शरीफ़ में है जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना अकेले पढ़ने से सत्ताईस दर्जे ज़्यादा फ़ज़ीलत (पुण्य) रखता है.

(8) यहूदी उलमा से उनके मुसलमान रिश्तेदारों ने इस्लाम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा तुम इस दीन पर क़ायम रहो. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का दीन भी सच्चा और कलाम भी सच्चा. इस पर यह आयत उतरी. एक कथन यह है कि आयत उन यहूदियों के बारे में उतरी जिन्होंने अरब मुश्रिको को हुज़ूर के नबी होने की ख़बर दी थी और हुज़ूर का इत्तिबा (अनुकरण) करने की हिदायत की थी. फिर जब हुज़ूर की नबुव्वत ज़ाहिर हो गई तो ये हिदायत करने वाले हसद (ईर्ष्या) से ख़ुद काफ़िर हो गए. इस पर उन्हें फटकारा गया.(ख़ाज़िन व मदारिक)

(9) यानी अपनी ज़रूरतों में सब्र और नमाज़ से मदद चाहों. सुबहान अल्लाह, क्या पाकीज़ा तालीम है. सब्र मुसीबतों का अख़लाक़ी मुक़ाबला है. इन्सान इन्साफ़ और सत्यमार्ग के संकल्प पर इसके बिना क़ायम नहीं रह सकता. सब्र की तीन क़िस्में हैं- (1) तकलीफ़ और मुसीबत पर नफ़्स को रोकना, (2) ताअत (फरमाँबरदारी) और इबादत की मशक़्क़तों में मुस्तक़िल (अडिग) रहना, (3) गुनाहों की तरफ़ खिंचने से तबीअत को रोकना. कुछ मुफ़स्सिरों ने यहां सब्र से रोज़ा मुराद लिया है. वह भी सब्र का एक अन्दाज़ है. इस आयत में मुसीबत के वक़्त नमाज़ के साथ मदद की तालीम भी फ़रमाई क्योंकि वह बदन और नफ़्स की इबादत का संगम है और उसमें अल्लाह की नज़्दीकी हासिल होती है. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अहम कामों के पेश आने पर नमाज़ में मश़्गूल हो जाते थे. इस आयत में यह भी बताया गया कि सच्चे ईमान वालों के सिवा औरों पर नमाज़ भारी पड़ती है.

(10) इसमें ख़ुशख़बरी है कि आख़िरत में मूमिनों को अल्लाह के दीदार की नेअमत मिलेगी.

सूरए बक़रह _ छटा रूकू

सूरए बक़रह _ छटा रूकू
ऐ याक़ूब की सन्तान, याद करो मेरा वह अहसान जो मैं ने तुमपर किया और यह कि इस सारे ज़माने पर तुम्हें बड़ाई दी (1)
और डरो उस दिन से जिस दिन कोई जान दूसरे का बदला न हो सकेगी(2)
और न क़ाफिर के लिये कोई सिफ़ारिश मानी जाए और न कुछ लेकर उसकी जान छोड़ी जाए और न उनकी मदद हो(3)
और (याद करो)जब हमने तुमको फ़िरऔन वालों से नजात बख्श़ी (छुटकारा दिलाया)(4)
कि तुमपर बुरा अजा़ब करते थे(5)
तुम्हारे बेटों को ज़िब्ह करते और तुम्हारी बेटियों को ज़िन्दा रखते(6)
और उसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से बड़ी बला थी या बड़ा इनाम(7)
और जब हमने तुम्हारे लिये दरिया फ़ाड़ दिया तो तुम्हें बचा लिया. और फ़िरऔन वालों को तुम्हारी आंखों के सामने डुबो दिया(8)
और जब हमने मूसा से चालीस रात का वादा फ़रमाया फिर उसके पीछे तुमने बछड़े की पूजा शुरू कर दी और तुम ज़ालिम थे (9)
फिर उसके बाद हमने तुम्हें माफ़ी दी(10)
कि कहीं तुम अहसान मानो (11)
और जब हमने मूसा को किताब दी और सत्य और असत्य में पहचान कर देना कि कहीं तुम राह पर आओ और जब मूसा ने अपनी कौ़म से कहा ऐ मेरी कौ़म तुमने बछड़ा बनाकर अपनी जानों पर ज़ुल्म किया तो अपने पैदा करने वाले की तरफ़ लौट आओ तो आपस में एक दूसरे को क़त्ल करो(12)
यह तुम्हारे पैदा करने वाले के नज्द़ीक तुम्हारे लिये बेहतर है तो उसने तुम्हारी तौबह क़ुबूल की, बेशक वही है बहुत तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान(13)
और जब तुमने कहा ऐ मूसा हम हरगिज़ (कदाचित) तुम्हारा यक़ीन न लाएंगे जब तक खुले बन्दों ख़ुदा को न देख लें तो तुम्हें कड़क ने आ लिया और तुम देख रहे थे फिर मेरे पीछे हमने तुम्हें ज़िन्दा किया कि कहीं तुम एहसान मानो और हमने बादल को तुम्हारा सायबान किया(14)
और तुमपर मत्र और सलवा उतारा, खाओ हमारी दी हुई सुथरी चीज़ें(15)
ओर उन्होंने कुछ हमारा न बिगाड़ा, हां अपनी ही जानों का बिगाड़ करते थे और जब हमने फ़रमाया उस बस्ती में जाओ (16)
फिर उसमें जहां चाहो, बे रोक टोक खाओ और दरवाज़ें में सजदा करते दाख़िल हो(17)
और कहो हमारे गुनाह माफ़ हों हम तुम्हारी ख़ताएं बख्श़ देंगे और क़रीब है कि नेकी वालों को और ज्य़ादा दें(18)
तो ज़ालिमों ने और बात बदल दी जो फ़रमाई गई थी उसके सिवा(19)
तो हमने आसमान से उनपर अज़ाब उतारा(20)
बदला उनकी बे हुकमी का (59)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – छटा रूकू

(1) अलआलमीन (सारे ज़माने पर) उसके वास्तविक या हक़ीक़ी मानी में नहीं. इससे मुराद यह है कि मैं ने तुम्हारे पूर्वजों को उनके ज़माने वालों पर बुज़ुर्गी दी. यह बुज़ुर्गी किसी विशेष क्षेत्र में हो सकती है, जो और किसी उम्मत की बुज़ुर्गी को कम नहीं कर सकती. इसलिये उम्मते मुहम्मदिया के बारे में इरशाद हुआ “कुन्तुम खै़रा उम्मतिन” यानी तुम बेहतर हो उन सब उम्मतों में जो लोगों में ज़ाहिर हुई (सूरए आले इमरान, आयत 110). (रूहुल बयान, जुमल वग़ैरह)

(2) वह क़यामत का दिन है. आयत में नफ़्स दो बार आया है, पहले से मूमिन का नफ़्स, दूसरे से काफ़िर मुराद है. (मदारिक)

(3) यहाँ से रूकू के आख़िर तक दस नेअमतों का बयान है जो इन बनी इस्त्राईल के बाप दादा को मिलीं.

(4) क़िब्त और अमालीक़ की क़ौम से जो मिस्त्र का बादशाह हुआ. उस को फ़िरऔन कहते है. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के ज़माने के फ़िरऔन का नाम वलीद बिन मुसअब बिन रैयान है. यहां उसी का ज़िक्र है. उसकी उम्र चार सौ बरस से ज़्यादा हुई. आले फ़िरऔन से उसके मानने वाले मुराद है. (जुमल वग़ैरह)

(5) अज़ाब सब बुरे होते हैं “सूअल अज़ाब” वह कहलाएगा जो और अज़ाबों से ज़्यादा सख़्त हो. इसलिये आला हज़रत ने “बुरा अज़ाब” अनुवाद किया. फ़िरऔन ने बनी इस्त्राईल पर बड़ी बेदर्दी से मेहनत व मशक़्क़त के दुश्वार काम लाज़िम किये थे. पत्थरों की चट्टानें काटकर ढोते ढोते उनकी कमरें गर्दनें ज़ख़्मी हो गई थीं. ग़रीबों पर टैक्स मुक़र्रर किये थे जो सूरज डूबने से पहले ज़बरदस्ती वुसूल किये जाते थे. जो नादार किसी दिन टैकस अदा न कर सका, उसके हाथ गर्दन के साथ मिलाकर बांध दिये जाते थे, और महीना भर तक इसी मुसीबत में रखा जाता था, और तरह तरह की सख़्तियां निर्दयता के साथ की जाती थीं. ( ख़ाज़िन वग़ैरह)

(6) फ़िरऔन ने ख़्वाब देखा कि बैतुल मक़दिस की तरफ़ से आग आई उसने मिस्त्र को घेर कर तमाम क़िब्तियों को जला डाला, बनी इस्त्राईल को कुछ हानि न पहुंचाई. इससे उसको बहुत घबराहट हुई. काहिनों (तांत्रिकों) ने ख़्वाब की तअबीर (व्याख्या) में बताया कि बनी इस्त्राईल में एक लड़का पैदा होगा जो तेरी मौत और तेरी सल्तनत के पतन का कारण होगा. यह सुनकर फ़िरऔन ने हुक्म दिया कि बनी इस्त्राईल में जो लड़का पैदा हो. क़त्ल कर दिया जाए. दाइयां छान बीन के लिये मुक़र्रर हुई. बारह हजा़र और दूसरे कथन के अनुसार सत्तर हज़ार लड़के क़त्ल कर डाले गए और नव्वे हज़ार हमल (गर्भ) गिरा दिये गये. अल्लाह की मर्ज़ी से इस क़ौम के बूढ़े जल्द मरने लगे. क़िब्ती क़ौम के सरदारों ने घबराकर फ़िरऔन से शिकायत की कि बनी इस्त्राईल में मौत की गर्मबाज़ारी है इस पर उनके बच्चे भी क़त्ल किये जाते हैं, तो हमें सेवा करने वाले कहां से मिलेंगे. फ़िरऔन ने हुक्म दिया कि एक साल बच्चे क़त्ल किये जाएं और एक साल छोड़े जाएं. तो जो साल छोडने का था उसमें हज़रत हारून पैदा हुए, और क़त्ल के साल हज़रत मूसा की पैदाइशा हुई.

(7) बला इम्तिहान और आज़माइशा को कहते हैं. आज़माइश नेअमत से भी होती है और शिद्दत व मेहनत से भी. नेअमत से बन्दे की शुक्रगुज़ारी, और मेहनत से उसके सब्र (संयम और धैर्य) का हाल ज़ाहिर होता है. अगर “ज़ालिकुम.”(और इसमें) का इशारा फ़िरऔन के मज़ालिम (अत्याचारों) की तरफ़ हो तो बला से मेहनत और मुसीबत मुराद होगी, और अगर इन अत्याचारों से नजात देने की तरफ़ हो, तो नेअमत.

(8) यह दूसरी नेअमत का बयान है जो बनी इस्त्राईल पर फ़रमाई कि उन्हें फ़िरऔन वालों के ज़ुल्म और सितम से नजात दी और फ़िरऔन को उसकी क़ौम समेत उनके सामने डुबो दिया. यहां आले फ़िरऔन (फ़िरऔन वालों) से फ़िरऔन और उसकी क़ौम दोनों मुराद हैं. जैसे कि “कर्रमना बनी आदमा” यानी और बेशक हमने औलादे आदम को इज़्ज़त दी (सूरए इसरा, आयत 70) में हज़रत आदम और उनकी औलाद दोनों शामिल हैं. (जुमल). संक्षिप्त वाक़िआ यह है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अल्लाह के हुक्म से रात में बनी इस्त्राईल को मिस्त्र से लेकर रवाना हुए, सुब्ह को फ़िरऔन उनकी खोज में भारी लश्कर लेकर चला और उन्हें दरिया के किनारे जा लिया. बनी इस्त्राईल ने फ़िरऔन का लश्कर देख़कर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रियाद की. आपने अल्लाह के हुक्म से दरिया में अपनी लाठी मारी, उसकी बरकत से दरिया में बारह ख़ुश्क रास्ते पैदा हो गए. पानी दीवारों की तरह खड़ा हो गया. उन दीवारों में जाली की तरह रौशनदान बन गए. बनी इस्त्राईल की हर जमाअत इन रास्तों में एक दूसरे को देखती और आपस में बात करती गुज़र गई. फ़िरऔन दरियाई रास्ते देखकर उनमें चल पड़ा. जब उसका सारा लश्कर दरिया के अन्दर आ गया तो दरिया जैसा था वैसा हो गया और तमाम फ़िरऔनी उसमें डूब गए. दरिया की चौड़ाई चार फरसंग थी. ये घटना बेहरे कुलज़म की है जो बेहरे फ़ारस के किनारे पर है, या बेहरे मा-वराए मिस्त्र की, जिसको असाफ़ कहते है. बनी इस्त्राईल दरिया के उस पार फ़िरऔनी लश्कर के डूबने का दृश्य देख रहे थे. यह वाक़िआ दसवीं मुहर्रम को हुआ. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उस दिन शुक्र का रोज़ा रखा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने तक भी यहूदी इस दिन का रोज़ा रखते थे. हुज़ूर ने भी इस दिन का रोज़ा रखा और फ़रमाया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की विजय की ख़ुशी मनाने और उसकी शुक्र गुज़ारी करने के हम यहूदियों से ज़्यादा हक़दार हैं. इस से मालूम हुआ कि दसवीं मुहर्रम यानी आशुरा का रोज़ा सुन्नत है. यह भी मालूम हुआ कि नबियों पर जो इनाम अल्लाह का हुआ उसकी यादगार क़ायम करना और शुक्र अदा करना अच्छी बात है. यह भी मालूम हुआ कि ऐसे कामों में दिन का निशिचत किया जाना रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नत है. यह भी मालूम हुआ कि नबियों की यादगार अगर काफ़िर लोग भी क़ायम करते हों जब भी उसको छोड़ा न जाएगा.

(9) फ़िरऔन और उसकी क़ौम के हलाक हो जाने के बाद जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम बनी इस्त्राईल को लेकर मिस्त्र की तरफ़ लौटे और उनकी प्रार्थना पर अल्लाह तआला ने तौरात अता करने का वादा फ़रमाया और इसके लिये मीक़ात निशिचत किया जिसकी मुद्दत बढ़ौतरी समेत एक माह दस दिन थी यानी एक माह ज़िलक़ाद और दस दिन ज़िलहज के. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम क़ौम में अपने भाई हज़रत हारून अलैहिस्सलाम को अपना ख़लीफ़ा व जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाकर, तौरात हासिल करने तूर पहाड़ पर तशरीफ़ ले गए, चालीस रात वहां ठहरे. इस अर्से में किसी से बात न की. अल्लाह तआला ने ज़बरजद की तख़्तियों में, आप पर तौरात उतारी. यहां सामरी ने सोने का जवाहरात जड़ा बछड़ा बनाकर क़ौम से कहा कि यह तुम्हारा माबूद है. वो लोग एक माह हज़रत का इन्तिज़ार करके सामरी के बहकाने पर बछड़ा पूजने लगे, सिवाए हज़रत हारून अलैहिस्सलाम और आपके बारह हज़ार साथियों के तमाम बनी इस्त्राईल ने बछड़े को पूजा. (ख़ाज़िन)

(10) माफ़ी की कैफ़ियत (विवरण) यह है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि तौबह की सूरत यह है कि जिन्होंने बछड़े की पूजा नहीं की है, वो पूजा करने वालों को क़त्ल करें और मुजरिम राज़ी ख़ुशी क़त्ल हो जाएं. वो इस पर राज़ी हो गए. सुबह से शाम तक सत्तर हज़ार क़त्ल हो गए तब हज़रत मूसा और हज़रत हारून ने गिड़गिड़ा कर अल्लाह से अर्ज़ की. वही (देववाणी) आई कि जो क़त्ल हो चुके वो शहीद हुए, बाक़ी माफ़ फ़रमाए गए. उनमें के क़ातिल और क़त्ल होने वाले सब जन्नत के हक़दार हैं. शिर्क से मुसलमान मुर्तद (अधर्मी) हो जाता है, मुर्तद की सज़ा क़त्ल है क्योंकि अल्लाह तआला से बग़ावत क़त्ल और रक्तपात से भी सख़्ततर जुर्म है. बछड़ा बनाकर पूजने में बनी इस्त्राईल के कई जुर्म थे. एक मूर्ति बनाना जो हराम है, दूसरे हज़रत हारून यानी एक नबी की नाफ़रमानी, तीसरे बछड़ा पूजकर मुश्रिक (मूर्ति पूजक) हो जाना. यह ज़ुल्म फ़िरऔन वालों के ज़ुल्मों से भी ज़्यादा बुरा है. क्योंकि ये काम उनसे ईमान के बाद सरज़द हुए, इसलिये हक़दार तो इसके थे कि अल्लाह का अज़ाब उन्हें मुहलत न दे, और फ़ौरन हलाकत से कुफ़्र पर उनका अन्त हो जाए लेकिन हज़रत मूसा और हज़रत हारून की बदौलत उन्हें तौबह का मौक़ा दिया गया. यह अल्लाह तआला की बड़ी कृपा है.

(11) इसमें इशारा है कि बनी इस्त्राईल की सलाहियत फ़िरऔन वालों की तरह बातिल नहीं हुई थी और उनकी नस्ल से अच्छे नेक लोग पैदा होने वाले थे. यही हुआ भी, बनी इस्त्राईल में हज़ारों नबी और नेक गुणवान लोग पैदा हुए.

(12) यह क़त्ल उनके कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के लिये था.

(13) जब बनी इस्त्राईल ने तौबह की और प्रायश्चित में अपनी जानें दे दीं तो अल्लाह तआला ने हुक्म फ़रमाया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम उन्हें बछड़े की पूजा की माफ़ी मांगने के लिये हाज़िर लाएं. हज़रत उनमें से सत्तर आदमी चुनकर तूर पहाड पर ले गए. वो कहने लगे- ऐ मूसा, हम आपका यक़ीन न करेंगे जब तक ख़ुदा को रूबरू न देख लें. इस पर आसमान से एक भयानक आवाज़ आई जिसकी हैबत से वो मर गए. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने गिड़गिड़ाकर अर्ज की कि ऐ मेरे रब, मै बनी इस्त्राईल को क्या जवाब दूंगा. इस पर अल्लाह तआला ने उन्हें एक के बाद एक ज़िन्दा फ़रमाया. इससे नबियों की शान मालूम होती है कि हज़रत मूसा से “लन नूमिना लका” (ऐ मूसा हम हरग़िज तुम्हारा यक़ीन न लाएंगे) कहने की सज़ा में बनी इस्त्राईल हलाक किये गए. हुज़ूर सैयदे आलाम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के एहद वालों को आगाह किया जाता है कि नबियों का निरादर करना अल्लाह के प्रकोप का कारण बनता है, इससे डरते रहें. यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह तआला अपने प्यारों की दुआ से मुर्दे ज़िन्दा फ़रमा देता है.

(14) जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम फ़ारिग़ होकर बनी इस्त्राईल के लश्कर में पहुंचे और आपने उन्हें अल्लाह का हुक्म सुनाया कि मुल्के शाम हज़रत इब्राहीम और उनकी औलाद का मदफ़न (अन्तिम आश्रय स्थल) है, उसी में बैतुल मक़दिस है. उसको अमालिक़ा से आज़ाद कराने के लिए जिहाद करो और मिस्त्र छोड़कर वहीं अपना वतन बनाओं मिस्त्र का छोड़ना बनी इस्त्राईल पर बड़ा भारी था. पहले तो वो काफ़ी आगे पीछे हुए और जब अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म से मजबूर होकर हज़रत हारून और हज़रत मूसा के साथ रवाना हुए तो रास्ते में जो कठिनाई पेश आती, हज़रत मूसा से शिकायत करते. जब उस सहरा (मरूस्थल) में पहुंचे जहां हरियाली थी न छाया, न ग़ल्ला साथ था. वहां धूप की तेज़ी और भूख की शिकायत की. अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा की दुआ से सफ़ेद बादल को उनके सरों पर छा दिया जो दिन भर उनके साथ चलता. रात को उनके लिए प्रकाश का एक सुतून (स्तम्भ) उतरता जिसकी रौशनी में काम करते. उनके कपड़े मैले और पुराने न होते, नाख़ुन और बाल न बढ़ते, उस सफ़र में जो बच्चा पैदा होता उसका लिबास उसके साथ पैदा होता, जितना वह बढ़ता, लिबास भी बढ़ता.

(15) मन्न, तरंजबीन (दलिया) की तरह एक मीठी चीज़ थी, रोज़ाना सुब्ह पौ फटे सूरज निकलने तक हर आदमी के लिये एक साअ के बराबर आसमान से उतरती. लोग उसको चादरों में लेकर दिन भर खाते रहते. सलवा एक छोटी चिड़िया होती है. उसको हवा लाती. ये शिकार करके खाते. दोनों चीज़ें शनिवार को बिल्कुल न आतीं, बाक़ी हर रोज़ पहुंचतीं. शुक्रवार को और दिनों से दुगुनी आतीं. हुक्म यह था कि शुक्रवार को शनिवार के लिये भी ज़रूरत के अनुसार जमा कर लो मगर एक दिन से ज़्यादा का न जमा करो. बनी इस्त्राईल ने इन नेअमतों की नाशुक्री की. भंडार जमा किये, वो सड़ गए और आसमान से उनका उतरना बंद हो गया. यह उन्होंने अपना ही नुक़सान किया कि दुनिया में नेअमत से मेहरूम और आख़िरत में अज़ाब के हक़दार हुए.

(16) “उस बस्ती” से बैतुल मक़दिस मुराद है या अरीहा जो बैतुल मक़दिस से क़रीब है, जिसमें अमालिक़ा आबाद थे और उसको ख़ाली कर गए. वहां ग़ल्ले मेवे की बहुतात थी.

(17) यह दर्वाज़ा उनके लिये काबे के दर्जे का था कि इसमें दाख़िल होना और इसकी तरफ़ सज्दा करना गुनाहों के प्रायश्चित का कारण क़रार दिया गया.

(18) इस आयत से मालूम हुआ कि ज़बान से माफ़ी मांगना और बदन की इबादत सज्दा वग़ैरह तौबह का पूरक है. यह भी मालूम हुआ कि मशहूर गुनाह की तौबह ऐलान के साथ होनी चाहिये. यह भी मालूम हुआ कि पवित्र स्थल जो अल्लाह की रहमत वाले हों, वहाँ तौबह करना और हुक्म बजा लाना नेक फलों और तौबह जल्द क़ुबूल होने का कारण बनता है. (फ़त्हुल अज़ीज़). इसी लिये बुज़ुर्गों का तरीका़ रहा है कि नबियों और वलियों की पैदाइश की जगहों और मज़ारात पर हाज़िर होकर तौबह और अल्लाह की बारगाह में सर झुकाते हैं. उर्स और दर्गाहों पर हाज़िरी में भी यही फ़ायदा समझा जाता है.

(19) बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि बनी इस्त्राईल को हुक्म हुआ था कि दर्वाज़े में सज्दा करते हुए दाख़िल हों और ज़बान से “हित्ततुन” यानी तौबह और माफ़ी का शब्द कहते जाएं. उन्होंने इन दोनों आदेशों के विरूद्ध  किया. दाख़िल तो हुए पर चूतड़ों के बल घिसरते और तौबह के शब्द की जगह मज़ाक के अंदाज़ में “हब्बतुन फ़ी शअरतिन” कहा जिसके मानी हैं बाल में दाना.

(20) यह अज़ाब ताऊन (प्लेग) था जिससे एक घण्टे में चौबीस हज़ार हलाक हो गए. यही हदीस की किताबों में है कि ताऊन पिछली उम्मतों के अज़ाब का शेष हिस्सा हैं. जब तुम्हारे शहर में फैले, वहां से न भागो. दूसरे शहर में हो तो ताऊन वाले शहर में न जाओ. सही हदीस में है कि जो लोग वबा के फैलने के वक़्त अल्लाह की मर्ज़ी पर सर झुकाए सब्र करें तो अगर वो वबा (महामारी) से बच जाएं तो भी उन्हें शहादत का सवाब मिलेगा.

सूरए बक़रह _ सातवां रूकू

सूरए बक़रह _ सातवां रूकू

और जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिये पानी मांगा तो हमने फ़रमाया इस पत्थर पर अपनी लाठी मारो फ़ौरन उस में से बारह चश्में बह निकले(1)
हर समूह ने अपना घाट पहचान लिया, खाओ और पियो ख़ुदा का दिया(2)
और ज़मीन में फ़साद उठाते न फिरो(3)
और जब तुमने कहा ऐ मूसा (4)
हम से तो एक खाने पर(5)
कभी सब्र न होगा तो आप अपने रब से दुआ कीजिये कि ज़मीन की उगाई हुई चीज़ें हमारे लिये निकाले कुछ साग और ककड़ी और गेंहूं और मसूर और प्याज़.

फ़रमाया क्या मामूली चीज़ को बेहतर के बदले मांगते हो(6)
अच्छा मिस्त्र(7)
या किसी शहर में उतरो वहां तुम्हें मिलेगा जो तुमने मांगा(8)
और उनपर मुक़र्रर कर दी गई ख्व़ारी (ज़िल्लत) और नादारी (9)
(या दरिद्रता)  और ख़ुदा के ग़ज़ब में लौटे(10)
ये बदला था उसका कि वो अल्लाह की आयतों का इन्कार करते और नबियों को नाहक़ शहीद करते (11)
ये बदला उनकी नाफ़रमानियों और हद से बढ़ने का (61)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – सातवां रूकू

(1) जब बनी इस्त्राईल ने सफ़र में पानी न पाया तो प्यास की तेज़ी की शिकायत की. हज़रत मूसा को हुक्म हुआ कि अपनी लाठी पत्थर पर मारें.  आपके पास एक चौकोर पत्थर था. जब पानी की ज़रूरत होती, आप उस पर अपनी लाठी मारते, उससे बारह चश्मे जारी हो जाते, और सब प्यास बुझाते, यह बड़ा मोजिज़ा (चमत्कार) है. लेकिन नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मुबारक उंगलियों से चश्मे जारी फ़रमाकर एक बड़ी  जमाअत की प्यास और दूसरी ज़रूरतों को पूरा फ़रमाना इससे बहुत बड़ा और उत्तम चमत्कार है. क्योंकि मनुष्य के शरीर के किसी अंग से पानी की धार फूट निकलना पत्थर के मुक़ाबले में ज़्यादा आश्चर्य की बात है. (ख़ाज़िन व मदारिक)

(2) यानी आसमानी खाना मन्न व सलवा खाओ और पत्थर के चश्मों का पानी पियो जो तुम्हें अल्लाह की कृपा से बिना परिश्रम उपलब्ध है.

(3) नेअमतों के ज़िक्र के बाद बनी इस्त्राईल की अयोग्यता, कम हिम्मती और नाफ़रमानी की कुछ घटनाएं बयान की जाती हैं.

(4) बनी इस्त्राईल की यह अदा भी बहुत बेअदबी की थी कि बड़े दर्जे वाले एक नबी को नाम लेकर पुकारा. या नबी, या रसूलल्लाह या और आदर का शब्द न कहा. (फ़त्हुल अज़ीज़). जब नबियों का ख़ाली नाम लेना बेअदबी है तो उनको मामूली आदमी और एलची कहना किस तरह गुस्ताख़ी न होगा.
नबियों के ज़िक्र में ज़रा सी भी बेअदबी नाजायज़ है.

(5) “एक खाने” से एक क़िस्म का खाना मुराद है.

(6) जब वो इस पर भी न माने तो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह की बारगाह में दुआ की, हुक्म हुआ “इहबितू” (उतरो).

(7) मिस्त्र अरबी में शहर को भी कहते हैं, कोई शहर हो और ख़ास शहर यानी मिस्त्र मूसा अलैहिस्सलाम का नाम भी है. यहां दोनों में से एक मुराद हो सकता है. कुछ का ख़याल है कि यहां ख़ास शहर मुराद नहीं हो सकता. मगर यह ख़याल सही नही है.

(8) यानी साग, ककड़ी वग़ैरह, हालांकि इन चीज़ों की तलब गुनाह न थी लेकिन मन्न व सलवा जैसी बेमेहनत की नेअमत छोड़कर उनकी तरफ़ खिंचना तुच्छ विचार है. हमेशा उन लोगों की तबीयत तुच्छ चीज़ों और बातों की तरफ़ खिंची रही और हज़रत हारून और हज़रत मूसा वग़ैरह बुजुर्गी वाले बलन्द हिम्मत नबियों के बाद बनी इस्त्राईल की बदनसीबी और कमहिम्मती पूरी तरह ज़ाहिर हुई और जालूत के तसल्लुत (अधिपत्य) और बख़्ते नस्सर की घटना के बाद तो वो बहुत ही ज़लील व ख़्वार हो गए. इसका बयान “दुरेबत अलैहिमुज़ ज़िल्लतु” (और उन पर मुकर्रर कर दी गई ख़्वारी और नादारी) (सूरए आले ईमरान, आयत : 112) में है.

(9) यहूद की ज़िल्लत तो यह कि दुनिया में कहीं नाम को उनकी सल्तनत नहीं और नादारी यह कि माल मौजूद होते हुए भी लालच की वजह से मोहताज ही रहते हैं.

(10) नबियों और नेक लोगों की बदौलत जो रूत्बे उन्हें हासिल हुए थे उनसे मेहरूम हो गए. इस प्रकोप का कारण सिर्फ़ यही नहीं कि उन्होंने आसमानी ग़िज़ाओं के बदले ज़मीनी पैदावार की इच्छा की या उसी तरह और ख़ताएं हो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के ज़माने में उनसे हुई, बल्कि नबुव्वत के एहद से दूर होने और लम्बा समय गुज़रने से उनकी क्षमताएं बातिल हुई और निहायत बुरे कर्म और बड़े पाप उनसे हुए. ये उनकी ज़िल्लत और ख़्वारी के कारण बने.

(11) जैसा कि उन्होने हज़रत ज़करिया और हज़रत यहया को शहीद किया और ये क़त्ल ऐसे नाहक़ थे जिनकी वजह ख़ुद ये क़ातिल भी नहीं बता सकते.

सूरए बक़रह _ आठवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ आठवाँ रूकू

बेशक ईमान वाले और  यहूदियों और ईसाइयों और सितारों के पुजारियों में से वो कि सच्चे दिल से अल्लाह और पिछले दीन पर ईमान लाएं और नेक काम करें उन का सवाब पुण्य उनके रब के पास हैं और न उन्हें कुछ अन्देशा (आशंकाद) हो और न कुछ ग़म (1)
और जब हमने तुमसे एहद लिया (2)
और तुम पर तूर (पहाड़) को ऊंचा किया (3)
और जो कुछ हम तुमको देते हैं ज़ोर से(4)
और उसके मज़मून याद करो इस उम्मीद पर कि तुम्हें परहेज़गारी मिले फिर उसके बाद तुम फिर गए तो अगर अल्लाह की कृपा और उसकी रहमत तुम पर न होती तो तुम टोटे वालों में हो जाते (5)
और बेशक ज़रूर तुम्हें मालूम है तुम में के वो जिन्होंने हफ्ते (शनिवार) में सरकशी की (6)
तो हमने उनसे फ़रमाया कि हो जाओ बन्दर धुत्कारे हुए तो हमने (उस बस्ती का) ये वाक़िया (घटना) उसके आगे और पीछे वालों के लिये इबरत कर दिया और परहेज़गारों के लिये नसीहत और जब मूसा ने अपनी कौम से फ़रमाया खुदा तुम्हें हुक्म देता है कि एक गाय ज़िब्ह करो(7)
बोले की आप हमें मसख़रा बनाते हैं (8)
फ़रमाया ख़ुदा की पनाह कि मैं जाहिलों से हूं(9)
बोले अपने रब से दुआ कीजिये कि वह हमें बता दे गाय कैसी? कहा, वह फ़रमाता है कि वह एक गाय है न बूढ़ी और न ऊसर, बल्कि उन दोनों के बीच में, तो करो जिसका तुम्हें हुक्म होता है बोले अपने रब से दुआ कीजिये हमें बता दे उसका रंग क्या है? कहा वह फ़रमाता है वह एक पीली गाय है जिसकी रंगत डहडहाती, देखने वालों को ख़ुशी देती बोले अपने रब से दुआ कीजिये कि हमारे लिये साफ़ बयान करदे वह गाय कैसी है? बेशक गायों में हमको शुबह पड़ गया और अल्लाह चाहे तो हम राह पा जाएंगे(10)
कहा वह फ़रमाता है कि वह एक गाय है जिससे ख़िदमत नहीं ली जाती कि ज़मीन जोते और न खेती को पानी दे. बे ऐब है, जिसमें कोई दाग़ नहीं. बोले अब आप ठीक बात लाए (11)
तो उसे ज़िब्ह किया और ज़िब्ह करते मालूम न होते थे (12)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – आठवाँ रूकू

(1) इब्ने जरीर और इब्ने अबी हातिम ने सदी से रिवायत की कि यह आयत हज़रत सलमान फ़ारसी (अल्लाह उनसे राज़ी हो) के साथियों के बारे में उतरी.

(2) कि तुम तौरात मानोगे और उस पर अमल करोगे. फिर तुमने उसे निर्देशों को बोझ जानकर क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया. जबकि तुमने ख़ुद अपनी तरफ़ से हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से ऐसी आसमानी किताब की प्रार्थना की थी जिसमें शरीअत के क़ानून और इबादत के तरीक़े विस्तार से दर्ज हों. और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने तुमसे बार बार इसके क़ुबूल करने और इस पर अमल करने का एहद लिया था. जब वह किताब दी गई तो तुमने उसे क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया और एहद पूरा न किया.

(3) बनी इस्त्राईल के एहद तोड़ने के बाद हज़रत जिब्रील ने अल्लाह के हुक्म से तूर पहाड़ को उठाकर उनके सरों पर लटका दिया और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया तुम एहद क़ुबूल करो वरना ये पहाड़ तुमपर गिरा दिया जाएगा, और तुम कुचल डाले जाओगे. वास्तव  में पहाड़ का सर पर लटका दिया जाना अल्लाह की निशानी और उसकी क़ुदरत का खुला प्रमाण है. इससे दिलों को इत्मीनान हासिल होता है कि बेशक यह रसूल अल्लाह की क़ुव्वत और क़ुदरत के ज़ाहिर करने वाले हैं. यह इत्मीनान उनको मानने और एहद पूरा करने का अस्ल कारण है.

(4) यानी पूरी कोशिश के साथ.

(5) यहाँ फ़ज़्ल व रहमत से या तौबह की तौफ़ीक़ मुराद है या अज़ाब में विलम्ब (देरी.) एक कथन यह भी है कि अल्लाह की कृपा और रहमत से हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पाक ज़ात मुराद हैं. मानी ये है कि अगर तुम्हें नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के वुजूद (अस्तित्व) की दौलत न मिलती और आपका मार्गदर्शन नसीब न होता तो तुम्हारा अंजाम नष्ट होना और घाटा होता.

(6) इला शहर में बनी इस्त्राईल आबाद थे उन्हें हुक्म था कि शनिवार का दिन इबादत के लिये ख़ास कर दें, उस रोज़ शिकार न करें, और सांसारिक कारोबार बन्द रखें. उनके एक समूह ने यह चाल की कि शुक्रवार को दरिया के किनारे बहुत से गढ़े खोदते और सनीचर की सुबह को दरिया से इन गढ़ो तक नालियां बनाते जिनके ज़रिये पानी के साथ मछलियां आकर गढ़ों में कै़द हो जातीं. इतवार को उन्हें निकालते और कहते कि हम मछली को पानी से सनीचर के दिन नहीं निकालतें. चालीस या सत्तर साल तक यह करते रहे. जब हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की नबुव्वत का एहद आया तो आपने उन्हें मना किया और फ़रमाया कि क़ैद करना ही शिकार है, जो सनीचर को करते हो, इससे हाथ रोको वरना अज़ाब में गिरफ़्तार किये जाओगे.  वह बाज़ न आए. आपने दुआ फ़रमाई. अल्लाह तआला ने उन्हें बन्दरों की शक्ल में कर दिया, उनकी अक्ल और दूसरी इन्द्रियाँ (हवास) तो बाक़ी रहे, केवल बोलने की क़ुव्वत छीन ली गई. शरीर से बदबू निकलने लगी. अपने इस हाल पर रोते रोते तीन दिन में सब हलाक हो गए. उनकी नस्ल बाक़ी न रही. ये सत्तर हज़ार के क़रीब थे. बनी इस्त्राईल का दूसरा समूह जो बारह हज़ार के क़रीब था, उन्हें ऐसा करने से मना करता रहा. जब ये न माने तो उन्होंने अपने और उनके मुहल्लों के बीच एक दीवार बनाकर अलाहिदगी कर ली. इन सबने निजात पाई. बनी इस्त्राईल का तीसरा समूह ख़ामोश रहा, उसके बारे में हज़रत इब्ने अब्बास के सामने अकरमह ने कहा कि वो माफ़ कर दिये गए क्योंकि अच्छे काम का हुक्म देना फ़र्जे किफ़ाया है, कुछ ने कर लिया तो जैसे कुल ने कर लिया. उनकी ख़ामोशी की वजह यह थी कि ये उनके नसीहत मानने की तरफ़ से निराश थे. अकरमह की यह तक़रीर हज़रत इब्ने अब्बास को बहुत पसन्द आई और आप ख़ुशी से उठकर उनसे गले मिले और उनका माथा चूमा.  (फ़त्हुल अज़ीज़). इससे मालूम हुआ कि ख़ुशी में गले मिलना रसूलुल्लाह के साथियों का तरीक़ा है. इसके लिये सफ़र से आना और जुदाई के बाद मिलना शर्त नहीं.
(7) बनी इस्त्राईल में आमील नाम का एक मालदार था. उसके चचाज़ाद भाई ने विरासत के लालच में उसको क़त्ल करके दूसरी बस्ती के दर्वाजे़ पर डाल दिया और ख़ुद सुबह को उसके ख़ून का दावेदार बना. वहां के लोगों ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से विनती की कि आप दुआ फ़रमाएं कि अल्लाह तआला सारी हक़ीक़त खोल दे. इस पर हुक्म हुआ कि एक गाय ज़िब्ह करके उसका कोई हिस्सा मक़तूल (मृतक) को मारें, वह ज़िन्दा होकर क़ातिल का पता देगा.

(8) क्योंकि मक़तूल (मृतक) का हाल मालूम होने और गाय के ज़िब्ह में कोई मुनासिबत (तअल्लुक़) मालूम नहीं होती.

(9) ऐसा जवाब जो सवाल से सम्बन्ध न रखे जाहिलो का काम है. या ये मानी हैं कि मुहाकिमे (न्याय) के मौक़े पर मज़ाक उड़ाना या हंसी करना जाहिलों का काम है. और नबियों की शान उससे ऊपर है. बनी इस्त्राईल ने समझ लिया कि गाय का ज़िब्ह करना अनिवार्य है तो उन्होंने अपने नबी से उसकी विशेषताएं और निशानियाँ पूछीं. हदीस शरीफ़ में है कि अगर बनी इस्त्राईल यह बहस न निकालते तो जो गाय ज़िब्ह कर देते, काफ़ी हो जाती.

(10) हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, अगर वो इन्शाअल्लाह न कहते, हरग़िज़ वह गाय न पाते. हर नेक काम में इन्शाअल्लाह कहना बरकत का कारण है.

(11) यानी अब तसल्ली हुई और पूरी शान और सिफ़त मालूम हुई. फिर उन्होंने गाय की तलाश शुरू की. उस इलाक़े में ऐसी सिर्फ़ एक गाय थी. उसका हाल यह है कि बनी इस्त्राईल में एक नेक आदमी थे और उनका एक छोटा सा बच्चा था उनके पास सिवाए एक गाय के बच्चे के कुछ न रहा था. उन्हों ने उसकी गर्दन पर मुहर लगाकर अल्लाह के नाम पर छोड़ दिया और अल्लाह की बारगाह में अर्ज़ किया – ऐ रब, मैं इस बछिया को इस बेटे के लिये तेरे पास अमानत रखता हूं. जब मेरा बेटा बड़ा हो, यह उसके काम आए. उनका तो इन्तिक़ाल हो गया. बछिया जंगल में अल्लाह की हिफ़ाज़त में पलती रही. यह लड़का बड़ा हुआ और अल्लाह के फ़ज़्ल से नेक और अल्लाह से डरने वाला, माँ का फ़रमाँबरदार था. एक रोज़ उसकी माँ ने कहा बेटे तेरे बाप ने तेरे लिये अमुक जंगल में ख़ुदा के नाम पर एक बछिया छोड़ी है. वह अब जवान हो गई होगी. उसको जंगल से ले आ और अल्लाह से दुआ कर कि वह तुझे अता फ़रमाए. लड़के ने गाय को जंगल में देखा और माँ की बताई हुई निशानियाँ उसमें पाई और उसको अल्लाह की क़सम देकर बुलाया, वह हाज़िर हुई. जवान उसको माँ की ख़िदमत में लाया. माँ ने बाज़ार ले जाकर तीन दीनार में बेचने का हुक्म दिया और यह शर्त की कि सौदा होने पर फिर उसकी इजाज़त हासिल की जाए. उस ज़माने में गाय की क़ीमत उस इलाक़े में तीन दीनार ही थी. जवान जब उस गाय को बाज़ार में लाया तो एक फ़रिश्ता ख़रीदार की सूरत में आया और उसने गाय की क़ीमत छ: दीनार लगा दी, मगर इस शर्त से कि जवान माँ की इजाज़त का पाबन्द न हो. जवान ने ये स्वीकार न किया और माँ से यह तमाम क़िस्सा कहा. उसकी माँ ने छ: दीनार क़ीमत मंजू़र करने की इजाज़त तो दे दी मगर सौदे में फिर दोबारा अपनी मर्ज़ी दरयाफ़्त करने की शर्त रखी. जवान फिर बाज़ार में आया. इस बार फ़रिश्ते ने बारह दीनार क़ीमत लगाई और कहा कि माँ की इजाज़त पर मौक़ूफ़ (आधारित) न रखो. जवान न माना और माँ को सूचना दी. वह समझदार थी, समझ गई कि यह ख़रीदार नहीं कोई फ़रिश्ता है जो आज़मायश के लिये आता है. बेटे से कहा कि अब की बार उस ख़रीदार से यह कहना कि आप हमें इस गाय की फ़रोख़्त करने का हुक्म देते हैं या नहीं. लड़के ने यही कहा. फ़रिश्ते ने जवाब दिया अभी इसको रोके रहो. जब बनी इस्त्राईल ख़रीदने आएं तो इसकी क़ीमत यह मुक़र्रर करना कि इसकी खाल में सोना भर दिया जाए. जवान गाय को घर लाया और जब बनी इस्त्राईल खोजते खोजते उसके मकान पर पहुंचे तो यही क़ीमत तय की और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की ज़मानत पर वह गाय बनी इस्त्राईल के सुपुर्द की. इस क़िस्से से कई बातें मालूम हुई. (1) जो अपने बाल बच्चों को अल्लाह के सुपुर्द करे, अल्लाह तआला उसकी ऐसी ही ऊमदा पर्वरिश फ़रमाता है. (2) जो अपना माल अल्लाह के भरोसे पर उसकी अमानत में दे, अल्लाह उसमें बरकत देता है. (3) माँ बाप की फ़रमाँबरदारी अल्लाह तआला को पसन्द है. (4) अल्लाह का फ़ैज़ (इनाम) क़ुर्बानी और ख़ैरात करने से हासिल होता है. (5) ख़ुदा की राह में अच्छा माल देना चाहिये. (6) गाय की क़ुरबानी उच्च दर्जा रखती है.

(12) बनी इस्त्राईल के लगातार प्रश्नों और अपनी रूस्वाई के डर और गाय की महंगी क़ीमत से यह ज़ाहिर होता था कि वो ज़िब्ह का इरादा नहीं रखतें, मगर जब उनके सवाल मुनासिब जवाबों से ख़त्म कर दिये गए तो उन्हें ज़िब्ह करना ही पड़ा.

सूरए बक़रह _ नवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ नवाँ रूकू

और जब तुमने एक ख़ून किया तो एक दूसरे पर उसकी तोहमत (आरोप) डालने लगे और अल्लाह को ज़ाहिर करना था जो तुम छुपाते थे तो हमने फ़रमाया उस मक्त़ूल को उस गाय का एक टुकड़ा मारो (1)
अल्लाह यूं ही मुर्दें ज़िन्दा करेगा और तुम्हें अपनी निशानियां दिखाता है कि कहीं तुम्हें अक्ल़ हो (2)
फिर उसके बाद तुम्हारे दिल सख्त़ हो गये (3)
तो वह पत्थरों जैसे है बल्कि उनसे भी ज्य़ादा करें और पत्थरों में तो कुछ वो हैं जिनसे नदियां बह निकलती हैं और कुछ वो है जो फट जाते हैं तो उनसे पानी निकलता हैं और कुछ वो हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं (4)
और अल्लाह तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं तो ऐ मुसलमानों, क्या तुम्हें यह लालच है कि यहूदी तुम्हारा यक़ीन लाएंगे और उनमें का तो एक समूह वह था कि अल्लाह का कलाम सुनते फिर समझने के बाद उसे जान बूझकर बदल देते (5)
और जब मुसलमानों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए (6)
और जब आपस में अकेले हो तो कहें वह इल्म जो अल्लाह ने तुम पर खोला मुसलमानों से बयान किये देते हो कि उससे तुम्हारे रब के यहाँ तुम्हीं पर हुज्जत (तर्क) लाएं, क्या तुम्हें अक्ल़ नहीं क्या नहीं जानते कि अल्लाह जानता है जो कुछ वो छुपाते हैं और जो कुछ वो ज़ाहिर करते हैं और उनमें कुछ अनपढ़ हैं कि जो किताब (7)
को नहीं जानते मगर ज़बानी पढ़ लेना(8)
या कुछ अपनी मनघड़त और वो निरे गुमान (भ्रम)  में है तो ख़राबी है उनके लिये जो किताब अपने हाथ से लिखें फिर कह दें ये ख़ुदा के पास से है कि इसके बदले थोड़े दाम हासिल करें (9)
तो ख़राबी है उनके लिये उनके हाथों के लिखे से और ख़राबी उनके लिये उस कमाई से और बोले हमें तो आग न छुएगी मगर गिनती के दिन (10)
तुम फ़रमादों क्या ख़ुदा से तुमने कोई एहद (वचन) ले रखा है? जब तो अल्लाह कभी अपना एहद ख़िलाफ़ न करेगा  (11)
या ख़ुदा पर वह बात कहते हो जिसका तुम्हें इल्म नहीं हाँ क्यों नहीं जो गुनाह कमाए और उसकी ख़ता उसे घेर ले(12)
वह दोजख़ वालों में है, उन्हें हमेशा उसमें रहना और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये वो जन्नत वाले हैं, उन्हें हमेशा उसमें रहना (82)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – नवाँ रूकू

(1) बनी इस्त्राईल ने गाय ज़िब्ह करके उसके किसी अंग से मुर्दे को मारा. वह अल्लाह के हुक्म से ज़िन्दा हुआ. उसके हल्क़ से ख़ून के फ़व्वारे जारी थे. उसने अपने चचाज़ाद भाई को बताया कि इसने मुझे क़त्ल किया है. अब उसको भी क़ुबूल करना पड़ा और हज़रत मूसा ने उस पर क़िसास का हुक्म फ़रमाया और उसके बाद शरीअत का हुक्म हुआ कि क़ातिल मृतक की मीरास से मेहरूम रहेगा. लेकिन अगर इन्साफ़ वाले ने बाग़ी को क़त्ल किया या किसी हमला करने वाले से जान बचाने के लिये बचाव किया, उसमें वह क़त्ल हो गया तो मृतक की मीरास से मेहरूम न रहेगा.

(2) और तुम समझो कि बेशक अल्लाह तआला मुर्दे ज़िन्दा करने की ताक़त रखता है और इन्साफ़ के दिन मुर्दो को ज़िन्दा करना और हिसाब लेना हक़ीक़त है.

(3) क़ुदरत की ऐसी बड़ी निशानियों से तुमने इबरत हासिल न की.

(4) इसके बावुजूद तुम्हारे दिल असर क़ुबूल नहीं करते. पत्थरों में अल्लाह ने समझ और शऊर दिया है, उन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ होता है, वो तस्बीह करते हैं इम मिन शैइन इल्ला युसब्बिहो बिहम्दिही यानी कोई चीज़ ऐसी नहीं जो अल्लाह की तारीफ़ में उसकी पाकी न बोलती हो. (सूरए बनी इस्त्राईल, आयत 44). मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जाबिर (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया मैं उस पत्थर को पहचानता हूँ जो मेरी नबुव्वत के इज़्हार से पहले मुझे सलाम किया करता था, तिरमिज़ी में हज़रत अली (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि मैं सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ मक्का के आस पास के इलाक़े में गया. जो पेड़ या पहाड़ सामने आता था अस्सलामो अलैका या रसूलल्लाह अर्ज़ करता था.

(5) जैसे उन्होंने तौरात में कतर ब्योंत की और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ के अल्फ़ाज़ बदल डाले.

(6) यह आयत उन यहूदियों के बारे में नाज़िल हुई जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने में थे. इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, यहूदी मुनाफ़िक़ जब सहाबए किराम से मिलते तो कहते कि जिसपर तुम ईमान लाए, उस पर हम भी ईमान लाए. तुम सच्चाई पर हो और तुम्हारे सरदार मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सच्चे हैं, उनका क़ौल सच्चा है. उनकी तारीफ़ और गुणगान अपनी किताब तौरात में पाते हैं. इन लोगों पर यहूद के सरदार मलामत करते थे. “व इज़ा ख़ला बअदुहुम” (और जब आपस में अकेले हों) में इसका बयान है. (ख़ाज़िन). इससे मालूम हुआ कि सच्चाई छुपाना और उनके कमालात का इन्कार करना यहूदियोँ का तरीक़ा है. आजकल के बहुत से गुमराहों की यही आदत है.

(7) किताब से तौरात मुराद है.

(8) अमानी का अर्थ है ज़बानी पढ़ लेना. यह उमनिया का बहुवचन है. हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है कि आयत के मानी ये हैं कि किताब को नहीं जानते मगर सिर्फ़ ज़बानी पढ़ लेना, बिना समझे (ख़ाज़िन). कुछ मुफ़स्सिरों ने ये मानी भी बयान किये हैं कि “अमानी” से वो झूटी गढ़ी हुई बातें मुराद हैं जो यहूदियोँ ने अपने विद्वानों से सुनकर बिना जांच पड़ताल किये मान ली थीं.

(9) जब सैयदे अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह तशरीफ़ लाए तो यहूदियों के विद्वानों और सरदारों को यह डर हुआ कि उनकी रोज़ी जाती रहेगी और सरदारी मिट जाएगी क्योंकि तौरात में हुज़ूर का हुलिया (नखशिख) और विशेषताएं लिखी है. जब लोग हुज़ूर को इसके अनुसार पाएंगे, फ़ौरन ईमान ले आएंगे और अपने विद्वानों और सरदारों को छोड़ देंगे. इस डर से उन्होंने तौरात के शब्दों को बदल डाला और हुज़ूर का हुलिया कुछ का कुछ कर दिया. मिसाल के तौर पर तौरात में आपकी ये विशेषताएं लिखी थीं कि आप बहुत ख़ूबसूरत हैं, सुंदर बाल वाले, सुंदर आँख़े सुर्मा लगी जैसी, क़द औसत (मध्यम) दर्जे का है. इसको मिटाकर उन्होंने यह बनाया कि हुज़ूर का क़द लम्बा, आंख़े कंजी, बाल उलझे हुए हैं. यही आम लोगों को सुनाते, यही अल्लाह की किताब का लिखा बताते और समझते कि लोग हुज़ूर को इस हुलिये से अलग पाएंगे तो आप पर ईमान न लाएंगे, हमारे ही असर में रहेंगे और हमारी कमाई में कोई फ़र्क़ नहीं आएगा.

(10) हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है कि यहूदी कहते कि दोज़ख़ में वो हरगिज न दाख़िल होंगे मगर सिर्फ़ उतनी मुद्दत के लिये जितने अर्से उनके पूर्वजों ने बछड़ा पूजा था और वो चालीस दिन हैं, उसके बाद वो अज़ाब से छूट जाएंगे, इस पर यह आयत उतरी.

(11) क्योंकि झूट बड़ी बुराई है और बुराई अल्लाह की ज़ात से असम्भव. इसलिये उसका झूट तो मुमकिन नहीं लेकिन जब अल्लाह तआला ने तुमसे सिर्फ़ चालीस रोज़ अज़ाब के बाद छोड़ देने का वादा ही नहीं फ़रमाया तो तुम्हारा कहना झूट हुआ.

(12) इस आयत में गुनाह से शिर्क और कुफ़्र मुराद है. और “घेर लेने” से यह मुराद है कि निजात के सारे रास्ते बन्द हो जाएं और कुफ़्र तथा शिर्क पर ही उसको मौत आए क्योंकि ईमान वाला चाहे कैसा ही गुनाहगार हो, गुनाहों से घिरा नहीं होता, इसलिये कि ईमान जो सबसे बड़ी फ़रमाँबरदारी है, वह उसके साथ है.

सूरए बक़रह _ दसवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ दसवाँ रूकू

और जब हमने बनी इस्राईल से एहद लिया कि अल्लाह के सिवा किसी को न पूजो और माँ बाप के साथ भलाई करो (1)
और रिश्तेदारों और यतीमों (अनाथों) और मिस्कीनों (दरिद्रों) से और लोगों से अच्छी बात कहो (2)
और नमाज़ क़ायम रखों और ज़कात दो, फिर तुम फिर गए (3)
मगर तुम में के थोड़े (4)
और तुम मुंह फेरने वाले हो(5)
और जब हमने तुमसे एहद लिया कि अपनों का ख़ून न करना और अपनों को अपनी बस्तियों से न निकालना फिर तुमने उसका इक़रार किया और तुम गवाह हो फिर ये जो तुम हो अपनों को क़त्ल करने लगे और अपने मे से एक समूह को उनके वतन से निकालते हो उनपर मदद देते हो (उनके ख़िलाफ या दुश्मन को) गुनाह और ज्य़ादती में और अगर वो क़ैदी होकर तुम्हारे पास आएं तो बदला देकर छुड़ा लेते हो और उनका निकालना तुम पर हराम है  (6)
तो क्या ख़ुदा के कुछ हुक़्मों पर ईमान लाते हो और कुछ से इन्कार करते हो? तो जो तुम ऐसा करे उसका बदला क्या है, मगर यह कि दुनिया में रूसवा (ज़लील)(7)
हो, और क़यामत में सख़्ततर अज़ाब की तरफ़ फेरे जाएंगे और अल्लाह तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं (8)
ये हैं वो लोग जिन्होंने आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िन्दग़ी मोल ली, तो न उनपर से अज़ाब हल्का हो और उनकी मदद की जाए(86)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – दसवाँ रूकू

(1) अल्लाह तआला ने अपनी इबादत का हुक्म फ़रमाने के बाद माँ बाप के साथ भलाई करने का आदेश दिया. इससे मालूम होता है कि माँ बाप की ख़िदमत बहुत ज़रूरी है. माँ बाप के साथ भलाई के ये मानी हैं कि ऐसी कोई बात न कहे और कोई ऐसा काम न करे जिससे उन्हें तकलीफ़ पहुंचे और अपने शरीर और माल से उनकी ख़िदमत में कोई कसर न उठा रखे. जब उन्हें ज़रूरत हो उनके पास हाज़िर रहे. अगर माँ बाप अपनी ख़िदमत के लिये नफ़्ल (अतिरिक्त) इबादत छोड़ने का हुक्म दें तो छोड़ दे, उनकी ख़िदमत नफ़्ल से बढ़कर है. जो काम वाजिब (अनिवार्य) है वो माँ बाप के हुक्म से छोड़े नहीं जा सकते. माँ बाप के साथ एहसान के तरीक़े जो हदीसों से साबित हैं ये हैं कि दिल की गहराइयो से उनसे महब्बत रखे, बोल चाल, उठने बैठने में अदब का ख़याल रखे, उनकी शान में आदर के शब्द कहे, उनको राज़ी करने की कोशिश करता रहे, अपने अच्छे माल को उनसे न बचाए. उनके मरने के बाद उनकी वसीयतों को पूरा करे, उनकी आत्मा की शांति के लिये दानपुन करे, क़ुरआन का पाठ करे, अल्लाह तआला से उनके गुनाहों की माफ़ी चाहे, हफ़्ते में कम से कम एक दिन उनकी क़ब्र पर जाए. (फ़त्हुल अज़ीज़) माँ बाप के साथ भलाई करने में यह भी दाख़िल है कि अगर वो गुनाहों के आदी हों या किसी बदमज़हबी में गिरफ़्तार हों तो उनकों नर्मी के साथ अच्छे रास्ते पर लाने की कोशिश करता रहे. (ख़ाज़िन)

(2) अच्छी बात से मुराद नेकियों की रूचि दिलाना और बुराईयों से रोकना है. हज़रत इब्ने अब्बास ने फ़रमाया कि मानी ये है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान में सच बात कहो. अगर कोई पूछे तो हुज़ूर के कमालात और विशेषताएं सच्चाई के साथ बयान कर दो और आपके गुण मत छुपाओ.

(3) एहद के बाद

(4) जो ईमान ले आए, हज़रत अबदुल्लाह बिन सलाम और उनके साथियों की तरह, तो उन्होंने एहद पूरा किया.

(5) और तुम्हारी क़ौम की आदत ही विरोध करना और एहद से फिर जाना है.

(6) तौरात में बनी इस्त्राईल से एहद लिया गया था कि वो आपस में एक दूसरे को क़त्ल न करें, वतन से न निकालें और जो बनी इस्त्राईल किसी की क़ैद में हो उसको माल देकर छुड़ा लें, इस पर उन्होंने इक़रार भी किया, अपने नफ़्स पर गवाह भी हुए लेकिन क़ायम न रहे और इससे फिर गए. मदीने के आसपास यहूदियो के दो समुदाय बनी कुरैज़ा और बनी नुज़ैर रहा करते थे. मदीने के अन्दर दो समुदाय औस और ख़ज़रज रहते थे. बनी क़ुरैज़ा औस के साथी थे और बनी नुज़ैर ख़ज़रज के, यानी हर एक क़बीले ने अपने सहयोगी के साथ क़समाक़समी की थी कि अगर हम में से किसी पर कोई हमला करे तो दूसरा उसकी मदद करेगा. औस और ख़ज़रज आपस में लड़ते थे. बनी क़ुरैज़ा औस की और बनी नुज़ैर ख़ज़रज की मदद के लिये आते थे. और सहयोगी के साथ होकर आपस में एक दूसरे पर तलवार चलाते थे. बनी क़ुरैज़ा बनी नुज़ैर को और वो बनी क़ुरैज़ा को क़त्ल करते थे और उनके घर वीरान कर देते थे, उन्हें उनके रहने की जगहों से निकाल देते थे, लेकिन जब उनकी क़ौम के लोगे को उनके सहयोगी क़ैद करते थे तो वो उनको माल देकर छुड़ा लेते थे. जैसे अगर बनी नुज़ैर का कोई व्यक्ति औस के हाथों में गिरफ्तार होता तो बनी क़ुरैज़ा औस को माल देकर उसको छुड़ा लेते जबकि अगर वही व्यक्ति लड़ाई के वक़्त उनके निशाने पर आ जाता तो उसके मारने में हरगिज़ नहीं झिझकते. इस बात पर मलामत की जाती है कि जब तुमने अपनों का ख़ून न बहाने और उनको बस्तियों से न निकालने और उनके क़ैदियोँ को छुड़ाने का एहद किया था तो इसके क्या मानी कि क़त्ल और खदेड़ने में तो झिझको नहीं, और गिरफ़्तार हो जाएं तो छुड़ाते फिरो. एहद में कुछ मानना और कुछ न मानना क्या मानी रखता है. जब तुम क़त्ल और अत्याचार से न रूक सके तो तुमने एहद तोड़ दिया और हराम किया और उसको हलाल जानकर काफ़िर हो गए. इस आयत से मालूम हुआ कि ज़ुल्म और हराम पर मदद करना भी हराम है. यह भी मालूम हुआ कि यक़ीनी हराम को हलाल जानना कुफ़्र है, यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह की किताब के एक हुक्म का न मानना भी सारी किताब का इन्कार और कुफ़्र है. इस में यह चेतावनी है कि जब अल्लाह के निर्देशों में से कुछ का मानना कुछ का न मानना कुफ़्र हुआ तो यहूदियों को हज़रत सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का इन्कार करने के साथ हज़रत मूसा की नबुव्वत को मानना कुफ़्र से नहीं बचा सकता.

(7) दुनिया में तो यह रूस्वाई हुई कि बनी क़ुरैज़ा सन 3 हिजरी में मारे गए. एक दिन में उनके सात सौ आदमी क़त्ल किये गये थे. और बनी नुज़ैर इससे पहले ही वतन से निकाल दिये गए थे. सहयोगियों की ख़ातिर अल्लाह के एहद के विरोध का यह वबाल था. इससे मालूम हुआ कि किसी की तरफ़दारी में दीन का विरोध करना आख़िरत के अज़ाब के अलावा दुनिया में भी ज़िल्लत और रूसवाई का कारण होता हैं.

(8) इस में जैसे नाफ़रमानों के लिये सख़्त फटकार है कि अल्लाह तआला तुम्हारे कामों से बेख़बर नहीं है, तुम्हारी नाफ़रमानियों पर भारी अज़ाब फ़रमाएगा, ऐसे ही ईमान वालों और नेक लोगों के लिये ख़ुशख़बरी है कि उन्हें अच्छे कामों का बेहतरीन इनाम मिलेगा. (तफ़सीरे कबीर)

सूरए बक़रह _ ग्यारहवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ ग्यारहवाँ रूकू

और बेशक हमने मूसा को किताब अता की (1)
और उसके बाद एक के बाद रसूल भेजे (2)
और हमने मरयम के बेटे ईसा को खुली निशानियां अता फ़रमाई (3)
और पवित्र आत्मा (4)
से उसकी मदद की(5)
तो क्या जब तुम्हारे पास कोई रसूल वह लेकर आए जो तुम्हारे नफ़्स (मन) की इच्छा नहीं, घमण्ड करते हो तो उन (नबियों) में एक गिरोह (समूह) को तुम झुटलाते हो और एक गिराह को शहीद करते हो (6)
और यहूदी बोले हमारे दिलों पर पर्दें पड़े हैं(7)
बल्कि अल्लाह ने उनपर लानत की उनके कुफ़्र के कारण तो उनमें थोड़े ईमान लाते हैं (8)
और जब उनके पास अल्लाह की किताब (क़ुरआन) आई जो उनके साथ वाली किताब (तौरात) की तस्दीक़ (पुष्टि) फ़रमाती है (9)
और इससे पहले वो इसी नबी के वसीले (ज़रिये) से काफ़िरों पर फ़त्ह मांगते थे (10)
तो जब तशरीफ़ लाया उनके पास वह जाना पहचाना, उस से इन्कार कर बैठे (11)
तो अल्लाह की लानत इन्कार करने वालों पर किस बुरे मोलों उन्होंने अपनी जानों को ख़रीदा कि अल्लाह के उतारे से इन्कार करें (12)
इस जलन से कि अल्लाह अपनी कृपा से अपने जिस बन्दे पर चाहे वही (देव वाणी) उतारे (13)
तो ग़ज़ब पर ग़ज़ब (प्रकोप) के सज़ावार (अधिकारी) हुए (14)
और काफ़िरों के लिये ज़िल्लत का अज़ाब है (15)
और जब उनसे कहा जाए कि अल्लाह के उतारे पर ईमान लाओ (16)
तो कहते है वह जो हम पर उतरा उसपर ईमान लाते हैं (17)
और बाक़ी से इन्कार करते हैं हालांकि वह सत्य है उनके पास वाली की तस्दीक़  (पुष्टि) फ़रमाता हुआ (18) 
तुम फ़रमाओ कि फिर अगले नबियों को क्यों शहीद किया अगर तुम्हें अपनी किताब पर ईमान था (19)
और बेशक तुम्हारे पास मूसा खुली निशानियाँ लेकर तशरीफ़ लाया फिर तुमने उसके बाद (20)
बछड़े को माबूद (पूजनीय) बना लिया और तुम ज़ालिम थे (21)
और याद करो जब हमने तुमसे पैमान (वादा) लिया (22)
और तूर पर्वत को तुम्हारे सरों पर बलन्द किया, लो जो हम तुम्हें देते हैं ज़ोर से और सुनो. बोले हम ने सुना और न माना और उनके दिलों में बछड़ा रच रहा था उनके कुफ़्र के कारण. तुम फ़रमादो क्या बुरा हुक्म देता है तुमको तुम्हारा ईमान अगर ईमान रखते हो(23) तुम फ़रमाओ अगर पिछला घर अल्लाह के नज़दीक ख़ालिस तुम्हारे लिये हो न औरों के लिये तो भला मौत की आरज़ू तो करो अगर सच्चे हो (24)
और कभी उसकी आरज़ू न करेंगे (25)
उन बुरे कर्मों के कारण जो आगे कर चुके (26)
और अल्लाह ख़ूब जानता है ज़ालिमों को और बेशक तुम ज़रूर उन्हें पाओगे कि सब लोगों से ज़्यादा जीने की हवस रखते हैं और मुश्रिको (मूर्तिपूजको) से प्रत्येक को तमन्ना है कि कहीं हज़ार बरस जिये (27)
और वह उसे अज़ाब से दूर न करेगा इतनी उम्र का दिया जाना और अल्लाह उनके कौतुक  देख रहा है

तफ़सीर : सूरए बक़रह – ग्यारहवाँ रूकू

(1) इस किताब से तौरात मुराद है जिसमें अल्लाह तआला के तमाम एहद दर्जे थे. सबसे अहम एहद ये थे कि हर ज़माने के नबियों की इताअत (अनुकरण) करना, उन पर ईमान लाना और उनकी ताज़ीम व तौक़ीर करना.

(2) हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के ज़माने से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम तक एक के बाद एक नबी आते रहे. उनकी तादाद चार हज़ार बयान की गई है. ये सब हज़रत मूसा की शरीअत के मुहाफ़िज़ और उसके आदेश जारी करने वाले थे. चूंकि नबियों के सरदार के बाद किसी को नबुव्वत नहीं मिल सकती, इसलिये हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शरीअत की हिफ़ाज़त और प्रचार प्रसार की ख़िदमत विद्वानों और दीन की रक्षा करने वालों को सौंपी गई.

(3) इन निशानियों से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के मोज़िज़े (चमत्कार) मुराद हैं जैसे मुर्दे ज़िन्दा कर देना, अंधे और कोढ़ी को अच्छा कर देना, चिड़िया पैदा करना, ग़ैब की ख़बर देना वग़ैरह.

(4) रूहिल कुदुस से हज़रत जिब्रील मुराद हैं कि रूहानी हैं, वही (देववाणी) लाते हैं जिससे दिलों की ज़िन्दगी है. वह हज़रत ईसा के साथ रहने पर मामूर थे. आप 33 साल की उम्र में आसमान पर उठाए गए, उस वक्त तक हज़रत जिब्रील सफ़र व सुकूनत में कभी आप से जुदा न हुए. रूहुल क़ुदुस की ताईद (समर्थन) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की बड़ी फ़ज़ीलत है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के कुछ मानने वालों को भी रूहुल क़ुदुस की ताईद (मदद) हासिल हुई. सही बुख़ारी वग़ैरह में है कि हज़रत हस्सान (अल्लाह उनसे राज़ी) के लिये मिम्बर बिछाया जाता. वह नात शरीफ़ पढ़ते, हुज़ूर उनके लिये फ़रमाते “अल्लाहुम्मा अय्यिदहु बिरूहिल क़ुदुस” (ऐ अल्लाह, रूहुल क़ुदुस के ज़रिये इसकी मदद फ़रमा).

(5) फिर भी ऐ यहूदियो, तुम्हारी सरकशी में फ़र्क़ नहीं आया.

(6) यहूदी, पैग़म्बरों के आदेश अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़ पाकर उन्हें झुटलाते और मौक़ा पाते तो क़त्ल कर डालते थे, जैसे कि उन्होंने हज़रत ज़करिया और दूसरे बहुत से अम्बिया को शहीद किया. सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम  के पीछे भी पड़े रहे. कभी आप पर जादू किया, कभी ज़हर दिया, क़त्ल के इरादे से तरह तरह के धोखे किये.

(7) यहूदियों ने यह मज़ाक उड़ाने को कहा था. उनकी मुराद यह थी कि हुज़ूर की हिदायत को उनके दिलों तक राह नहीं है. अल्लाह तआला ने इसका रद्द फ़रमाया कि अधर्मी झूटे हैं. अल्लाह तआला ने दिलों को प्रकृति पर पैदा फ़रमाया है, उनमें सच्चाई क़ुबूल करने की क्षमता रखी है. उनके कुफ़्र की ख़राबी है कि उन्होंने नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत का इक़रार करने के बाद इन्कार किया. अल्लाह तआला ने उनपर लअनत फ़रमाई. इसका असर है कि हक़ (सत्य) क़ुबूल करने की नेअमत से मेहरूम हो गए.

(8) यह बात दूसरी जगह इरशाद हुई : “बल तबअल्लाहो अलैहा बकिकुफ्रिहिम फ़ला यूमिनूना इल्ला क़लीला” यानी बल्कि अल्लाह ने उनके कुफ़्र के कारण उनके दिलों पर मोहर लगा दी है तो ईमान नहीं लाते मगर थोडे. (सूरए निसा, आयत 55).

(9) सैयदे अम्बिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत और हुज़ूर के औसाफ़ (ख़ूबियों) के बयान में. (ख़ाज़िन व तफ़सीरे कबीर)

(10) सैयदे अम्बिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम केनबी बनाए जाने और क़ुरआन उतरने से पहले यहूदी अपनी हाजतों के लिये हुज़ूर के नामे पाक के वसीले से दुआ करते और कामयाब होते थे और इस तरह दुआ किया करते थे – “अल्लाहुम्मफ्तह अलैना वन्सुरना बिन्नबीयिल उम्मीय्ये” यानी ऐ अल्लाह, हमें नबिय्ये उम्मी के सदक़े में फ़त्ह और कामयाबी अता फ़रमा. इससे मालूम हुआ कि अल्लाह के दरबार में जो क़रीब और प्रिय होते हैं उनके वसीले से दुआ कुबूल होती है. यह भी मालूम हुआ कि हुज़ूर से पहले जगत में हुज़ूर के तशरीफ़ लाने की बात मशहूर थी, उस वक़्त भी हुज़ूर के वसीले से लोगो की ज़रूरत पूरी होती थी.

(11) यह इन्कार दुश्मनी, हसद और हुकूमत की महब्बत की वजह से था.

(12) यानी आदमी को अपनी जान बचाने के लिए वही करना चाहिये जिससे छुटकारे की उम्मीद हो. यहूद ने बुरा सौदा किया कि अल्लाह के नबी और उसकी किताब के इन्कारी हो गए.

(13) यहूदियों के ख़्वाहिश थी कि आख़िरी नबी का पद बनी इस्त्राईल में से किसी को मिलता. जब देखा कि वो मेहरूम रहे और इस्माईल की औलाद को श्रेय मिला तो हसद के मारे इन्कार कर बैठे. इस से मालूम हुआ कि हसद हराम और मेहरूमी का कारण है.

(14) यानी तरह तरह के ग़जब और यातनाओं के हक़दार हुए.

(15) इससे मालूम हुआ कि ज़िल्लत और रूस्वाई वाला अज़ाब काफ़िरो के साथ ख़ास है. ईमान वालों को गुनाहों की वजह से अज़ाब हुआ भी तो ज़िल्लत और रूस्वाई के साथ न होगा. अल्लाह तआला ने फ़रमाया : “व लिल्लाहिल इज़्ज़तु व लिरसूलिही व लिलमूमिनीना” यानी और इज़्ज़त तो अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमानों ही के लिये है मगर मुनाफ़िक़ों को ख़बर नहीं. (सूरए मुनाफ़िक़ों, आयत 8)

(16) इससे क़ुरआने पाक और वो तमाम किताबें मुराद हैं जो अल्लाह तआला ने उतारीं, यानी सब पर ईमान लाओ.

(17) इससे उनकी मुराद तौरात है.

(18) यानी तौरात पर ईमान लाने का दावा ग़लत है. चूंकि क़ुरआने पाक जो तौरात की तस्दीक़ (पुष्टि) करने वाला है, उसका इन्कार तौरात का इन्कार हो गया.

(19) इसमें भी उनकी तकज़ीब है कि अगर तौरात पर ईमान रखते तो नबियों को हरगिज़ शहीद न करते.

(20) यानी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के तूर पर तशरीफ़ ले जाने के बाद.

(21) इसमें भी उनकी तकज़ीब है कि हज़रत मूसा की लाठी और रौशन हथेली वग़ैरह खुली निशानियों के देखने के बाद बछड़ा न पूजते.

(22) तौरात के आदेशों पर अमल करने का.

(23) इसमें भी उनके ईमान के दावे को झुटलाया गया है.

(24) यहूदियों के झूटे दावों में एक यह दावा था कि जन्नत ख़ास उन्हीं के लिये है. इसका रद फ़रमाया जाता है कि अगर तुम्हारे सोच के मुताबिक़ जन्नत तुम्हारे लिये ख़ास है, और आख़िरत की तरफ़ से तुम्हें इत्मीनान है, कर्मों की ज़रूरत नहीं, तो जन्नत की नेअमतों के मुक़ाबले में दुनिया की तकलीफ़ क्यों बर्दाश्त करते हो. मौत की तमन्ना करो कि तुम्हारे दावे की बुनियाद पर तुम्हारे लिये राहत की बात है. अगर तुमने मौत की तमन्ना न की तो यह तुम्हारे झूटे होने की दलील होगी. हदीश शरीफ़ में है कि अगर वो मौत की तमन्ना करते तो सब हलाक हो जाते और धरती पर कोई यहूदी बाक़ी न रहता.

(25) यह ग़ैब की ख़बर और चमत्कार है कि यहूदी काफ़ी ज़िद और सख़्त विरोध के बावुजूद मौत की तमन्ना ज़बान पर न ला सके.

(26) जैसे आख़िरी नबी और क़ुरआन के साथ कुफ़्र और तौरात में काँट छाँट वग़ैरह. मौत की महब्बत और अल्लाह से मिलने का शौक़, अल्लाह के क़रीबी बन्दों का तरीक़ा है. हज़रत उमर (अल्लाह उनसे राज़ी) हर नमाज़ के बाद दुआ फ़रमाते. ” अल्लाहुम्मर ज़ुक़नी शहादतन फ़ी सबीलिका व वफ़ातन बिबल्दि रसूलिका” (ऐ अल्लाह, मुझे अपने रास्तें में शहादत अता कर और अपने प्यारे हबीब के शहर में मौत दे). आम तौर से सारे बड़े सहाबा और विशेष कर बद्र और उहद के शहीद और बैअते रिज़्वान के लोग अल्लाह की राह में मौत की महब्बत रखते थे. हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास (अल्लाह उनसे राज़ी) ने काफ़िर लश्कर के सरदार रूस्तम बिन फ़र्रूख़ज़ाद के पास जो ख़त भेजा उसमें तहरीर फ़रमाया था. “इन्ना मअना क़ौमन युहिब्बून मौता कमा युहिब्बुल अआजिमुल ख़म्रा” यानी मेरे साथ ऐसी क़ौम है जो मौत को इतना मेहबूब रखती है जितना अजमी लोग शराब को. इसमें सुन्दर इशारा था कि शराब की दूषित मस्ती को दुनिया की महब्बत के दीवाने पसन्द करते हैं और अल्लाह वाले मौत को हक़ीक़ी मेहबूब से मिलने का ज़रिया समझकर चाहते हैं. सारे ईमान वाले आख़िरत की रग़बत रखते हैं और लम्बी ज़िन्दगी की तमन्ना भी करें तो वह इसलिये होती है कि नेकियाँ करने के लिये कुछ और समय मिल जाए जिससे आख़िरत के लिये अच्छा तोशा ज़्यादा जमा कर सकें. अगर पिछले दिनो में गुनाह ज़्यादा हुए हैं तो उनसे तौबह और क्षमा याचना कर लें. सही हदीस की किताबों में है कि कोई दुनिया की मुसीबत से परेशान होकर मौत की तमन्ना न करे और वास्तव में दुनिया की परेशानियों से तंग आकर मौत की दुआ करना सब्र और अल्लाह की ज़ात पर भरोसे और उसकी इच्छा के आगे सर झुका देने के ख़िलाफ़ और नाजायज़ है.

(27) मुश्रिकों का एक समूह मजूसी (आग का पुजारी) है. आपस में मिलते वक़्त इज़्ज़त और सलाम के लिये कहते है “ज़िह हज़ार साल” यानी हज़ार बरस जियो. मतलब यह है कि मजूसी मुश्रिक हज़ार बरस जीने की तमन्ना रखते हैं. यहूदी उनसे भी बढ गए कि उन्हें ज़िन्दगी का लालच सब से ज़्यादा है.

सूरए बक़रह _ बारहवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ बारहवाँ रूकू

तुम फ़रमाओ जो कोई जिब्रील का दुश्मन हो (1)
तो उस (जिब्रील) ने तो तुम्हारे दिल पर अल्लाह के हुक्म से यह कुरआन उतारा अगली किताबों की तस्दीक़ फ़रमाता और हिदायत और बशारत (ख़ुशख़बरी) मुसलमानों को(2)
जो कोई दुश्मन हो अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों आैर जिब्रील और मीकाईल का तो अल्लाह दुश्मन है काफ़िरों का (3)
और बेशक हमने तुम्हारी तरफ़ रौशन आयतें उतारी(4)
और उनके इन्कारी न होंगे मगर फ़ासिक़ (कुकर्मी) लोग और क्या जब कभी कोई एहद करते हैं उनमें का एक फ़रीक़ (पक्ष) उसे फेंक देता है बल्कि उन में बहुतेरों को ईमान नहीं (5)
और जब उनके पास तशरीफ़ लाया अल्लाह के यहां से एक रसूल (6)
उनकी किताबों की तस्दीक़ फ़रमाता (7)
तो किताब वालों से एक गिरोह (दल) ने अल्लाह की किताब अपने पीठ पीछे फेंक दी (8)
जैसे कि वो कुछ इल्म ही नहीं रखते (कुछ जानते ही नहीं) (9)
और उसके मानने वाले हुए जो शैतान पढ़ा करते थे सुलैमान की सल्तनत के ज़माने में (10)
और सुलैमान ने क़ुफ़्र न किया (11)
हाँ शैतान काफ़िर हुए (12)
लोगों को जादू सिखाते हैं और वह (जादू) जो बाबुल में दो फ़रिश्तों हारूत और मारूत पर उतरा और वो दोनों किसी को कुछ न सिखाते जब तक यह न कह लेते कि हम तो निरी आज़मायश हैं तू अपना ईमान न खो (13)
तो उनसे सीखते वह जिससे जुदाई डालें मर्द और उसकी औरत में और उससे ज़रर (हानि)  नहीं पहुंचा सकते किसी को मगर ख़ुदा के हुक्म से (14)
और वो सीखते हैं जो उन्हें नुक़सान देगा नफ़ा न देगा और बेशक ज़रूर उन्हें मालूम है कि जिसने यह सौदा लिया आख़िरत में उसका कुछ हिस्सा नहीं और बेशक क्या बुरी चीज़ है वह जिसके बदले उन्होंने अपनी जानें बेचीं किसी तरह उन्हें इल्म होता (15)
और अगर वो ईमान लाते (16)
और परहेज़गारी करते तो अल्लाह के यहां का सवाब बहुत अच्छा है किसी तरह उन्हें ईल्म होता (103)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – बारहवाँ रूकू

(1) यहूदियों के आलिम अब्दुल्लाह बिन सूरिया ने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा, आपके पास आसमान से कौन फ़रिश्ता आता है. फ़रमाया, जिब्रील. इब्ने सूरिया ने कहा वह हमारा दुश्मन है कि हमपर कड़ा अज़ाब उतारता है. कई बार हमसे दुश्मनी कर चुका है. अगर आपके पास मीकाईल आते तो हम आप पर ईमान ले आते.

(2) तो यहूदियों की दुश्मनी जिब्रील के साथ बेमानी यानी बेकार है. बल्कि अगर उन्हें इन्साफ़ होता तो वो जिब्रीले अमीन से महब्बत करते और उनके शुक्रगुज़ार होते कि वो ऐसी किताब लाए जिससे उनकी किताबों की पुष्टि होती है. और “बुशरा लिल मूमिनीन” (और हिदायत व बशारत मुसलमानों को) फ़रमाने में यहूदियों का रद है कि अब तो जिब्रील हिदायत और ख़ुशख़बरी ला रहे हैं फिर भी तुम दुश्मनी से बाज़ नही आते.

(3) इससे मालूम हुआ कि नबियों और फ़रिश्तों की दुश्मनी कुफ़्र और अल्लाह के ग़ज़ब का कारण है. और अल्लाह के प्यारों से दुश्मनी अल्लाह से दुश्मनी करना है.

(4) यह आयत इब्ने सूरिया सहूदी के जवाब में उतरी, जिसने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा था कि ऐ मुहम्मद, आप हमारे पास कोई ऐसी चीज़ न लाए जिसे हम पहचानते और न आप पर कोई खुली (स्पष्ट) आयत उतरी जिसका हम पालन करते.

(5) यह आयत मालिक बिन सैफ़ यहूदी के जवाब में उतरी जब हुजू़र सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने यहूदियों को अल्लाह तआला के वो एहद याद दिलाए जो हुज़ूर पर ईमान लाने के बारे में किये थे तो इब्ने सैफ़ ने एहद ही का इन्कार कर दिया.

(6) यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(7) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तौरात और ज़ुबूर वग़ैरह की पुष्टि फ़रमाते थे और ख़ुद इन किताबों में भी हुज़ूर के तशरीफ़ लाने की ख़ुशख़बरी और आपके गुणों का बयान था. इसलिये हुज़ूर का तशरीफ़ लाना और आपका मुबारक अस्तित्व ही इन किताबों की पुष्टि है. तो होना यह चाहिये था कि हुज़ूर के आगमन पर एहले किताब का ईमान अपनी किताबों के साथ और ज़्यादा पक्का होता, मगर इसके विपरीत उन्होंने अपनी किताबों के साथ भी कुफ़्र किया. सदी का कथन है कि जब हुज़ूर तशरीफ़ लाए तो यहूदियों ने तौरात से मुक़ाबला करके तौरात और क़ुरआन को एकसा पाया तो तौरात को भी छोड़ दिया.

(8) यानी उस किताब की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. सुफ़ियान बिन ऐनिया का कहना है कि यहूदियों ने तौरात को क़ीमती रेशमी कपड़ों में सोने चांदी से मढ़कर रख लिया और उसके आदेशों को न माना.

(9) इन आयतों से मालूम होता है कि यहूदियों के चार सम्प्रदाय थे. एक तौरात पर ईमान लाया और उसने उसके अहकाम भी अदा किये. ये मूमिनीने एहले किताब हैं. इनकी तादाद थोड़ी है. और “अक्सरोहुम” (उनमें बहुतेरों को) से उस दूसरे समुदाय का पता चलता है जिसने खुल्लम खुल्ला तौरात के एहद तोड़े, उसकी सीमाओं का उल्लंघन किया, सरकशी का रास्ता अपनाया, “नबज़हू फ़रीक़ुम मिन्हुम” (उनमें एक पक्ष उसे फेंक देता है) में उनका ज़िक़्र है. तीसरा सम्प्रदाय वह जिसने एहद तोड़ने का एलान तो न किया लेकिन अपनी जिहालत से एहद तोड़ते रहे. उनका बयान “बल अकसरोहुम ला यूमिनून” (बल्कि उनमें बहुतेरों को ईमान नहीं) में है. चौथे सम्प्रदाय ने ज़ाहिर में तो एहद माने और छुपवाँ विद्रोह और दुश्मनी से विरोध करते रहे. यह बनावटी तौर से जाहिल बनते थे. “कअन्नहुम ला यअलमून” (मानो वो कुछ इल्म ही नहीं रखते) में उनका चर्चा है.

(10) हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम के ज़माने में बनी इस्त्राईल जादू सीखने में मशग़ूल हुए तो आपने उनको इससे रोका और उनकी किताबें लेकर अपनी कुर्सी के नीचे दफ़्न कर दीं. हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम की वफ़ात के बाद शैतानों ने वो किताबें निकाल कर लोगों से कहा कि सुलैमान इसी के ज़ोर से सल्तनत करते थे. बनी इस्त्राईल के आलिमों और नेक लोगों ने तो इसका इन्कार किया मगर जाहिल लोग जादू को हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम का इल्म बताकर उसके सीखने पर टूट पडे. नबियों की किताबें छोड़ दीं और हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम पर लांछन शुरू की. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने तक इसी हाल पर रहे. अल्लाह तआला ने हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम की सफ़ाई के लिये हुज़ूर पर यह आयत उतारी.

(11) क्योंकि वो नबी हैं और नबी कुफ़्र से बिल्कुल मासूम होते हैं, उनकी तरफ़ जादू की निस्बत करना बातिल और ग़लत है, क्योंकि जादू का कुफ़्रियात से ख़ाली होना लगभग असम्भव है.

(12) जिन्होंने हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम पर जादूगरी का झूटा इल्ज़ाम लगाया.

(13) यानी जादू सीख कर और उस पर अमल और विश्वास करके और उसको दुरूस्त जान कर काफ़िर न बन. यह जादू फ़रमांबरदार और नाफ़रमान के बीच अन्तर जानने और परखने के लिये उतरा. जो इसको सीखकर इस पर अमल करे, काफ़िर हो जाएगा. शर्त यह है कि जादू में ईमान के विरूद्ध जो बातें और काम हों और जो उससे बचे, न सीखे या सीखे और उसपर अमल न करे और उसके कुफ़्रियात पर विश्वास न रखे वह मूमिन रहेगा, यही इमाम अबू मन्सूर मातुरीदी का कहना है. जो जादू कुफ़्र है उसपर अमल करने वाला अगर मर्द है, क़त्ल कर दिया जाएगा. जो जादू कुफ़्र नहीं, मगर उससे जानें हलाक की जाती हैं, उसपर अमल करने वाला तरीक़े को काटने वालों के हुक्म में है, मर्द हो या औरत. जादूगर की तौबह क़ुबूल है.( मदारिक)

(14) इससे मालूम हुआ कि असली असर रखने वाला अल्लाह तआला है. चीज़ों की तासीर उसी की मर्ज़ी पर है.

(15) अपने अंजामेकार और अज़ाब के कड़ेपन का.
(16) हज़रत सैयदे कायनात सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और क़ुरआने पाक पर.

सूरए बक़रह _ तैरहवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ तैरहवाँ रूकू

ऐ ईमान वालों (1)
“राइना” न कहो और यूं अर्ज़ करो कि हुज़ूर हम पर नज़र रख़ें और पहले ही से ग़ौर से सुनो
(2) और काफ़िरों के लिये दर्दनाक अज़ाब है (3)
वो जो काफ़िर हैं किताबी या मुश्रिक (4)
वो नहीं चाहते कि तुम पर कोई भलाई उतरे तुम्हारे रब के पास से(5)
और अल्लाह अपनी रहमत से ख़ास करता है जिसे चाहे और अल्लाह बड़े फ़ज्ल़(अनुकम्पा) वाला है जब कोई आयत हम मन्सूख़ (निरस्त) फ़रमाएं या भुला दें (6)
तो उससे बेहतर या उस जैसी ले आएंगे, क्या तुझे ख़बर नहीं कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है क्या तुझे ख़बर नहीं कि अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन की बादशाही और अल्लाह के सिवा तुम्हारा न कोई हिमायती न मददगार क्या यह चाहते हो कि अपने रसूल से वैसा सवाल करो जो मूसा से पहले हुआ था (7)
और जो ईमान के बदले कुफ़्र लें (8)
वह ठीक रास्ता बहक गया बहुत किताबियों ने चाहा (9)
काश तुम्हें ईमान के बाद कुफ़्र की तरफ़ फेर दें अपने दिलों की जलन से (10)
बाद इसके कि हक़ उनपर ख़ूब ज़ाहिर हो चुका है, तो तुम छोड़ो और दरगुज़र (क्षमा) करो यहां तक कि अल्लाह अपना हुक्म लाए बेशक अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर (शक्तिमान) है और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो (11)
और अपनी जानों के लिये जो भलाई आगे भेजोगे उसे अल्लाह के यहां पाओगे बेशक अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है और किताब वाले बोले हरगिज़ जन्नत में न जाएगा मगर वह जो यहूदी या ईसाई हो (12)
ये उनकी ख्य़ालबंदिया हैं, तुम फ़रमाओ लाओ अपनी दलील (13)
अगर सच्चे हो हाँ क्यों नहीं जिसने अपना मुंह झुकाया अल्लाह के लिये और वह नेकी करने वाला है(14)
तो उसका नेग उसके रब के पास है, और उन्हें न कुछ अन्देशा हो और न कुछ ग़म (15)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – तेरहवाँ रूकू

(1) जब हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अपने सहाबा को कुछ बताते या सिखाते तो वो कभी कभी बीच में अर्ज़ किया करते “राइना या रसूलल्लाह” . इसके मानी ये थे कि या रसूलल्लाह हमारे हाल की रिआयत कीजिये. यानी अपनी बातों को समझने का मौक़ा दीजिये. यहूदियों की ज़बान में यह कलिमा तौहीन का अर्थ रखता था. उन्हों ने उस नियत से कहना शुरू किया. हज़रत सअद बिन मआज़ यहूदियों की बोली के जानकार थे. आपने एक दिन उनकी ज़बान से यह कलिमा सुनकर फ़रमाया, ऐ अल्लाह के दुशमनो, तुम पर अल्लाह की लअनत. अगर मैं ने अब किसी की ज़बान से यह कलिमा सुना तो उसकी गर्दन मार दूंगा. यहूदियाँ ने कहा, हमपर तो आप गर्म होते हैं, मुसलमान भी तो यही कहते हैं. इसपर आप रंजीदा होकर अपने आक़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे कि यह आयत उतरी, जिसमें “राइना” कहने को मना कर दिया गया और इस मतलब का दूसरा लफ़्ज़ “उन्ज़ुरना” कहने का हुक्म हुआ.   इससे मालूम हुआ कि नबियों का आदर सत्कार और उनके समक्ष अदब की बात बोलना फ़र्ज़ है, और जिस बात में ज़रा  सी भी हतक या तौहीन का संदेह हो उसे ज़बान पर लाना मना है.

(2) और पूरी तरह कान लगाकर ध्यान से सुनो ताकि यह अर्ज़ करने की ज़रूरत ही न रहे कि हुज़ूर तवज्जुह फ़रमाएं, क्योंकि नबी के दरबार का यही अदब है. नबीयों के दरबार में आदमी को अदब के ऊंचे रूत्बों का लिहाज़ अनिवार्य है.

(3) “लिल काफ़िरीन”(और काफ़िरों के लिये) में इशारा है कि नबियों की शान में बेअदबी कुफ़्र है.
(4) यहूदियों की एक जमाअत मुसलमानों से दोस्ती और शुभेच्छा जा़हिर करती थी. उसको झुटलाने के लिये यह आयत उतरी मुसलमानों को बताया गया कि काफ़िर दोस्ती और शुभेच्छा के दावे में झूटे है.(जुमल)

(5)यानी काफ़िर एहले किताब और मुश्रिकीन दोनों मुसलमानों से दुश्मनी और कटुता रखते हैं और इस दुख में है कि उनके नबी मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को पैग़म्बरी और वही (देववाणी) अता हुई और मुसलमानों को यह बङी नेअमत मिली.(ख़ाज़िन)

(6) क़ुरआने करीम ने पिछली शरीअतों और पहली किताबों को मन्सूख़ यानी स्थगित फ़रमाया तो काफ़िरों को बड़ी घबराहट हुई और उन्होंने इसपर ताना किया. तब यह आयत उतरी और बताया गया कि जो स्थगित हुआ वह भी अल्लाह की तरफ़ से था और जिसने स्थगित किया (यानी क़ुरआन), वह भी अल्लाह की तरफ़ से है. और स्थगित करने वाली चीज़ कभी स्थगित होने वाली चीज़ से ज़्यादा आसान और नफ़ा देने वाली होती है. अल्लाह की क़ुदरत पर ईमान रखने वाले को इसमें शक करने की कोई जगह नहीं है. कायनात (सृष्टि ) में देखा जाता है कि अल्लाह तआला दिन से रात को, गर्मी से ठण्डी को,  जवानी को बचपन से, बीमारी को तंदुरूस्ती से, बहार से पतझड़ को स्थगित फ़रमाता है. यह तमाम बदलाव उसकी क़ुदरत के प्रमाण हैं. तो एक आयत और एक हुक्म के स्थगित होन में क्या आश्चर्य. स्थगन आदेश दरअस्ल पिछले हुक्म की मुद्दत तक के लिये था, और उस समय के लिये बिल्कुल मुनासिब था. काफ़िरों की नासमझी कि स्थगन आदेश पर ऐतिराज़ करते हैं और एहले किताब का ऐतिराज़ उनके अक़ीदों के लिहाज़ से भी ग़लत है. उन्हें हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की शरीअत के आदेश का स्थगन मानना पड़ेगा. यह मानना ही पड़ेगा कि सनीचर के दिन दुनिया के काम उनसे पहले हराम नहीं थे. यह भी इक़रार करना होगा कि तौरात में हज़रते नूह की उम्मत के लिये तमाम चौपाए हलाल होना बयान किया गया और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर बहुत से चौपाए हराम कर दिये गए. इन बातों के होते हुए स्थगन आदेश का इन्कार किस तरह सम्भव है.
जिस तरह एक आयत दूसरी आयत से स्थगित होती है. उसी तरह हदीसे मुतवातिर से भी होती है. स्थगन आदेश कभी सिर्फ़ हुक्म का, कभी तिलावत और हुक्म दोनों का. बेहक़ी ने अबू इमामा से रिवायत की कि एक अन्सारी सहाबी रात को तहज्जुद के लिये उठे और सूरए फ़ातिहा के बाद जो सूरत हमेशा पढ़ा करते थे उसे पढ़ना चाहा लेकिन वह बिल्कुल याद न आई और बिस्मिल्लाह के सिवा कुछ न पढ़ सके. सुबह को दूसरे सहाबा से इसका ज़िक्र किया. उन हज़रात ने फ़रमाया हमारा भी यही हाल है. वह सूरत हमें भी याद थी और अब हमारी याददाश्त में भी न रही. सबने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में वाक़िआ अर्ज़ किया. हुज़ूर ने फ़रमाया आज रात वह सूरत उठा ली गई. उसका हुक्म और तिलावत दोनों स्थगित हुए. जिन काग़जों पर वह लिखी हुई थी उन पर निशान तक बाक़ी न रहे.

(7) यहूदियों ने कहा ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) हमारे पास आप ऐसी किताब लाइये जो आसमान से एक साथ उतरे. उनके बारे में यह आयत नाज़िल हुई.

(8) यानी जो आयतें उतर चुकी हैं उनके क़ुबुल करने में बेजा (व्यर्थ) बहस करे और दूसरी आयतें तलब करे. इससे मालूम हुआ कि जिस सवाल में ख़राबी हो उसे बुजुर्गा के सामने पेश करना जायज़ नहीं और सबसे बड़ी ख़राबी यह कि उससे नाफ़रमानी ज़ाहिर होती हो.

(9) उहद की जंग के बाद यहूदियों की जमाअत ने हज़रते हुज़ैफ़ा बिन यमान और अम्मार बिन यासिर रदियल्लाहो अन्हुमा से कहा कि अगर तुम हक़ पर होते तो तुम्हें हार न होती. तुम हमारे दीन की तरफ़ वापस आ जाओ. हज़रत अम्मार ने फ़रमाया तुम्हारे नज़दीक एहद का तोड़ना कैसा है ? उन्होंने कहा, निहायत बुरा. आपने फ़रमाया, मैं ने एहद किया है कि ज़िन्दगी के अन्तिम क्षण तक सैयदे आलम मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से न फिरूंगा और कुफ़्र न अपनाऊंगा और हज़रत हुज़ैफ़ा ने फ़रमाया, मैं राज़ी हुआ अल्लाह के रब होने, मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के रसूल होने, इस्लाम के दीन होने, क़ुरआन के ईमान होने, काबे के क़िबला होने और मूमिनीन के भाई होने से. फिर ये दोनों सहाबी हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और आपको वाक़ए की ख़बर दी. हुज़ूर ने फ़रमाया तुमने बेहतर किया और भलाई पाई. इसपर यह आयत उतरी.

(10)  इस्लाम की सच्चाई जानने के बाद यहूदियों का मुसलमानों के काफ़िर और मुर्तद होने की तमन्ना करना और  यह चाहना कि वो ईमान से मेहरूम हो जाएं, हसद के कारण था, हसद बड़ी बुराई है. हदीस शरीफ़ में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया हसद से बचो वह नेकियों को इस तरह खाता है जैसे आग सूखी लक़डी को. हसद हराम है. अगर कोई शख़्स अपने माल व दौलत या असर और प्रभाव से गुमराही और बेदीनी फैलाता है, तो उसके फ़ितने से मेहफ़ूज रहने के लिये उसको हासिल नेअमतों के छिन जाने की तमन्ना हसद में दाख़िल नहीं और हराम भी नहीं.

(11) ईमान वालों को यहूदियों से बचने का हुक्म देने के बाद उन्हें अपने नफ़्स की इस्लाह की तरफ़ ध्यान दिलाता है.

(12) यानी यहूदी कहते हैं कि जन्नत में सिर्फ़ वही दाख़िल होंगे, और ईसाई कहते हैं कि फ़क़त ईसाई जाएंगे, और ये मुसलमानों को दीन से हटाने के लिये कहते हैं. जैसे स्थगन आदेश वग़ैरह के तुच्छ संदेह उन्होंने इस उम्मीद पर पेश किये थे कि मुसलमानों को अपने दीन में कुछ संदेह हो जाए. इसी तरह उनको जन्नत से मायूस करके इस्लाम से फेरने की कोशिश करते हैं. चुनांचे पारा के अन्त में उनका यह कथन दिया हुआ है “वक़ालू कूनू हूदन औ नसारा तहतदू” (यानी और किताब वाले बोले यहूदी या ईसाई हो जाओ, राह पा जाओगे). अल्लाह तआला उनके इस बातिल ख़्याल का रद फ़रमाता है.

(13) इस आयत से मालूम हुआ कि इन्कार का दावा करने वाले को भी दलील या प्रमाण लाना ज़रूरी है. इसके बिना दावा बातिल और झूठा होगा.

(14) चाहे किसी ज़माने, किसी नस्ल, किसी क़ौम का हो.

(15) इसमें इशारा है कि यहूदी और ईसाईयों का यह दावा कि जन्नत में फ़क़त वही मालिक हैं, बिल्कुल ग़लत है, क्योंकि जन्नत में दाख़िला सही अक़ीदे और नेक कर्मों पर आधारित है, और यह उनको उपलब्ध नहीं.

सूरए बक़रह _ चौदहवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ चौदहवाँ रूकू

और यहूदी बोले नसरानी (ईसाई) कुछ नहीं और नसरानी बोले यहूदी कुछ नहीं (1)
हालांकि वो किताब पढ़ते हैं (2)
इसी तरह जाहिलों ने उनकी सी बात कही (3)
तो अल्लाह क़यामत के दिन उनमें फ़ैसला कर देगा जिस बात में झगड़ रहे हैं और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन (4) जो अल्लाह की मस्जिदों को रोके उनमें खुदा का नाम लिये जाने से (5)
और उनकी वीरानी मे कोशिश करे (6)
उनको न पहुंचता था कि मस्जिदों में जाएं मगर डरते हुए उनके लिये दुनिया में रूस्वाई है (7)
और उनके लिये आख़िरत में बड़ा अज़ाब (8)
और पूरब पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह)  है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है और बोले ख़ुदा ने अपने लिये औलाद रखी, पाकी है उसे (9)
बल्कि उसीकी मिल्क (संपत्ति) है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है (10)
सब उसके हुज़ूर (प्रत्यक्ष) गर्दन डाले है नया पैदा करने वाला आसमानों और ज़मीन का (11)
और जब किसी बात का हुक्म फ़रमाए तो उससे यही फ़रमाता है कि हो जा और वह फ़ौरन हो जाती है (12)
और जाहिल  बोले (13) अल्लाह हम से क्यों नहीं कलाम करता (14)
या हमें कोई निशानी मिले (15) उनसे अगलों ने भी एेसी ही कही उनकी सी बात. उनके दिल एक से है (16)
बेशक हमने निशानियाँ खोल दीं यक़ीन वालों के लिये (17)
बेशक हमने तुम्हें हक़ के साथ भेजा ख़ुशख़बरी देता और डर सुनाता और तुमसे दोज़ख़ वालों का सवाल न होगा (18)
और कभी तुमसे यहूदी और नसारा (ईसाई) राज़ी न होंगे जब तक तुम उनके दीन का अनुकरण न करो (19)
तुम फ़रमाओ  अल्लाह ही की हिदायत हिदायत है (20)
और (ऐ सुनने वाले, कोई भी हो) अगर तू उनकी ख्वाहिशों पर चलने वाला हुआ बाद इसके कि तुझे इल्म आचुका तो अल्लाह से तेरा कोई बचाने वाला न होगा और न मददगार (21)
जिन्हें हमने किताब दी है वो जैसी चाहिये उसकी तिलावत (पाठ) करते है वही उस पर ईमान रखते है और  जो उसके इन्कारी हों तो वही घाटे वाले हैं (22)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – चौदहवाँ रूकू

(1) नजरात के ईसाइसों का एक दल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में आया तो यहूदी उलमा भी आए और दोनों में मुनाज़िरा यानी वार्तालाप शुरू हो गया. आवाज़ें बलन्द हुई, शोर मचा. यहूदियों ने कहा कि ईसाइयों का दीन कुछ नहीं और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और इन्जील शरीफ़ का इन्कार किया. इसी तरह ईसाईयों ने यहूदियों से कहा कि तुम्हारा दीन कुछ नहीं और तौरात शरीफ़ और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का इन्कार किया. इस बाब में यह आयत उतरी.

(2) यानी जानकारी के बावजूद उन्होंने ऐसी जिहालत की बात की. हालांकि इन्जील शरीफ़ जिसको ईसाई मानते हैं, उसमें तौरात शरीफ़ और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के नबी होने की पुष्टि है. इसी तरह तौरात जिसे यहूदी मानते हैं, उसमें हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के नबी होने और उन सारे आदेशों की पुष्टि है जो आपको अल्लाह तआला की तरफ़ से अता हुए.

(3) किताब वालों के उलमा की तरह उन जाहिलों ने जो इल्म रखते थे न किताब, जैसे कि मुर्तिपूजक, आग के पुजारी, वग़ैरह, उन्होंने हर एक दीन वाले को झुटलाना शुरू किया, और कहा कि वह कुछ नहीं. इन्हीं जाहिलों में से अरब के मूर्तिपूजक मुश्रिकीन भी हैं, जिन्होंने नबीये करीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके दीन की शान में ऐसी ही बातें कहीं.

(4) यह आयत बैतुल मक़दिस की बेहुरमती या निरादर के बारे में उतरी. जिसका मुख़्तसर वाक़िआ यह है कि रोम के ईसाईयो ने बनी इस्त्राईल पर चढ़ाई की. उनके सूरमाओं को क़त्ल किया, औरतों बच्चों को क़ैद किया, तौरात शरीफ़ को जलाया, बैतुल मक़दिस को वीरान किया, उसमें गन्दगी डाली, सुवर ज़िबह किये (मआज़ल्लाह). बैतुल मक़दिस हज़रत उमरे फ़ारूक की ख़िलाफ़त तक इसी वीरानी में पड़ा रहा. आपके एहदे मुबारक (समयकाल) में मुसलमानों ने इसको नए सिरे से बनाया. एक क़ौल यह भी है कि यह आयत मक्का के मुश्रिकों के बारे में उतरी, जिन्हों ने इस्लाम की शुरूआत में हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके साथियों को काबे में नमाज़ पढ़ने से रोका था, और हुदैबिया की जंग के वक़्त उसमें नमाज़ और हज़ से मना किया था.

(5) ज़िक्र नमाज़, ख़ुत्बा, तस्बीह, वअज़, नअत शरीफ़, सबको शामिल है. और अल्लाह के ज़िक्र को मना करना हर जगह बुरा है, ख़ासकर मस्जिदों में, जो इसी काम के लिये बनाई जाती हैं. जो शख़्स मस्जिद को ज़िक्र और नमाज़ से महरूम करदे, वह मस्जिद का वीरान करने वाला और बहुत बड़ा ज़ालिम है.

(6) मस्जिद की वीरानी जैसे ज़िक्र और नमाज़ के रोकने से होती है, ऐसी ही उसकी इमारत को नुक़सान पहुंचाने और निरादर करने से भी.

(7) दुनिया में उन्हें यह रूस्वाई पहुंची कि क़त्ल किये गए, गिरफ़्तार हुए, वतन से निकाले गए, ख़िलाफ़ते फ़ारूक़ी और उस्मानी में मुल्के शाम उनके क़ब्ज़े से निकल गया, बैतुल मक़दिस से ज़िल्लत के साथ निकाले गए.

(8) सहाबए किराम रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ एक अंधेरी रात सफ़र में थे. क़िबले की दिशा मालूम न हो सकी. हर एक शख़्स ने जिस तरफ़ उस का दिल जमा, नमाज़ पढ़ी. सुबह को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाल अर्ज़ किया तो यह आयत उतरी. इससे मालूम हुआ कि क़िबले की दिशा मालूम न हो सके तो जिस तरफ़ दिल जमा कि यह क़िबला है, उसी तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़े. इस आयत के उतरने के कारण के बारे में दूसरा क़ौल यह है कि यह उस मुसाफ़िर के हक़ में उतरी, जो सवारी पर नफ़्ल अदा करे, उसकी सवारी जिस तरफ़ मुंह फेर ले, उस तरफ़ उसकी नमाज़ दुरूस्त है. बुख़ारी और मुस्लिम की हदीसों में यह साबित है. एक क़ौल यह है कि जब क़िबला बदलने का हुक्म दिया गया तो यहूदियों ने मुसलमानों पर ताना किया. उनके रद में यह आयत उतरी. बताया गया कि पूर्व पश्चिम सब अल्लाह का है, जिस तरफ़ चाहे क़िबला निश्चित करे. किसी को ऐतिराज़ का क्या हक़ ? (ख़ाज़िन). एक क़ौल यह है कि यह आयत दुआ के बारे में उतरी है. हुज़ूर से पूछा गया कि किस तरफ़ मुंह करके दुआ की जाए. इसके जवाब में यह आयत उतरी. एक क़ौल यह है कि यह आयत हक़ से गुरेज व फ़रार में है. और ” ऐनमा तुवल्लु” (तुम जिधर मुंह करो) का ख़िताब उन लोगों को है जो अल्लाह के ज़िक्र से रोकते और मस्जिदों की वीरानी की कोशिश करते हैं. वो दुनिया की रूसवाई और आख़िरत के अज़ाब से कहीं भाग नहीं सकते, क्योंकि पूरब पश्चिम सब अल्लाह का है, जहाँ भागेंगे, वह गिरफ़्तार फ़रमाएगा. इस संदर्भ में “वज्हुल्लाह” का मतलब ख़ुदा का क़ुर्ब और हुज़ूर है. (फ़त्ह). एक क़ौल यह भी है कि मानी यह हैं कि अगर काफ़िर ख़ानए काबा में नमाज़ से मना करें तो तुम्हारे लिये सारी ज़मीन मस्जिद बना दी गई है, जहाँ से चाहे क़िबले की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ो.

(9) यहूदियों ने हज़रत उज़ैर को और ईसाईयों ने हज़रत मसीह को ख़ुदा का बेटा कहा. अरब के मुश्रिकीन ने फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ बताया. उनके रद में यह आयत उतरी. फ़रमाया “सुब्हानहू” वह पाक है इससे कि उसके औलाद हो. उसकी तरफ़ औलाद की निस्बत करना उसको ऐब लगाना और बेअदबी है. हदीस में है कि अल्लाह तआला फ़रमाता है इब्ने आदम ने मुझे गाली दी, मेरे लिये औलाद बताई. मैं औलाद और बीवी से पाक हूँ.

(10) और ममलूक होना औलाद होने के मनाफ़ी है. जब तमाम जगत उसका ममलूक है, तो कोई औलाद कैसे हो सकता है अगर कोई अपनी औलाद का मालिक हो जाए, वह उसी वक़्त आज़ाद हो जाएगी.

(11) जिसने बग़ैर किसी पिछली मिसाल के चीज़ों को शून्य से अस्तित्व प्रदान किया.

(12) यानी कायनात या सृष्टि उसके इरादा फ़रमाते ही अस्तित्व में आ जाती है.

(13) यानी एहले किताब या मूर्तिपूजक मुश्रिकीन.

(14) यानी वास्ते या माध्यम के बिना ख़ुद क्यों नही फ़रमाता जैसा कि फ़रिश्तों और नबियों से कलाम फ़रमाता है. यह उनके घमण्ड की सर्वोच्च सीमा और भारी सरकशी थी, उन्होंने अपने आप को फ़रिश्तों और नबियों के बराबर समझा. राफ़ेअ बिन ख़ुजैमा ने हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा, अगर आप अल्लाह के रसूल हैं तो अल्लाह से फ़रमाइये वह हमसे कलाम करे, हम ख़ुद सुनें, इस पर यह आयत उतरी.

(15) यह उन आयतों का दुश्मनी से इन्कार है जो अल्लाह तआला ने अता फ़रमाई.

(16) नासमझी, नाबीनाई, कुफ़्र और दुश्मनी में. इसमें नबीये करीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तसल्ली दी गई है कि आप उनकी सरकशी और ज़िद और इन्कार से दुखी न हों. पिछले काफ़िर भी नबियों के साथ ऐसा ही करते थे.

(17) यानी क़ुरआनी आयतें और खुले चमत्कार इन्साफ़ वाले को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के नबी होने का यक़ीन दिलाने के लिये काफ़ी हैं, मगर जो यक़ीन करने का इच्छुक न हो वह दलीलों या प्रमाणों से फ़ायदा नहीं उठा सकता.

(18) कि वो क्यों ईमान न लाए, इसलिये कि आपने अपना तबलीग़ का फ़र्ज़ पूरे तौर पर अदा फ़रमा दिया.

(19) और यह असम्भव है, क्योंकि वो झूठे और बातिल है.

(20) वही अनुकरण के क़ाबिल है और उसके सिवा हर एक राह झूठी और गुमराही वाली.

(21) यह सम्बोधन उम्मते मुहम्मदिया यानी मुसलमानों के लिये है कि जब तुमने जान लिया कि नबीयों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तुम्हारे पास सत्य और हिदायत लेकर आए, तो तुम हरग़िज़ काफ़िरों की ख़्वाहिशों की पैरवी न करना. अगर ऐसा किया तो तुम्हें कोई अल्लाह के अज़ाब से बचाने वाला नहीं है.(ख़ाज़िन)

(22) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़माया यह आयत एहले सफ़ीना के बारे में उतरी जो जअफ़र बिन अबी तालिब के साथ रसूले पाक के दरबार में हाज़िर हुए थे. उनकी तादाद चालीस थी. बत्तीस हबशा वाले और आठ शाम वाले पादरी. उनमें बुहैपा राहिब (पादरी) भी थे. मतलब यह है कि वास्तव में तौरात शरीफ़ पर ईमान लाने वाले वही हैं जो इसके पढ़ने का हक़ अदा करते हैं और उसके मानी समझते और मानते हैं और उसमें हुज़ूर सैयदे कायनात मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और गुण देखकर हुज़ूर पर ईमान लाते हैं और जो हुज़ूर के इन्कारी होते हैं वो तौरात शरीफ़ पर ईमान नहीं रखते.

सूरए बक़रह – पंद्रहवाँ रूकू

सूरए बक़रह – पंद्रहवाँ रूकू

ऐ यअक़ूब की सन्तान, याद करो मेरा एहसान जो मैं ने तुमपर किया और वह जो मैंने उस ज़माने के सब लोगों पर तुम्हें बड़ाई दी (122) और डरो उस दिन से कि कोई जान दूसरे का बदला न होगी और न उसको कुछ लेकर छोड़े और न क़ाफ़िर को कोई सिफ़ारिश नफ़ा दे (1)
और न उनकी मदद हो (123) और जब (2)
इब्राहिम को उसके रब ने कुछ बातों से आज़माया (3)
तो उसने वो पूरी कर दिखाई (4)
फ़रमाया मैं तुम्हें लोगों का पेशवा बनाने वाला हूँ अर्ज़ की मेरी औलाद से, फ़रमाया मेरा एहद ज़ालिमों को नहीं पहुंचता (5) (124)
और याद करो जब हमने उस घर को (6)
लोगों के लिये मरजअ (शरण स्थल) और अमन बनाया (7)
और इब्राहीम के खड़े होने की जगह को नमाज़ का मक़ाम बनाओ (8)
और हमने ताक़ीद फ़रमाई इब्राहीम व इस्माईल को कि मेरा घर ख़ूब सुथरा करो तवाफ़ वालो (परिक्रमा वालों) और एतिक़ाफ़ वालों (मस्जिद में बैठने वालों) और रूकू व सिजदे वालों के लिये (125) और जब अर्ज़ की इब्राहीम ने कि ऐ मेरे रब इस शहर को अमान वाला कर दे  और इसके रहने वालों को तरह तरह के फलो से रोज़ी दे जो उनमें से अल्लाह और पिछले दीन पर ईमान लाएं (9)
फ़रमाया और जो क़ाफिर हुआ थोड़ा बरतने को उसे भी दूंगा फिर उसे दोज़ख़ के अज़ाब की तरफ़ मजबूर कर दूंगा और  वह बहुत बुरी जगह पलटने की की (126) और जब उठाता था इब्राहीम उस घर की नींव और इस्माईल यह कहते हुए ऐ रब हमारे हम से क़ुबूल फ़रमा(10)
बेशक तू ही है सुनता जानता (127) ऐ रब हमारे और कर हमें तेरे हुज़ूर गर्दन रखने वाला (11)
और हमारी औलाद में से एक उम्मत (जन समूह) तेरी फ़रमाँबरदार (आज्ञाकारी) और हमें हमारी इबादत के क़ायदे बता और हम पर अपनी रहमत के साथ रूजू (तवज्जुह) फ़रमा (12)
बेशक तू ही है बहुत तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान (128)  ऐ रब हमारे और भेज उनमें (13)
एक रसूल उन्हीं में से कि उन्हें तेरी आयतें तिलावत फ़रमाए और उन्हें तेरी किताब (14)
और पुख़्ता (पायदार) इल्म सिखाए (15)
और उन्हें ख़ूब सुथरा फ़रमा दे (16) बेशक तू ही है ग़ालिब हिक़मत वाला (129)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – पंद्रहवाँ रूकू

(1) इसमें यहूदियों का रद है जो कहते थे हमारे बाप दादा बुजु़र्ग गुज़रे है, हमें शफ़ाअत (सिफ़ारिश) करने छु़ड़वा लेंगे. उन्हें मायूस किया जाता है कि शफ़ाअत काफ़िर के लिये नहीं.

(2) हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की पैदाइश अहवाज़ क्षेत्र में सूस रुथान पर हुई फिर आपके वालिद आपको नमरूद के मुल्क बाबुल में ले आए.यहूदि और ईसाई और अरब के मु्श्रिक सब आपकी बुजु़र्गी मानते और आपकी नस्ल में होने पर गर्व करते हैं. अल्लाह तआला ने आपके वो हालात बयान फ़रमाए जिनसे सब पर इस्लाम क़ुबूल करना लाज़िम हो जाता है, क्योंकि जो चीज़ें अल्लाह तआला ने आप पर वाजिब कीं वो इस्लाम की विशेषताओं में से हैं.

(3) खु़दाई आज़माइश यह है कि बन्दे पर कोई पाबन्दी लाज़िम फ़रमाकर दूसरों पर उनके खरे खोटे होने का इज़हार कर दे.

(4) जो बातें अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर आज़माइश के लिये वाजिब की थीं, उनमें तफसीर करने वालों के चन्द कौ़ल है. क़तादा का कहना है कि वो हज के मनासिक है. मुजाहिद ने कहा इससे वो दस चीज़ें मुराद है जो अगली आयतों में बयान की गई हैं. हज़रत इब्ने अब्बास का एक कौ़ल यह है कि वे दस चीज़ें ये हैं, मूंछें कतरवाना , कुल्ली करना, नाक में सफा़ई के लिये पानी इरुतेमाल करना, मिरुवाक करना, सर में मांग मिकालना, नाख़ुन तरशवाना, बग़ल के बाल दूर करना, पेडू के नीचे की सफ़ाई, ख़तना, पानी से इरुतंजा करना. ये सब चीज़ें हज़रत  इब्राहीम पर वाजिब थीं और हम पर उनमें से कुछ वाजिब हैं.

(5) यानी आपकी औलाद में जो ज़ालिम (काफ़िर) हैं वो इमारत की पदवी न पाएंगे. इससे मालूम हुआ कि काफ़िर मुसलमानों का पेशवा नहीं हो सकता और मुसलमानों को उसका अनुकरण जायज़ नहीं.

(6) बैत से काबा शरीफ़ मुराद है और इसमें तमाम हरम शरीफ़ दाख़िल है.

(7) अम्न बनाने से यह मुराद है कि हरमे काबा में क़त्ल व लूटमार हराम है या यह कि वहाँ शिकार तक को अम्न है. यहाँ तक कि हरम शरीफ़ में शेर भेड़िये भी शिकार का पीछा नहीं करते, छोड़ कर लौट जाते हैं. एक क़ौल यह है कि ईमान वाला इसमें दाख़िल होकर अज़ाब से सुरक्षित हो जाता है. हरम को हरम इसलिये कहा जाता है कि उसमें क़त्ल, ज़ुल्म, शिकार हराम और मना है. (अहमदी) अगर कोई मुजरिम भी दाख़िल हो जाए तो वहाँ उसपर हाथ न डाला जाएगा. (मदारिक)

(8) मक़ामे इब्राहीम वह पत्थर है जिसपर खड़े होकर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने काबए मुअज़्ज़मा की बिना फ़रमाई और इसमें आपके क़दम मुबारक का नशान था. उसको नमाज़ का मक़ाम बनाने का मामला महबबत के लिये है. एक कौ़ल यह भी है कि इस नमाज़ से तवाफ़ की दो रकअतें मुराद हैं. (अहमदी वग़ैरह)

(9) चूंकि इमारत के बारे में “ला यनालो अहदिज़ ज़ालिमीन” (यानी मेरा एहद ज़ालिमों को नहीं पहुंचता)इरशाद हो चुका था, इसलिये हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने इस दुआ में ईमान वालों को ख़ास फ़रमाया और यही अदब की शान थी. अल्लाह ने करम किया. दुआ क़ुबूल हुई और इरशाद फ़रमाया कि रिज़्क़ सब को दिया जाएगा, ईमान वालो को भी, काफ़िर को भी. लेकिन काफ़िर का रिज़्क़ थोड़ा है, यानी सिर्फ दुनियावी ज़िनदगी में वह फ़ायदा उठा सकता है.

(10) पहली बार काबए मुअज़्ज़मा की बुनियाद आदम अलैहिस्सलाम ने रखी और तूफाने नूह के बाद फिर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उसी बुनियाद पर तामीर फ़रमाई . यह तामीर ख़ास आपके मुबारक हाथ से हुई. इसके लिये पत्थर उठाकर लाने की ख़िदमत और सआदत इरुमाईल अलैहिस्सलाम को प्राप्त हुई. दोनों हज़रात ने उस वक्त यह दुआ की कि या रब हमारी यह फ़रमाँबरदारी और ख़िदमत क़ुबूल फ़रमा.

(11) वो हज़रत अल्लाह तआला के आज्ञाकारी और मुख़लिस बन्दे थे, फिर भी यह दुआ इसलिये है कि ताअत और इख़लास में और ज़्यादा कमाल की तलब रखतें हैं. ताअत का ज़ौक़ सेर नहीं होता, सुब्हानल्लाह ,हर एक की फ़िक्र उसकी हिम्मत पर है.

(12) हज़रत इब्राहीम और हज़रत इरुमाईल अलैहिस्सलाम मासूम हैं. आपकी तरफ़ तो यह तवाज़ो है और अल्लाह वालों के लिये तालीम है. यह मक़ाम दुआ की क़ुबूलियत की जगह है, और यहाँ दुआ और तौबह हज़रत इब्राहीम की सु्न्नत है.

(13) यानी हज़रत इब्राहीम और हज़रत इरुमाईल अलैहिस्सलाम की ज़ुर्रियत में यह दुआ सैयदुल अम्बिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिये थी, यानी काबए मुअज़्ज़मा की तामीर की अज़ीम ख़िदमात बजा लाने के लिये और तौबह और प्रायश्चित करने के बाद हज़रत इब्राहीम और हज़रत इरुमाईल ने यह दुआ की, कि या रब, अपने मेहबूब नबीये आख़िरूज़्ज़माँ सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हमारी नरुल में प्रकट फ़रमा और यह बुज़ुर्गी हमें इनायत कर. यह दुआ क़ुबूल हुई और उन दोनों साहिबों की नरुल में हुज़ूर के सिवा कोई नबी नहीं हुआ, औलादे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम में बाक़ी तमाम नबी हज़रत इसहाक़ की नरुल से हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपना मीलाद शरीफ़ ख़ुद बयान किया. इमाम बग़वी ने एक हदीस रिवायत की, कि हुज़ूर ने फ़रमाया मैं अल्लाह तआला के नज़्दीक ख़ातिमुन नबिय्यीन लिखा हुआ था. उस वक़्त भी जब हज़रत आदम के पुतले का ख़मीर हो रहा था. मैं तुम्हें अपनी शुरूआत की ख़ूर दूँ. मैं इब्राहीम की दुआ हूँ. ईसा की ख़ुशख़बरी हूँ, अपनी वालिद के उस ख़्वाब की ताबीर हूँ जो उन्होंने मेरी पैदाइश के वक़्त देखा और उनके लिये एक चमकता नूर ज़ाहिर हुआ जिससे मुल्के शाम के महल उनके लिये रौशन हो गए. इस हदीस में इब्राहीम की दुआ से यही दुआ मुराद है जो इस आयत में दी गई है. अल्लाह तआला ने यह दुआ क़ुबूल फ़रमाई और आख़िर ज़माने में  हुज़ूर सैयदे अम्बिया मुहम्मदे मुरुतफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अपना आख़िरी रसूल बनाकर भेजा. यह हम पर अल्लाह का एहसान है. (जुमल व ख़ाज़िन)

(14) इस किताब से क़ुरआने पाक और इसकी तालीम से इसकी हक़ीक़तों और मानी का सीखना मुराद है.
(15) हिकमत के मानी में बहुत से अक़वाल हैं. कुछ के नज़्दीक हिकमत से फ़िक़्ह मुराद है. कतादा का कहना है कि हिकमत सुन्नत का नाम है. कुछ कहते हैं कि हिकमत अहकाम के इल्म को कहते हैं. खुलासा यह कि हिकमत रहरुयों की जानकारी का नाम है.

(16) सुथरा करने के मानी यह हैं कि नफ़्स की तख़्ती और आत्मा को बराईयों से पाक करके पर्दे उठा दें और क्षमता के दर्पण को चमका कर उन्हें इस क़ाबिल करदें कि उनमें हक़ीक़तों की झलक नज़र आने लगे.

सूरए बक़रह – सोलहवाँ रूकू

सूरए बक़रह – सोलहवाँ रूकू

और इब्राहीम के दीन से कौन मुंह फेरे (1)
सिवा उसके जो दिल का मूर्ख है और बेशक ज़रूर हम ने दुनिया में उसे चुन लिया (2)
और बेशक वह आख़िरत में हमारे ख़ास कुर्ब (समीपता) की योग्यता वालों में हैं (3) (130)
जबकि उससे उसके रब ने फ़रमाया गर्दन रख, अर्ज़ की मैंने गर्दन रखी जो रब है सारे जहान का (131)
अर्ज़ की वसीयत की इब्राहीम ने अपने बेटों को और यअक़ूब ने कि मेरे बेटो बेशक अल्लाह ने यह दीन तुम्हारे लिये चुन लिया तो न मरना मगर मुसलमान  (132) बल्कि तुम में के ख़ुद मौजूद थे (4)
जब यअक़ूब को मौत आई जबकि उसने अपने बेटों से फ़रमाया मेरे बाद किसकी पूजा करोगे बोले हम पूजेंगे उसे जो ख़ुदा है आपका  और आपके आबा (पूर्वज) इब्राहीम और इस्माईल (5)
और इस्हाक़ का एक ख़ुदा और हम  उसके हुज़ूर गर्दन रखे है  (133) यह  (6)
एक उम्मत है कि गुजर चुकी  (7)
उनके लिये जो उन्होंने कमाया और तुम्हारे लिये है जो तुम कमाओ और उनके कामों की तुम से पूछगछ न होगी  (134) और किताबी बोले (8)
यहूदी या नसरानी हो जाओ राह पा जाओगे, तुम फ़रमाओ बल्कि हम तो इब्राहीम का दीन लेते हैं जो हर बातिल  (असत्य) से अलग थे और मुश्रिकों से न थे (9) (135)
यूं कहो कि हम ईमान लाए अल्लाह पर और उसपर जो हमारी तरफ़ उतरा और जो उतारा गया इब्राहीम  और इस्माईल व इस्हाक़ व यअक़ूब  और उनकी औलाद जो प्रदान किये गए मूसा व ईसा और जो अता किये गए बाक़ि नबी अपने रब के पास से हम उन में किसी पर ईमान में फ़र्क़ नहीं करते और हम अल्लाह के हुज़ूर गर्दन रखे हैं  (136) फिर अगर वो भी यूंही ईमान लाए जैसा तुम लाए जब तो वो हिदायत पा गए  और अगर मुंह फेरें तो वो निरी ज़िद में हैं (10) तो ऐ मेहबूब शीघ्र ही अल्लाह उनकी तरफ़ से तुम्हें किफ़ायत करेगा (काफ़ी होगा) और वही हे सुनता जानता (11)
(137)  हमने अल्लाह की रैनी ली (12)
और अल्लाह से बेहतर किसकी रैनी, और हम उसी को पूजते हैं (138) तुम फ़रमाओ क्या अल्लाह के बारे में झगड़ते हो  (13)
हालांकि वह हमारा भी मालिक है और तुम्हारा भी (14)
और हमारी करनी हमारे साथ और तुम्हारी करनी तुम्हारे साथ और निरे उसी के हैं (15)
(139) बल्कि तुम यूं कहते हो कि इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक़ व यअक़ूब और उनके बेटे यहूदी या नसरानी थे तुम फ़रमाओ क्या तुम्हें इल्म ज़्यादा है या अल्लाह को  (16)
और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जिसके पास अल्लाह की तरफ़ की गवाही हो और वह उसे छुपाए(17)
और ख़ुदा तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं  (140) वह एक गिराह  (समूह) है कि गुज़र गया उनके लिये उनकी कमाई और तुम्हारे लिये तुम्हारी कमाई और उनके कामों की तुमसे पूछगछ न होगी  (141)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – सोलहवाँ रूकू

(1) यहूदी आलिमों में से हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम ने इस्लाम लाने के बाद अपने दो भतीजों मुहाजिर और सलमह को इस्लाम की तरफ़ बुलाया और उनसे फ़रमाया कि तुमको मालूम है कि अल्लाह तआला ने तौरात में फ़रमाया है कि मैं इस्माईल की औलाद से एक नबी पैदा करूंगा जिनका नाम अहमद होगा. जो उनपर ईमान लाएगा, राह पाएगा और जो उनपर ईमान न लाएगा, उसपर लअनत पड़ेगी. यह सुनकर सलमह ईमान ले आए और मुहाजिर ने इस्लाम से इन्कार कर दिया. इस पर अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल फ़रमाकर ज़ाहिर कर दिया कि जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने ख़ुद इस रसूले मुअज़्ज़म के भेजे जाने की दुआ फ़रमाई, तो जो उनके दीन से फिरे वह हज़रत इब्राहीम के दीन से फिरा. इसमें यहूदियों, ईसाईयों और अरब के मूर्ति पूजकों पर ऐतिराज़ है, जो अपने आपको बड़े गर्व से हज़रत इब्राहीम के साथ जोड़ते थे. जब उनके दीन से फिर गए तो शराफ़त कहाँ रही.

(2) रिसालत और क़ु्र्बत के साथ रसूल और ख़लील यानी क़रीबी दोस्त बनाया.

(3) जिनके लिये बलन्द दर्जे हैं. तो जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम दीन दुनिया दोनों की करामतों के मालिक हैं, तो उनकी तरीक़त यानी रास्ते से फिरने वाला ज़रूर नादान और मूर्ख है.

(4) यह आयत यहूदियों के बारे में नाज़िल हुई. उन्होंने कहा था कि हज़रत याकूब अलैहिस्सलाम ने अपनी वफ़ात के रोज़ अपनी औलाद को यहूदी रहने की वसिय्यत की थी. अल्लाह तआला ने उनके इस झूठ के रद में यह आयत उतारी (ख़ाज़िन). मतलब यह कि ऐ बनी इस्त्राईल, तुम्हारे लोग हज़रत यअक़ूब अलैहिस्सलाम के आख़िरी वक़्त उनके पास मौजूद थे, जिस वक़्त उन्होंने अपने बेटों को बुलाकर उनसे इस्लाम और तौहीद यानी अल्लाह के एक होने का इक़रार लिया था और यह इक़रार लिया था जो इस आयत में बताया गया है.

(5)  हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम को हज़रत यअक़ूब के पूर्वजों में दाख़िल करना तो इसलिये है कि आप उनके चचा हैं और चचा बाप बराबर होता है. जैसा कि हदीस शरीफ़ में है. और आपका नाम हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम से पहले ज़िक्र फ़रमाना दो वजह से है, एक तो यह कि आप हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम से चौदह साल बड़े हैं, दूसरे इसलिये कि आप सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पूर्वज हैं.

(6) यानी हज़रत इब्राहीम और यअक़ूब अलैहिस्सलाम और उनकी मुसलमान औलाद.

(7) ऐ यहूदियों, तुम उनपर लांछन मत लगाओ.

(8) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यह आयत यहूदियों के रईसों और नजरान के ईसाइयो के जवाब में उतरी. यहूदियों ने तो मुसलमानों से यह कहा था कि हज़रत मूसा सारे नबियों में सबसे अफ़जल यानी बुज़ुर्गी वाले है. और यहूदी मज़हब सारे मज़हबों से ऊंचा है. इसके साथ उन्होंने हज़रत सैयदे कायनात मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और इन्जील शरीफ़ और क़ुरआन शरीफ़ के साथ कुफ़्र करके मुसलमानों से कहा था कि यहूदी बन जाओ. इसी तरह ईसाइयों ने भी अपने ही दीन को सच्चा बताकर मुसलमानों से ईसाई होने को कहा था. इस पर यह आयत उतरी.

(9) इसमें यहूदियों और ईसाइयो वग़ैरह पर एतिराज है कि तुम मुश्रिक हो, इसलिये इब्राहीम की मिल्लत पर होने का दावा जो तुम करते हो वह झूटा है. इसके बाद मुसलमानों को ख़िताब किया जाता है कि वो उन यहूदियों और ईसाइयों से यह कहदें “यूँ कहो कि हम ईमान लाए, अल्लाह पर और उस पर जो हमारी तरफ़ उतरा और जो उतारा गया इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक़ व यअक़ूब और उनकी औलाद पर……………(आयत के अन्त तक).

(10) और उनमें सच्चाई तलाश करने की भावना नहीं.

(11) यह अल्लाह की तरफ़ से ज़िम्मा है कि वह अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को ग़लबा अता फ़रमाएगा, और इस में ग़ैब की ख़बर है कि आयन्दा हासिल होने वाली विजय और कामयाबी को पहले से ज़ाहिर कर दिया. इसमेंनबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का चमत्कार है कि अल्लाह तआला का यह ज़िम्मा पूरा हुआ और यह ग़ैबी ख़बर सच हो कर रही. काफ़िरों के हसद, दुश्मनी और उनकी शरारतों से हुज़ूर को नुक़सान न पहुंचा. हुज़ुर की फ़तह हुई. बनी क़ुरैज़ा क़त्ल हुए. बनी नुज़ैर वतन से निकाले गए. यहूदियों और ईसाइयों पर जिज़िया मुक़र्रर हुआ.

(12) यानी जिस तरह रंग कपड़े के ज़ाहिर और बातिन पर असर करता है, उसी तरह अल्लाह के दीन के सच्चे एतिक़ाद हमारी रग रग में समा गए. हमारा ज़ाहिर और बातिन, तन और मन उसके रंग मे रंग गया. हमारा रंग दिखावे का नहीं, जो कुछ फ़ायदा न दे, बल्कि यह आत्मा को पाक करता है. ज़ाहिर में इसका असर कर्मों से प्रकट होता है. ईसाई जब अपने दीन में किसी को दाख़िल करते या उनके यहाँ कोई बच्चा पैदा होता तो पानी में ज़र्दरंग डालकर उस व्यक्ति या बच्चे को ग़ौता देते और कहते कि अब यह सच्चा हुआ. इस आयत में इसका रद फ़रमाया कि यह ज़ाहिरी रंग किसी काम का नहीं.

(13) यहूदियों ने मुसलमानों से कहा हम पहली किताब वाले हैं, हमारा क़िबला पुराना है, हमारा दीन क़दीम और प्राचीन है. हम में से नबी हुए हैं. अगर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम नबी होते तो हम में से ही होते. इस पर यह मुबारक आयत उतरी.

(14) उसे इख़्तियार है कि अपने बन्दों में से जिसे चाहे नबी बनाए, अरब में से हो या दूसरों में से.

(15) किसी दूसरे को अल्लाह के साथ शरीक नहीं करते और इबादत और फ़रमाँबरदारी ख़ालिस उसी के लिये करते हैं. तो हम महरबानियों और इज्ज़त के मुस्तहिक़ हैं.

(16) इसका भरपूर जवाब यह है कि अल्लाह ही सबसे ज़्यादा जानता है. तो जब उसने फ़रमाया “मा काना इब्राहीमो यहूदिय्यन व ला नसरानिय्यन” (इब्राहीम न यहूदी थे, न ईसाई) तो तुम्हारा यह कहना झूटा हुआ.

(17) यह यहूदियों का हाल है जिन्हों ने अल्लाह तआला की गवाहियाँ छुपाईं जो तौरात शरीफ़ में दर्ज थीं कि मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उसके नबी हैं और उनकी यह तारीफ़ और गुण हैं और हज़रत इब्राहीम मुसलमान हैं और सच्चा दीन इस्लाम है, न यहूदियत न ईसाइयत.

सूरए बक़रह – सत्तरहवाँ रूकू

सूरए बक़रह – सत्तरहवाँ रूकू

अब कहेंगे (1)
बेवकूफ़ लोग किसने फेर दिया मुसलमानों को, उनके इस क़िबले से, जिसपर थे (2)
तुम फ़रमा दो कि पूरब और पश्चिम सब अल्लाह ही का है (3)
जिसे चाहे सीधी राह चलाता है (142) और बात यूं ही है कि हमने तुम्हें किया सब उम्मतों से अफ़ज़ल, कि तुम लोगों पर गवाह हो(4)
और ये रसूल तुम्हारे निगहबान और गवाह(5)
और ऐ मेहबूब तुम पहले जिस क़िबले पर थे हमने वह इसी लिये मुक़र्रर (निश्चित) किया था कि देखें कौन रसूल के पीछे चलता है और कौन उल्टे पांव फिर जाता है(6)
और बेशक यह भारी थी मगर उनपर, जिन्हें अल्लाह ने हिदायत की, और अल्लाह की शान नहीं कि तुम्हारा ईमान अकारत करे(7)
बेशक अल्लाह आदमियों पर बहुत मेहरबान, मेहर (कृपा) वाला है और (143) हम देख रहे हैं बार बार तुम्हारा आसमान की तरफ़ मुंह करना (8)
तो जरूर हम तुम्हें फेर देंगे उस क़िबले की तरफ़ जिसमें तुम्हारी ख़ुशी है अभी अपना मुंह फेर दो मस्जिदे हराम की तरफ़, और ऐ मुसलमानों तुम जहां कहीं हो अपना मुंह उसी की तरफ़ करो(9)
और वो जिन्हें किताब मिली है ज़रूर जानते है कि यह उनके रब की तरफ़ से हक़ है (10)
और अल्लाह उनके कौतुकों से बेख़बर नहीं (144) और अगर तुम उन किताबियों के पास हर निशानी लेकर आओ वो तुम्हारे क़िबले की पैरवी (अनुकरण) न करेंगे (11)
और न तुम उनके क़िबले की पैरवी करो (12)
और आपस में एक दूसरे के क़िबले के ताबे(फ़रमाँबरदार) नहीं (13)
और ( ऐ सुनने वाले जो कोई भी हो ) अगर तू उनकी ख़्वाहिशों पर चला बाद इसके कि तुझे इल्म मिल चुका तो उस वक़्त तू ज़रूर सितमगार (अन्यायी) होगा (145)
जिन्हें हमने किताब अता फ़रमाई (14)
वो उस नबी को ऐसा पहचानते हैं जैसे आदमी अपने बेटों को पहचानता है (15)
और बेशक उनमें एक गिरोह (समूह) जान बूझकर हक़ (सच्चाई) छुपाते हैं (16)
(146)  ( ऐ सुनने वाले) ये सच्चाई है तरे रब की तरफ़ से (या सच्चाई वही है जो तेरे रब की तरफ़ से हो) तो ख़बरदार तू शक ना करना (147)

दूसरा पारा : सयक़ूल
तफ़सीर :

सूरए बक़रह – सत्तरहवाँ रूकू

(1) यह आयत यहूदियों के बारे में नाज़िल हुई, जब बैतुल मक़दिस की जगह काबे को क़िबला बनाया गया. इस पर उन्होंने ताना किया क्योंकि उन्हें यह नागवार था और वो स्थगन आदेश के क़ायल न थे. एक क़ौल पर, यह आयत मक्के के मुश्रिकों के और एक क़ौल पर, मुनाफ़िक़ों के बारे में उतरी और यह भी हो सकता है कि इससे काफ़िरों के ये सब गिरोह मुराद हों, क्योंकि ताना देने और बुरा भला कहने में सब शरीक थे. और काफ़िरों के ताना देने से पहले क़ुरआने पाक में इसकी ख़बर दे देना ग़ैबी ख़बरों में से है. तअना देने वालों को बेवक़ूफ़ इसलिये कहा गया कि वो निहायत खुली बात पर ऐतिराज करने लगे जबकि पिछले नबीयों ने आपका लक़ब “दो क़िबलों वाला” बताया भी था और क़िबले का बदला जाना ख़बर देते आए. ऐसे रौशन निशान से फ़ायदा न उठाया और ऐतिराज किये जाना परले दर्जे की मुर्खता है.

(2) क़िबला उस दिशा को कहते हैं जिसकी तरफ़ आदमी नमाज़ में मुंह करता है. यहाँ क़िबला से बैतुल मक़दिस मुराद है.

(3) उसे इख़्तियार है जिसे चाहे क़िबला बनाए. किसी को ऐतिराज का क्या हक़. बन्दे का काम फ़रमाँबरदारी है.

(4) दुनिया और आख़िरत में. दुनिया में तो यह कि मुसलमान की गवाही ईमान वाले और काफ़िर सबके हक़ में शरई तौर से भरोसे वाली है और काफ़िर की गवाही मुसलमान पर माने जाने के क़ाबिल नहीं. इससे यह भी मालूम हुआ कि किसी बात पर इस उम्मत की सर्वसहमति अनिवार्य रूप से क़ुबूल किय जाने योग्य है. गुज़रे लोगों के हक़ में भी इस उम्मत की गवाही मानी जाएगी. रहमत और अज़ाब के फ़रिश्ते उसके मुताबिक अमल करते हैं. सही हदीस की किताबों में है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सामने एक जनाज़ा गुज़रा. आपके साथियों ने उसकी तारीफ़ की. हुज़ूर ने फ़रमाया “वाजिब हुई”. फिर दूसरा जनाज़ा गुज़रा. सहाबा ने उसकी बुराई की. हुज़ूर ने फ़रमाया “वाजिब हुई”. हज़रत उतर ने पूछा कि हुज़ूर क्या चीज़ वाजिब हुई? फ़रमाया : पहले जनाज़े की तुमने तारीफ़ की, उसके लिये जन्नत वाजिब हुई. दूसरे की तुमने बुराई की, उसके लिये दोज़ख वाजिब हुई. तुम ज़मीन में अल्लाह के गवाह हो. फिर हुज़ूर ने यह आयत तिलावत फ़रमाई. ये तमाम गवाहियाँ उम्मत के नेक और सच्चे लोगों के साथ ख़ास हैं, और उनके विश्वसनीय होने के लिये ज़बान की एहतियात शर्त है. जो लोग ज़बान की एहतियात नहीं करते और शरीअत के ख़िलाफ़ बेजा बातें उनकी ज़बान से निकलती हैं और नाहक़ लानत करते हैं, सही हदीस की किताबों में है कि क़यामत के दिन न वो सिफ़ारिशी होंगे और न गवाह. इस उम्मत की एक गवाही यह भी है कि आख़िरत में जब तमाम अगली पिछली उम्मतें जमा होंगी और काफ़िरों से फ़रमाया जाएगा, क्या तुम्हारे पास मेरी तरफ़ से डराने और निर्देश पहुंचाने वाले नहीं आए, तो वो इन्कार करेंगे और कहेंगे कोई नहीं आया. नबियों से पूछा जाएगा, वो अर्ज़ करेंगे कि ये झूटे हैं, हमने इन्हें तेरे निर्देश बताए. इस पर उनसे दलील तलब की जाएगी. वो अर्ज़ करेंगे कि हमारी गवाह उम्मते मुहम्मदिया है. ये उम्मत पैग़म्बरों की गवाही देगी कि उन हज़रात ने तबलीग़ फ़रमाई. इस पर पिछली उम्मतों के काफ़िर कहेंगे, इन्हें क्या मालूम, ये हमसे बाद हुए थे. पूछा जाएगा तुम कैसे जानते हो. ये अर्ज़ करेंगे, या रब तूने हमारी तरफ़ अपने रसूल मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को भेजा, क़ुरआन पाक उतारा, उनके ज़रिये हम क़तई यक़ीनी तौर पर जानते हैं कि नबियों ने तबलीग़ का फ़र्ज़ भरपूर तौर से अदा किया. फिर नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से आपकी उम्मत के बारे में पूछा जाएगा. हुजू़र उनकी पुष्टि फ़रमाएंगे. इससे मालूम हुआ कि जिन चीज़ों की यक़ीनी जानकारी सुनने से हासिल हो उसपर गवाही दी जा सकती है.

(5) उम्मत को तो रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के बताए से उम्मतों के हाल और नबियों की तबलीग़ की क़तई यक़ीनी जानकारी है और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के करम से नबुव्वत के नूर के ज़रिये हर आदमी के हाल और उसके ईमान की हक़ीक़त और अच्छे बुरे कर्मों और महब्बत व दुश्मनी की जानकारी रखते हैं. इसीलिये हुज़ूर की गवाही दुनिया में शरीअत के हुक्म से उम्मत के हक़ में मक़बूल है. यही वजह है कि हुज़ूर ने अपने ज़माने के हाज़िरीन के बारे में जो कुछ फ़रमाया, जैसे कि सहाबा और नबी के घर वालों की बुज़ुर्गी और बड़ाई, या बाद वालों के लिये, जैसे हज़रत उवैस और इमाम मेहदी वग़ैरह के बारे में, उस पर अक़ीदा रखना वाजिब है. हर नबी को उसकी उम्मत के कर्मों की जानकारी दी जाती है. ताकि क़यामत के दिन गवाही दे सकें चूंकि हमारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की गवाही आम होगी इसलिये हुज़ूर तमाम उम्मतों के हाल की जानकारी रखते हैं. यहाँ शहीद का मतलब जानकार भी हो सकता है, क्योंकि शहादत का शब्द जानकारी और सूचना के लिये भी आया है. अल्लाह तआला ने फ़रमाया “वल्लाहो अला कुल्ले शैइन शहीद” यानी और अल्लाह हर चीज़ की जानकारी रखता है. (सूरए मुजादलह, आयत 6)

(6) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पहले काबे की तरफ़ नमाज़ पढ़ते थे. हिजरत के बाद बैतुल मक़दिस की तरफ़ नमाज़ पढ़ने का हुक्म हुआ. सत्तरह महीने के क़रीब उस तरफ़ नमाज़ पढ़ी. फिर काबा शरीफ़ की तरफ़ मुंह करने का हुक्म हुआ. क़िबला बदले जाने की एक वजह यह बताई गई कि इससे ईमान वाले और काफ़िर में फ़र्क़ और पहचान साफ़ हो जाएगी. चुनान्वे ऐसा ही हुआ.

(7) बैतुल मक़दिस की तरफ़ नमाज़ पढ़ने के ज़माने में जिन सहाबा ने वफ़ात पाई उनके रिश्तेदारों ने क़िबला बदले जाने के बाद उनकी नमाज़ो के बारे में पूछा था, उसपर ये आयत उतरी और इत्मीनान दिलाया गया कि उनकी नमाज़ें बेकार नहीं गई, उनपर सबाब मिलेगा. नमाज़ को ईमान बताया गया क्योंकि इसकी अदा और जमाअत से पढ़ना ईमान की दलील है.

(8) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को काबे का क़िबला बनाया जाना पसन्द था और हुज़ूर इसी उम्मीद में आसमान की तरफ़ नज़र फ़रमाते थे. इसपर यह आयत उतरी. आप नमाज़ ही में काबे की तरफ़ फिर गए. मुसलमानों ने भी आपके साथ उसी तरफ़ रूख़ किया. इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला को अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की रज़ा और पसन्द मन्ज़ूर है और आपकी ख़ातिर ही काबे को क़िबला बनाया गया.

(9) इससे साबित हुआ कि नमाज़ में क़िबले की तरफ़ मुंह होना फ़र्ज़ है.

(10) क्योंकि उनकी किताबों में हुज़ूर की तारीफ़ के सिलसिले में यह भी दर्ज था कि आप बैतुल मक़दिस से काबे की तरफ़ फ़िरेंगे और उनके नबियों ने बशारतों के साथ हुज़ूर का यह निशान बताया था कि आप बैतुल मक़दिस और काबा दोनों क़िबलो की तरफ़ नमाज़ पढ़ेंगे.

(11) क्योंकि निशानी उसको लाभदायक हो सकती है जो किसी शुबह की वजह से इन्कारी हो. ये तो हसद और दुश्मनी के कारण इन्कार करते हैं, इन्हें इससे क्या नफ़ा होगा.

(12) मानी ये हैं कि यह क़िबला स्थगित न होगा. तो अब किताब वालों को यह लालच न रखना चाहिये कि आप उनमें से किसी के क़िबले की तरफ़ रूख़ करेंगे.

(13) हर एक का क़िबला अलग है. यहूदी तो बैतुल मक़दिस के गुम्बद को अपना क़िबला क़रार देते हैं और ईसाई बैतुल मक़दिस के उस पूर्वी मकान को, जहाँ हज़रत मसीह की रूह डाली गई. (फ़त्ह).

(14) यानी यहूदियों और ईसाईयों के उलमा.

(15) मतलब यह है कि पिछली किताबों में आख़िरी ज़माने के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के गुण ऐसे साफ़ शब्दों में बयान किये गए हैं जिनसे किताब वालों के उलमा को हुज़ूर के आख़िरी नबी होने में कुछ शक शुबह बाक़ी नहीं रह सकता और वो हुज़ूर के इस उच्चतम पद को पूरे यक़ीन के साथ जानते हैं. यहूदी आलिमों में से अब्दुल्लाह बिन सलाम इस्लाम लाए तो हज़रत उतर रदियल्लाहो अन्हो ने उनसे पूछा कि आयत “यअरिफ़ूनहू” (वो इस नबी को ऐसा पहचानते हैं……..) में जो पहचान बयान की गई है उसकी शान क्या है. उन्होंने फ़रमाया, ऐ उमर, मैंने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को देखा तो बग़ैर किसी शुबह के पहचान लिया और मेरा हुज़ूर को पहचानना अपने बेटों के पहचानने से कहीं ज़्यादा भरपूर और सम्पूर्ण है. हज़रत उमर ने पूछा, वह कैसे ? उन्होंने कहा मैं गवाही देता हूँ कि हुज़ूर अल्लाह की तरफ़ से उसके भेजे हुए रसूल हैं, उनके गुण अल्लाह तआला ने हमारी किताब तौरात में बयान फ़रमाए हैं. बेटे की तरफ़ से ऐसा यक़ीन किस तरह हो. औरतों का हाल ऐसा ठीक ठीक किस तरह मालूम हो सकता है. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने उनका सर चूम लिया. इससे मालूम हुआ कि ऐसी दीनी महब्बत में जिसमें वासना शामिल न हो, माथा चूमना जायज़ है.

(16) यानी तौरात और इन्जील में जो हुज़ूर की नअत और गुणगान है, किताब वालों के उलमा का एक गुट उसको हसद, ईर्ष्या और दुश्मनी से जानबूझ कर छुपाता है. सच्चाई का छुपाना गुनाह और बुराई है.

सूरए बक़रह – अठ्ठारहवाँ रूकू

सूरए बक़रह – अठ्ठारहवाँ रूकू

और एक के लिये तवज्जह की सम्त (दिशा) है कि वह उसी की तरफ़ मुंह करता है तो ये चाहो कि नेकियों में औरों से आगे निकल जाएं तुम कहीं हो अल्लाह तुम सब को इकट्ठा ले आएगा (1)
बेशक अल्लाह जो चाहे करें(148)  और जहां से आओ (2)
अपना मुंह मस्जिदें हराम की तरफ़ करों और वह ज़रूर तुम्हारे कामों से ग़ाफ़िल नहीं (149) और ऐ मेहबूब तुम जहां से आओ अपना मुंह मस्जिदें हराम की तरफ़ करो और ऐ मुसलमानों तुम जहां कहीं हो अपना मुंह उसी की तरफ़ करो कि लोगों को तुमपर कोई हुज्जत (तर्क) न रहे(3)
मगर जो उनमें ना इन्साफ़ी करें (4)
तो उनसे न डरो और मुझसे डरो और यह इसलिये है कि मैं अपनी नेअमत (अनुकम्पा) तुमपर पूरी करूं  और किसी तरह तुम हिदायत पाओ (150) जैसा हमने तुममें भेजा एक रसूल तुम में से (5)
कि तुमपर हमारी आयतें तिलावत करता है (पढ़ता है) और तुम्हें पाक करता (6)
और किताब और पुख़्ता इल्म सिखाता है (7)
और तुम्हें वह तालीम फ़रमाता है जिसकी तुम्हें जानकारी न थी (151) तो मेरी याद करो, मैं तुम्हारा चर्चा करूंगा (8)
और मेरा हक़ मानो और मेरी नाशुक्री ना करो (152)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – अठ्ठारहवाँ रूकू

(1) क़यामत के दिन सबको जमा फ़रमाएगा और कर्मों का बदला देगा.

(2) यानी चाहे किसी शहर से सफ़र के लिये निकलो, नमाज़ में अपना मुंह मस्जिदे हराम (काबे) की तरफ़ करो.

(3) और काफ़िर को यह ताना करने का मौक़ा न मिले कि उन्होंने क़ुरैश के विरोध में हज़रत इब्राहीम और इस्माईल अलैहिमस्सलाम का क़िबला भी छोड़ दिया जबकि नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उनकी औलाद में है और उनकी बड़ाई और बुज़ुर्गी को मानते भी हैं.

(4) और दुश्मनी के कारण बेजा ऐतिराज़ करें.

(5) यानी सैयदे आलम मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(6) नापाकी, शिर्क और गुनाहों से.

(7) हिकमत से मुफ़स्सिरीन ने फ़िक़्ह मुराद ली है.

(8) ज़िक्र तीन तरह का होता है (1) ज़बान से (2) दिल में (3) शरीर के अंगों से. जबानी ज़िक्र तस्बीह करना, पाकी बोलना और तारीफ़ करना वग़ैरह है. ख़ुत्बा, तौबा इस्तिग़फार, दुआ वग़ैरह इसमें आते हैं. दिल में ज़िक्र यानी अल्लाह तआला की नेअमतों को याद करना, उसकी बड़ाई और शक्ति और क्षमता में ग़ौर करना. उलमा जो दीन की बातों में विचार करते हैं, इसी में दाख़िल है. शरीर के अंगों के ज़रिये ज़िक्र यह है कि शरीर अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में मशग़ूल हो, जैसे हज के लिये सफ़र करना, यह शारीरिक ज़िक्र में दाख़िल है. नमाज़ तीनों क़िस्मों के ज़िक्र पर आधारित है. तस्बीह, तकबीर, सना व क़ुरआन का पाठ तो ज़बानी ज़िक्र है. और एकाग्रता व यकसूई, ये सब दिल के ज़िक्र में है, और नमाज़ में खड़ा होना, रूकू व सिजदा करना वग़ैरह शारीरिक ज़िक्र है. इब्ने अब्बास रदियल्लाहो तआला अन्हुमा ने फ़रमाया, अल्लाह तआला फ़रमाता है तुम फ़रमाँबरदारी के साथ मेरा हुक्म मान कर मुझे याद करो, मैं तुम्हें अपनी मदद के साथ याद करूंगा. सही हदीस की किताबों में है कि अल्लाह तआला फ़रमाता है कि अगर बन्दा मुझे एकान्त में याद करता है तो मैं भी उसको ऐसे ही याद फ़रमाता हूँ और अगर वह मुझे जमाअत मे या सामूहिक रूप से याद करता है तो मैं उसको उससे बेहतर जमाअत में याद करता हूँ. क़ुरआन और हदीस में ज़िक्र के बहुत फ़ायदे आए हैं, और ये हर तरह के ज़िक्र को शामिल हैं, ऊंची आवाज़ में किये जाने वाले ज़िक्र भी और आहिस्ता किये जाने वाले ज़िक्र को भी.

सूरए बक़रह – उन्नीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – उन्नीसवाँ रूकू

ऐ ईमान वालो सब्र और नमाज़ से मदद चाहो (1)
बेशक अल्लाह साबिरों (सब्र करने वालों) के साथ है (153)
और जो ख़ुदा की राह में मारे जाएं उन्हें मुर्दा न कहो(2)
बल्कि वो ज़िन्दा हैं,  हाँ तुम्हें ख़बर नहीं (3)(154)
और ज़रूर हम तुम्हें आज़माएंगे कुछ डर और भूख से (4)
और कुछ मालों और जानों और फलों की कमी से(5)
और ख़ुशख़बरी सुना उन सब्र वालों को (155) कि जब उनपर कोई मुसीबत पड़े तो कहे हम अल्लाह के माल में है और हमको उसी की तरफ़ फिरना(6)(156)
ये लोग हैं जिनपर उनके रब की दुरूदें हैं और रहमत, और यही लोग राह पर हैं (157) बेशक सफ़ा और मर्वा (पहाड़ियां) (7)
अल्लाह के निशानों से हैं (8)
तो जो उस घर का हज या उमरा करे उस पर कुछ गुनाह नहीं कि इन दोनों के फेरे करे (9)
और जो कोई भली बात अपनी तरफ़ से करे तो अल्लाह नेकी का सिला (इनाम) देने वाला ख़बरदार है (158) बेशक वो हमारी उतारी हुई रौशन बातों और हिदायत को छुपाते हैं(10)
बाद इसके कि लोगों के लिये हम उसे किताब में वाज़ेह (स्पष्ट) फ़रमा चुके उनपर अल्लाह की लअनत है और लअनत करने वालों की लअनत (11) (159)
मगर वो जो तौबह करें और संवारे और ज़ाहिर करें तो मैं उनकी तौबह क़ुबूल फ़रमाऊंगा   और मैं ही हूँ बड़ा तौबह क़ुबूल फ़रमाने वाला मेहरबान(160) बेशक वो जिन्हों ने कुफ़्र किया और क़ाफ़िर ही मरे उनपर लअनत है अल्लाह और फ़रिश्तों और आदमियों सबकी (12)(161)
हमेशा रहेंगे उसमें न उनपर से अज़ाब हल्का हो और न उन्हें मोहलत दी जाएं (162)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – उन्नीसवाँ रूकू

(1) हदीस शरीफ़ में है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को जब कोई सख़्त या कड़ी मुहिम पेश आती तो नमाज़ में मशग़ूल हो जाते, और नमाज़ से मदद चाहने में बरसात की दुआ वाली नमाज़ और हाजत की दुआ वाली नमाज़ भी शामिल है.

(2) यह आयत बद्र के शहीदों के बारे में उतरी. लोग शहीदों के बारे में कहते थे कि वह व्यक्ति मर गया. वह दुनिया की सहूलतों से मेहरूम हो गया. उनके बारे में यह आयत उतरी.

(3) मौत के बाद ही अल्लाह तआला शहीदों को ज़िन्दगी अता फ़रमाता है. उनकी आत्माओं पर रिज़्क पेश किये जाते हैं, उन्हें राहतें दी जाती हैं, उनके कर्म जारी रहते हैं, सवाब और इनाम बढ़ता रहता है. हदीस शरीफ़ में है कि शहीदों की आत्माएं हरे परिन्दों के रूप में जन्नत की सैर करती हैं और वहाँ के मेवे और नेअमते खाती हैं. अल्लाह तआला के फ़रमाँबरदार बन्दों को क़ब्र में जन्नती नेअमतें मिलती हैं. शहीद वह सच्चा मुसलमान है जो तेज़ हथियार से ज़बरदस्ती मारा गया हो और क़त्ल से माल भी वाजिब न हुआ हो. या यु़द्ध में मुर्दा या ज़ख़्मी पाया गया हो, और उसने कुछ आसायश न पाई. उसपर दुनिया में यह अहकाम हैं कि उसको न नहलाया जाय, न कफ़न. अपने कपड़ों ही में रखा जाय. उसी तरह उसपर नमाज़ पढ़ी जाए, उसी हालत में दफ़्न किया जाए. आख़िरत में शहीद का बड़ा रूत्बा है. कुछ शहीद वो हैं कि उनपर दुनिया के ये अहकाम तो जारी नहीं होते, लेकिन आख़िरत में उनके लिए शहादत का दर्जा है, जैसे डूब कर या जलकर या दीवार के नीचे दबकर मरने वाला, इल्म की तलाश में या हज के सफ़र में मरने वाला, यानी ख़ुदा की राह में मरने वाला, ज़चमी के बाद की हालत में मरने वाली औरत, और पेट की बीमारी और प्लेग और ज़ातुल जुनुब और सिल की बीमारी और जुमे के दिन मरने वाले, वग़ैरह.

(4) आज़मायश से फ़रमाँबरदार और नाफ़रमान के हाल का ज़ाहिर करना मुराद है.

(5) इमाम शाफ़ई अलैहिर्रहमत ने इस आयत की तफ़सीर में फ़रमाया कि ख़ौफ़ से अल्लाह का डर, भूख से रमज़ान के रोज़े, माल की कमी से ज़कात और सदक़ात देना, जानों की कमी से बीमारियों से मौतें होना, फलों की कमी से औलाद की मौत मुराद है. इसलिये कि औलाद दिल का फल होते हैं. हदीस शरीफ़ में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जब किसी बन्दे का बच्चा मरता है, अल्लाह तआला फ़रिश्तों से फ़रमाता है तुमने मेरे बन्दे के बच्चे की रूह निकाली. वो अर्ज़ करते हैं, हाँ. फिर फ़रमाता है तुमने उसके दिल का फल ले लिया. अर्ज़ करते हैं, हाँ या रब. फ़रमाता है उसपर मेरे बन्दे ने क्या कहा? अर्ज़ करते हैं उसने तेरी तारीफ़ की और “इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजिऊन” (यानी हम अल्लाह की तरफ से है और उसीकी तरफ़ हमें लौटना है) पढ़ा, फ़रमाता है उसके लिये जन्नत में मकान बनाओ और उसका नाम बैतुल हम्द रखो. मुसीबत के पेश आने से पहले ख़बर देने में कई हिकमते हैं, एक तो यह कि इससे आदमी को मुसीबत के वक़्त सब्र आसान हो जाता है, एक यह कि जब काफ़िर देखें कि मुसलमान बला और मुसीबत के वक़्त सब्र, शुक्र और साबित क़दमी के साथ अपने दीन पर कायम रहता है तो उन्हें दीन की ख़ूबी मालूम हो और उसकी तरफ़ दिल खिंचे. एक यह कि आने वाली मुसीबत पेश आने से पहले की सूचना अज्ञात की ख़बर और नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का चमत्कार है. एक हिकमत यह कि मुनाफ़िक़ों के क़दम मुसीबत की ख़बर से उखड़ जाएं और ईमान वाले और मुनाफ़िक़ का फ़र्क़ मालूम हो जाए.

(6) हदीस शरीफ़ में है कि मुसीबत के वक़्त “इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजिऊन” पढ़ना अल्लाह की रहमत लाता है. यह भी हदीस में है कि मूमिन की तकलीफ़ को अल्लाह गुनाह मिटाने का ज़रिया बना देता है.

(7) सफ़ा और मर्वा मक्कए मुकर्रमा के दो पहाड़ हैं, जो काबे के सामने पूर्व की और स्थित हैं. मर्वा उत्तर की तरफ़ झुका हुआ और सफ़ा दक्षिण की तरफ़ जबले अबू क़ुबैस के दामन में है. हज़रत हाजिरा और हज़रत इस्माईल ने इन दोनों पहाड़ों के क़रीब उस मक़ाम पर जहाँ ज़मज़म का कुआँ है, अल्लाह के हुक्म से सुकूनत इख़्तियार की. उस वक़्त यह जगह पथरीली वीरान थी, न यहाँ हरियाली थी न पानी, न खाने पीने का कोई साधन. अल्लाह की खुशी के लिये इन अल्लाह के प्यारे बन्दों ने सब्र किया. हज़रत इस्माईल बहुत छोटे से थे, प्यास से जब उनकी हालत नाजुक हो गई तो हज़रत हाजिरा बेचैन होकर सफ़ा पहाड़ी पर तशरीफ़ ले गई. वहाँ भी पानी न पाया तो उतर कर नीचे के मैदान में दौड़ती हुई मर्वा तक पहुंचीं. इस तरह सात बार दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ीं और अल्लाह तआला ने “इन्नल्लाहा मअस साबिरीन” (अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है) का जलवा इस तरह ज़ाहिर फ़रमाया कि ग़ैब से एक चश्मा ज़मज़म नमूदार किया और उनके सब्र और महब्बत की बरकत से उनके अनुकरण में इन दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ने वालों को अपना प्यारा किया और इन दोनों जगहों को दुआ क़ुबूल होने की जगहें बनाया.

(8) “शआइरिल्लाह” से दीन की निशानियाँ मुराद हैं, चाहे वो मकानात हों जैसे काबा, अरफ़ात, मुज़्दलिफ़ा, शैतान को कंकरी मारने की तीनों जगहें, सफ़ा, मर्वा, मिना मस्जिदें, या ज़माने जैसे रम़जान, ज़िलक़ाद, ज़िलहज्ज और मुहर्रम के महीने, ईदुल फ़ित्र, ईदुल अज़हा, जुमा, अय्यामे तशरीक़ यानी दस, ग्यारह, बारह, तेरह ज़िल हज्जा, या दूसरे चिन्ह जैसे अज़ान, अक़ामत, बा-जमाअत नमाज़, जुमे की नमाज़, ईद की नमाज़ें, ख़तना, ये सब दीन की निशानियाँ हैं.

(9) इस्लाम से पहले के दिनों में सफ़ा और मर्वा पर दो मूर्तियाँ रखी थीं. सफ़ा पर जो मूर्ति थी उसका नाम असाफ़ था और जो मर्वा पर थी उसकानाम नायला था. काफ़िर जब सफ़ा और मर्वा के बीच सई करते या दौड़ते तो उन मूर्तियों पर अदब से हाथ फेरते. इस्लाम के एहद में बुत तो तोड़ दिये गए थे लेकिन चूंकि काफ़िर यहाँ शिर्क के काम करते थे इसलिये मुसलमानों को सफ़ा और मर्वा के बीच सई करना भारी लगा कि इसमें काफ़िरों के शिर्क के कामों के साथ कुछ मुशाबिहत है. इस आयत में उनका इत्मीनान फ़रमा दिया गया कि चूंकि तुम्हारी नियत ख़ालिस अल्लाह की इबादत की है, तुम्हें मुशाबिहत का डर नहीं करना चाहिये और जिस तरह काबे के अन्दर जाहिलियत के दौर में काफ़िरों ने मूर्तियाँ रखी थीं, अब इस्लाम के एहद में वो मूर्तियाँ उठा दी गई याँ काबे का तवाफ़ दुरूस्त रहा और वह दीन की निशानियों में से रहा, उसी तरह काफ़िरों की बुत परस्ती से सफ़ा और मर्वा के दीन की निशानी होने में कोई फ़र्क़ नहीं आया. सई (यानी सफ़ा और मर्वा के बीच दौड़ना) वाजिब है, हदीस से साबित है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हमेशा इसे किया है. इसे छोड़ देने से दम यानी क़ुर्बानी वाजिब हो जाती है. सफ़ा और मर्वा के बीच दौड़ना हज और उमरा दोनों में ज़रूरी है. फ़र्क़ यह है कि हज के अन्दर अरफ़ात में जाना और वहाँ से काबे के तवाफ़ के लिये आना शर्त है. और उमरे के लिये अरफ़ात में जाना शर्त नहीं. उमरा करने वाला अगर मक्का के बाहर से आए, उसका सीधे मक्कए मुकर्रमा में आकर तवाफ़ करना चाहिये और अगर मक्के का रहने वाला हो, तो उसको चाहिये कि हरम से बाहर जाए, वहाँ से काबे के तवाफ़ के लिये एहराम बाँधकर आए. हज व उमरा में एक फ़र्क़ यह भी है कि हज साल में एक ही बार हो सकता है, क्योंकि अरफ़ात में अरफ़े के दिन यानी ज़िलहज्जा की नौ तारीख़ को जाना, जो हज में शर्त है, साल में एक बार ही सम्भव हो सकता है. उमरा हर दिन हो सकता है, इसके लिये कोई वक़्त निर्धारित नहीं है.

(10) यह आयत यहूदियों के उन उलमा के बारे में उतरी जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नात शरीफ़ और आयते रज्म और तौरात के दूसरे आदेश छुपाया करते थे. यहाँ से मालूम हुआ कि दीन की जानकारी को ज़ाहिर करना फ़र्ज़ है.

(11) लानत करने वालों से फ़रिश्ते और ईमान वाले लोग मुराद हैं. एक क़ौल यह है कि अल्लाह के सारे बन्दे मुराद हैं.

(12) मूमिन तो काफ़िरों पर लानत करेंगे ही, काफ़िर भी क़यामत के दिन एक दूसरे पर लानत करेंगे. इस आयत में उन पर लानत फ़रमाई गई जो कुफ़्र पर मरे. इससे मालूम हुआ कि जिसकी मौत कुफ़्र पर मालूम हो, उसपर लानत करनी जायज़ है. गुनहगार मुसलमान पर तअय्युन के साथ लानत करना जायज़ नहीं. लेकिन अलल इतलाक़ जायज़ है, जैसा कि हदीश शरीफ़ में चोर और सूद ख़ौर वग़ैरह पर लानत आई है.

(13) काफ़िरों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा, आप अपने रब की शान और सिफ़त बयान कीजिये. इसपर यह आयत उतरी और उन्हें बता दिया गया कि मअबूद सिर्फ़ एक है न उसके टुकडे हो सकते हैं, न उसको बाँटा जा सकता है, न उसके लिये मिस्ल न नज़ीर. पूजे जाने और रब होने के मामले में कोई उसका शरीक नहीं, वह यकता है, अपने कामों में. चीज़ों को तनहा उसीने बनाया, वह अपनी ज़ात में अकेला है, कोई उसका जोड़ नहीं. अपनी विशेषताओं और गुणों में वह यगाना है, कोई उस जैसा नहीं. अबूदाऊद और तिरमिज़ी की हदीस शरीफ़ में है कि अल्लाह तआला का इस्में आज़म इन दो आयतों में है. एक यही आयत “व इलाहोकुम” दूसरी “अलिफ़ लाम मीम अल्लाहो लाइलाहा इल्लाहुवा……….”

सूरए बक़रह – बीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – बीसवाँ रूकू

बेशक आसमानों (1)
और ज़मीन की पैदायश और रात व दिन का बदलते आना और किश्ती कि दरिया में लोगों के फ़ायदे लेकर चलती है और वह जो अल्लाह ने आसमान से पानी उतार कर मुर्दा ज़मीन को उससे ज़िन्दा कर दिया और ज़मीन में हर क़िस्म के जानवर फैलाए  और हवाओ की गर्दिश (चक्कर)  और वह बादल कि आसमान व ज़मीन के बीच में हुक्म का बांधा है इन सब में अक़लमन्दों के लिये ज़रूर निशानियां हैं (164)  और कुछ लोग अल्लाह के सिवा  और माबूद बना लेते हैं कि उन्हें अल्लाह की तरह मेहबूब रखते हैं और ईमान वालों को अल्लाह के बराबर किसी की महब्बत नहीं, और कैसी हो अगर देखें ज़ालिम वह वक्त़ जबकि अज़ाब उनकी आंखों के सामने आएगा इसलिये कि सारा ज़ोर अल्लाह को है और इसलिये कि अल्लाह का अज़ाब बहुत सख़्त है (165) जब बेज़ार होंगे पेशवा अपने मानने वालों से (2)
और देखेंगे अज़ाब और कट जाएंगी उनसब की डोरें (3)(166)
और कहेंगे अनुयायी काश हमें लौट कर जाना होता (दुनिया में) तो हम उनसे तोड़ देते जैसे उन्होंने हमसे तोड़दी, यूंही अल्लाह उन्हें दिखाएगा उनके काम उनपर हसरतें होकर (4)
और वो दोज़ख से निकलने वाले नहीं(167)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – बीसवाँ रूकू

(1) काबए मुअज़्ज़मा के चारों तरफ़ मुश्रिकों के 360 बुत थे, जिन्हें वो मअबूद मानते थे. उन्हें यह सुनकर बड़ी हैरत हुई कि मअबूद सिर्फ़ एक है, उसके सिवा कोई मअबूद नहीं. इसलिये उन्होंने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से ऐसी आयत तलब की जिससे अल्लाह के एक होने पर सही दलील हो. इस पर यह आयत उतरी. और उन्हें बताया गया कि आसमान और उसकी बलन्दी और उसका बिना किसी खम्भे और इलाक़े के क़ायम रहना, और जो कुछ उसमें नज़र आता है, चाँद सूरज सितारे वग़ैरह, ये तमाम और ज़मीन और इसका फैलाव और पानी पर टिका हुआ होना और पहाड़, दरिया, चश्मे, खानें, पेड़ पौधे, हरियाली, फल और रात दिन का आना जाना घटना बढ़ना, किश्तियाँ और उनका भारी बोझ और वज़न के साथ पानी पर चलते रहना और आदमियों का उनपर सवार होकर दरिया के चमत्कार देखना और व्यापार में उनसे माल ढोने का काम लेना और बारिश और इससे ख़ुश्क और मुर्दा हो जाने के बाद ज़मीन का हरा भरा करना और नई ज़िन्दगी अता करना और ज़मीन को क़िस्म क़िस्म के जानवरों से भरदेना, इसी तरह हवाओं का चलना और उनकी विशेषताएं और हवा के चमत्कार और बादल और उसका इतने ज़्यादा पानी के साथ आसमान और ज़मीन के बीच टिका रहना, यह आठ बातें हैं जो क़ुदरत और सर्वशक्तिमान अल्लाह के इल्म और हिकमत और उसके एक होने को साबित करती हैं. ये चीज़ें ऊपर बयान हुई ये सब संभव चीज़े हैं और उनका अस्तित्व बहुत से विभिन्न तरीक़ों से मुमकिन था. मगर वो मख़सूस शान से अस्तित्व में आईं. यह प्रमाण है कि ज़रूर उनके लिये कोई ईजाद करने वाला भी है. सर्वशक्तिमान अल्लाह अपनी इच्छा और इरादे से जैसा चाहता है बनाता है, किसी को दख़ल देने या ऐतिराज की मजाल नहीं. वो मअबूद यक़ीनन एक और यकता है, क्योंकि अगर उसके साथ कोई दूसरा मअबूद भी माना जाए तो उसको भी यह सब काम करने की शक्ति रखने वाला मानना पड़ेगा. असरदार बनाए रखने में दोनों एक इरादा, एक इच्छा रखने वाले होंगे या नहीं होंगे. अगर हों, तो एक ही चीज़ की बनावट में दो असर करने वालों को असर करना लाज़िम आएगा और यह असम्भव है. और अगर यह फ़र्ज़ करो कि तासीर उनमें से एक की है, तो दूसरे की शक्तिहीनता ठहरेगी, जो मअबूद होने के ख़िलाफ़ है. और अगर यह होगा कि एक किसी चीज़ के होने का इरादा करे और दूसरा उसी हाल में उसके न होने का, तो वह चीज़ एक ही हाल में मौजूद या गै़रमौजूद या दोनों न होगी. ज़रूरी है कि या मौजूदगी होगी या ग़ायब, एक ही बात होगी. अगर मौजूद हुई तो ग़ायब का चाहने वाला शक्तिहीन ठहरे और मअबूद न रहे, और अगर ग़ायब हुई तो मौजूद का इरादा करने वाला मजबूर रहा, मअबूद न रहा. लिहाज़ा यह साबित हो गया कि “इलाह” यानी मअबूद एक ही हो सकता.

(2) यह क़यामत के दिन का बयान है, जब शिर्क करने वाले और उनके सरदार, जिन्होंने उन्हें कुफ़्र की तरफ़ बुलाया था, एक जगह जमा होंगे और अज़ाब उतरता हुआ देखकर एक दूसरे से बेज़ार हो जाएंगे.

(3) यानी वो सारे सम्बन्ध जो दुनिया में उनके बीच थे, चाहे वो दोस्तीयाँ हों या रिश्तेदारीयाँ, या आपसी सहयोग के एहद.

(4) यानी अल्लाह तआला उनके बुरे कर्म उनके सामने करेगा तो उन्हें काफ़ी हसरत होगी कि उन्होंने ये काम क्यों किये थे. एक क़ौल यह है कि जन्नत के मक़ामात दिखाकर उनसे कहा जाएगा कि अगर तुम अल्लाह तआला की फ़रमाँबरदारी करते तो ये तुम्हारे लिये थे. फिर वो जगहें ईमान वालों को दी जाएंगी. इसपर उन्हें हसरत और शर्मिन्दगी होगी.

सूरए बक़रह – इक्कीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – इक्कीसवाँ रूकू

ऐ लोगों खाओ जो कुछ ज़मीन में (1)
हलाल और पाकीज़ा है और शैतान के क़दम पर क़दम न रखो बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है (168) वह तो तुम्हें यही हुक़्म देगा बदी और बेहयाई का  और यह कि अल्लाह पर वह बात जोड़ो जिसकी तुम्हें ख़बर नहीं (169) और जब उनसे कहा जाए अल्लाह के उतारे पर चलो (2)
तो कहे बल्कि हम तो उसपर चलेंगे जिसपर अपने बाप दादा को पाया क्या अगरचे (यद्यपि) उनके बाप दादा न कुछ अक़्ल रखते हो न हिदायत(3) (170)
और क़ाफिरों की कहावत उसकी सी है जो पुकारे ऐसे को कि ख़ाली चीख़ पुकार के सिवा कुछ न सुने (4)
बहरे गूंगे अंधे तो उन्हें समझ नहीं (5)
(171) ऐ ईमान वालो खाओ हमारी दी हुई सुथरी चीजें  और अल्लाह का अहसान जानो अगर तुम उसी को पूजते हो (6) (172)
उसने यही तुम पर हराम किये हैं मुर्दार (मृत) (7)
और ख़ून (8)
और सुअर का गोश्त (9)
और वो जानवर जो ग़ैर ख़ुदा का नाम लेकर ज़िब्ह किया गया (10)
तो जो नाचार हो (11)
न यूं कि ख़्वाहिश से खाए और न यूं कि ज़रूरत से आगे बढ़े तो उसपर गुनाह नहीं, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (173) वो जो छुपाते हैं (12)
अल्लाह की उतारी किताब  और उसके बदले ज़लील क़ीमत ले लेते हैं(13)
वो अपने पेट में आग ही भरते है (14)
और अल्लाह क़यामत के दिन उनसे बात न करेगा  और न उन्हें सुथरा करे  और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है (174) वो लोग है जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही मोल ली और बख़्शिश (इनाम) के बदले अज़ाब तो किस दर्जा उन्हें आग की सहार है(175)ये इसलिये कि अल्लाह ने किताब हक़ के साथ उतारी,  और बेशक जो लोग किताब से इख़्तिलाफ (मतभेद) डालने लगे (15)
वो ज़रूर पहले सिले के झगड़ालू हैं (176)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – इक्कीसवाँ रूकू

(1) ये आयत उन लोगों के बारे में उतरी जिन्हों ने बिजार वग़ैरह को हराम क़रार दिया था. इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला की हलाल फ़रमाई हुई चीज़ों को हराम क़रार देना उसकी रिज़्क़ देने वाली शक्ति से बग़ावत है. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है, अल्लाह तआला फ़रमाता है जो माल मैं अपने बन्दों को अता फ़रमाता हूं वह उनके लिये हलाल है. और उसी में है कि मैंने अपने बन्दों को बातिल से बेतअल्लुक पैदा किया, फिर उनके पास शैतान आए और उन्होंने दीन से बहकाया, और जो मैंने उनके लिये हलाल किया था, उसको हराम ठहराया. एक और हदीस में है, हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया मैंने यह आयत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सामने पढ़ी तो हज़रत सअद इब्ने अबी वक़्क़ास ने खड़े होकर अर्ज़ की, या रसूल्लल्लाह दुआ फ़रमाईये कि अल्लाह तआला मुझे मुस्तजाबुद दावत (यानी वह आदमी जिसकी हर दुआ अल्लाह क़ुबूल फ़रमाए) कर दे. हुज़ूर ने फ़रमाया ऐ सअद, अपनी ख़ुराक पाक करो, मुस्तजाबुद दावत हो जाओगे. उस ज़ाते पाक की क़सम जिसके दस्ते क़ुदरत में मुहम्मद की जान है, जो आदमी अपने पेट में हराम का लुक़मा डालता है, तो चालीस रोज़ तक क़ुबूलियत से मेहरूमी रहती है. (तफ़सीरे इब्ने कसीर)

(2) तौहीद व क़ुरआन पर ईमान लाओ और पाक चीज़ों को हलाल जानो, जिन्हें अल्लाह ने हलाल किया.

(3) जब आप दादा दीन की बातों को न समझते हों और सीधी राह पर न हों तो उनका अनुकरण करना मूर्खता और गुमराही है.

(4) यानी जिस तरह चौपाए चरवाहे की सिर्फ़ आवाज़ ही सुनते हैं, कलाम के मानी नहीं समझते, यही हाल उन काफ़िरों का है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की आवाज़ को सुनते हैं, लेकिन उसके मानी दिल में बिठाकर आपके इरशाद से फ़ायदा नहीं उठातें.

(5)  यह इसलिये कि वो सच्ची बात सुनकर लाभ न उठा सके, सच्ची बात उनकी ज़बान पर जारी न हो सकी, नसीहतों से उन्होंने कोई फ़ायदा न उठाया.

(6) इस आयत से मालूम हुआ कि अल्लाह तआला की नेअमतों पर शुक्र वाजिब है.

(7) जो हलाल जानवर बग़ैर ज़िब्ह किये मर जाए या उसको शरई तरीक़े के ख़िलाफ़ मारा गया हो जैसे कि गला घोंट कर, या लाठी, पत्थर, ढेले, ग़ुल्ले, गोली मार कर हलाल किया गया हो, या वह गिरकर मर गया हो, या किसी जानवर ने सींग से मारा हो या किसी दरिन्दे ने हलाल किया हो, उसको मुर्दार कहतें. और इसी के हुक्म में दाख़िल है ज़िन्दा जानवर का वह अंग जो काट लिया गया हो. मुर्दार जानवर का खाना हराम है, मगर उसका पका हुआ चमड़ा काम में लाना और उसके बाल, सींग, हड्डी, ———-पट्ठे,———— खुरी वग़ैरह से फ़ायदा उठाना जायज़ है. (तफ़सीर अहमदी)

(8) ख़ून हर जानवर का हराम है, अगर बहने वाला हो. दूसरी आयत में फ़रमाया “ओ दमम मस्फ़ूहन” (यानी या रगों का बहता ख़ून या बद जानवर का गोश्त, वह नजासत है)  (सूरए अनआम-145).

(9) सुअर नजिसुल ऐन है, यानी अत्यन्त अपवित्र है, उसका गोश्त पोस्त, बाल, नाख़ुन वग़ैरह तमाम अंग नजिस, नापाक और हराम हैं. किसी को काम में लाना जायज़ नहीं. चूंकि ऊपर से खाने का बयान हो रहा है इसलिये यहाँ गोश्त के ज़िक्र को काफ़ी समझा गया.

(10) जिस जानवर पर ज़िब्ह के वक़्त ग़ैर ख़ुदा का नाम लिया जाए, चाहे अकेले या ख़ुदा के नाम के साथ “और” मिलाकर, वह हराम है. और अगर ख़ुदा के नाम के साथ ग़ैर का नाम “और” कहे बिना मिलाया तो मकरूह है. अगर ज़िब्ह फ़क़त अल्लाह के नाम पर किया और उससे पहले या बाद में ग़ैर का नाम लिया, जैसे कि यह कहा अक़ीक़े का बकरा या वलीमे का दुम्बा या जिसकी तरफ़ से वह ज़बीहा है उसी का नाम लिया या जिन वलियों के लिये सवाब पहुंचाना मन्ज़ूर है, उनका नाम लिया, तो यह जायज़ है, इसमें कुछ हर्ज नहीं. (तफ़सीरे अहमदी)

(11) “मुज़्तर” अर्थात नाचार वह है जो हराम चीज़ खाने पर मजबूर हो और उसको न खाने से जान जाने का डर हो, चाहे तो कड़ी भूक या नादारी के कारण जान पर बन जाए और कोई हलाल चीज़ हाथ न आए या कोई व्यक्ति हराम के खाने पर जब्र करता हो और उससे जान का डर हो. ऐसी हालत में जान बचाने के लिये हराम चीज़ का ज़रूरत भर यानी इतना खालेना जायज़ है कि मरने का डर न रहे.

(12) यहूदियों के उलमा और सरदार, जो उम्मीद रखते थे कि आख़िरी ज़माने के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उनमें से आएंगे. जब उन्होंने देखा कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम दूसरी क़ौम में से भेजे गए, तो उन्हें यह डर हुआ कि लोग तौरात और इंजील में हुज़ूर के गुण देखकर आपकी फ़रमाँबरदारी की तरफ़ झुक पडेंगे और उनके नज़राने, तोहफ़े, हदिये, सब बन्द हो जाएंगे, हुकूमत जाती रहेगी. इस ख़याल से उन्हें हसद पैदा हुआ और तौरात व इंजील में जो हुज़ूर की नअत और तारीफ़ और आपके वक़्ते नबुव्वत का बयान था, उन्होंने उसको छुपाया. इसपर यह मुबारक आयत उतरी. छुपाना यह भी है कि किताब के मज़मून पर किसी को सूचित न होने दिया जाए, न वह किसी को पढ़ के सुनाया जाए, न दिखाया जाए. और यह भी छुपाना है कि ग़लत मतलब निकाल कर मानी बदलने की कोशिश की जाए और किताब के अस्ल मानी पर पर्दा डाला जाए.

(13) यानी दुनिया के तुच्छ नफ़े के लिये सत्य को छुपाते है.

(14) क्योंकि ये रिश्वतें और यह हराम माल जो सच्चाई को छुपाने के बदले उन्होंने लिया है, उन्हें जहन्नम की आग में पहुंचाएगा.

(15) यह आयत यहूदियों के बारे में उतरी कि उन्होंने तौरात में विरोध किया. कुछ ने उसको सच्चा कहा, कुछ ने बातिल, कुछ ने ग़लत सलत मतलब जोड़े, कुछ ने इबारत बदल डाली. एक क़ौल यह है कि यह आयत शिर्क करने वालों के बारे में नाज़िल हुई. उस सूरत में किताब से मुराद क़ुरआन है और उनका विरोध यह है कि उनमें से कुछ इसको शायरी कहते हैं, कुछ जादू, कुछ टोना टोटका.

सूरए बक़रह – बाईसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – बाईसवाँ रूकू

कुछ अस्ल नेकी यह नहीं कि मुंह मश्रिक़ (पूर्व) या मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ करो (1)
हाँ  अस्ल नेकी ये कि ईमान लाए अल्लाह और क़यामत और फ़रिश्तों और किताब और पैग़म्बर पर(2)
और अल्लाह की महब्बत में अपना अज़ीज़ माल दे रिश्तेदारों और अनाथों और दरिद्रों और राहगीर और सायलों (याचकों) को और गर्दन छुड़ाने में (3)
और नमाज़ क़ायम रखे और ज़कात दे, और अपना कहा पूरा करने वाले जब अहद करें,
और सब्र वाले मुसीबत और सख़्ती में और जिहाद के वक़्त, यही हैं जिन्होंने अपनी बात सच्ची की, और यही परहेज़गार हैं (177)  ऐ ईमान वालों तुमपर फ़र्ज़ है (4)
कि जो नाहक़ मारे जाएं उनके ख़ून का बदला लो (5)
आज़ाद के बदले आज़ाद, और ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम और औरत के बदले औरत (6)
तो जिसके लिये उसके भाई की तरफ़ से कुछ माफ़ी हुई (7)
तो भलाई से तक़ाज़ा हो और अच्छी तरह अदा, यह तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारा बोझ हल्का करना है और तुम पर रहमत, तो इसके बाद जो ज़्यादती करे(8)
उसके लिये दर्दनाक अज़ाब है (178) और ख़ून का बदला लेने में तुम्हारी ज़िन्दगी है,  ऐ अक़्लमन्दो(9)
कि तुम कहीं बचो (179) तुमपर फ़र्ज़ हुआ कि जब तुम में किसी को मौत आए अगर कुछ माल छोड़े वसीयत करजाए अपने माँ  बाप और क़रीब के रिश्तेदारों के लिए दस्तूर के अनुसार(10)
यह वाजिब है परहेज़गारों पर (180) तो जो वसीयत को सुन सुनकर बदल दे (11)
उसका गुनाह उन्हीं बदलने वालों पर है (12)
बेशक अल्लाह सुनता जानता है (181) फिर जिसे डर हुआ कि वसीयत करने वाले ने कुछ बे इन्साफ़ी या गुनाह किया तो उसने उसमें सुल्ह करा दी उसपर कुछ गुनाह नहीं (13)
बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (182)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – बाईसवाँ रूकू

(1) यह आयत यहूदियों और ईसाइयों के बारे में नाज़िल हुई, क्योंकि यहूदियों ने बैतुल मक़दिस के पू्र्व को और ईसाइयों ने उसके पशिचम को क़िबला बना रखा था और हर पक्ष का ख़्याल था कि सिर्फ़ इस क़िबले ही की तरफ़ मुंह करना काफ़ी है. इस आयत में इसका रद फ़रमाया गया कि बैतुल मक़दिस का क़िबला होना स्थगित हो गया. (मदारिक). तफ़सीर करने वालों का एक क़ोल यह भी है कि यह सम्बोधन किताब वालों और ईमान वालों सब को आम है. और मानी ये हैं कि सिर्फ क़िबले की ओर मुंह कर लेना अस्ल नेकी नहीं जब तक अक़िदे दुरूस्त न हों और दिल सच्ची महब्बत के साथ क़िबले के रब की तरफ़ मुतवज्जेह न हो.

(2) इस आयत में नेकी के छ: तरीक़े इरशाद फ़रमाए – (क) ईमान लाना (ख) माल देना (ग) नमाज़ कायम करना (घ)ज़कात देना (ण) एहद पूरा करना (6) सब्र करना. ईमान की तफ़सील यह है कि एक अल्लाह तआला पर ईमान लाए कि वह ज़िन्दा है, क़ायम रखने वाला है, इल्म वाला, हिकमत वाला, सुनने वाला, देखने वाला, देने वाला, क़ुदरत वाला, अज़ल से है, हमेशा के लिये है, एक है, उसका कोई शरीक नहीं. दूसरे क़यामत पर ईमान लाए कि वह सच्चाई है. उसमें बन्दों का हिसाब होगा, कर्मो का बदला दिया जाएगा . अल्लाह के प्रिय-जन शफ़ाअत करेंगा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सआदत-मन्दों या फ़रमाँबरदारों को हौज़े कौसर से जी भर कर पिलाएंगे, सिरात के पुल पर गुज़र होगा और उस रोज़ के सारे अहवाल जो क़ुरआन में आए या सैयदुल अम्बीया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बयान फ़रमाए, सब सत्य हैं. तीसरे, फ़रिश्तों पर ईमान लाए कि वो अल्लाह के पैदा किये हुए और फ़रमाँबरदार बन्दे हैं, न मर्द हैं, न औरत, उनकी तादाद अल्लाह ही जानता है . उनमें से चार बहुत नज़दीकी और बुज़ुर्गी वाले हैं, जिब्रईल, मीकाईल, इस्त्राफ़ील, इज़राईल (अल्लाह की सलामती उन सब पर). चौथे, अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना कि जो किताब अल्लाह तआला ने उतारी, सच्ची है. उनमें चार बड़ी किताबें हैं – (1) तौरात हज़रत मूसा पर (2) इंजल हज़रत ईसा पर,(3) ज़ुबूर हज़रत दाऊद पर और (4) क़ुरआन हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व अलैहिम अजमईन पर नाज़िल हुईं. और पचास सहीफ़े हज़रत शीस पर, तीस हज़रत इद्रीस पर, दस हज़रत आदम पर और दस हज़रत ईब्राहीम पर नाज़िल हुए. पाँचवें, सारे नबायों पर ईमान लाना कि वो सब अल्लाह के भेजे हुए हैं और मासूम यानी गुनाहों से पाक हैं. उनकी सही तादाद अल्लाह ही जानता है. उनमें 313 रसूल हैं. “नबिययीन” बहुवचन पुल्लिंग में ज़िक्र फ़रमाना इशारा करता है कि नबी मर्द होते हैं. कोई औरत कभी नबी नहीं हुई जैसा कि “वमा अरसलना मिन क़बलिका इल्ला रिजालन” ‎(और हमने नहीं भेजे तुमसे पहले अपने रसूल मगर सिर्फ़ मर्द) सूरए नहल की 43वीं आयत से साबित है. ईमाने मुजमल यह है “आमन्तो बिल्लाहे व बिजमीए मा जाआ बिहिन नबिय्यो” (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) यानी मैं अल्लाह पर ईमान लाया और उन तमाम बातों पर जो नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के पास से लाए. (तफ़सीरे अहमदी)

(3) ईमान के बाद कर्मो का और इस सिलसिले में माल देने का बयान फ़रमाया. इसके छः उपयोग ज़िक्र किये. गर्दनें छुड़ाने से ग़ुलामों का आज़ाद करना मुराद है. यह सब मुस्तहब तौर पर माल देने का बयान था. इस आयत से मालूम होता है कि सदक़ा देना, तनदुरूस्ती की हालत में ज़्यादा पुण्य रखता है, इसके विपरीत कि मरते वक़्त ज़िन्दगी से निराश होकर दे. हदीस शरीफ़ में है कि रिश्तेदार को सदक़ा देने में दो सवाब हैं, एक सदक़े का, दूसरा ज़रूरतमन्द रिश्तेदार के साथ मेहरबानी का. (नसाई शरीफ़)

(4) यह आयत औस और ख़ज़रज के बारे में नाज़िल हुई. उनमें से एक क़बीला दुसरे से जनसंख्या में, दौलत और बुज़ुर्गी में ज़्यादा था. उसने क़सम खाई थी कि वह अपने ग़ुलाम के बदले दूसरे क़बीले के आज़ाद को, और औरत के बदले मर्द को, और एक के बदले दो को क़त्ल करेगा. जाहिलियत के ज़माने में लोग इसी क़िस्म की बीमारी में फंसे थे. इस्लाम के काल में यह मामला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में पेश हुआ तो यह आयत उतरी और इन्साफ़ और बराबरी का हुक्म दिया और इसपर वो लोग राज़ी हुए. कुरआने करीम में ख़ून का बदला लेने यानी क़िसास का मसअला कई आयतों में बयान हुआ है. इस आयत में क़सास और माफ़ी दोनों के मसअले हैं और अल्लाह तआला के इस एहसान का बयान है कि उसने अपने बन्दों को बदला लेने और माफ़ कर देने की पूरी आज़ादी दी, चाहें बदला लें, चाहें माफ़ कर दें. आयत के शुरू में क़िसास के वाजिब होने का बयान है.

(5)  इससे जानबूझ कर क़त्ल करने वाले हर क़ातिल पर किसास का वुजूब अर्थात अनिवार्यता साबित होती है. चाहे उसने आज़ाद को क़त्ल किया हो या ग़ुलाम को, मुसलमान को या काफ़िर को, मर्द को या औरत को. क्योंकि “क़तला” जो क़तील का बहुवचन है, वह सबको शामिल है. हाँ जिसको शरई दलील ख़ास करे वह मख़सूस हो जाएगा. (अहकामुल क़ुरआन)

(6) इस आयत में बताया गया है कि जो क़त्ल करेगा वही क़त्ल किया जाएगा चाहे आज़ाद हो या ग़ुलाम, मर्द हो या औरत. और जाहलों का यह तरीक़ा ज़ल्म है जो उनमें रायज या प्रचलित था कि आज़ादों में लड़ाई होती तो वह एक के बदले दो को क़त्ल करते, ग़ुलामों में होती तो ग़ुलाम के बजाय आज़ाद को मारते. औरतों में होती तो औरत के बदले मर्द का क़त्ल करते थे और केवल क़ातिल के क़त्ल पर चुप न बैठते. इसको मना फ़रमाया गया.

(7) मानी ये हैं कि जिस क़ातिल को मृतक के वली या वारिस कुछ माफ़ करें और उसके ज़िम्मे माल लाज़िम किया जाए, उस पर मृतक के वारिस तक़ाज़ा करने में नर्मी इख़्तियार करें और क़ातिल ख़ून का मुआविज़ा समझबूझ के माहौल में अदा करे. (तफ़सीरे अहमदी). मृतक के वारिस को इख़्तियार है कि चाहे क़ातिल को बिना कुछ लिये दिये माफ़ करदे या माल पर सुलह करे. अगर वह इस पर राज़ी न हो और ख़ून का बदला ख़ून ही चाहे, तो क़िसास ही फ़र्ज़ रहेगा (जुमल). अगर मृतक के तमाम वारिस माफ़ करदें तो क़ातिल पर कुछ लाज़िम नहीं रहता. अगर माल पर सुलह करें तो क़िसास साक़ित (शून्य) हो जाता है और माल वाजिब होता है (तफ़सीरे अहमदी). मृतक के वली को क़ातिल का भाई फ़रमाने में इस पर दलालत है कि क़त्ल अगरचे बड़ा गुनाह है मगर इससे ईमान का रिशता नहीं टूटता. इसमें ख़ारजियों का रद है जो बड़े गुनाह करने वाले को काफ़िर कहते है.

(8) यानी जाहिलियत के तरीक़े के अनुसार, जिसने क़त्ल नहीं किया है उसे क़त्ल करे या दिय्यत क़ुबूल करे और माफ़ करने के बाद क़त्ल करे.

(9) क्योंकि क़िसास मुक़र्रर होने से लोग क़त्ल से दूर रहेंगे और जानें बचेंगी.

(10) यानी शरीअत के क़ानून के मुताबिक़ इन्साफ़ करे और एक तिहाई माल से ज़्यादा की वसिय्यत न करे और मुहताजों पर मालदारों को प्राथमिकता न दें. इस्लाम की शुरूआत में यह वसिय्यत फ़र्ज़ थी. जब मीरास यानी विरासत के आदेश उतरे, तब स्थगित की गई. अब ग़ैर वारिस के लिये तिहाई से कम में वसिय्यत करना मुस्तहब है. शर्त यह है कि वारिस मुहताज न हों, या तर्का मिलने पर मुहताज न रहें, वरना तर्का वसिय्यत से अफ़ज़ल है. (तफ़सीरे अहमद)

(11) चाहे वह व्यक्ति हो जिसके नाम kवसिय्यत की गई हो, चाहे वली या सरपरस्त हो, या गवाह. और वह तबदीली वसिय्यत की लिखाई में करे या बँटवारे में या गवाही देने में. अगर वह वसिय्यत शरीअत के दायरे में है तो बदलने वाला गुनहगार होगा.

(12) और दूसरे, चाहे वह वसिय्यत करने वाला हो या वह जिसके नाम वसिय्यत की गई है, बरी हैं.

(13) मतलब यह है कि वारिस या वसी यानी वह जिसके नाम वसिय्यत की जाय, या इमाम या क़ाज़ी जिसको भी वसिय्यत करने वाले की तरफ़ से नाईन्साफ़ी या नाहक़ कार्रवाई का डर हो वह अगर, जिसके लिये वसिय्यत की गई, या वारिसों में, शरीअत के मुवाफ़िक़ सुलह करादे तो गुनाह नहीं क्योंकि उसने हक़ की हिमायत के लिये बातिल को बदला एक क़ौल यह भी है कि मुराद वह शख़्स है जो वसिय्यत के वक़्त देखे कि वसिय्यत करने वाला सच्चाई से आगे जाता है और शरीअत के ख़िलाफ़ तरीक़ा अपनाता है तो उसको रोक दे और हक़ व इन्साफ़ कर हुक्म करे.

सूरए बक़रह – तेईसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – तेईसवाँ रूकू

ऐ  ईमान वालों (1)
तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किये गए जैसे अगलों पर फ़र्ज़ हुए थे कि कहीं तुम्हें परहेज़गारी मिले (2)
(183) गिनती के दिन है (3)
तो तुम में जो कोई बीमार या सफ़र में हो (4)
तो उतने रोज़े और दिनों में और जिन्हें इसकी ताक़त न हो वो बदला दें एक दरिद्र का खाना (5)
फिर जो अपनी तरफ़ से नेकी ज़्यादा करे (6)
तो वह उसके लिये बेहतर है, और रोज़ा रखना तुम्हारे लिये ज़्यादा भला है अगर तुम जानो (7)
(184)
रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा  (8)
लोगो के लिये हिदायत और राहनुमाई और फैसला की रौशन बातें, तो तुम में जो कोई यह महीना पाए ज़रूर इसके रोज़े रखे और जो बीमार या सफर में हो तो उतने रोज़े और दिनों में अल्लाह तुमपर आसानी चाहता है और तुमपर दुशवारी नहीं चाहता और इसलिये कि तुम गिनती पूरी करो (9)
और अल्लाह की बड़ाई बोलो इसपर की उसने तुम्हें हिदायत की और कहीं तुम हक़ गुज़ार हो (यानि कृतज्ञ) (185)  और  ऐ मेहबूब जब तुमसे मेरे बन्दे मुझे पूछें तो में नज़दीक हूँ  (10)
दुआ क़ुबूल करता हूं पुकारने वाले की जब मुझे पुकारते (11)
तो उन्हें चाहिये मेरा हुक़्म माने और मुझपर ईमान लाएं कि कहीं राह पाएं(186) रोज़ों की रातों में अपनी औरतों के पास जाना तुम्हारे लिये हलाल  (वेद्य) हुआ (12)
वो तुम्हारी लिबास हैं और तुम उनके लिबास, अल्लाह ने जाना कि तुम अपनी जानों को ख़यानत  (बेईमानी) में डालते थे तो उसने तुम्हारी तौबह क़ुबूल की और तुम्हें माफ़ फ़रमाया (13)
तो अब उनसे सोहबत करो (14)
और तलब करो जो अल्लाह ने तुम्हारे नसीब में लिखा हो (15)
और खाओ और पियो (16)
यहां तक कि तुम्हारे लिये ज़ाहिर हो जाए सफ़ेदी का डोरा सियाही के डोरे से पौ फटकर (17)
फिर रात आने तक रोज़े पूरे करो (18)
और औरतों को हाथ न लगाओ जब तुम मस्जिदों में एतिक़ाफ़ में हो  (यानि दुनिया से अलग थलग बैठे हो )  (19)
ये अल्लाह की हदें हैं, इनके पास न जाओ अल्लाह यूं ही बयान करता है लोगों से अपनी आयतें की कहीं उन्हें परहेज़गारी मिले (186) और आपस में एक दूसरे का माल नाहक़ ना खाओ और ना हाक़िमों के पास उनका मुक़दमा इसलिये पहुंचाओ कि लोगों का कुछ माल नाज़ायज़ तौर पर खालो(20)
जानबूझकर (188)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – तेईसवाँ रूकू

(1) इस आयत में रोज़े फ़र्ज़ होने का बयान है. रोज़ा शरीअत में इसका नाम है कि मुसलमान, चाहे मर्द हो या शारीरिक नापाकी से आज़ाद औरत, सुबह सादिक़ से सूरज डूबने तक इबादत की नियत से खाना पीना और सहवास से दूर रहे. (आलमगीरी). रमज़ान के रोज़े दस शव्वाल सन दो हिजरी को फ़र्ज़ किये गये (दुर्रे मुख़्तार व ख़ाज़िन). इस आयत से साबित होता है कि रोज़े पुरानी इबादत हैं. आदम अलैहिस्सलाम के ज़माने से सारी शरीअतों में फ़र्ज़ होते चले आए, अगरचे दिन और संस्कार अलग थे, मगर अस्ल रोज़े सब उम्मतों पर लाज़िम रहे.

(2) और तुम गुनाहों से बचो, क्योंकि यह कसरे-नफ़्स का कारण और तक़वा करने वालों का तरीक़ा है.

(3) यानी सिर्फ़ रमज़ान का एक महीना.

(4) सफ़र से वह यात्रा मुराद है जिसकी दूरी तीन दिन से कम न हो. इस आयत में अल्लाह तआला ने बीमार और मूसाफ़िर को छूट दी कि अगर उसको रमज़ान में रोज़ा रखने से बीमारी बढ़ने का या मौत का डर हो या सफ़र में सख़्ती या तकलीफ़ का, तो बीमारी या सफ़र के दिनों में रोज़ा खोल दे और जब बीमारी और सफ़र से फ़ारिग़ होले, तो पाबन्दी वालें दिनों को छोड़कर और दिनों में उन छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा पूरी करे. पाबन्दी वाले दिन पांच है जिन में रोज़ा रखना जायज़ नहीं, दोनों ईदें और ज़िल्हज की ग्यारहवीं, बारहवीं और 13 वीं तारीख़. मरीज़ को केवल वहम पर रोज़ा खोल देना जायज़ नहीं. जब तक दलील या तजुर्बा या परहेज़गार और सच्चे तबीब की ख़बर से उसको यह यक़ीन न हो जाए कि रोज़ा रखने से बीमारी बढ जाएगी. जो शख़्स उस वक़्त बीमार न हो मगर मुसलमान तबीब यह कहे कि रोज़ा रखने से बीमार हो जाएगा, वह भी मरीज़ के हुक्म में है. गर्भवती या दूध पिलाने वाली औरत को अगर रोज़ा रखने से अपनी या बच्चे की जान का या उसके बीमार हो जाने का डर हो तो उसको भी रोज़ा खोल देना जायज़ है. जिस मुसाफ़िर ने फ़ज्र तुलू होने से पहले सफ़र शुरू किया उसको तो रोज़े का खोलना जायज़ है, लेकिन जिसने फ़ज्र निकलने के बाद सफ़र किया, उसको उस दिन का रोज़ा खोलना जायज़ नहीं.

(5) जिस बूढे मर्द या औरत को बुढ़ापे की कमज़ोरी के कारण रोज़ा रखने की ताक़त न रहे और आगे भी ताक़त हासिल करने की उम्मीद न हो, उसको शैख़े फ़ानी कहते हैं. उसके लिये जायज़ है कि रोज़ा खोल दे और हर रोजे़ के बदले एक सौ पछहत्तर रूपये और एक अठन्नी भर गेहूँ या गेहूँ का आटा उससे दुगने जौ या उसकी क़ीमत फ़िदिया के तौर पर दे. अगर फिदिया देने के बाद रोज़ा रखने की ताक़त आ गई तो रोज़ा वाजिब होगा. अगर शैख़े फ़ानी नादार हो और फिदिया देने की क्षमता न रखता हो तो अल्लाह तआला से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता रहे और दुआ व तौबा में लगा रहे.

(6) यानी फ़िदिया की मिक़दार से ज़्यादा दे.

(7) इससे मालूम हुआ कि अगरचे मुसाफ़िर और मरीज़ को रोज़ा खोलने की इजाज़त है लेकिन बेहतरी रोज़ा रखने में ही है.

(8) इसके मानी में तफ़सीर करने वालों के चन्द अक़वाल हैं : (1) यह कि रमज़ान वह है जिसकी शान व शराफ़त में क़ुरआने पाक उतरा (2) यह कि क़ुरआने करीम के नाज़िल होने की शुरूआत रमज़ान में हुई. (3) यह कि क़ुरआन करीम पूरा रमज़ाने मुबारक की शबे क़द्र में लौहे मेहफ़ूज़ से दुनिया के आसमान की तरफ़ उतारा गया और बैतुल इज़्ज़त में रहा. यह उसी आसमान पर एक मक़ाम है. यहाँ से समय समय पर अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ थोड़ा थोड़ा जिब्रीले अमीन लाते रहे. यह नुज़ूल तेईस साल में पूरा हुआ.

(9) हदीस में है, हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि महीना उनतीस दिन का भी होता है तो चाँद देखकर खोलो. अगर उनतीस रमज़ान को चाँद न दिखाई दे तो तीस दिन की गिनती पूरी करो.

(10) इसमें हक़ और सच्चाई चाहने वालों की उस तलब का बयान है जो अल्लाह को पाने की तलब है, जिन्हों ने अपने रब के इश्क़ में अपनी ज़रूरतों को क़ुरबान कर दिया, वो उसी के तलबगार हैं, उन्हें क़ुर्ब और मिलन की ख़ुशख़बरी सुनाकर खु़श किया गया. सहाबा की एक जमाअत ने अल्लाह के इश्क़ की भावना में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पूछा कि हमारा रब कहाँ है, इस पर क़ुर्ब की ख़ुशख़बरी दी गई और बताया गया कि अल्लाह तआला मकान से पाक है. जो चीज़ किसी से मकानी क़ुर्ब रखती हो वह उसके दूर वाले से ज़रूर दूरी रखती है. और अल्लाह तआला सब बन्दों से क़रीब है. मकानी की यह शान नहीं. क़ुर्बत की मन्ज़िलों में पहुँने के लिये बन्दे को अपनी ग़फ़लत दूर करनी होती है.

(11) दुआ का मतलब है हाजत बयान करना और इजाबत यह है कि परवर्दिगार अपने बन्दे की दुआ पर “लब्बैका अब्दी” फ़रमाता है. मुराद अता फ़रमाना दूसरी चीज़ है. वह भी कभी उसके करम से फ़ौरन होती है, कभी उसकी हिकमत के तहत देरी से, कभी बन्दे की ज़रूरत दुनिया में पूरी फ़रमाई जाती है, कभी आख़िरत में, कभी बन्दे का नफ़ा दूसरी चीज़ में होता है, वह अता की जाती है. कभी बन्दा मेहबूब होता है, उसकी ज़रूरत पूरी करने में इसलिये देर की जाती है कि वह अर्से तक दुआ में लगा रहे, कभी दुआ करने वाले में सिद्क़ व इख़लास वग़ैरह शर्तें पूरी नहीं होतीं, इसलिये अल्लाह के नेक और मक़बूल बन्दों से दुआ कराई जाती है. नाजायज़ काम की दुआ कराना जायज़ नहीं. दुआ के आदाब में है कि नमाज़ के बाद हम्दो सना और दरूद शरीफ़ पढे़ फिर दुआ करे.

(12) पिछली शरीअतों में इफ़्तार के बाद खाना पीना सहवास करना ईशा की नमाज़ तक हलाल था, ईशा बाद ये सब चीज़ें रात में भी हराम हो जातीं थी. यह हुक्म सरकार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़मानए अक़दस तक बाक़ी था. कुछ सहाबा ने रमज़ान की रातों में नमाज़ ईशा के बाद सहवास किया, उनमें हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो भी थे. इसपर वो हज़रात लज्जित हुए और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अपना हाल अर्ज़ किया. अल्लाह तआला ने माफ़ फ़रमाया और यह आयत उतरी और बयान कर दिया गया कि आयन्दा के लिये रमज़ान की रातों में मग़रिब से सुबह सादिक़ तक अपनी पत्नी के साथ सहवास हलाल किया गया.

(13) इस ख़यानत से वह सहवास मुराद है जो इजाज़त मिलने से पहले के रमज़ान की रातों में मुसलमानों ने किया. उसकी माफ़ी का बयान फ़रमाकर उनकी तसल्ली फ़रमा दी गई.

(14) यह बात इजाज़त के लिये है कि अब वह पाबन्दी उठाली गई और रमज़ान की रातों में सहवास हलाल कर दिया गया.

(15) इसमें हिदायत है कि सहवास नस्ल और औलाद हासिल करने की नियत से होना चाहिये, जिससे मुसलमान बढ़ें और दीन मज़बूत हो. मुफ़स्सिरीन का एक क़ौल यह भी है कि मानी ये है कि सहवास शरीअत के हुक्म के मुताबिक़ हो जिस महल में जिस तरीक़े से इजाज़त दी गई उससे आगे न बढ़ा जाए. (तफ़सीरे अहमदी). एक क़ौल यह भी है जो अल्लाह ने लिखा उसको तलब करने के मानी हैं रमज़ान की रातों में इबादत की कसरत (ज़्यादती) और जाग कर शबे-क़द्र की तलाश करना.

(16) यह आयत सरमआ बिन क़ैस के बारे में उतरी. आप महनती आदमी थे. एक दिन रोज़े की हालत में दिन भर अपनी ज़मीन में काम करके शाम को घर आए. बीवी से खाना माँगा. वह पकाने में लग गई यह थके थे आँख लग गई. जब खाना तैयार करके उन्हें बेदार किया उन्होंने खाने से इन्कार कर दिया क्योंकि उस ज़माने में सो जाने के बाद रोज़ेदार पर खाना पीना बन्द हो जाता था और उसी हालत में दूसरा रोज़ा रख लिया. कमजोरी बहुत बढ गई. दोपहर को चक्कर आ गया. उनके बारे में यह आयत उतरी और रमज़ान की रातों में उनके कारण खाना पीना हलाल किया गया, जैसे कि हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो की अनाबत और रूजू के सबब क़ुर्बत हलाल हुई.

(17) रात को सियाह डोरे से और सुबह सादिक़ को सफ़ेद डोरे से तशबीह दी गई. मानी ये हैं कि तुम्हारे लिये खाना पीना रमज़ान की रातों में मग़रिब से सुबह सादिक़ तक हलाल कर दिया गया. (तफ़सीरे अहमदी). सुबह सादिक़ तक इजाज़त देने में इशारा है कि जनाबत या शरीर की नापाकी रोज़े में रूकावट नहीं है. जिस शख़्स को नापाकी के साथ सुबह हुई, वह नहाले, उसका रोज़ा जायज़ है. (तफ़सीरे अहमदी). इसी से उलमा ने यह मसअला निकाला कि रमज़ान के रोज़े की नियत दिन में जायज़ है.

(18) इससे रोज़े की आख़िरी हद मालूम होती है और यह मसअला साबित होता है कि रोज़े की हालत में खाने पीने और सहवास में से हर एक काम करने से कफ़्फ़ारा लाज़िम हो जाता है (मदारिक). उलमा ने इस आयत को सौमे विसाल यानी तय के रोज़े यानी एक पर एक रोज़ा रखने की मनाही की दलील क़रार दिया है.

(19) इस में बयान है कि रमज़ान की रातों में रोज़ेदार के लिये बीवी से हमबिस्तरी हलाल है जब कि वह मस्जिद में एतिकाफ़ में न बैठा हो. एतिकाफ़ में औरतों से कुरबत और चूमा चाटी, लिपटाना चिपटाना सब हराम हैं. मर्दों के एतिकाफ़ के लिये मस्जिद ज़रूरी है. एतिकाफ़ में बैठे आदमी को मस्जिद में खाना पीना सोना जायज़ है. औरतों का एतिकाफ़ उनके घरों में जायज़ है. एतिकाफ़ हर ऐसी मस्जिद में जायज़ है जिसमें जमाअत क़ायम हो. एतिकाफ़ में रोज़ा शर्त है.

(20) इस आयत में बातिल तौर पर किसी का माल खाना हराम फ़रमाया गया है, चाहे वह लूट कर छीन कर या चोरी से या जुए से या हराम तमाशों से या हराम कामों या हराम चीज़ों के बदले या रिशवत या झूटी गवाही या चुग़लख़ोरी से, यह सब मना और हराम है. इससे मालूम हुआ कि नाजायज़ फ़ायदे के लिये किसी पर मुक़दमा बनाना और उसको हाकिम तक लेजाना हराम और नाजायज़ है. इसी तरह अपने फ़ायदे के लिये दूसरे को हानि पहुंचाने के लिये हाकिम पर असर डालना, रिशवत देना हराम है. हाकिम तक पहुंच वाले लोग इन आदेशों को नज़र में रख़ें. हदीस शरीफ़ में मुसलमानों को नुक़सान पहुंचाने वाले पर लानत आई है.

सूरए बक़रह – चौबीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – चौबीसवाँ रूकू
तुमसे नए चांद को पूछते हैं (1)
तुम फ़रमादो वो वक़्त की अलामतें (चिन्ह) हैं लोगों और हज के लिये (2)
और यह कुछ भलाई नहीं कि (3)
घरों में पछैत और (पिछली दीवार) तोड़कर आओ हाँ भलाई तो परहेज़गारी है, और घरों में दरवाज़ों से आओ (4)
और अल्लाह से डरते रहो इस उम्मीद पर कि फ़लाह (भलाई) पाओ (189) और अल्लाह की राह में लड़ो(5)
उनसे जो तुमसे लड़ते हैं (6)
और हद से न बढ़ो(7)
अल्लाह पसन्द नहीं रखता हद से बढ़ने वालों को (190) और काफ़िरों को जहाँ पाओ मारो (8)
और उन्हें निकाल दो (9)
जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला था (10)
और उनका फ़साद तो क़त्ल से भी सख़्त है (11)
और मस्जिदे हराम के पास उनसे न लड़ो जब तक वो तुम से वहां न लड़े (12)
और अगर तुमसे लड़ें तो उन्हें क़त्ल करो (13)
काफ़िरों की यही सज़ा है  (191) फिर अगर वो बाज़ (रूके) रहें (14)
तो बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (192) और उनसे लड़ो यहाँ तक कि कोई फ़ितना न रहे और एक अल्लाह की पूजी हो, फिर अगर वो बाज़ आएं (15)
तो ज़्यादती नहीं मगर ज़ालिमों पर (193) माहे हराम के बदले माहे हराम और अदब के बदले अदब है (16)
जो तुमपर ज़ियादती करे उसपर ज़ियादती करो उतनी ही जितनी उसने की, और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि अल्लाह डरने वालों के साथ है (194)और अल्लाह की राह में ख़र्च करो(17)
और अपने हाथों हलाक़त में न पड़ो,(18)
और भलाई वाले हो जाओ बेशक भलाई वाले अल्लाह के मेहबूब हैं (195)  और हज व उमरा अल्लाह के लिये पूरा करो(19)
फिर अगर तुम रोके जाओ (20)
तो क़ुरबानी भेजो जो मयस्सर  (उपलब्ध) आए (21)
और अपने सर न मुडाओ जब तक क़ुरबानी अपने ठिकाने न पहुंच जाए (22)
फिर जो तुममें बीमार हो उसके सर में कुछ तकलीफ़ है  (23)
तो बदला दे रोज़े (24)
या ख़ैरात (25)
या क़ुरबानी, फिर जब तुम इत्मीनान से हो तो जो हज से उमरा मिलाने का फ़ायदा उठाए (26)
उस पर क़ुरबानी है जैसी मयस्सर आए (27)
फिर जिसकी ताक़त न हो तीन रोज़े हज के दिनों में रखे  (28)
और सात जब अपने घर पलट कर जाओ, ये पूरे दस हुए यह हुक्म उसके लिये है जो मक्के का रहने वाला न हो, (29)
और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि अल्लाह का अज़ाब सख़्त है (196)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – चौबीसवाँ रूकू
(1) यह आयत हज़रत मआज़ बिन जबल और सअलबा बिन ग़िनम अन्सारी के जवाब में उतरी. उन दोनों ने दर्याफ़्त किया, या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, चाँद का क्या हाल है, शुरू में बहुत बारीक निकलता है, फिर दिन ब दिन बढ़ता है यहाँ तक कि पूरा रौशन हो जाता है फिर घटने लगता है और यहां तक घटता है कि पहले की तरह बारीक हो जाता है. एक हालत में नहीं रहता. इस सवाल का मक़सद चाँद के घटने बढ़ने की हिकमत जानना था. कुछ मुफ़स्सिरीन का ख़याल है कि सवाल का मक़सद चाँद के इख़्तिलाफ़ात का कारण मालूम करना था.

(2) चाँद के घटने बढ़ने के फ़ायदे बयान फ़रमाए कि वह वक़्त की निशानियाँ हैं और आदमी के हज़ारों दीनी व दुनियावी काम इससे जुड़े हैं. खेती बाड़ी, लेन देन के मामले, रोज़े और ईद का समय, औरतों की इद्दतें, माहवारी के दिन, गर्भ और दूध पिलाने की मुद्दतें और दूध छुड़ाने का वक़्त और हज के औक़ात इससे मालूम होते है क्योंकि पहले जब चाँद बारीक होता है तो देखने वाला जान लेता है कि यह शुरू की तारीख़ें हैं. और जब चाँद पूरा रौशन हो जाता है तो मालूम हो जाता है कि यह महीने की बीच की तारीख़ है, और जब चाँद छुप जाता है तो यह मालूम होता है कि महीना ख़त्म पर है. इसी तरह उनके बीच दिनों में चाँद की हालतें दलालत किया करती हैं. फिर महीनों से साल का हिसाब मालूम होता है. यह वह क़ुदरती जनतरी है जो आसमान के पन्ने पर हमेशा खुली रहती है. और हर मुल्क और हर ज़बान के लोग, पढ़े भी और बे पढ़े भी, सब इससे अपना हिसाब मालूम कर लेते हैं.

(3) जाहिलियत के दिनों में लोगों की यह आदत थी कि जब वो हज का इहराम बांधते तो किसी मकान में उसके दरवाज़े से दाख़िल न होते. अगर ज़रूरत होती तो पिछैत तोड़ कर आते और इसको नेकी जानते. इस पर यह आयत उतरी.

(4) चाहे इहराम की हालत हो या ग़ैर इहराम की.

(5) सन छ हिजरी में हुदैबिया का वाक़िआ पेश आया. उस साल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह से उमरे के इरादे से मक्कए मुकर्रमा रवाना हुए. मुश्रिकों ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मक्कए मुकर्रमा में दाख़िल होने से रोका और इस पर सुलह हुई कि आप अगले साल तशरीफ़ लाएं तो आपके लिये तीन रोज़ मक्कए मुकर्रमा ख़ाली कर दिया जाएगा. अगले साल सन सात हिजरी में हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़ज़ा उमरे के लिये तशरीफ़ लाए. अब हुज़ूर के साथ एक हज़ार चार सौ की जमाअत थी. मुसलमानों को यह डर हुआ कि काफ़िर अपने वचन का पालन न करेंगे और हरमे मक्का में पाबन्दी वाले महीने यानी ज़िलक़ाद के माह में जंग करेंगे और मुसलमान इहराम की हालत में हैं. इस हालत में जंग करना भारी है क्योंकि जाहिलियत के दिनों से इस्लाम की शुरूआत तक न हरम में जंग जायज़ थी न माहे हराम में, न हालते इहराम में. तो उन्हें फ़िक्र हुई कि इस वक़्त जंग की इजाज़त मिलती है या नहीं. इस पर यह आयत उतरी.

(6) इसके मानी या तो ये हैं कि जो काफ़िर तुमसे लड़े या जंग की शुरूआत करें तुम उनसे दीन की हिमायत और इज़्ज़त के लिये लड़ो. यह हुक्म इस्लाम की शुरूआत में था, फिर स्थगित कर दिया गया और काफ़िरों से क़िताल या जंग करना वाजिब हुआ, चाहे वो शुरूआत करें या न करें. या ये मानी हैं कि जो तुम से लड़ने का इरादा रखते हैं, यह बात सारे ही काफ़िरों में है क्योंकि वो सब दीन के दुश्मन और मुसलमानों के मुख़ालिफ़ हैं, चाहे उन्होंने किसी वजह से जंग न की हो लेकिन मौक़ा पाने पर चूकने वाले नहीं. ये मानी भी हो सकते हैं कि जो काफ़िर मैदान में तुम्हारे सामने आएं और तुम से लड़ने वाले हों, उनसे लड़ो. उस सूरत में बूढ़े, बच्चे, पागल, अपाहिज, अन्धे, बीमार, औरतें वग़ैरह जो जंग की ताक़त नहीं रखते, इस हुक्म में दाख़िल न होंगे. उनका क़त्ल करना जायज़ नहीं.

(7) जो जंग के क़ाबिल नहीं उनसे न लड़ो या जिनसे तुमने एहद किया हो या बगै़र दावत के जंग न करो क्योंकि शरई तरीक़ा यह है कि पहले काफ़िरों को इस्लाम की दावत दी जाए, अगर इन्कार करें तो जिज़िया माँगा जाए, उससे भी इन्कारी हों तो जंग की जाए. इस मानी पर आयत कर हुक्म बाक़ी है, स्थगित नहीं. (तफ़सीरे अहमदी)

(8) चाहे हरम हो या ग़ैर हरम.

(9) मक्कए मुकर्रमा से.

(10) पिछले साल, चुनांचे फ़त्हे मक्का के दिन जिन लोगों ने इस्लाम क़ुबूल न किया उनके साथ यही किया गया.

(11) फ़साद से शिर्क मुराद है या मुसलमानों को मक्कए मुकर्रमा में दाख़िल होने से रोकना.

(12) क्योंकि ये हरम की पाकी के विरूद्ध है.

(13) कि उन्होंने हरम शरीफ़ की बेहुरमती या अपमान किया.

(14) क़त्ल और शिर्क से.

(15) क़ुफ्र और बातिल परस्ती से.

(16) जब पिछले साल ज़िल्क़ाद सन छ हिजरी में अरब के मुश्रिको ने माहे हराम की पाकी और अदब का लिहाज़ न रखा और तुम्हें उमरे की अदायगी से रोका तो ये अपमान उनसे वाक़े हुआ और इसके बदले अल्लाह के दिये से सन सात हिजरी के ज़िल्क़ाद में तुम्हें मौक़ा मिला कि तुम क़ज़ा उमरे को अदा करो.

(17) इससे सारे दीनी कामों में अल्लाह की ख़ुशी और फ़रमाँबरदारी के लिये ख़र्च करना मुराद है चाहे जिहाद हो या और नेकियाँ.

(18) ख़ुदा की राह में ज़रूरत भर की हलाल चीज़ों का छोड़ना भी अच्छा नहीं और फ़ूज़ूल ख़र्ची भी और इस तरह और चीज़ भी जो ख़तरे और मौत के कारण हो, उन सब से दूर रहने का हुक्म है यहाँ तक कि बिना हथियार जंग के मैदान में जाना या ज़हर खाना या किसी तरह आत्म हत्या करना. उलमा ने इससे यह निष्कर्ष भी निकाला है कि जिस शहर में प्लेग हो वहाँ न जाएं अगरचे वहाँ के लोगो का वहाँ से भागना मना है.

(19) और इन दोनों को इनके फ़रायज़ और शर्तों के साथ ख़ास अल्लाह के लिये बे सुस्ती और बिला नुक़सान पूरा करो. हज नाम है इहराम बाँधकर नवीं ज़िलहज को अरफ़ात में ठहरने और काबे के तवाफ़ का. इसके लिये ख़ास वक़्त मुक़र्रर है, जिसमें ये काम किये जाएं तो हज है. हज सन नौ हिजरी में फ़र्ज़ हुआ. इसकी अनिवार्यता निश्चित है. हज के फ़र्ज़ ये हैं : (1) इहराम (2) नौ ज़िल्हज को अरफ़ात के मैदान में ठहरना (3) तवाफ़े ज़ियारत. हज के वाजिबात ये हैं : (1) मुज़्दलिफ़ा में ठहरना, (2) सफ़ा मर्वा के बीच सई, (3) शैतानों को कंकरियाँ मारना. (4) बाहर से आने वाले हाजी के लिये काबे का तवाफ़े रूख़सत और (5) सर मुंडाना या बाल हल्के कराना. उमरा के रूक्न तवाफ़ और सई हैं और इसकी शर्त इहराम और सर मुंडाना है. हज और उतरा के चार तरीक़े हैं. (1) इफ़राद बिलहज : वह यह है कि हज के महीनों में या उनसे पहले मीक़ात से या उससे पहले हज का इहराम बाँध ले और दिलसे उसकी नियत करे चाहे ज़बान से. लब्बैक पढ़ते वक़्त चाहे उसका नाम ले या न ले. (2) इफ़राद बिल उमरा. वह यह है कि मीक़ात से या उससे पहले हज के महीनों में या उनसे पहले उमरे का इहराम बाँधे और दिल से उसका इरादा करे चाहे तलबियह यानी लब्बैक पढ़ते वक़्त ज़बान से उसका ज़िक्र करे या न करे और इसके लिये हज के महीनों में या उससे पहले तवाफ़ करे चाहे उस साल में हज करे न करे मगर हज और उमरे के बीच सही अरकान अदा करे इस तरह कि अपने बाल बच्चों की तरफ़ हलाल होकर वापस हो.

(3) क़िरान यह है कि हज और उमरा दोनो को एक इहराम में जमा करे. वह इहराम मीक़ात से बाँधा हो या उससे पहले, हज के महीनों में या उनसे पहले. शुरू से हज और उमरा दोनों की नियत हो चाहे तलबियह या लब्बैक कहते वक़्त ज़बान से दोनों का ज़िक्र करे या न करे. पहले उमरे के अरकान अदा करे फिर हज के. (4) तमत्तो यह है कि मीक़ात से या उससे पहले हज के महीने में या उससे पहले उमरे का इहराम बाँधे और हज के माह में उतरा करे या अकसर तवाफ़ उसके हज के माह में हो और हलाल होकर हज के लिये इहराम बाँधे और उसी साल हज करे और हज और उमरा के बीच अपनी बीवी के साथ सोहबत न करे. इस आयत से उलमा ने क़िरान साबित किया है.

(20) हज या उमरे से बाद शुरू करने और घर से निकलने और इहराम पहन लेने के, यानी तुम्हें कोई रूकावट हज या उमरे की अदायगी में पेश आए चाहे वह दुश्मन का ख़ौफ़ हो या बीमारी वग़ैरह, ऐसी हालत में तुम इहराम से बाहर आजाओ.

(21) ऊट या गाय बकरी, और यह क़ुरबानी भेजना वाजिब है.

(22) यानी हरम में जहाँ उसके ज़िब्ह का हुक्म है. यह क़ुरबानी हरम के बाहर नहीं हो सकती.

(23) जिससे वह सर मुंडाने के लिये मजबूर हो और सर मुंडाले.

(24) तीन दिन के.

(25) छ मिस्कीनों का खाना, हर मिस्कीन के लिये पौने दो सेर गेहूँ.

(26) यानी तमत्तो करे.

(27) यह क़ुरबानी तमत्तो की है, हज के शुक्र में वाजिब हुई, चाहे तमत्तो करने वाला फ़कीर हो. ईदुज़ जु़हा की क़ुरबानी नहीं, जो फ़क़ीर और मुसाफ़िर पर वाजिब नहीं होती.

(28) यानी पहली शव्वाल से नवीं ज़िल्हज तक इहराम बांधने के बाद इस दरमियान में जब चाहे रखले, चाहे एक साथ या अलग अलग करके. बेहतर यह है कि सात, आठ, नौ ज़िल्हज को रखे.

(29) मक्का के निवासी के लिये न तमत्तो है न क़िरान. और मीक़ात की सीमाओं के अन्दर रहने वाले, मक्का के निवासियों में दाख़िल हैं. मीक़ात पाँच है : जुल जलीफ़ा, ज़ाते इर्क़, जहफ़ा, क़रन, यलमलम. जु़ल हलीफ़ा मदीना निवासियों के लिये, जहफ़ा शाम के लोगों के लिये, क़रन नज्द के निवासियों के लिये, यलमलम यमन वालों के लिये.  (हिन्दुस्तान चूंकि यमन की तरफ़ से पड़ता है इसलिये हमारी मीक़ात भी यलमलम ही है)

सूरए बक़रह – पच्चीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – पच्चीसवाँ रूकू

हज के कई महीने हैं जाने हुए  (1)
तो जो उनमें हज की नियत करे  (2)
तो न औरतों के सामने सोहबत (संभोग) का तज़किरा  (चर्चा) हो न कोई गुनाह न किसी से झगड़ा  (3)
हज के वक़्त तक और तुम जो भलाई करो अल्लाह उसे जानता है (4)
और तोशा परहेज़गारी है (5)
और मुझसे डरते रहो  ऐ अक़्ल वालो (6) (117)
तुम पर कुछ गुनाह नहीं  (7)
कि अपने रब का फ़ज़्ल  (कृपा) तलाश करो तो जब अरफ़ात  (के मैदान) से पलटो (8)
तो अल्लाह की याद करो  (9)
मशअरे हराम के पास  (10)
और उसका ज़िक्र  करो जैसे उसने तुम्हें हिदायत फ़रमाई और बेशक इससे पहले तुम बहके हुए थे  (11)(118)
फिर बात यह है कि ऐ कुरैशियो तुम भी वहीं से पलटो जहाँ  से लोग पलटते हैं (12)
और अल्लाह से माफ़ी मांगो बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (119)
फिर जब अपने हज के काम पूरे कर चुको  (13)
तो अल्लाह का ज़िक्र करो जैसे अपने बाप दादा का ज़िक्र करते थे  (14)
बल्कि उससे ज़्यादा और कोई आदमी यूँ कहता है कि ऐ रब हमारे हमें दुनिया में दे, और आख़िरत में उसका  कुछ हिस्सा नहीं (200)  और कोई यूँ कहता है कि ऐ रब हमारे हमें दुनिया में भलाई दे और हमें आखिरत में भलाई दे और हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा (15)
(201) ऐसो को उनकी कमाई से भाग है (16) और अल्लाह जल्द हिसाब करने वाला है (17)
(202) और अल्लाह की याद करो गिने हुए दिनों में  (18)
तो जो जल्दी करके दो दिन में चला जाये उस पर कुछ गुनाह नहीं परहेज़गार के लिये  (19)
और अल्लाह से डरते रहो  और जान रखो कि तुम्हें उसी की तरफ़ उठना है (203)
और कुछ आदमी वह है कि दुनिया की ज़िन्दगी में उसकी बात तुझे भली लगे (20)
और अपने दिल की बात पर अल्लाह को गवाह लाए  और वो सबसे बड़ा झगड़ालू है (204)
और जब पीठ फेरे तो ज़मीन में फ़साद डालता फिरे  और खेती और जानें तबाह करे और अल्लाह फ़साद से राज़ी नहीं  (205) और जब उससे कहा जाए कि अल्लाह से डरो तो उसे और ज़िद चढ़े गुनाह की (21)
ऐसे को दोज़ख़ काफ़ी है और वह ज़रूर बहुत बुरा बिछोना है  (206)
और  कोई आदमी अपनी जान बेचता है (22)
अल्लाह की मर्ज़ी चाहने में और अल्लाह बन्दों पर मेहरबान है (207) ऐ ईमान वालो इस्लाम में पूरे दाख़िल हो   (23)
और शैतान के क़दमों पर न चलो (24)
बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है  (208)
और इसके बाद भी बच लो कि तुम्हारे पास रोशन हुक्म आचुके (25)
तो जान लो कि अल्लाह ज़बरदस्त हिकमत वाला है  (209)
काहे के इन्तिज़ार में हैं (26)
मगर यही कि अल्लाह का अज़ाब आए, छाए हुए बादलों में और फ़रिश्तें उतरें (27)
और काम हो चुके और सब कामों का पलटना अल्लाह की तरफ़ है (210)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – पच्चीसवाँ रूकू

(1) शव्वाल, ज़िल्काद और दस तारीख़े ज़िल्हज की, हज के काम इन्हीं दिनों में दुरूस्त हैं, अगर किसी ने इन दिनों से पहले हज का इहराम बाँधा तो जायज़ है लेकिन कराहत के साथ.

(2) यानी हज को अपने ऊपर लाज़िम व वाजिब करे इहराम बाँधकर, या तलबियह कहकर, या क़ुरबानी का जानवर चलाकर. उसपर ये चीज़ें लाज़िम हैं, जिनका आगे ज़िक्र फ़रमाया जाता है.

(3) “रिफ़स” सहवास या औरतों के सामने हमबिस्तरी का ज़िक्र या गन्दी और अश्लील बातें करना है. निकाह इसमें दाख़िल नहीं. इहराम वाले मर्द और इहराम वाली औरत का निकाह जायज़ है अलबत्ता सहवास यानी हमबिस्तरी जायज़ नहीं. “फ़ुसूक़” से गुनाह और बुराईयाँ और “जिदाल” से झगड़ा मुराद है, चाहे वह अपने दोस्तों या ख़ादिमों के साथ हो या ग़ैरों के साथ.

(4) बुराइयों या बुरे कामों से मना करने के बाद नेकियों और पुण्य की तरफ़ बुलाया कि बजाय गुनाह के तक़वा और बजाय झगड़े के अच्छे आचरण और सदव्यवहार अपनाओ.

(5) कुछ यमन के लोग हज के लिये बेसामानी के साथ रवाना होते थे और अपने आपको मुतवक्किल कहते थे और मक्कए मुकर्रमा पहुंचकर सवाल शुरू करते और कभी दूसरे का माल छीनते या अमानत में ख़यानत करते, उनके बारे में यह आयत उतरी और हुक्म हुआ कि तोशा लेकर चलो, औरों पर बोझ न डालों, सवाल न करो, कि बेहतर तोशा परहेज़गारी है. एक क़ौल यह है कि तक़वा का तोशा साथ लो जिस तरह दुनियावी सफ़र के लिये तोशा ज़रूरी है, ऐसे ही आख़िरत के सफ़र के लिये परहेज़गारी का तोशा लाज़िम है.

(6) यानी अक़्ल का तक़ाज़ा अल्लाह का डर है, जो अल्लाह से न डरे वह बेअक़्लों की तरह है.

(7) कुछ मुसलमानों ने ख़याल किया कि हज की राह में जिसने तिजारत की या ऊंट किराए पर चलाए उसका हज ही क्या, इस पर यह आयत उतरी, जब तक व्यापार से हज के अरकान की अदायगी में फ़र्क़ न आए, उस वक़्त तक तिजारत जायज़ है.

(8) अरफ़ात एक स्थान का नाम है जो मौक़फ़ यानी ठहरने की जगह है. ज़हाक का क़ौल है कि हज़रत आदम और हव्वा जुदाई के बाद 9 ज़िल्हज को अरफ़ात के स्थान पर जमा हुए और दोनों में पहचान हुई, इसलिये उस दिन का नाम अरफ़ा यानी पहचान का दिन और जगह का नाम अरफ़ात यानी पहचान की जगह हुआ. एक क़ौल यह है कि चूंकि उस रोज़ बन्दे अपने गुनाहों का ऐतिराफ़ करते हैं इसलिये उस दिन का नाम अरफ़ा है. अरफ़ात में ठहरना फ़र्ज़ है.

(9) तलबियह यानी लब्बैक, तस्बीह, अल्लाह की तारीफ़, तकबीर और दुआ के साथ या मग़रिब व इशा की नमाज़ के साथ.

(10) मशअरे हराम क़ज़ुह पहाड़ है जिसपर इमाम ठहरता है. मुहस्सिर घाटी के सिवा तमाम मुज़्दलिफ़ा ठहरने की जगह है. उसमें ठहरना वाजिब है. बिला उज़्रर छोड़ने से जुर्माने की क़ुरबानी यानी दस लाज़िम आता है. और मशअरे हराम के पास ठहरना अफ़ज़ल है.

(11) ज़िक्र और इबादत का तरीक़ा कुछ न जानते थे.

(12) क़ुरैश मुज़्दलिफ़ा में ठहरते थे और सब लोगों के साथ अरफ़ात में न ठहरते. जब लोग अरफ़ात से पलटते तो ये मुज़्दलिफ़ा से पलटते और इसमें अपनी बड़ाई समझते. इस आयत में उन्हें हुक्म दिया गया कि सब के साथ अरफ़ात में ठहरें और एक साथ पलटें. यही हज़रत इब्राहीम और इस्माईल अलैहुमस्सलाम की सुन्नत है.

(13) हज के तरीक़े का संक्षिप्त बयान यह है कि हाजी आठ ज़िल्हज की सुबह को मक्कए मुकर्रमा से मिना की तरफ़ रवाना हो. वहाँ अरफ़ा यानी नवीं ज़िल्हज की फ़ज़्र तक ठहरे. उसी रोज़ मिना से अरफ़ात आए. ज़वाल के बाद इमाम दो ख़ुत्बे पढ़े. यहाँ हाजी ज़ोहर और असर की नमाज़ इमाम के साथ ज़ोहर के वक़्त में जमा करके पढ़े. इन दोनों नमाज़ों के बीच ज़ोहर की सुन्नत के सिवा कोई नफ़्ल न पढ़ी जाए. इस जमा के लिये इमाम आज़म ज़रूरी है. अगर इमाम आज़म न हो या गुमराह और बदमज़हब हो तो हर एक नमाज़ अलग अलग अपने अपने वक़्त में पढ़ी जाए. और अरफ़ात में सूर्यास्त तक ठहरे. फिर मुज़्दलिफ़ा की तरफ़ लौटे और जबले क़ज़ह के क़रीब उतरे. मुज़्दलिफ़ा में मग़रिब और इशा की नमाज़ें जमा करके इशा के वक़्त पढ़े और फ़ज्र की नमाज़ ख़ूब अव्वल वक़्त अंधेरे में पढ़े. मुहस्सिर घाटी के सिवा तमाम मुज़्दलिफ़ा और बत्न अरना के सिवा तमाम अरफ़ात ठहरने या वक़ूफ़ की जगह है. जब सुबह ख़ूब रौशन हो तो क़ुरबानी के दिन यानी दस ज़िल्हज को मिना की तरफ़ आए और वादी के बीच से बड़े शैतान को सात बार कंकरियाँ मारे. फिर अगर चाहे क़ुरबानी के दिनों मे से किसी दिन तवाफ़े ज़ियारत करे. फिर मिना आकर तीन रोज़ स्थाई रहे और ग्यारहवीं ज़िल्हज के ज़वाल के बाद तीनों जमरात की रमी करे यानी तीनों शैतानों को कंकरी मारे. उस जमरे से शुरू करे जो मस्जिद के क़रीब है, फिर जो उसके बाद है, फिर जमरए अक़बा, हर एक को सात सात कंकरियाँ  मारे, फिर अगले रोज़ ऐसा ही करे, फिर अगले रोज़ ऐसा ही. फिर मक्कए मुकर्रमा की तरफ़ चला आए. (तफ़सील फ़िक़ह की किताबों में मौजूद है)

(14) जाहिलियत के दिनों में अरब हज के बाद काबे के क़रीब अपने बाप दादा की बड़ाई बयान करते थे. इस्लाम में बताया गया कि यह शोहरत और दिखावे की बेकार बातें हैं. इसकी जगह पूरे ज़ौक़ शौक़ और एकग्रता से अल्लाह का ज़िक्र करो. इस आयत से बलन्द आवाज़ में ज़िक्र और सामूहिक ज़िक्र साबित होता है.

(15) दुआ करने वालों की दो क़िस्में बयान फ़रमाई, एक वो काफ़िर जिनकी दुआ में सिर्फ़ दुनिया की तलब होती थी. आख़िरत पर उनका अक़ीदा न था, उनके बारे में इरशाद हुआ कि आख़िरत में उनका कुछ हिस्सा नहीं. दूसरे वो ईमानदार जो दुनिया और आख़िरत दोनों की बेहतरी की दुआ करते हैं. मूमिन दुनिया की बेहतरी जो तलब करता है वह भी जायज़ काम और दीन की हिमायत और मज़बूती के लिये, इसलिये उसकी यह दुआ भी दीनी कामों से है.

(16) इस आयत से साबित हुआ कि दुआ कोशिश और कर्म में दाख़िल है. हदीस शरीफ़ में है कि हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अक्सर यही दुआ फ़रताते थे “अल्लाहुम्मा आतिना फ़िद दुनिया हसनतौं व फ़िल आख़िरते हसनतौं वक़िना अज़ाबन नार” यानी ऐ रब हमारे हमें दुनिया में भलाई दे और हमें आख़िरत में भलाई दे और हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा. (सूरए बक़रह, आयत 201)

(17) बहुत जल्द क़यामत क़ायम करके बन्दों का हिसाब फ़रमाएगा तो चाहिये कि बन्दे ज़िक्र व दुआ व फ़रमाँबरदारी में जल्दी करें.

(18) इन दिनों से अय्यामे तशरीक़ और ज़िक्रुल्लाह से नमाज़ों के बाद और शैतानों को कंकरियाँ मारते वक़्त तकबीर कहना मुराद है.

(19) कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि जाहिलियत के दिनों में लोग दो पक्ष थे. कुछ जल्दी करने वालों को गुनाहगार बताते थे, कुछ रह जाने वाले को. क़ुरआने पाक ने बयान फ़रमा दिया कि इन दोनों में कोई गुनाहगार नहीं.

(20) यह और इससे अगली आयत अख़नस बिन शरीफ़ मुनाफ़िक़ के बारे में उतरी जो हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर बहुत लजाजत से मीठी मीठी बातें करता था और अपने इस्लाम और सरकार की महब्बत का दावा करता और उसपर क़स्में खाता और छुपवाँ फ़साद भड़काने में लगा रहता. मुसलमानों के मवेशी को उसने हलाक किया और उनकी खेती में आग लगा दी.

(21) गुनाह से ज़ुल्म और सरकशी और नसीहत की तरफ़ ध्यान न देना मुराद है.

(22) हज़रत सुहैब इब्ने सनान रूमी मक्कए मुकर्रमा से हिजरत करके हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में मदीनए तैय्यिबह की तरफ़ रवाना हुए. कुरैश के मुश्रिकों की एक जमाअत ने आपका पीछा किया तो आप सवारी से उतरे और तरकश से तीर निकाल कर फ़रमाने लगे कि ऐ क़ुरैश तुम में से कोई मेरे पास नहीं आ सकता जब तक कि मैं तीर मारते मारते तमाम तरकश ख़ाली न करदूं और फिर जब तक तलवार मेरे हाथ में रहे उससे मारूं. उस वक़्त तक तुम्हारी जमाअत का खेत हो जाएगा. अगर तुम मेरा माल चाहो जो मक्कए मुकर्रमा में ज़मीन के अन्दर गड़ा है. तो मैं तुम्हें उसका पता बता दूँ, तुम मुझसे मत उलझो. वो इसपर राज़ी हो गए. और आपने अपने तमाम माल का पता बता दिया. जब हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो यह आयत उतरी. हुज़ूर ने तिलावत फ़रमाई और इरशाद फ़रमाया कि तुम्हारी यह जाँफ़रोशी बड़ी नफ़े वाली तिजारत है.

(23) किताब वालों में से अब्दुल्लाह बिन सलाम और उनके असहाब यानी साथी हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने के बाद शरीअते मूसवी के कुछ अहकाम पर क़ायम रहे, सनीचर का आदर करते, उस दिन शिकार से अलग रहना अनिवार्य जानते, और ऊंट के दूध और गोश्त से परहेज़ करते, और यह ख़याल करते कि ये चीज़ें इस्लाम में तो वैध यानी जायज़ हैं, इनका करना ज़रूरी नहीं, और तौरात में इससे परहेज़ अनिवार्य बताया गया है, तो उनके छोड़ने में इस्लाम की मुख़ालिफ़त भी नहीं है. और हज़रत मूसा की शरीअत पर अमल भी होता है. उसपर यह आयत उतरी और इरशाद फ़रमाया गया कि इस्लाम के आदेश का पूरा पालन करो यानी तौरात के आदेश स्थगित हो गए, अब उनकी पाबन्दी न करो. (ख़ाजिन)

(24) उसके उकसाने और बहकाने में न आओ.

(25) और खुली दलीलों के बावजूद इस्लाम की राह के ख़िलाफ़ रास्ता इख़्तियार करो.

(26) इस्लामी मिल्लत छोड़ने और शैतान की फ़रमाँबरदारी करने वाले.

(27) जो अज़ाब देने के काम पर लगे हुए है.

सूरए बक़रह – छब्बीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – छब्बीसवाँ रूकू

बनी इस्राईल से पूछो हमने कितनी रौशन निशानियाँ उन्हें दीं  (1)
और जो अल्लाह की आई हुई नेअमत को बदल दे (2)
तो बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है  (211) काफ़िरों की निगाह में दुनिया की ज़िन्दगी सजाई गई  (3)
और मुसलमानों से हंसते हैं (4)
और डर वाले उनसे ऊपर होंगे क़यामत के दिन (5)
और ख़ुदा जिसे चाहे बेगिनती दे (212)
लोग एक दीन पर थे (6)
फिर अल्लाह ने नबी भेजे ख़ुशख़बरी देते(7)
और डर सुनाते (8)
और उनके साथ सच्ची किताब उतरी  (9)
कि वह लोगों में उनके मतभेदों का फैसला कर दे  और किताब में मतभेद उन्हीं ने डाला जिन को दी गई थी (10)
बाद इसके कि उनके पास रौशन हुक्म आ चुके  (11)
आपस की सरकशी से तो अल्लाह ने ईमान वालों को वह सच्ची बात सुझा दी जिसमें झगड़ रहे थे अपने हुक्म से और अल्लाह जिसे चाहे सीधी राह दिखाए (213) क्या इस गुमान (भ्रम) में हो कि जन्नत में चले जाओगे और कभी तुम पर अगलों की सी रूदाद (वृतांत) न (12)
पहुंची उन्हें सख़्ती और शिद्दत (कठिनाई) और हिला हिला डाले गए यहाँ तक कि कह उठा रसूल (13)
और उसके साथ के ईमान वाले, कब आएगी अल्लाह की मदद (14)
सुन लो बेशक अल्लाह की मदद क़रीब है  (214)
तुमसे पूछते हैं (15) क्या ख़र्च करें. तुम फ़रमाओ जो कुछ माल नेकी में ख़र्च करो तो वह माँ बाप  और यतीमों  और मोहताज़ों  (दरिद्रों)  और राहगीर के लिये है  और जो भलाई करो (16)
बेशक अल्लाह उसे जानता है (17) (215) तुमपर फ़र्ज़ हुआ अल्लाह की राह में लड़ना और वह तुम्हें नागवार है (18)
और क़रीब है कि कोई बात तुम्हें बुरी लगे और वह तुम्हारे हक़ में बेहतर हो और क़रीब है कि कोई बात तुम्हें पसन्द आए  और वह तुम्हारे हक़ में बुरी हो.  और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते (19) (216)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – छब्बीसवाँ रूकू

(1) कि उनके नबियों के चमत्कारों को उनकी नबुव्वत की सच्चाई का प्रमाण बनाया. उनके इरशाद और उनकी किताबों को दीने इस्लाम की हक़्क़ानियत और इसके सच्चे होने का गवाह किया.

(2) अल्लाह की नेअमत से अल्लाह की आयतें मुराद हैं. जो मार्गदर्शन और हिदायत का कारण हैं और उनकी बदौलत गुमराही से छुटकारा मिलता है. उन्हीं में से वो आयतें है जिनमे सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और गुणगान और हुज़ूर की नबुव्वत व रिसालत का बयान है. यहूदियों और ईयाईयों ने इस बयान में जो तबदीलियाँ की हैं वो इस नेअमत की तबदीली है.

(3) वो इसी के क़द्र करते हैं और इसी पर मरते हैं.

(4) और दुनिया की माया से उनकी अरूचि देखकर उनको तुच्छ समझते हैं, जैसा कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद और अम्मार बिन यास्सिर और सुहैब और बिलाल रदियल्लाहे अन्हुम को देखकर काफ़िर मज़ाक़ उड़ाया करते थे, और दुनिया की दौलत के घमण्ड में अपने आपको ऊंचा समझते थे.

(5) यानी ईमान वाले क़यामत के दिन जन्नत के ऊंचे दर्जों में होंगे और घमण्डी काफ़िर जहन्नम में ज़लील और ख़्वार.

(6) हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के ज़माने से हज़रत नूह के एहद तक सब लोग एक दीन और एक शरीअत पर थे. फिर उनमें मतभेद हुआ तो अल्लाह तआला ने हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को नबी बनाकर भेजा. ये रसूल बनाकर भेजे जाने वालों में पहले हैं (ख़ाज़िन).

(7) ईमान वालों और फ़रमाँबरदारों को सवाब की. (मदारिक और ख़ाज़िन)

(8) काफ़िरों और नाफ़रमानों को अज़ाब का. (ख़ाज़िन)

(9) जैसा कि हज़रत आदम व शीस व इद्रीस पर सहीफ़े और हज़रत मूसा पर तौरात, हज़रत दाऊद पर ज़ुबूर, हज़रत ईसा पर इन्जील और आख़िरी नबी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर क़ुरआन.

(10) यत मतभेद धर्मग्रन्थों में काँटछाँट और रद्दोबदल और ईमान व कुफ़्र के साथ था, जैसा कि यहूदियों और ईसाईयों से हुआ. (ख़ाज़िन)

(11) यानी ये मतभेद नादानी से न था बल्कि …….

(12) और जैसी यातनाएं उन पर गुज़र चुकीं, अभी तक तुम्हें पेश न आई. यह आयत अहज़ाब की जंग के बारे में उतरी, जहाँ मुसलमानों को सर्दी और भूख वग़ैरह की सख़्त तकलीफ़ें पहुंची थीं. इस आयत में उन्हें सब्र का पाठ दिया गया और बताया गया कि अल्लाह की राह में तकलीफ़ें सहना पहले से ही अल्लाह के ख़ास बन्दों की विशेषता रही है. अभी तो तुम्हें पहलों की सी यातनाएं पहुंची भी नहीं हैं. बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत ख़ुबाब बिन अरत रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम काबे के साए में अपनी चादरे मुबारक से तकिया लगाए तशरीफ़ फ़रमा थे. हमने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि सरकार हमारे लिये क्यों दुआ नहीं फ़रमाते, हमारी क्यों मदद नहीं करते. फ़रमाया, तुमसे पहले लोग गिरफ़्तार किये जाते थे, ज़मीन में गढ़ा खोदकर उसमें दबाए जाते थे, आरे से चीर कर दो टुकड़े कर डाले जाते थे और लोहे की कंघियों से उनके गोश्त नोचे जाते थे और इनमें की कोई मुसीबत उन्हें उनके दीन से रोक न सकती थी.

(13) यानी सख़्ती इस चरम सीमा पर पहुंच गई कि उन उम्मतों के रसूल और उनके फ़रमाँबरदार मूमिन भी मदद मांगने में जल्दी करने लगे. इसके बावजूद कि रसूल बड़े सब्र करने वाले होते हैं. और उनके साथी भी. लेकिन बावजूद इन सख़्ततरीन मुसीबतों के वो लोग अपने दीन पर क़ायम रहे और कोई मुसीबत और बला उनके हाल को बदल न सकी.

(14) इसके जवाब में उन्हें तसल्ली दी गई और यह इरशाद हुआ.

(15) यह आयत अम्र बिन जमूह के जवाब में नाज़िल हुई जो बूढ़े आदमी थे और बड़े मालदार थे उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से सवाल किया था कि क्या ख़र्च करें और किस पर ख़र्च करें. इस आयत में उन्हें बता दिया गया कि जिस क़िस्म का और जिस क़दर माल कम या ज़्यादा ख़र्च करो, उसमें सवाब है. और ख़र्च की मदें ये हैं. आयत में नफ़्ल सदक़े का बयान है. माँ बाप को ज़कात और वाजिब सदक़ा (जैसे कि फ़ितरा) देना जायज़ नहीं. (जुमल वग़ैरह).

(16) यह हर नेकी को आम है. माल का ख़र्च करना हो या और कुछ. और बाक़ी ख़र्च की मदें भी इसमें आ गई.

(17) उसकी जज़ा यानी बदला या इनाम अता फ़रमाएगा.

(18) जिहाद फ़र्ज़ है, जब इसकी शर्ते पाई जाएं. अगर काफ़िर मुसलमानों के मुल्क पर चढ़ाई करें तो जिहाद अत्यन्त अनिवार्य हो जाता है. वरना फ़र्जे़ किफ़ाया यानी एक के करने से सब का फ़र्ज़ अदा हो गया.

(19) कि तुम्हारे हक़ में क्या बेहतर है. तो तुम पर लाज़िम है, अल्लाह के हुक्म का पालन करो और उसी को बेहतर समझो, चाहे वह तुम्हारी अन्तरआत्मा पर भारी हो.

सूरए बक़रह – सत्ताईसवाँ रूकू

तुमसे पूछते हैं माहे हराम में लड़ने का हुक्म  (1)
तुम फ़रमाओ इसमें लड़ना बड़ा गुनाह है  (2)
और अल्लाह की राह से रोकना  और उसपर ईमान न लाना  और मस्जिदे हराम से रोकना  और इसके बसने वालों को निकाल देना (3)
अल्लाह के नज़्दीक ये गुनाह उससे भी बड़े हैं और उनका फ़साद (4)
क़त्ल से सख़्ततर है (5)
और हमेशा तुमसे लड़ते रहेंगे यहां तक कि तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें अगर बन पड़े (6)
और तुममें जो कोई अपने दीन से फिरे, फिर काफ़िर होकर मरे तो उन लोगों का किया अकारत गया दुनिया में और आख़िरत में (7)
और वो दोज़ख़ वाले हैं उन्हें उसमें हमेशा रहना (217)
वो जो ईमान लाए  और वो जिन्होंने अल्लाह के लिये अपने घरबार छोड़े  और अल्लाह की राह में लड़े वो अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार हैं  और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है(8)
(218) तुमसे शराब  और जुए का हुक्म पूछते हैं, तुम फ़रमादो कि उन दोनों में बड़ा गुनाह है  और लोगों के कुछ दुनियावी नफ़े भी  और उनका गुनाह उनके नफ़े से बड़ा है(9)
और  तुमसे पूछते हैं क्या ख़र्च करें (10)
तुम फ़रमाओ जो फ़ाज़िल (अतिरक्त) बचे (11)
इसी तरह अल्लाह तुमसे आयतें बयान फ़रमाता है कि कहीं सोचकर करो तुम  (219)
दुनिया  और आख़िरत के काम (12)
और तुमसे यतीमों के बारे में पूछते हैं(13)
तुम फ़रमाओ उनका भला करना बेहतर है  और अगर अपना उनका ख़र्च मिला लो तो वो तुम्हारे भाई हैं  और ख़ुदा ख़ूब जानता है बिगड़ने वाले को संवारने वाले से  और अल्लाह चाहता तो तुम्हें मशक्कत (परिश्रम) में डालता बेशक अल्लाह ज़बरदस्त हिकमत वाला है (220)  और  शिर्क वाली  औरतों से निकाह न करो जब तक मुसलमान न हो जाएं (14)
और बेशक मुसलमान लौंडी मुश्रिका औरत से अच्छी है (15)
अगरचे वह तुम्हें भाती हो  और मुश्रिको के निकाह में न दो जब तक वो ईमान न लाएं (16)
और बेशक मुसलमान ग़ुलाम मुश्रिकों से अच्छा है अगरचे वो तुम्हें भाता हो, वो दोज़ख़ की तरफ़ बुलाते हैं (17)
और अल्लाह जन्नत और बख़्शिश की तरफ़ बुलाता है अपने हुक्म से और अपनी आयतें लोगों के लिये बयान करत है कि कहीं वो नसीहत मानें (221)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – सत्ताईसवाँ रूकू

(1) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अब्दुल्लाह बिन जहश के नेतृत्व में मुजाहिदों की एक जमाअत रवाना फ़रमाई थी. उसने मुश्रिकों से जंग की. उनका ख़याल था कि वह दिन जमादियुल आख़िर का अन्तिम दिन है. मगर दर हक़ीक़त चाँद 29 को हो गया था, और वह रजब की पहली तारीख़ थी. इस पर काफ़िरों ने मुसलमानों को शर्म दिलाई कि तुमने पाबन्दी वाले महीने में जंग की और हुज़ूर से इसके बारे में सवाल होने लगे. इस पर यह आयत उतरी.

(2) मगर सहाबा से यह गुनाह वाक़े नही हुआ, क्योंकि उन्हें चाँद होने की ख़बर ही न थी. उनके ख़याल में वह दिन माहे हराम, यानी पाबन्दी वाले महीने रजब का न था. पाबन्दी वाले महीनों में जंग न करने का हुक्म “उक़्तुलुल मुश्रिकीना हैसो वजद तुमूहुम” यानी मुश्रिकों को मारो जहां पाओ (9 : 5) की आयत द्वारा स्थगित हो गया.

(3) जो मुश्रिकों से वाक़े हुआ कि उन्होंने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा को, हुदैबिया वाले साल, काबए मुअज़्ज़मा से रोका और मक्के में आपके क़याम के ज़माने में आपको और आपके साथियों को इतनी तकलीफ़ें दीं कि वहाँ से हिजरत करना पडी.

(4) यानी मुश्रिकों का, कि वह शिर्क करते हैं और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और मूमिनों को मस्जिदें हराम से रोकते हैं और तरह तरह के कष्ट देते हैं.

(5) क्योंकि क़त्ल तो कुछ हालतों में जायज़ होता है, और कुफ़्र किसी हाल में जायज़ नहीं. और यहाँ तारीख़ का मशकूक यानी संदेह में होना मुनासिब वजह है. और काफ़िरों के कुफ़्र के लिये तो कोई वजह ही नहीं है.

(6) इसमें ख़बर दी गई कि काफ़िर मुसलमानों से हमेशा दुश्मनी रखेंगे. कभी इसके ख़िलाफ़ न होगा. और जहाँ तक उनसे संभव होगा वो मुसलमानों को दीन से फेरने की कोशिश करते रहेंगे, “इनिस्तताऊ” (अगर बन पड़े) से ज़ाहिर होता है कि अल्लाह तआला के करम से वो अपनी इस मुराद में नाकाम रहेंगे.

(7) इस आयत से मालूम हुआ कि दीन से फिर जाने से सारे कर्म बातिल यानी बेकार हो जाते हैं. आख़िरत में तो इस तरह कि उनपर कोई पुण्य, इनाम या सवाब नहीं. और दुनिया में इस तरह कि शरीअत मुर्तद यानी दीन से फिर जाने वाले के क़त्ल का हुक्म देती है. उसकी औरत उसपर हलाल नहीं रहती, वो अपने रिश्तेदारों की विरासत पाने का अधिकारी नहीं रहता, उसका माल छीना या लूटा या चुराया जा सकता है. उसकी तारीफ़ और मदद जायज़ नहीं. (रूहुल बयान वग़ैरह).

(8) अब्दुल्लाह बिन जहश की सरदारी में जो मुजाहिद भेजे गए थे उनके बारे में कुछ लोगों ने कहा कि चूंकि उन्हें ख़बर न थी कि यह दिन रजब का है इसलिये इस दिन जंग करना गुनाह तो न हुआ लेकिन उसका कुछ सवाब भी न मिलेगा. इस पर यह आयत उतरी. और बताया गया कि उनका यह काम जिहादे मक़बूल है. और इस पर उन्हें अल्लाह की रहमत का उम्मीदवार रहना चाहिये और यह उम्मीद ज़रूर पूरी होगी. (ख़ाज़िन). “यरजूना” (उम्मीदवार हैं) से ज़ाहिर हुआ कि अमल यानी कर्म से पुण्य या इनाम वाजिब या अनिवार्य नहीं होता, बल्कि सवाब देना केवल अल्लाह की मर्ज़ी और उसके फ़ज़्ल पर है.

(9) हज़रत अली मुरतज़ा रदियल्लाहो अन्हु ने फ़रमाया, अगर शराब की एक बूंद कुंवें में गिर जाए फिर उस जगह एक मीनार बनाया जाए तो मैं उसपर अज़ान न कहूँ. और अगर नदी में शराब की बूंद पडे़, फिर नदी ख़ुश्क हो और वहाँ घास पैदा हो तो उसमें मैं अपने जानवरों को न चराऊं. सुब्हानअल्लाह ! गुनाह से किस क़द्र नफ़रत है. अल्लाह तआला हमें इन बुज़ुर्गों के रास्ते पर चलने की तौफ़ीक अता करे. शराब सन तीन हिजरी में ग़जवए अहज़ाब से कुछ दिन बाद हराम की गई. इससे पहले यह बताया गया था कि जुए और शराब का गुनाह उनके नफे़ से ज़्यादा है. नफ़ा तो यही है कि शराब से कुछ सुरूर पैदा होता है या इसकी क्रय विक्रय से तिजारती फ़ायदा होता है. और जुए में कभी मु्फ़्त का माल हाथ आता है और गुनाहों और बुराइयों की क्या गिनती, अक़्ल का पतन, ग़ैरत, शर्म, हया और ख़ुददारी का पतन, इबादतों से मेहरूमी, लोगो से दुश्मनी, सबकी नज़र में ख़्वार होना, दौलत और माल की बर्बादी. एक रिवायत में है कि जिब्रील अमीन ने हुज़ूर पुरनूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि अल्लाह तआला को जअफ़रे तैयार की चार  विशेषताएं पसन्द हैं. हुज़ूर ने हज़रत जअफ़र तैयार से पूछा, उन्होंने अर्ज़ किया कि एक तो यह है कि मैंने शराब कभी नहीं पी यानी हराम हो जाने के हुक्म से पहले भी और इसकी वजह यह थी कि मैं जानता था कि इससे अक़्ल भ्रष्ट होती है और मैं चाहता था कि अक़्ल और भी तेज़ हो. दूसरी आदत यह है कि जाहिलियत के ज़माने में भी मैंने मूर्ति पूजा नहीं की क्योंकि मैं जानता था कि यह पत्थर है, न नफ़ा दे, न नुक़सान पहुंचा सके, तीसरी ख़सलत यह है कि मैं कभी ज़िना में मुब्तिला नहीं हुआ कि उसको मैं बेग़ैरती और निर्लज्जता समझता था, चौथी ख़सलत यह कि मैंने कभी झूट नहीं बोला क्योंकि मैं इसको कमीना-पन ख़याल करता था. शतरंज, ताश वग़ैरह हार जीत के खेल और जिन पर बाज़ी लगाई जाए, सब जुए में दाख़िल हैं, और हराम हैं. (रूहुल बयान)

(10) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुसलमानों को सदक़ा देने की रग़बत दिलाई तो आपसे दर्याफ़त किया गया कि मिक़दार इरशाद फ़रमाएं कि कितना माल ख़ुदा की राह में दिया जाय. इस पर यह आयत उतरी (ख़ाज़िन)

(11) यानी जितना तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा हो. इस्लाम की शुरूआत में ज़रूरत से ज़्यादा माल का ख़र्च करना फ़र्ज़ था. सहाबएं किराम अपने माल में से अपनी ज़रूरत भर का लेकर बाक़ी सब ख़ुदा की राह में दे डालते थे. यह हुक्म ज़कात की आयत के बाद स्थगित हो गया.

(12) कि जितना तुम्हारी सांसरिक आवश्यकता के लिये काफ़ी हो, वह लेकर बाक़ी सब अपनी आख़िरत के नफ़े के लिये दान कर दो. (ख़ाज़िन)

(13) कि उनके माल को अपने माल से मिलाने का क्या हुक्म है. आयत “इन्नल लज़ीना याकुलूना अमवालल यतामा ज़ुलमन” यानी वो जो यतीमों का माल नाहक़ खाते हैं वो तो अपने पेट में निरी आग भरते हैं. (सूरए निसा, आयत दस) उतरने के बाद लोगों ने यतीमों के माल अलग कर दिये और उनका खाना पीना अलग कर दिया. इसमें ये सूरतें भी पेश आई कि जो खाना यतीम के लिये पकाया गया और उसमें से कुछ बच रहा वह ख़राब हो गया और किसी के काम न आया. इस में यतीमों का नुक़सान हुआ. ये सूरतें देखकर हज़रत अब्दुल्लाह बिन रवाहा ने हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया कि अगर यतीम के माल की हिफ़ाज़त की नज़र से उसका खाना उसके सरपरस्त अपने खाने के साथ मिलातें तो उसका क्या हुक्म है. इस पर आयत उतरी और यतीमों के फ़ायदे के लिये मिलाने की इजाज़त दी गई.

(14) हज़रत मरसद ग़नवी एक बहादुर सहाबी थे. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हें मक्कए मुकर्रमा रवाना किया ताकि वहाँ से तदबीर के साथ मुसलमानों को निकाल लाएं. वहाँ उनाक़ नामक एक मुश्रिक औरत थी जो जाहिलियत के ज़माने में इनसे महब्बत रखती थी. ख़ूबसूरत और मालदार थी. जब उसको इनके आने की ख़बर हुई तो वह आपके पास आई और मिलने की चाह ज़ाहिर की. आपने अल्लाह के डर से उससे नज़र फेर ली और फ़रमाया कि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता. तब उसने निकाह की दरख़ास्त की. आपने फ़रमाया कि यह भी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की इजाज़त पर निर्भर है. अपने काम से छुट्टी पाकर जब आप सरकार की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो हाल अर्ज़ करके निकाह के बारे में दर्याफ़्त किया. इस पर यह आयत उतरी. (तफ़सीरे अहमदी). कुछ उलमा ने फ़रमाया जो कोई नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ कुफ़्र करे वह मुश्रिक है, चाहे अल्लाह को एक ही कहता हो और तौहीद का दावा रखता हो. (ख़ाज़िन)

(15) एक रोज़ हज़रत अब्दुल्लाह बिन रवाहा ने किसी ग़लती पर अपनी दासी के थप्पड़ मारा फिर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर उसका ज़िक्र किया. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसका हाल दर्याफ़्त किया. अर्ज़ किया कि वह अल्लाह तआला के एक होने और हुज़ूर के रसूल होने की गवाही देती है, रमज़ान के रोज़े रखती है, ख़ूब वुज़ू करती है और नमाज़ पढ़ती है. हुज़ूर ने फ़रमाया वह ईमान वाली है. आप ने अर्ज़ किया, तो उसकी क़सम जिसने आपको सच्चा नबी बनाकर भेजा, मैं उसको आज़ाद करके उसके साथ निकाह करूंगा और आपने ऐसा  ही किया. इस पर लोगों ने ताना किया कि तुमने एक काली दासी से निकाह किया इसके बावुजूद कि अमुक मुश्रिक आज़ाद औरत तुम्हारे लिये हाज़िर है. वह सुंदर भी है. मालदार भी है. इस पर नाज़िल हुआ “वला अमतुम मूमिनतुन” यानी मुसलमान दासी मुश्रिका औरत से अच्छी है. चाहे आज़ाद हो और हुस्न और माल की वजह से अच्छी मालूम होती हो.

(16) यह औरत के सरपस्तों को सम्बोधन है. मुसलमान औरत का निकाह मुश्रिक व काफ़िर के साथ अवैध व हराम है.

(17) तो उनसे परहेज़ ज़रूरी है और उनके साथ दोस्ती और रिश्तेदारी ना पसन्दीदा.

सूरए बक़रह – अठ्ठाईसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – अठ्ठाईसवाँ रूकू

और तुमसे पूछते हैं हैज़ का हुक्म (1)
तुम फ़रमाओ वह नापाकी है तो औरतों से अलग रहो हैज़ के दिनों और उनके क़रीब न जाओ जब तक पाक न हो लें फिर जब पाक हो जाएं तो जहां से तुम्हें अल्लाह ने हुक्म दिया बेशक अल्लाह पसन्द करता है बहुत तौबह करने वालों को और पसन्द रखता है सुथरों को(222) तुम्हारी औरतें तुम्हारें लिये खेतियां हैं तो आओ अपनी खेतियों में जिस तरह चाहो (2)
और अपने भले का काम पहले करो (3)
और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि तुम्हें उससे मिलना है और ऐ मेहबूब बशारत दो ईमान वालों को (223) और अल्लाह को अपनी क़िस्मतों का निशाना न बना लो (4)
कि एहसान और परहेज़गारी और लोगों में सुलह करने की क़सम कर लो और अल्लाह सुनता जानता है  (224)
अल्लाह तुम्हें नहीं पकड़ता उन क़स्मों में जो बेईरादा ज़बान से निकल जाएं, हाँ उसपर पकड़ फ़रमाता है जो काम तुम्हारे दिलों ने किये (5)
और अल्लाह बख़्शने वाला हिल्म  (सहिष्णुता) वाला है  (225)
और वो जो क़सम खा बैठते हैं अपनी औरतों के पास जाने की उन्हें चार महीने की मोहलत  (अवकाश) है तो अगर इस मुद्दत में फिर आए तो अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है  (226)  और अगर छोड़ देने का इरादा पक्का कर लिया तो अल्लाह सुनता जानता है (6)
(227)  और तलाक़ वालियाँ अपनी जानों को रोके रहें तीन हैज़  (माहवारी) तक (7)
और उन्हें हलाल नहीं कि छुपाएँ वह जो अल्लाह ने उनके पेट में पैदा किया  (8)
अगर अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखती हैं (9)
और उनके शौहरों को इस मुद्दत के अन्दर उनक फेर लेने का हक़ पहुंचता है अगर मिलाप चाहे (10)
और औरतों का भी हक़ ऐसा ही है जैसा उनपर है शरीअत के अनुसार (11)
और मर्दों को फ़ज़ीलत  (प्रधानता) है और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है  (228)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – अठ्ठाईसवाँ रूकू

(1) अरब के लोग यहूदियों और मजूसीयों यानी आग के पुजारियों की तरह माहवारी वाली औरतों से सख़्त नफ़रत करते थे. अरब खाना पीना, एक मकान में रहना गवारा न था, बल्कि सख़्ती यहाँ तक पहुँच गई थी कि उनकी तरफ़ देखना और उनसे बात चीत करना भी हराम समझते थे, और ईसाई इसके विपरीत माहवारी के दिनों में औरतों के साथ बड़ी महब्बत से मशग़ूल होते थे, और सहवास में बहुत आगे बढ़ जाते थे. मुसलमानों ने हुज़ूर से माहवारी का हुक्म पूछा. इस पर यह आयत उतरी और बहुत कम तथा बहुत ज़्यादा की राह छोड़ कर बीच की राह अपनाने की तालीम दी गई और बता दिया गया कि माहवारी के दिनों में औरतों से हमबिस्तरी करना मना है.

(2) यानी औरतों की क़ुर्बत से नस्ल का इरादा करो न कि वासना दूर करने का.

(3) यानी नेक और अच्छे कर्म या हमबिस्तरी से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना.

(4) हज़रत अब्दुल्लाह बिन रवाना ने अपने बेहनोई नोमान बिन बशीर के घर जाने और उनसे बात चीत करने और उनके दुश्मनों के साथ उनकी सुलह कराने से क़सम खाली थी. जब इसके बारे में उनसे कहा जाता था तो कह देते थे कि मैं क़सम खा चुका हूँ इसलिये यह काम कर ही नहीं सकता. इस सिलसिले में यह आयत नाज़िल हुई और नेक काम करने से क़सम खा लेने को मना किया गया. अगर कोई व्यक्ति नेकी से दूर रहने की क़सम खाले तो उसको चाहिये कि क़सम को पूरा न करे बल्कि वह नेक काम ज़रूर करे और क़सम का कफ़्फ़ारा दे. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है, रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जिस शख़्स ने किसी बात पर क़सम खाली फिर मालूम हुआ कि अच्छाई और बेहतरी इसके ख़िलाफ़ में है तो चाहिये कि उस अच्छे काम को करे और क़सम का कफ़्फ़ारा दे. कुछ मुफ़स्सिरों ने यह भी कहा है कि इस आयत से बार बार क़सम खाने की मुमानिअत यानी मनाही साबित होती है.

(5) क़सम तीन तरह की होती है : (1) लग्व (2) ग़मूस (3) मुनअक़िदा. लग्व यह है कि किसी गुज़री हुई बात पर अपने ख़याल में सही जानकर क़सम खाए और अस्ल में वह उसके विपरीत हो, यह माफ़ है, और इस पर कफ़्फ़ारा नहीं. ग़मूस यह है कि किसी गुज़री हुई बात पर जान बूझकर झूठी क़सम खाए, इसमें गुनाहगार होगा. मुनअक़िदा यह है कि किसी आने वाली बात पर इरादा करके क़सम खाए. क़सम को अगर तोड़े तो गुनाहगार भी है और कफ़्फ़ारा भी लाज़िम.

(6) जाहिलियत के दिनों में लोगों का यह तरीक़ा था कि अपनी औरतों से माल तलब करते, अगर वह देने से इन्कार करतीं तो एक साल, दो साल, तीन साल या इससे ज़्यादा समय तक उनके पास ना जाते और उनके साथ सहवास न करने की क़सम खा लेते थे और उन्हें परेशानी में छोड़ देते थे. न वो बेवा ही थीं कि कहीं अपना ठिकाना कर लेतीं, न शौहर वाली कि शौहर से आराम पातीं. इस्लाम ने इस अत्याचार को मिटाया और ऐसी क़सम खाने वालों के लिये चार महीने की मुद्दत निश्चित फ़रमादी कि अगर औरत से चार माह के लिये सोहबत न करने की क़सम खाले जिसको ईला कहते हैं तो उसके लिये चार माह इन्तिज़ार की मोहलत है. इस अर्से में ख़ूब सोच समझ ले कि औरत को छोड़ना उसके लिये बेहतर है या रखना. अगर रखना बेहतर समझे और इस मुद्दत के अन्दर रूजू करले तो निकाह बाक़ी रहेगा और क़सम का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और अगर इस मुद्दत में रूजू न किया और क़सम न तोड़ी तो औरत निकाह से बाहर हो गई और उस पर तलाक़े बायन वाक़े हो गई. अगर मर्द सहवास की क्षमता रखता हो तो रूजू हमबिस्तरी से ही होगा और अगर किसी वजह से ताक़त न हो तो ताक़त आने के बाद सोहबत का वादा रूजू है. (तफ़सीरे अहमदी)

(7) इस आयत में तलाक़ शुदा औरतों की इद्दत का बयान है. जिन औरतों को उनके शौहरों ने तलाक़ दी, अगर वो शौहर के पास न गई थीं और उनसे तनहाई में सहवास न हुआ था, जब तो उन पर तलाक़ की इद्दत ही नहीं है जैसा कि आयत “फ़मालकुम अलैहिन्ना मिन इद्दतिन” यानी निकाह करो फिर उन्हें बेहाथ लगाए छोड़ दो तो तुम्हारे लिये कुछ इद्दत नहीं जिसे गिनो. (सूरए अहज़ाब, आयत 49) में इरशाद है और जिन औरतों को कमसिनी या बुढ़ापे की वजह से हैज़ या माहवारी न आती हो या जो गर्भवती हों, उनकी इद्दत का बयान सूरए तलाक़ में आएगा. बाक़ी जो आज़ाद औरतें हैं, यहाँ उनकी इद्दत और तलाक़ का बयान है कि उनकी इद्दत तीन माहवारी है.

(8) वह गर्भ हो या माहवारी का ख़ून, क्योंकि उसके छुपाने से, रजअत और वलद में जो शौहर का हक़ है, वह नष्ट होगा.

(9) यानी ईमानदारी का यही तक़ाज़ा है.

(10) यानी तलाक़े रजई में इद्दत के अन्दर शौहर औरत की तरफ़ पलट सकता है, चाहे औरत राज़ी हो या न हो. लेकिन अगर शौहर को मिलाप मंज़ूर हो तो ऐसा करे. कष्ट पहुंचाने का इरादा न करे जैसा कि जाहिल लोग औरतों को परेशान करने के लिये करते थे.

(11) यानी जिस तरह औरतों पर शौहरों के अधिकार की अदायगी वाजिब है, उसी तरह शौहरों पर औरतों के हुक़ूक़ की रिआयत लाज़िम है.

सूरए बक़रह – उन्तीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – उन्तीसवाँ रूकू

यह तलाक़ (1)
दो बार तक है फिर भलाई के साथ रोक लेना है (2)
या नेकी के साथ छोड़ देना है(3)
और तुम्हें रवा नहीं कि जो कुछ औरतों को दिया (4)
उसमें से कुछ वापिस लो (5)
मगर जब दोनों को डर हो कि अल्लाह की हदें क़ायम न करेंगे (6)
फिर अगर तुम्हें डर हो कि वो दोनों ठीक उन्हीं हदों पर न रहेंगे तो उनपर कुछ गुनाह नहीं इसमें जो बदला देकर औरत छुट्टी ले (7)
ये अल्लाह की हदें हैं इनसे आगे न बढ़ो तो वही लोग ज़ालिम हैं (229) फिर अगर तीसरी तलाक़ उसे दी तो अब वह औरत उसे हलाल न होगी जब तक दूसरे शौहर के पास न रहे (8)
फिर वह दूसरा अगर उसे तलाक़ दे दे तो उन दोनों पर गुनाह नहीं कि आपस में मिल जाएं (9)
अगर समझते हों कि अल्लाह कि हदें निभाएंगे और ये अल्लाह की हदें है जिन्हें बयान करता है अक़ल वालों के लिये (230) और  जब तुम औरतों को तलाक़ दो और  उनकी मीआद (अवधि) आ लगे (10)
तो उस वक़्त तक या भलाई के साथ रोक लो (11)
या नेकी के साथ छोड़ दो (12)
और उन्हें ज़रर (तक़लीफ़) देने के लिये रोकना न हो कि हद से बढ़ो और जो ऐसा करे वह अपना ही नुक़सान करता है (13)
और अल्लाह की आयतों को ठठ्ठा न बना लो. (14)
और याद करो अल्लाह का एहसान जो तुमपर है (15)
और वह जो तुम पर किताब और हिकमत (16)
उतारी तुम्हें नसीहत देने को और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि अल्लाह सब कुछ जानता है (17)
(231)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – उन्तीसवाँ रूकू

(1) यानी तलाक़े रजई. एक औरत ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि उसके शौहर ने कहा है कि वह उसको तलाक़ देता और रूजू करता रहेगा. हर बार जब तलाक़ की इद्दत गुज़रने के क़रीब होगी रूजू कर लेगा, फिर तलाक़ दे देगा, इसी तरह उम्र भर उसको क़ैद में रखेगा. इस पर यह आयत उतरी और इरशाद फ़रमाया कि तलाक़ रजई दो बार तक है. इसके बाद फिर तलाक़ देने पर रूजू करने का हक़ नहीं.

(2) रूजू करके.

(3) इस तरह कि रूजू न करे और इद्दत गुज़रकर औरत बयान हो जाए.

(4) यानी मेहर.

(5) तलाक़ देते वक़्त.

(6) जो मियाँ बीवी के हुक़ूक के बारे में है.

(7) यानी तलाक़ हासिल करे. यह आयत जमीला बिन्ते अब्दुल्लाह के बारे में उतरी. यह जमीला साबित बिन क़ैस इब्ने शमास के निकाह में थीं और शौहर से सख़्त नफ़रत रखतीं थीं. रसूले खुदा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में अपने शौहर की शिकायत लाई और किसी तरह उनके पास रहने पर राज़ी न हुई, तब साबित ने कहा कि मैं ने इनको एक बाग़ दिया है अगर यह मेरे पास रहना गवारा नहीं करतीं और मुझसे अलग होना चाहती हैं तो वह बाग़ मुझे वापस करें, मैं इनको आज़ाद कर दूँ. जमीला ने इसको मंज़ूर कर लिया. साबित ने बाग़ ले लिया और तलाक़ दे दी. इस तरह की तलाक़ को ख़ुला कहते हैं. ख़ुला तलाक़े बयान होता है. ख़ुला में “ख़ुला” शब्द का ज़िक्र ज़रूरी है. अगर जुदाई की तलबगार औरत हो तो ख़ुला में मेहर की मिक़दार से ज़्यादा लेना मकरूह है और अगर औरत की तरफ़ से नुशूज़ न हो, मर्द ही अलाहिदगी चाहे तो मर्द को तलाक़ के बदले माल लेना बिल्कुल मकरूह है.

(8) तीन तलाक़ों के बाद औरत शौहर पर हराम हो जाती है, अब न उससे रूजू हो सकता है न दोबारा निकाह, जब तक कि हलाला हो, यानी इद्दत के बाद दूसरे से निकाह करे और वह सहवास के बाद तलाक़ दे, फिर इद्दत गुज़रे.

(9) दोबारा निकाह कर लें.

(10) यानी इद्दत ख़त्म होने के क़रीब हो. यह आयत साबित बिन यसार अन्सारी के बारे में उतरी. उन्होंने अपनी औरत को तलाक़ दी थी और जब इद्दत ख़त्म होने के क़रीब होती थी, रूजू कर लिया करते थे ताकि औरत कै़द में पड़ी रहे.

(11) यानी निबाहने और अच्छा मामला करने की नियत से रूजू करो.

(12) और इद्दत गुज़र जाने दो ताकि इद्दत के बाद वो आज़ाद हो जाएं.

(13) कि अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफ़त करके गुनहगार होता है.

(14) कि उनकी पर्वाह न करो और उनके ख़िलाफ़ अमल करो.

(15) कि तुम्हें मुसलमान किया और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का उम्मती बनाया.

(16) किताब से क़ुरआन और हिकमत से क़ुरआन के आदेश और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नत मुराद है.

(17) उससे कुछ छुपा हुआ नहीं है.

सूरए बक़रह – तीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – तीसवाँ रूकू

और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और उनकी मीआद पूरी हो जाए (1)
तो ऐ औरतों के वालियों (स्वामियों), उन्हें न रोको इससे कि अपने शौहरों से निकाह कर लें  (2)
जब कि आपस में शरीअत के अनुसार रज़ामंद हो जाएं (3)
यह नसीहत उसे दी जाती है जो तुम में से अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखता हो यह तुम्हारे लिये ज़्यादा सुथरा और पाकीज़ा है और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते (232)
और माएं दूध पिलाएं अपने बच्चों को (4)
पूरे दो बरस उसके लिये जो दूध की मुद्दत पूरी करनी चाहे (5)
और जिसका बच्चा है (6)
उसपर औरतों का खाना और पहनना है दस्तूर के अनुसार (7)
किसी जान पर बोझ न रखा जाए उसके बच्चे से  (8)
और न औलाद वाले को उसकी औलाद से  (9)
या माँ बाप ज़रर न दे अपने बच्चे को और न औलाद वाला अपनी औलाद को  (10)
और जो बाप की जगह है उसपर भी ऐसा ही वाजिब है फिर अगर माँ बाप दानों आपस की रज़ा और सलाह से दूध छुड़ाना चाहें तो उनपर गुनाह नहीं. और अगर तुम चाहो कि दाइयों से अपने बच्चों को दूध पिलाओ तो भी तुमपर हरज नहीं कि जब जो देना ठहरा था भलाई के साथ उन्हें अदा करदो और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (233)
और  तुम में जो मरें और बीबियां छोड़ें वो चार महीने दस दिन अपने आप को रोके रहें (11)
तो जब उनकी मुद्दत (अवधि) पूरी हो जाए तो ऐ वालियों (स्वामियों) तुम पर मुआख़ज़ा(पकड़) नहीं उस काम में जो औरत अपने मामले में शरीअत के अनुसार करें और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (234)
और तुम पर गुनाह नहीं इस बात में जो पर्दा रखकर तुम औरतों के निकाह का पयाम दो या अपने दिल में छुपा रखो.  (12)
अल्लाह जानता है कि अब तुम उनकी याद करोगे  (13)
हाँ उनसे छुपवां वादा न कर रखो मगर यह कि उतनी बात कहो जो शरीअत में चलती है और निकाह की गांठ पक्की न करो जब तक लिखा हुक्म अपने समय को न पहुंच ले (14)
और जान लो कि अल्लाह तुम्हारे दिल की जानता है तो उससे डरो और जान लो कि अल्लाह बख़्शने वाला, हिल्म  (सहिष्णुता) वाला है (235)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – तीसवाँ रूकू

(1) यानी उनकी इद्दत गुज़र चुके.

(2) जिनको उन्होंने अपने निकाह के लिये चुना हो, चाहे वो नए हों या यही तलाक़ देने वाले या उनसे पहले जो तलाक़ दे चुके थे.

(3) अपने क़ुफ़्व यानी बराबर वाले में मेहरे मिस्ल पर, क्योंकि इसके ख़िलाफ़ की सूरत में सरपरस्त हस्तक्षेप और एतिराज़ का हक़ रखते हैं. मअक़ल बिन यसार मुज़नी की बहन का निकाह आसिम बिन अदी के साथ हुआ था. उन्होंने तलाक़ दी और इद्दत गुज़रने के बाद फिर आसिम ने दरख़ास्त की तो मअक़ल बिन यसार आड़े आए. उनके बारे में यह आयत उतरी. (बुख़ारी शरीफ़)

(4) तलाक़ के बयान के बाद यह सवाल अपने आप सामने आता है कि अगर तलाक़ वाली औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो तो उसके अलग होने के बाद बच्चे की परवरिश का क्या तरीक़ा होगा इसलिये यह ज़रूरी है कि बच्चे के पालन पोषण के बारे में माँ बाप पर जो अहकाम हैं वो इस मौक़े पर बयान फ़रमा दिये जाएं. लिहाज़ा यहाँ उन मसाइल का बयान हुआ. माँ चाहे तलाक़ शुदा हो या न हो, उस पर अपने बच्चे को दूध पिलाना वाजिब है, शर्त यह है कि बाप को उजरत या वेतन पर दूध पिलवाने की क्षमता और ताक़त न हो या कोई दूध पिलाने वाली उपलब्ध न हो. या बच्चा माँ के सिवा किसी का दूध क़ुबूल न करे. अगर ये बात न हो, यानी बच्चे की परवरिश ख़ास माँ के दूध पर निर्भर न हो तो माँ पर दूध पिलाना वाजिब नहीं, मुस्तहब है. (तफ़सीरे अहमदी व जुमल वग़ैरह)

(5) यानी इस मुद्दत का पूरा करना अनिवार्य नहीं. अगर बच्चे को ज़रूरत न रहे और दूध छुड़ाने में उसके लिये ख़तरा न हो तो इससे कम मुद्दत में भी छुड़ाना जायज़ है. (तफ़सीरे अहमदी, ख़ाज़िन वग़ैरह)

(6) यानी वालिद. इस अन्दाज़े बयान से मालूम हुआ कि नसब बाप की तरफ़ पलटता है.

(7) बच्चे की परवरिश और उसको दूध पिलवाना बाप के ज़िम्मे वाजिब है. इसके लिये वह दूध पिलाने वाली मुक़र्रर करे. लेकिन अगर माँ अपनी रग़बत से बच्चे को दूध पिलाए तो बेहतर है. शौहर अपनी बीवी पर बच्चे को दूध पिलाने के लिये ज़बरदस्ती नहीं कर सकता, और न औरत शौहर से बच्चे के दूध पिलाने की उजरत या मज़दूरी तलब कर सकती है. जब तक कि उसके निकाह या इद्दत में रहे. अगर किसी शख़्त ने अपनी बीवी को तलाक़ दी और इद्दत गुज़र चुकी तो वह उस बच्चे के दूध पिलाने की उजरत ले सकती है. अगर आप ने किसी औरत को अपने बच्चे के दूध पिलाने पर रखा और उसकी माँ उसी वेतन पर या बिना पैसे दूध पिलाने पर राज़ी हुई तो माँ ही दूध पिलाने की ज़्यादा हक़दार है. और अगर माँ ने ज़्यादा वेतन तलब किया तो बाप को उससे दूध पिलवाने पर मजबूर नहीं किया जाएगा. (तफ़सीरे अहमदी व मदारिक). “अलमअरूफ़” (दस्तूर के अनुसार) से मुराद यह है कि हैसियत के मुताबिक़ हो, तंगी या फ़ुज़ूलख़र्ची के बग़ैर.

(8) यानी उसको उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दूध पिलाने पर मजबूर न किया जाए.

(9) ज़्यादा वेतन तलब करके.

(10) माँ का बच्चे को कष्ट देना यह है कि उसको वक़्त पर दूध न दे और उसकी निगरानी न रखे या अपने साथ मानूस कर लेने के बाद छोड़ दे. और बाप का बच्चे को कष्ट देना यह है कि हिले हुए बच्चे को माँ से छीन ले या माँ के हक़ में कमी करे जिससे बच्चे को नुक़सान हो.

(11) गर्भवती की इद्दत तो गर्भ के अन्त तक यानी बच्चा पैदा हो जाने तक है, जैसा कि सूरए तलाक़ में ज़िक्र है. यहाँ बिना गर्भ वाली औरत का बयान है जिसका शौहर मर जाए, उसकी इद्दत चार माह दस रोज़ है. इस मुद्दत में न वह निकाह करे न अपना घर छोडे़, न बिना ज़रूरत तेल लगाए, न ख़ुश्बू लगाए, न मेहंदी लगाए, न सिंगार करे, न रंगीन और रेशमी कपड़े पहने, न नए निकाह की बात चीत खुलकर करे. और जो तलाक़े बयान की इद्दत में हो, उसका भी यही हुक्म है. अल्बत्ता जो औरत तलाक़े रजई की इद्दत में हो, उसको सजना सँवरना और सिंगार करना मुस्तहब है.

(12) यानी इद्दत में निकाह और निकाह का खुला हुआ प्रस्ताव तो मना है लेकिन पर्दे के साथ निकाह की इच्छा प्रकट करना गुनाह नहीं. जैसे यह कहे कि तुम बहुत नेक औरत हो या अपना इरादा दिल में ही रखे और ज़बान से किसी तरह न कहे.

(13) और तुम्हारे दिलों में इच्छा होगी इसी लिये तुम्हारे लिये तारीज़ जायज़ कर दी गई.

(14) यानी इद्दत गुज़र चुके.

सूरए बक़रह – इकत्तीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – इकत्तीसवाँ रूकू
तुम पर कुछ मुतालिबा (अभियाचना)  नहीं (1)  तुम औरतों को तलाक़ दो जब तक तुम ने उनको हाथ न लगाया हो या कोई मेहर (रक़म,दैन)  निश्चित कर लिया हो, (2)
और उनको कुछ बरतने को दो. (3)
हैसियत वाले पर उसके लायक़ और तंगदस्त पर उसके लायक़, दस्तूर के अनुसार कुछ बरतने की चीज़, ये वाजिब है भलाई वालों पर (4)
और अगर तुमने औरतों को बे छुए तलाक़ दे दी और उनके लिये कुछ मेहर निश्चित कर चुके थे तो जितना ठहरा था उसका आधा अनिवार्य है मगर यह कि औरतें कुछ छोड़ दें (5)
या वह ज़्यादा दे(6)
जिसके हाथ में निकाह की गिरह है (7)
और ऐ मर्दों, तुम्हारा ज़्यादा देना परहेज़गारी से नज़्दीकतर है और आपस में एक दूसरे पर एहसान को भुला न दो बेशक अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (8)
निगहबानी करो सब नमाज़ों की (9)
और बीच की नमाज़ की (10)
और खड़े हो अल्लाह के हुज़ूर अदब से (11)
फिर अगर डर में हो तो प्यादा या सवार जैसे बन पड़े, फिर जब इत्मीनान से हो तो अल्लाह की याद करो जैसा उसने सिखाया जो तुम न जानते थे और जो तुम में मरें और बीवियां छोड़ जाएं वो अपनी औरतों के लिये वसीयत कर जाएं (12)
साल भर तक नान नफ़क़ा देने की बे निकाले (13)
फिर अगर वो ख़ुद निकल जाएं तो तुम पर उसका कोई हिसाब नहीं जो उन्होंने अपने मामले में मुनासिब तौर पर किया और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है और तलाक वालियों के लिये भी मुनासिब तौर पर नान नफ़क़ा है ये वाजिब है परहेज़गारों पर अल्लाह यूं ही बयान करता है तुम्हारे लिये अपनी आयतें कि कहीं तुम्हें समझ हो (242)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – इकत्तीसवाँ रूकू
(1) मेहर का.

(2) यह आयत एक अन्सारी के बारे में नाज़िल हुई जिन्हों ने बनी हनीफ़ा क़बीले की एक औरत से निकाह किया और कोई मेहर निश्चित न किया. फिर हाथ लगाने से पहले तलाक़ दे दी. इससे मालूम हुआ कि जिस औरत का मेहर निश्चित न किया हो, अगर उसको छूने से पहले तलाक़ दे दी तो मेहर की अदायगी लाज़िम नहीं. हाथ लगाने या छूने से हम बिस्तरी मुराद है, और ख़िलवते सहीहा यानी भरपूर तनहाई उसके हुक्म में है. यह भी मालूम हुआ कि मेहर का ज़िक्र किये बिना भी निकाह दुरूस्त है, मगर उस सूरत में निकाह के बाद मेहर निश्चित करना होगा. अगर न किया तो हमबिस्तरी के बाद मेहरे मिस्ल लाज़िम हो जाएगा, यानी वो मेहर जो उसके ख़ानदान में दूसरों का बंधता चला आया है.

(3) तीन कपड़ों का एक जोड़ा.

(4) जिस औरत का मेहर मुक़र्रर न किया हो, उसको दुख़ूल यानी संभोग से पहले तलाक़ दी हो उसको तो जोड़ा देना वाजिब है. और इसके सिवा हर तलाक़ वाली औरत के लिये मुस्तहब है. (मदारिक)

(5) अपने इस आधे में से.

(6) आधे से जो इस सूरत में वाजिब है.

(7) यानी शौहर.

(8) इसमें सदव्यवहार और महब्बत और नर्मी से पेश आने की तरग़ीब है.

(9) यानी पाँच वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ों को उनके औक़ात पर भरपूर संस्कारों और शर्तों के साथ अदा करते रहो. इसमें पाँचों नमाज़ों के फ़र्ज़ होने का बयान है. और औलाद और बीवी के मसाइल और अहकाम के बीच नमाज़ का ज़िक्र फ़रमाना इस नतीजे पर पहुंचाता है कि उनको नमाज़ की अदायगी से ग़ाफ़िल न होने दो और नमाज़ की पाबन्दी से दिल की सफ़ाई होती है, जिसके बिना मामलों के दुरूस्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

(10) हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा और अक्सरो बेशतर सहाबा का मज़हब यह है कि इससे अस्त्र की नमाज़ मुराद है. और हदीसों में भी प्रमाण मिलना है.

(11) इससे नमाज़ के अन्दर क़याम का फ़र्ज़ होना साबित हुआ.

(12) अपने रिश्तेदारों को.

(13) इस्लाम की शुरूआत में विधवा की इद्दत एक साल की थी और पूरे एक साल व शौहर के यहाँ रहकर रोटी कपड़ा पाने की अधिकारी थी. फिर एक साल की इद्दत तो “यतरब्बसना बि अन्फ़ुसेहिन्ना अरबअता अशहुरिन व अशरा” (यानी चार माह दस दिन अपने आप को रोके रहें – सूरए बक़रह – आयत 234) से स्थगित हुई, जिसमें विधवा की इद्दत चार माह दस दिन निश्चित फ़रमा दी गई और साल भर का नान नफ़्क़ा मीरास की आयत से मन्सूख़ यानी रद्द हुआ जिसमें औरत का हिस्सा शौहर के छोड़े हुए माल से मुक़र्रर किया गया. लिहाज़ा अब वसिय्यत का हुक्म बाक़ी न रहा. हिकमत इसकी यह है कि अरब के लोग अपने पूर्वज की विधवा का निकलना या ग़ैर से निकाह करना बिल्कुल गवारा नहीं करते थे,  इसको बड़ी बेशर्मी समझते थे. इसलिये अगर एक दम चार माह दस रोज़ की इद्दत मुक़र्रर की जाती तो यह उन पर बहुत भारी होता. इसी लिये धीरे धीरे उन्हें राह पर लाया गया.

सूरए बक़रह – बत्तीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – बत्तीसवाँ रूकू

ऐ  मेहबूब क्या तुमने न देखा था उन्हें जो अपने घरों से निकले और वो हज़ारों थे मौत के डर से तो अल्लाह ने उनसे फ़रमाया मर जाओ फिर उन्हें ज़िन्दा फ़रमाया बेशक अल्लाह लोगों पर फ़ज़्ल (कृपा) करने वाला है मगर अकसर लोग नाशुक्रे हैं  (1)
और लड़ों अल्लाह की राह में (2)
और जान लो कि अल्लाह सुनता जानता है , है कोई जो अल्लाह को क़र्ज़ हसन दे   (3)
तो अल्लाह उसके लिये बहुत गुना बढ़ा दे  और अल्लाह तंगी और कुशायश (वृद्धि)  करता है(4)
और तुम्हें उसी की तरफ़ फिर जाना  ऐ मेहबूब क्या तुमने न देखा बनी इस्त्राईल के एक दल को जो मूसा के बाद हुआ   (5)
जब अपने एक पैगम्बर से बोले हमारे लिये खड़ा कर दो एक बादशाह कि हम ख़ुदा की राह में लड़ें. नबी ने फ़रमाया क्या तुम्हारे अन्दाज़ ऐसे हैं कि तुम पर जिहाद फ़र्ज़  किया जाए तो फिर न करो, बोले हमें क्या हुआ कि हम अल्लाह की राह में न लड़ें हालांकि हम निकाले गए हैं अपने वतन  और अपनी  औलाद से  (6)
तो फिर जब उनपर जिहाद फर्ज़ किया गया, मुंह फेर गए मगर उनमें के थोड़े (7)
और अल्लाह ख़ूब जानता है ज़ालिमों को (246)

तफ़सीर :
सूरए बक़रह – बत्तीसवाँ रूकू

(1) बनी इस्त्राईल की एक जमाअत थी जिसकी बस्तियों में प्लेग हुआ तो वो मौत के डर से अपनी बस्तियाँ छोड़ भागे और जंगल में जा पड़े. अल्लाह का हुक्म यूं हुआ कि सब वहीं मर गए. कुछ अर्से बाद हज़रत हिज़क़ील अलैहिस्सलाम की दुआ से उन्हें अल्लाह तआला ने ज़िन्दा फ़रमाया और वो मुद्दतों ज़िन्दा रहे. इस घटना से मालूम होता है कि आदमी मौत के डर से भागकर जान नहीं बचा सकता तो भागना बेकार है. जो मौत निश्चित है, वह ज़रूर पहुंचेगी. बन्दे को चाहिये कि अल्लाह की रज़ा पर राज़ी रहे. मुजाहिदों को समझना चाहिये कि जिहाद से बैठ रहना मौत को रोक नहीं सकता. इसलिये दिल मज़बूत रखना चाहिये.

(2) और मौत से न भागे, जैसा बनी इस्त्राईल भागे थे, क्योंकि मौत से भागना काम नहीं आता.

(3) यानी ख़ुदा की राह में महब्बत के साथ ख़र्च करने को क़र्ज़ से ताबीर फ़रमाया. यह बड़ी ही दया और मेहरबानी है. बन्दा उसका बनाया हुआ और बन्दे का माल उसी का दिया हुआ, हक़ीक़ी मालिक वह और बन्दा उसकी अता से नाम भर का मालिक है. मगर क़र्ज़ से ताबीर फ़रमाने में यह बताना मजूंर है कि जिस तरह क़र्ज़ देने वाला इत्मीनान रखता है कि उसका माल बर्बाद नहीं हुआ, वह उसकी वापसी का मुस्तहिक है, ऐसा ही खुदा की राह में ख़र्च करने वाले को इत्मीनान रखना चाहिये कि वह इस ख़र्च करने का बदला और इनाम ज़रूर ज़रूर पाएगा और बहुत ज़्यादा पाएगा.

(4) जिसके लिये चाहे रोज़ी तंग करे, जिसके लिये चाहे खोल दे. बन्द करना और खोल देना रोज़ी का उसके क़ब्ज़े में है, और वह अपनी राह में ख़र्च करने वाले से विस्तार या वुसअत का वादा करता है.

(5) हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के बाद जब बनी इस्त्राईल की हालत खराब हुई और उन्होंने अल्लाह का एहद भुला दिया. मूर्ति पूजा में मशग़ूल हुए, सरकशी और कुकर्म चरम सीमा पर पहुंचे, उन पर जालूत की क़ौम छा गई जिसको इमालिक़ा कहते हैं. जालूत अमलीक़ बिन आस की औलाद से एक बहुत ही अत्याचारी बादशाह था. उसकी क़ौम के लोग मिस्त्र और फ़लस्तीन के बीच रोम सागर के तट पर रहते थे. उन्होंने बनी इस्त्राईल के शहर छीन लिये, आदमी गिरफ़तार किये, तरह तरह की सख्तियाँ कीं. उस ज़माने में कोई नबी बनी इस्त्राईल में मौजूद न थे. ख़ानदाने नबुव्वत से सिर्फ़ एक बीबी रही थीं जो गर्भ से थीं. उनके बेटा हुआ. उनका नाम शमवील रखा. जब वो बड़े हुए तो उन्हें तौरात का इल्म हासिल करने के लिये बैतुल मक़दिस में एक बूढ़े विद्वान के हवाले किया गया. वह आपको बहुत चाहते और अपना बेटा कहते. जब आप जवान हुए तो एक रात आप उस आलिम के पास आराम कर रहे थे कि हज़रत जिब्रीले अमीन ने उसी आलिम की आवाज़ में “या शमवील” कहकर पुकारा. आप आलिम के पास गए और फ़रमाया कि आपने मुझे पुकारा है. आलिम ने यह सोचकर कि इन्कार करने से कहीं आप डर न जाएं, यह कह दिया, बेटे तुम सो जाओ. दोबारा फिर हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने उसी तरह पुकारा, और हज़रत शमवील अलैहिस्सलाम आलिम के पास गए. आलिम ने कहा ऐ बेटे, अब अगर मैं तुम्हें फिर पुकारूं तो तुम जवाब न देना. तीसरी बार हज़रत जिब्रील अमीन अलैहिस्सलाम ज़ाहिर हो गए और उन्होंने बशारत दी कि अल्लाह तआला ने आपको नबी बनाया, आप अपनी क़ौम की तरफ़ जाइये और अपने रब के आदेश पहुंचाइये. जब आप अपनी क़ौम की तरफ़ तशरीफ़ लाए, उन्होंने झुटलाया और कहा, आप इतनी जल्दी नबी बन गए. अच्छा अगर आप नबी हैं तो हमारे लिये एक बादशाह क़ायम कीजिये.  (ख़ाज़िन वग़ैरह)

(6) कि क़ौमे जालूत ने हमारी क़ौम के लोगों को उनके वतन से निकाला, उनकी औलाद को क़त्ल किया. चार सौ चालीस शाही ख़ानदान के फ़रज़न्दों को गिरफ़तार किया. जब हालत यहाँ तक पहुंच चुकी तो अब हमें जिहाद से क्या चीज़ रोक सकती है. तब नबी ने अल्लाह से दुआ की जिसकी बदौलत अल्लाह तआला ने उनकी दरख़ास्त क़ुबूल फ़रमाई और उनके लिये एक बादशाह मुक़र्रर किया और जिहाद फ़र्ज़ फ़रमाया. (ख़ाज़िन)

(7) जिनकी संख्या बद्र वालों के बराबर यानी तीन सौ तेरह थी.

(8) तालूत, बिनयामीन बिन हज़रते याक़ूब अलैहिस्सलाम की औलाद से हैं. आपका नाम क़द लम्बा होने की वजह से तालूत है. हज़रत शमवील अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला की तरफ़ से एक लाठी मिली थी और बताया गया था कि जो व्यक्ति तुम्हारी क़ौम का बादशाह होगा उसका क़द इस लाठी के बराबर होगा. आपने उस लाठी से तालूल का क़द नाप कर फ़रमाया कि मैं तुम को अल्लाह के हुक्म से बनी इस्त्राईल का बादशाह मुक़र्रर करता हूँ और बनी इस्त्राईल से फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने तालूत को तुम्हारा बादशाह बना कर भेजा है. (ख़ाज़िन व जुमल)
(9) बनी इस्त्राईल के सरदारों ने अपने नबी हज़रत शमवील अलैहिस्सलाम से कहा कि नबुव्वत तो लावा बिन याक़ूब अलैहिस्सलाम की औलाद में चली आती है, और सल्तनत यहूद बिन याक़ूब की औलाद में, और तालूत इन दोनों ख़ानदानों में से नहीं है, तो बादशाह कैसे हो सकते है.
(10) वो ग़रीब व्यक्ति हैं. बादशाह को माल वाला होना चाहिये.
(11) यानी सल्तनत विरासत नहीं कि किसी नस्ल व ख़ानदान के साथ विशेष हो. यह केवल अल्लाह के करम पर है. इसमें शियों का रद है जिनका अक़ीदा है कि इमामत विरासत है.
(12) यानी नस्ल व दौलत पर सल्तनत का अधिकार नहीं. इल्म व क़ुव्वत सल्तनत के लिये बड़े मददगार हैं और तालूत उस ज़माने में सारे बनी इस्त्राईल में ज़्यादा इल्म रखते थे और सबसे ज़्यादा मज़बूत जिस्म वाले और ताक़तवर थे.
(13) इसमें विरासत को कुछ दख़्ल नहीं.
(14) जिसे चाहे ग़नी यानी मालदार कर दे और माल में विस्तार फ़रमा दे. इसके बाद बनी इस्त्राईल ने हज़रत शमवील अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया कि अगर अल्लाह ने उन्हें सल्तनत के लिये मुक़र्रर किया है तो इसकी निशानी क्या है.
(ख़ाज़िन व मदारिक)
(15) यह ताबूत शमशाद की लकड़ी का एक सोने से जड़ाऊ सन्दूक़ था जिसकी लम्बाई तीन हाथ की और चौड़ाई दो हाथ की थी. इसको अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम पर उतारा था. इसमें सारे नबियों की तस्वीरें थीं उनके रहने की जगहें और मकानों की तस्वीरे थीं और आख़िर में नबियों के सरदार मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की और हुज़ूर के मुक़द्दस मकान की तस्वीर एक सुर्ख़ याक़ूत में थी कि हुज़ूर नमाज़ की हालत में खड़े हैं और आपके चारों तरफ़ सहाबए किराम. हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने इन सारी तस्वीरों को देखा. यह सन्दूक़ विरासत में चलता हुआ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम तक पहुंचा. आप इसमें तौरात भी रखते थे और अपना ख़ास सामान भी. चुनान्वे इस ताबूत में तौरात की तख़्तियों के टुकडे थी थे, और हज़रत मूसा की लाठी और आपके कपड़े, जूते और हज़रत हारून अलैहिस्सलाम की पगड़ी और उनकी लाठी और थोड़ा सा मन्न, जो बनी इस्त्राईल पर उतरता था. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम जंग के अवसरों पर इस सन्दूक़ को आगे रखते थे, इससे बनी इस्त्राईल के दिलों को तस्कीन रहती थीं. आपके बाद यह ताबूत बनी इस्त्राईल में लगातार विरासत में चला आया. जब उन्हें कोई मुश्किल पेश आती, वो इस ताबूत को सामने रखकर दुआएं करते और कामयाब होते. दुश्मनों के मुक़ाबले में इसकी बरकत से फ़तह पाते. जब बनी इस्त्राईल की हालत ख़राब हुई और उनके कुकर्म बहुत बढ़ गए तो अल्लाह तआला ने उन पर अमालिक़ा को मुसल्लत किया तो वो उनसे ताबूत छीन ले गए और इसको अपवित्र और गन्दे स्थान पर रखा और इसकी बेहुरमती यानी निरादर किया और इन गुस्ताख़ियों की वजह से वो तरह तरह की मुसीबतों में गिरफ़तार हुए. उनकी पाँच बस्तियाँ तबाह हो गईं और उन्हें यक़ीन हो गया कि ताबूत के निरादर से उन पर बर्बादी और मौत आई है. तो उन्होंने एक बेल गाड़ी पर ताबूत रखकर बैलों को हाँक दिया और फ़रिश्ते उसको बनी इस्त्राईल के सामने तालूत के पास लाए और इस ताबूत का आना बनी इस्त्राईल के लिये तालूत की बादशाही की निशानी मुक़र्रर हुआ. बनी इस्त्राईल यह देखकर उसकी बादशाही पर राज़ी हो गए और फ़ौरन जिहाद के लिये तैयार हो गए क्योंकि ताबूत पाकर उन्हें अपनी फ़तह का यक़ीन हो गया. तालूत ने बनी इस्त्राईल में से सत्तर हज़ार जवान चुने जिनमें हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम भी थे. (जलालैन व जुमल व ख़ाज़िन व मदारिक वग़ैरह) इससे मालूम हुआ कि बुज़ुर्गों की चीज़ों का आदर और एहतिराम लाज़िम है. उनकी बरकत से दुआएं क़ूबूल होती हैं और हाजतें पूरी होती हैं और तबर्रूकात का निरादर गुमराहों का तरीक़ा और तबाही का कारण है. ताबूत में नबियों की जो तस्वीरें थीं वो किसी आदमी की बनाई हुई न थीं, अल्लाह की तरफ़ से आई थीं.

सूरए बक़रह – तैंतीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – तैंतीसवाँ रूकू

फिर जब तालूत लश्करों को लेकर शहर से जुदा हुआ (1)

बोला बेशक अल्लाह तुम्हें एक नहर से आज़माने वाला है तो जो उसका पानी पिये वह मेरा नहीं और जो न पिये वह मेरा है मगर वह जो एक चुल्लू अपने हाथ से ले ले (2)

सब ने उससे पिया मगर थोड़ों ने (3)

फिर जब तालूत और उसके साथ के मुसलमान नहर के पार गए बोले हम में आज ताक़त नहीं जालूत और उसके लश्करों को बोले वो जिन्हें अल्लाह से मिलने का यक़ीन था कि अकसर कम जमाअत ग़ालिब आई है ज़्यादा गिरोह पर अल्लाह के हुक्म से और अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है  (4)

फिर जब सामने आए जालूत और उसके लश्करों के, अर्ज़ की ऐ रब हमारे हम पर सब्र उंडेल और हमारे पाँव जमे रख काफ़िर लोगों पर हमारी मदद कर  तो उन्होंने उनको भगा दिया अल्लाह के हुक्म से और क़त्ल किया दाऊद ने जालूत को (5)

और अल्लाह ने उसे सल्तनत और हिकमत (बोध) (6)

अता फ़रमाई और उसे जो चाहा सिखाया  (7)

और अगर अल्लाह लोगों में कुछ से कुछ को दफ़ा (निवारण)  न करे (8)

तो ज़रूर तबाह हो जाए मगर अल्लाह सारे जहान पर फ़ज़्ल (कृपा) करने वाला है ये अल्लाह की आयतें हैं कि हम ऐ मेहबूब तुमपर ठीक ठीक पढ़ते हैं और तुम बेशक रसूलों में हो (9)(252)

तफ़सीर :

सूरए बक़रह – तैंतीसवाँ रूकू

(1) यानी बैतुल मक़दिस से दुश्मन की तरफ़ रवाना हुआ. वह वक़्त निहायत सख़्त गर्मी का था. लश्करियों ने तालूत से इसकी शिकायत की और पानी की मांग की.(2) यह इम्तिहान मुक़र्रर फ़रमाया गया था कि सख़्त प्यास के वक़्त जो फ़रमाँबरदारी पर क़ायम रहा वह आगे भी क़ायम रहेगा और सख़्तियों का मुक़ाबला कर सकेगा और जो इस वक़्त अपनी इच्छा के दबाव में आए और नाफ़रमानी करे वह आगे की सख़्तियों को क्या बर्दाश्त करेगा.(3) जिनकी तादाद तीन सौ तेरह थी, उन्होंने सब्र किया और एक चूल्लू उनके और उनके जानवरों के लिये काफ़ी हो गया और उनके दिल और ईमान को क़ुव्वत हुई और नहर से सलामत गुज़र गए और जिन्होंने ख़ूब पिया था उनके होंट काले हो गए, प्यास और बढ़ गई और हिम्मत टूट गई.(4) उनकी मदद फ़रमाता है और उसी की मदद काम आती है.(5) हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के वालिद ऐशा तालूत के लश्कर में थे और उनके साथ उनके सारे बेटे भी. हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम उन सब में सबसे छोटे थे, बीमार थे, रंग पीला पड़ा हुआ था, बकरियाँ चराते थे. जब जालूत ने बनी इस्त्राईल को मुक़ाबले के लिये ललकारा, वो उसकी जसामत देख कर घबराए, क्योंकि वह लम्बा चौड़ा ताक़तवार था. तालूत ने अपने लश्कर में ऐलान किया कि जो शख़्स जालूत को क़त्ल करे, मैं अपनी बेटी उसके निकाह में दूंगा और आधी जायदाद उसको दूंगा. मगर किसी ने उसका जवाब न दिया तो तालूत ने अपने नबी शमवील अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया कि अल्लाह के सामने दुआ करें. आपने दुआ कि तो बताया गया कि हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम जालूत को क़त्ल करेंगे. तालूत ने आपसे अर्ज़ की कि अगर आप जालूत को क़त्ल करें तो मैं अपनी लड़की आपके निकाह में दूँ और आधी जायदाद पेश करूँ. आपने क़ुबूल फ़रमाया और जालूत की तरफ़ रवाना हो गए. मुक़ाबले की सफ़ क़ायम हुई. हज़रत दाऊद  अलैहिस्सलाम अपने मुबारक हाथों में ग़ुलेल या गोफन लेकर सामने आए. जालूत के दिल में आपको देखकर दहशत पैदा हुई मगर उसने बड़े घमण्ड की बातें कीं और आपको अपनी ताक़त के रोब में लाना चाहा. आपने गोफन में पत्थर रखकर मारा वह उसकी पेशानी को तोड़कर पीछे से निकल गया और जालूत गिर कर मर गया. हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम ने उसको लाकर तालूत के सामने डाल दिया. सारे बनी इस्त्राईल बहुत ख़ुश हुए और तालूत ने वादे के मुताबिक़ आधी जायदाद दी और अपनी बेटी का आपके साथ निकाह कर दिया. सारे मुल्क पर हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की सल्तनत हुई. (जुमल वग़ैरह)(6) हिकमत से नबुव्वत मुराद है.(7) जैसे कि ज़िरह बनाना और जानवरों की बोली समझना.(8) यानी अल्लाह तआला नेकों के सदक़े में दूसरों की बलाएं भी दूर फ़रमाता है. हज़रत इब्ने उमर रदियल्लाहो तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला एक नेक मुसलमान की बरकत से उसके पड़ोस के सौ घर वालों की बला दूर करता है. सुब्हानल्लाह ! नेकों के साथ रहना भी फ़ायदा पहुंचाता है. (ख़ाज़िन)(9) ये हज़रात जिनका ज़िक्र पिछली आयतों में और ख़ास कर आयत “इन्नका लमिनल मुरसलीन” (और तुम बेशक रसूलों में हो) में फ़रमाया गया.पारा दो समाप्त

तीसरा पारा – तिल्कर रूसुल

तैंतीसवाँ रूकू (जारी)(10) इससे मालूम हुआ कि नबियों के दर्जे अलग अलग हैं. कुछ हज़रात से कुछ अफ़ज़ल हैं. अगरचे नबुव्वत में कोई फ़र्क़ नहीं, नबुव्वत की ख़ूबी में सब शरीक हैं, मगर अपनी अपनी विशेषताओं, गुणों और कमाल में अलग अलग दर्जे हैं. यही आयत का मज़मून है और इसी पर सारी उम्मत की सहमति है. (ख़ाज़िन व जुमल)(11) यानी बिला वास्ता या बिना माध्यम के, जैसे कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को तूर पहाड़ पर संबोधित किया और नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को मेराज में. (जुमल).(12) वह हुज़ूर पुरनूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हैं कि आपको कई दर्जों के साथ सारे नबियों पर अफ़ज़ल किया. इस पर सारी उम्मत की सहमति है. और कई हदीसों से साबित है. आयत में हुज़ूर के इस बलन्द दर्जे का बयान फ़रमाया गया और नामे मुबारक की तसरीह यानी विवरण न किया गया. इससे भी हुज़ूर अलैहिस्सलातो वस्सलाम की शान की बड़ाई मक़ूसद है, कि हुज़ूर की मुबारक ज़ात की यह शान है कि जब सारे नबियों पर फ़ज़ीलत या बुजुर्गी का बयान किया जाए तो आपकी पाक ज़ात के सिवा किसी और का ख़याल ही न आए और कोई शक न पैदा हो सके. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वो विशेषताएं और गुण जिनमें आप सारे नबियों से फ़ायक़ और अफ़ज़ल हैं और आपका कोई शरीक नहीं, बैशुमार हैं कि क़ुरआने पाक में यह इरशाद हुआ “दर्जों बलन्द किया” इन दर्जों की कोई गिनती क़ुरआन शरीफ़ में ज़िक्र नहीं फरमाई, तो अब कौन हद लगा सकता है. इन बेशुमार विशेषताओं में से कुछ का इजमाली और संक्षिप्त बयान यह है कि आपकी रिसालत आम है, तमाम सृष्टि आपकी उम्मत है. अल्लाह तआला ने फ़रमाया “वमा अरसलनाका इल्ला काफ्फ़तल लिन्नासे बशीरौं व नज़ीरा” (यानी ऐ मेहबूब हमने तुमको न भेजा मगर ऐसी रिसालत से जो तमाम आदमियों को घेरने वाली है, खुशख़बरी देता और डर सुनाता) (34 :28). दूसरी आयत में फ़रमाया : “लियकूना लिलआलमीना नज़ीरा” (यानी जो सारे जहान को डर सुनाने वाला हो) (25:1). मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में इरशाद हुआ “उरसिलतो इलल ख़लाइक़े काफ्फ़तन” (और आप पर नबुव्वत ख़त्म की गई). क़ुरआने पाक में आपको ख़ातिमुन्नबीय्यीन फ़रमाया हदीस शरीफ़ में इरशाद हुआ “ख़ुतिमा बियन नबिय्यूना”. आयतों और मोजिज़ात में आपको तमाम नबियों पर अफ़ज़ल फ़रमाया गया. आपकी उम्मत को तमाम उम्मतों पर अफ़ज़ल किया गया. शफ़ाअते कुबरा आपको अता फ़रमाई गई. मेराज में ख़ास क़ुर्ब आपको मिला. इल्मी और अमली कमालात में आपको सबसे ऊंचा किया और इसके अलावा बे इन्तिहा विशेषताएं आपको अता हुई. (मदारिक, जुमल, ख़ाज़िन, बैज़ावी वग़ैरह).(13) जैसे मुर्दे को ज़िन्दा करना, बीमारों को तन्दुरूस्त करना, मिट्टी से चिड़ियाँ बनाना, ग़ैब की ख़बरें देना वग़ैरह.(14) यानी जिब्रील अलैहिस्सलाम से जो हमेशा आपके साथ रहते थे.(15) यानी नबियों के चमत्कार.(16) यानी पिछले नबियों की उम्मतें भी ईमान और कुफ़्र में विभिन्न रहीं, यह न हुआ कि तमाम उम्मत मुतीअ हो जाती.(17) उसके मुल्क में उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो सकता और यही ख़ुदा की शान है.

सूरए बक़रह – चौंतीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – चौंतीसवाँ रूकू
ऐ ईमान वालो अल्लाह की राह में हमारे दिये में से ख़र्च करो वह दिन आने से पहले जिसमें न ख़रीद फ़रोख़्त (क्रय.विक्रय) है न काफ़िरों के लिये दोस्ती और न शफ़ाअत (सिफ़ारिश) और काफ़िर ख़ुद ही ज़ालिम हैं (1)
अल्लाह है जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं (2)
वह आप ज़िन्दा, औरों का क़ायम रखने वाला (3)
उसे न ऊंघ आए न नींद (4)
उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में (5)
वह कौन है जो उसके यहां सिफ़रिश करे बे उसके हुक्म के  (6)
जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे (7)
और वो नहीं पाते उसके इल्म में से मगर जितना वह चाहे (8)
उसकी कुर्सी में समाए हुए है आसमान और ज़मीन (9)
और उसे भारी नहीं उनकी निगहबानी और वही है बलन्द बड़ाई वाला  (10)
कुछ ज़बरदस्ती नहीं (11)
दीन में बेशक ख़ूब जुदा हो गई है नेक राह गुमराही से तो जो शैतान को न माने और अल्लाह पर ईमान लाए (12)
उसने बड़ी मज़बूत गिरह थामी जिसे कभी खुलना नहीं और अल्लाह सुनता जानता है अल्लाह वाली है मुसलमानों का उन्हें अंधेरियों से (13)
नूर की तरफ़ निकालता है और काफ़िरों के हिमायती शैतान हैं वो उन्हें नूर से अंधेरियों की तरफ़ निकालते हैं यही लोग दोज़ख़ वाले हैं, उन्हें हमेशा उसमें रहना (257)तफ़सीर :
सूरए बक़रह – चौंतीसवाँ रूकू
(1) कि उन्होंने दुनिया की ज़िन्दगानी में हाजत के दिन यानी क़यामत के लिये कुछ न किया.

(2) इसमें अल्लाह तआला की उलूहियत और उसके एक होने का बयान है. इस आयत को आयतल कुर्सी कहते हैं. हदीसों में इसकी बहुत सी फ़ज़ीलत आई है.

(3) यानी वाजिबुल वुजूद और आलम का ईजाद करने वाला और तदबीर फ़रमाने वाला.

(4) क्योंकि यह दोष है और वह दोष और ऐब से पाक है.

(5) इसमें उसकी मालिकियत और हुक्म के लागू करने की शक्ति का बयान है, और बहुत ही सुंदर अन्दाज़ में शिर्क का रद है कि जब सारी दुनिया उसकी मिल्क है तो शरीक कौन हो सकता है, मुश्रिक या तो सितारों को पूजते हैं जो आसमानों में हैं या दरियाओं, पहाड़ों, पत्थरों और दरख़्तों और जानवरों वग़ैरह को कि जो ज़मीन में हैं. जब आसमान और ज़मीन की हर चीज़ अल्लाह की मिल्क है तो ये कैसे पूजने के क़ाबिल हो सकते हैं.

(6) इसमें मुश्रिकों का रद है जिनका गुमान था कि मुर्तियाँ सिफ़ारिश करेंगी. उन्हें बता दिया गया कि काफ़िरों के लिये सिफ़ारिश या शफ़ाअत नहीं. अल्लाह के दरबार से जिन्हें इसकी इजाज़त मिली है उनके सिवा कोई शफ़ाअत नहीं कर सकता और इजाज़त वाले नबी, फरिश्ते और ईमान वाले हैं.

(7) यानी गुज़रे हुए या आगे आने वाले दुनिया और आख़िरत के काम.

(8) और जिनको वह मुत्तला फ़रमाए, वो नबी और रसूल हैं जिनको ग़ैब पर सूचित फ़रमाना, उनकी नबुव्वत का प्रमाण है. दूसरी आयत में इरशाद फ़रमाया “ला युज़हिरो अला ग़ैबिही अहदन इल्ला मनिर तदा मिर रसूलिन” (यानी अपने ग़ैब पर किसी को मुत्तला नहीं करता सिवाय अपने पसन्दीदा रसूलों के. (72 : 26) (ख़ाज़िन).

(9) इसमें उसकी शान की अज़मत का इज़हार है, और कुर्सी से या इल्म और क्षमता मुराद है या अर्श या वह जो अर्श के नीचे और सातों आसमानों के ऊपर है. और मुमकिन है कि यह वही हो जो “फ़लकुल बुरूज” के नाम से मशहूर है.

(10) इस आयत में इलाहिय्यात के ऊंचे मसायल का बयान है और इससे साबित है कि अल्लाह तआला मौजूद है. अपने अल्लाह होने में एक है, हयात यानी ज़िन्दगी के साथ मुत्तसिफ़ है. वाजिबुल वुजूद, अपने मासिवा का मूजिद है. तग़ैय्युरो हुलूल से मुनज़्ज़ा और तबदीली व ख़राबी से पाक है, न किसी को उससे मुशाबिहत, न मख़लूक़ के अवारिज़ को उस तक रसाई, मुल्को मलकूत का मालिक, उसूलो फरअ का मुब्देअ, क़वी गिरफ़्त वाला, जिसके हुज़ूर सिवाए माज़ून के कोई शफ़ाअत नहीं कर सकता. सारी चीज़ों का जानने वाला, ज़ाहिर का भी और छुपी का भी, कुल का भी, और कुछ का भी. उसका मुल्क वसीअ और क़ुदरत लामेहदूद, समझ और सोच से ऊपर.

(11) अल्लाह की सिफ़ात के बाद “ला इकराहा फ़िद दीन” (कुछ ज़बरदस्ती नहीं दीन में) फ़रमाने में यह राज़ है कि अब समझ वाले के लिये सच्चाई क़ुबूल करने में हिचकिचाहट की कोई वजह बाक़ी न रही.

(12) इसमें इशारा है कि काफ़िर के लिये पहले अपने कुफ़्र से तौबह और बेज़ारी ज़रूरी है, उसके बाद ईमान लाना सही होता है.

(13) कुफ़्र और गुमराही की रौशनी, ईमान और हिदायत की रौशना और……….

सूरए बक़रह – पैंतीसवाँ रूकू

सूरए बक़रह – पैंतीसवाँ रूकू
ऐ मेहबूब क्या तुमने न देखा था उसे जो इब्राहिम से झगड़ा उसके रब के बारे में इस पर(1)
कि अल्लाह ने उसे बादशाही दी(2)
जब कि इब्राहीम ने कहा कि मेरा रब वह है कि जिलाता और मारता है (3)
बोला मै जिलाता और मारता हूँ (4)
इब्राहीम ने फ़रमाया तो अल्लाह सूरज को लाता है पूरब से, तू उसको पश्चिम से ले आ(5)
तो होश उड़ गए काफ़िर के और अल्लाह राह नहीं दिखाता ज़ालिमों को या उसकी तरह जो गुज़रा एक बस्ती पर (6)
और वह ढई पड़ी थी अपनी छतों पर (7)
बोला इसे कैसे जिलाएगा अल्लाह इसकी मौत के बाद, तो अल्लाह ने उसे मुर्दा रखा सौ बरस फिर ज़िन्दा कर दिया, फ़रमाया तू यहां कितना ठहरा, अर्ज़ की दिन भर ठहरा हूंगा या कुछ कम, फ़रमाया नहीं, तुझे सौ बरस गुज़र गए और अपने खाने और पानी को देख कि अब तक बू न लाया और गधे को देख कि जिसकी हड्डियां तक सलामत न रहीं, और यह इसलिये कि तुझे हम लोगों के वास्ते निशानी करें, और उन हड्डियों को देखकर कैसे हम उन्हें उठान देते फिर उन्हें गोश्त पहनाते हैं. जब यह मामला उसपर ज़ाहिर हो गया बोला मैं ख़ूब जानता हूँ कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है और जब अर्ज़ की इब्राहीम ने (8)
ऐ रब मेरे मुझे दिखादे तू किस तरह मुर्दें जिलाएगा, फ़रमाया क्या तुझे यक़ीन नहीं(9)
अर्ज़ की यक़ीन क्यों नहीं मगर यह चाहता हूँ कि मेरे दिल को क़रार आजाए (10)
फ़रमाया तो अच्छा चार परिन्दे लेकर अपने साथ हिला ले (11)
फिर उनका एक एक टुकड़ा हर पहाड़ पर रख दे फिर उन्हें बुला वो तेरे पास चले आएंगे पाँव से दौड़ते (12)
जान रख कि अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है (260)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – पैंतीसवाँ रूकू

(1) घमण्ड और बड़ाई पर.

(2) और तमाम ज़मीन की सल्तनत अता फ़रमाई, इस पर उसने शुक्र और फ़रमाँबरदारी के बजाय घमण्ड किया और ख़ुदा होने का दावा करने लगा, उसका नाम नमरूद बिन कनआन था. सब से पहले सर पर ताज रखने वाला यही है. जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उसको ख़ुदा परस्ती की दावत दी, चाहे आग में डाले जाने से पहले या इसके बाद, तो वह कहने लगा कि तुम्हारा रब कौन है जिसकी तरफ़ तुम हमें बुलाते हो.

(3) यानी जिस्मों में मौत और ज़िन्दगी पैदा करता है, एक ख़ुदा को न पहचानने वाले के लिये यह बेहतरीन हिदायत थी, और इसमें बताया गया था कि ख़ुद तेरी ज़िन्दगी उसके अस्तित्व की गवाह है कि तू एक बेजान नुत्फ़ा था, उसने उसे इन्सानी सूरत दी और ज़िन्दगी प्रदान की. वह रब है और ज़िन्दगी के बाद फिर ज़िन्दा जिस्मों को मौत देता है. वो परवर्दिगार है, उसकी क़ुदरत की गवाही ख़ुद तेरी अपनी मौत और ज़िन्दगी में मौजूद है. उसके अस्तित्व से बेख़बर रहना अत्यन्त अज्ञानता और सख़्त बद-नसीबी है. यह दलील ऐसी ज़बरदस्त थी कि इसका जवाब नमरूद से न बन पड़ा और इस ख़याल से कि भीड़ के सामने उसको लाजवाब और शर्मिन्दा होना पड़ता है, उसने टेढ़ा तर्क अपनाया.

(4) नमरूद ने दो व्यक्तियों को बुलाया. उनमें से एक को क़त्ल किया, एक को छोड़ दिया और कहने लगा कि मैं भी जिलाता मारता हुँ, यानी किसी को गिरफ़्तार करके छोड़ देना उसको जिलाना है. यह उसकी अत्यन्त मूर्खता थी, कहाँ क़त्ल करना और छोड़ना और कहाँ मौत और ज़िन्दगी पैदा करना. क़त्ल किये हुए शख़्स को ज़िन्दा करने से आजिज़ रहना और बजाय उसके ज़िन्दा के छोड़ने को जिलाना कहना ही उसकी ज़िल्लत के लिये काफ़ी था. समझ वालों पर इसी से ज़ाहिर हो गया कि जो तर्क हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने क़ायम किया है वह अन्तिम है, और उसका जवाब मुमकिन नहीं. लेकिन चूंकि नमरूद के जवाब में दावे की शान पैदा हो गई तो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उस पर मुनाज़िरे वाली गिरफ़्त फ़रमाई कि मौत और ज़िन्दगी का पैदा करना तो तेरी ताक़त से बाहर है, ऐ ख़ुदा बनने के झूटे दावेदार, तू इससे सरल काम ही कर दिखा जो एक मुतहर्रिक जिस्म की हरकत का बदलना है.

(5) यह भी न कर सके तो ख़ुदा होने का दावा किस मुंह से करता है. इस आयत से इल्मे कलाम में मुनाज़िरा करने का सुबूत मिलता है.

(6) बहुतों के अनुसार यह घटना हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम की है और बस्ती से मुराद बैतुल मक़दिस है. जब बुख़्तेनस्सर बादशाह ने बैतुल मक़दिस को वीरान किया और बनी इस्त्राईल को क़त्ल किया, गिरफ़तार किया, तबाह कर डाला, फिर हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम वहाँ गुज़रे. आपके साथ एक बरतन खजूर और एक प्याला अंगूर का रस और आप एक गधे पर सवार थे. सारी बस्ती में फिरे, किसी शख़्स को वहाँ न पाया. बस्ती की इमारतों को गिरा हुआ देखा तो आपने आश्चर्य से कहा “अन्ना युहयी हाज़िहिल्लाहो बादा मौतिहा” (कैसे जिलाएगा अल्लाह उसकी मौत के बाद) और आपने अपनी सवारी के गधे को वहाँ बाँध दिया, और आपने आराम फ़रमाया. उसी हालत में आपकी रूह क़ब्ज़ कर ली गई और गधा भी मर गया. यह सुबह के वक़्त की घटना है. उससे सत्तर बरस बाद अल्लाह तआला ने फ़ारस के बादशाहों में से एक बादशाह को मुसल्लत किया और वह अपनी फ़ौजें लेकर बैतुल मक़दिस पहुंचा और उसको पहले से भी बेहतर तरीक़े पर आबाद किया और बनी इस्त्राईल में से जो लोग बाक़ी रहे थे, अल्लाह तआला उन्हें फिर यहाँ लाया और वो बैतुल मक़दिस और उसके आस पास आबाद हुए और उनकी तादाद बढ़ती रही. इस ज़माने में अल्लाह तआला ने हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को दुनिया की आँखो से छुपाए रखा और कोई आपको न देख सका. जब आपकी वफ़ात को सौ साल गुज़र गए तो अल्लाह तआला ने आपको ज़िन्दा किया, पहले आँखो में जान आई, अभी तक सारा बदन मुर्दा था. वह आपके देखते देखते ज़िन्दा किया गया. यह घटना शाम के वक़्त सूरज डूबने के क़रीब हुई. अल्लाह तआला ने फ़रमाया, तुम यहाँ कितने दिन ठहरे. आपने अन्दाज़े से अर्ज़ किया कि एक दिन या कुछ कम. आप का ख़याल यह हुआ कि यह उसी दिन की शाम है जिसकी सुबह को सोए थे. फ़रमाया बल्कि तुम सौ बरस ठहरे. अपने खाने और पानी यानी खजूर और अंगूर के रस को देखो कि वैसा ही है, उसमें बू तक न आई और अपने गधे को देखो. देखा कि वह मरा हुआ था, गल गया था, अंग बिखर गए थे, हड्डियाँ सफ़ेद चमक रही थीं. आपकी निगाह के सामने उसके अंग जमा हुए, हड्डियों पर गोश्त चढ़ा, गोश्त पर खाई आई, बाल निकले, फिर उसमें रूह फूंकी गई. वह उठ खड़ा हुआ और आवाज़ करने लगा. आपने अल्लाह तआला की क़ुदरत का अवलोकन किया और फ़रमाया मैं ख़ूब जानता हुँ कि अल्लाह तआला हर चीज़ पर क़ादिर है. फिर आप अपनी उसी सवारी पर सवार होकर अपने महल्ले में तशरीफ़ लाए. सरे अक़दस और दाढ़ी मुबारक के बाल सफ़ेद थे, उम्र वही चालीस साल की थी, कोई आपको पहचानता न था. अन्दाज़े से अपने मकान पर पहुंचे. एक बुढ़िया मिली, जिसके पाँव रह गए थे, वह अन्धी हो गई थी. वह आपके घर की दासी थी. उसने आपको देखा था. आपने उससे पूछा कि यह उज़ैर का मकान है, उसने कहा हाँ. और उज़ैर कहाँ, उन्हें ग़ायब हुए सौ साल गुज़र गए. यह कहकर ख़ूब रोई. आपने फ़रमाया, मैं उज़ैर हुँ. उसने कहा सुब्हानल्लाह, यह कैसे हो सकता है, आपने फ़रमाया, अल्लाह तआला ने मुझे सौ साल मुर्दा रखा, फिर ज़िन्दा किया. उसने कहा, हज़रत उज़ैर दुआ की क़ुबुलियत वाले थे, जो दुआ करते, क़ुबुल होती. आप दुआ कीजिये कि मैं देखने वाली हो जाऊं, ताकि मैं अपनी आँखो से आपको देखूँ आपने दुआ फ़रमाई, वह आँखों वाली हो गई. आपने उसका हाथ पकड़ कर फ़रमाया, उठ ख़ुदा के हुक्म से. यह फ़रमाते ही उसके मारे हुए पाँव दुरूस्त हो गए. उसने आपको देखकर पहचाना और कहा, मैं गवाही देती हुँ कि आप बेशक उज़ैर हैं. वह आपको बनी इस्त्राईल के महल्ले में ले गई. वहाँ एक बैठक में आपके बेटे थे, जिनकी उम्र एक सौ अठारह साल की हो चुकी थी और आपके पोते भी, जो बूढ़े हो चुके थे. बुढ़िया ने बैठक में पुकारा कि यह हज़रत उज़ैर तशरीफ़ ले आए. बैठक में मौजूद लोगों ने उसे झुटलाया. उसने कहा मुझे देखो, आपकी दुआ से मेरी यह हालत हो गई. लोग उठे और आपके पास आए. आपके बेटे ने कहा कि मेरे वालिद साहब के कन्धों के बीच काले बालों का एक हिलाल था. जिस्में मुबारक खोलकर दिखाया गया तो वह मौजूद था. उस ज़माने में तौरात की कोई प्रतिलिपि यानी नुस्ख़ा न रहा था. कोई उसका जानने वाला मौजूद न था. आपने सारी तौरात ज़बानी पढ़ दी. एक शख़्स ने कहा कि मुझे अपने वालिद से मालूम हुआ कि बुख़्तेनस्सर के अत्याचारों के बाद गिरफ़्तारी के ज़माने में मेरे दादा ने तौरात एक जगह दफ़्न कर दी थी उसका पता मुझै मालूम है. उस पते पर तलाश करके तौरात का वह नुस्ख़ा निकाला गया और हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम ने अपनी याद से जो तौरात लिखाई थी, उससे मुक़ाबला किया गया तो एक अक्षर का फ़र्क़ न था. (जुमल)

(7) कि पहले छतें गिरीं फिर उन पर दीवारें आ पड़ीं.

(8) मुफ़स्सिरों ने लिखा है कि समन्दर के किनारे एक आदमी मरा पड़ा था. ज्वार भाटे में समन्दर का पानी चढ़ता उतरता रहता है. जब पानी चढ़ता तो मछलियाँ उसकी लाश को खातीं, जब उतर जाता तो जंगल के दरिन्दे खाते, जब दरिन्दे जाते तो परिन्दे खाते. हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने यह देखा तो आपको शौक़ हुआ कि आप देखें कि मुर्दे किस तरह ज़िन्दा किये जाएंगे. आपने अल्लाह तआला की बारगाह में अर्ज़ किया, या रब मुझे यक़ीन है कि तू मुर्दों को ज़िन्दा फ़रमाएगा और उनके अंग दरियाई जानवरों और दरिन्दों के पेट और परिन्दों के पेटों से जमा फ़रमाएगा. लेकिन मैं यह अजीब दृश्य देखने की इच्छा रखता हुँ. मुफ़स्सिरीन का एक क़ौल यह भी है कि जब अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को अपना ख़लील यानी दोस्त किया, मौत के फ़रिश्ते इज़्राईल अलैहिस्सलाम अल्लाह तआला से इजाज़त लेकर आपको यह ख़ुशख़बरी देने आए. आपने बशारत सुनकर अल्लाह की तारीफ़ की और फ़रिश्ते से फ़रमाया कि इस ख़ुल्लत यानी ख़लील बनाए जाने की निशानी क्या है ? उन्होंने अर्ज़ किया, यह कि अल्लाह तआला आपकी दुआ क़ुबूल फ़रमाए और आपके सवाल पर मुर्दे ज़िन्दा कर दे. तब आपने यह दुआ की. (ख़ाज़िन)

(9) अल्लाह तआला हर ज़ाहिर छुपी चीज़ का जानने वाला है, उसको हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के ईमान और यक़ीन के कमाल यानी सम्पूर्णता का इल्म है. इसके बावजूद यह सवाल फ़रमाना कि क्या तुझे यक़ीन नहीं, इसलिये है कि सुनने वालों को सवाल का मक़सद मालूम हो जाए और वो जान लें कि यह सवाल किसी शक व शुबह की बुनियाद पर न था. (बैज़ावी व जुमल वग़ैरह)

(10) और इन्तिज़ार की बेचैनी दूर हो. हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, मानी ये हैं कि इस निशानी से मेरे दिल को तसल्ली हो जाए कि तूने मुझे अपना ख़लील यानी दोस्त बनाया.

(11) ताकि अच्छी तरह पहचान हो जाए.

(12) हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने चार चिड़ियाँ लीं, मोर, मुर्ग़, कबूतर और कौवा. उन्हें अल्लाह के हुक्म से ज़िब्ह किया, उनके पर उख़ाड़े और क़ीमा करके उनके अंग आपस में मिला दिये और इस मजमूए के कई हिस्से किये. एक एक हिस्से को एक एक पहाड़ पर रखा और सबके सर अपने पास मेहफ़ूज रखे. फिर फ़रमाया, चले आओ अल्लाह के हुक्म से. यह फ़रमाना था, वो टुकडे दौड़े और हर हर जानवर के अंग अलग अलग होकर अपनी तरतीब से जमा हुए और चिड़ियाँ की शक्लें बनकर अपने पाँव से दौड़ते हुए हाज़िर हुए और अपने अपने सरों से मिलकर जैसे पहले थे वैसे ही सम्पूर्ण बनकर उड़ गए. सुब्हानल्लाह !

सूरए बक़रह – छत्तीसवाँ रूकू

उनकी कहावत जो अपने माल अल्लाह की राह मे ख़र्च करते हैं(1)
उस दिन की तरह जिसने उगाई सात बालें (2)
हर बाल में सौ दाने (3)
और अल्लाह इस से भी ज़्यादा बढ़ाए जिस के लिये चाहे और अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है वो जो अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते है (4)
फिर दिये पीछे न एहसान रखें न तकलीफ़ दें (5)
उनका नेग उनके रब के पास है और उन्हें न कुछ डर हो न कुछ ग़म अच्छी बात कहना और दरगुज़र  (क्षमा) करना (6)
उस ख़ैरात से बेहतर है जिसके बाद सताना हो  (7)
और अल्लाह बे-परवाह हिल्म  (सहिष्णुता) वाला है ऐ ईमान वालो अपने सदक़े  (दान) बातिल न करदो एहसान रखकर और ईजा (दुख:) देकर (8)
उसकी तरह जो अपना माल लोगों के दिखावे के लिए ख़र्च करे और अल्लाह क़यामत पर ईमान न लाए तो उसकी कहावत ऐसी है जैसे एक चट्टान कि उसपर मिट्टी है अब उसपर ज़ोर का पानी पड़ा जिसने उसे निरा पत्थर कर छोड़ा (9)
अपनी कमाई से किसी चीज़ पर क़ाबू न पाएंगे और अल्लाह काफ़िरों को राह नहीं देता और उनकी कहावत, जो अपने माल अल्लाह की रज़ा चाहने में ख़र्च करते हैं और अपने दिल जमाने को ,(10)
उस बाग़ की सी है जो भोड़  (रेतीली ज़मीन) पर हो उस पर ज़ोर का पानी पड़ा तो दो ने मेवा लाया फिर अगर ज़ोर का मेंह उसे न पहुंचे तो ओस काफ़ी है  (11)
और अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (12)
क्या तुम में कोई इसे पसन्द रखेगा (13)
कि उसके पास एक बाग़ हो खजूरों और अंगूरों का (14)
जिसके नीचे नदियां बहतीं उसके लिये उसमें हर क़िस्म के फलों से है (15)
और उसे बुढ़ापा आया (16)
और उसके नातवाँ (कमज़ोर) बच्चे हैं (17)
तो आया उसपर एक बगोला जिसमें आग थी तो जल गया (18)
ऐसा ही बयान करता है  अल्लाह तुमसे अपनी आयतें कि कहीं तुम ध्यान लगाओ  (19)  (266)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – छत्तीसवाँ  रूकू

(1) चाहे ख़र्च करना वाजिब हो या नफ़्ल, भलाई के कामों से जुड़ा होना आम है. चाहे किसी विद्यार्थी को किताब ख़रीद कर दी जाए या कोई शिफ़ाख़ाना बना दिया जाए या मरने वालों के ईसाले सवाब के लिये सोयम, दसवें, बीसवें, चालीसवें के तरीक़े पर मिस्कीनों को खाना खिलाया जाए.

(2) उगाने वाला हक़ीक़त में अल्लाह ही है. दाने की तरफ़ उसकी निस्बत मजाज़ी है. इससे मालूम हुआ कि मजाज़ी सनद जायज़ है जबकि सनद करने वाला ग़ैर ख़ुदा के तसर्रूफ़ में मुस्तक़िल एतिक़ाद न करना हो. इसी लिये यह कहना भी जायज़ है कि ये दवा फ़ायदा पहुंचाने वाली है, यह नुक़सान देने वाली है, यह दर्द मिटाने वाली है, माँ बाप ने पाला, आलिम ने गुमराही से बचाया, बुज़ुर्गों ने हाजत पूरी की, वग़ैरह. सबमें मजाज़ी सनदें हैं और मुसलमान के अक़ीदे में करने वाला हक़ीक़त में अल्लाह ही है. बाक़ी सब साधन है.

(3) तो एक दाने के सात सौ दाने हो गए, इसी तरह ख़ुदा की राह में ख़र्च करने से सात सौ गुना अज्र हो जाता है.

(4) यह आयत हज़रत उस्माने ग़नी और हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ रदियल्लाहो अन्हुमा के बारे में उतरी. हज़रत उस्मान रदियल्लाहो अन्हो ने ग़ज़वए तबूक के मौक़े पर इस्लामी लश्कर के लिये एक हज़ार ऊंट सामान के साथ पेश किये और अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रदियल्लाहो अन्हो ने चार हज़ार दरहम सदक़े के रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर किये और अर्ज़ किया कि मेरे पास कुल आठ हज़ार दरहम थे, आधे मैंने अपने और अपने बच्चों के लिये रख लिये और आधे ख़ुदा की राह में हाज़िर हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, जो तुमने दिये और जो तुमने रखे, अल्लाह तआला दोनों में बरकत अता फ़रमाए.

(5) एहसान रखना तो यह कि देने के बाद दूसरों के सामने ज़ाहिर करें कि हमने तेरे साथ ऐसे सुलूक किये और उसको परेशान कर दें. और तकलीफ़ देना यह कि उसको शर्म दिलाएं कि तू नादार था, मुफ़्लिस था, मजबूर था, निकम्मा था, हमने तेरी देखभाल की, या और तरह दबाव दें, यह मना फ़रमाया गया.

(6) यानी अगर सवाल करने वाले को कुछ न दिया जाए तो उससे अच्छी बात कहना और सदव्यवहार के साथ जवाब देना, जो उसको नाग़वार न गुज़रे और अगर वह सवाल किये ही जाए या ज़बान चलाए, बुरा भला कहने लगे, तो उससे मुंह फेर लेना.

(7) शर्म दिला कर या एहसान जताकर या और कोई तकलीफ़ पहुंचा कर.

(8) यानी जिस तरह मुनाफ़िक़ को अल्लाह की रज़ा नहीं चाहिये, वह अपना माल रियाकारी यानी दिखावे के लिये ख़र्च करके बर्बाद कर देता है, इसी तरह तुम एहसान जताकर और तकलीफ़ देकर अपने सदक़ात और दान का पुण्य तबाह न करो.

(9) ये मुनाफ़िक़ रियाकर के काम की मिसाल है कि जिस तरह पत्थर पर मिट्टी नज़र आती है लेकिन बारिश से वह सब दूर हो जाती है, ख़ाली पत्थर रह जाता है, यही हाल मुनाफ़िक़ के कर्म का है और क़यामत के दिन वह तमाम कर्म झूटे ठहरेंगे, क्योंकि अल्लाह की रज़ा और ख़ुशी के लिये न थे.

(10) ख़ुदा की राह में ख़र्च करने पर.

(11) यह ख़ूलूस वाले मूमिन के कर्मों की एक मिसाल है कि जिस तरह ऊंचे इलाक़े की बेहतर ज़मीन का बाग़ हर हाल में ख़ूब फलता है, चाहे बारिश कम हो या ज़्यादा, ऐसे ही इख़लास वाले मूमिन का दान और सदक़ा ख़ैरात चाहे कम हो या ज़्यादा, अल्लाह तआला उसको बढ़ाता है.

(12) और तुम्हारी नियत और इख़लास को जानता है.

(13) यानी कोई पसन्द न करेगा क्योंकि यह बात किसी समझ वाले के गवारा करने के क़ाबिल नहीं है.

(14) अगरचे उस बाग़ में भी क़िस्म क़िस्म के पेड़ हों मगर खजूर और अंगूर का ज़िक्र इसलिये किया कि ये ऊमदा मेवे हैं.

(15) यानी वह बाग़ आरामदायक और दिल को लुभाने वाला भी है, और नफ़ा देने वाली ऊमदा जायदाद भी.

(16)  जो हाजत या आवश्यकता का समय होता है और आदमी कोशिश और परिश्रम के क़ाबिल नहीं रहता.

(17) जो कमाने के क़ाबिल नहीं और उनके पालन पोषण की ज़रूरत है, और आधार केवल बाग़ पर, और बाग़ भी बहुत ऊमदा है.

(18) वह बाग़, तो इस वक़्त उसके रंजो ग़म और हसरतो यास की क्या इन्तिहा है. यही हाल उसका है जिसने अच्छे कर्म तो किये हों मगर अल्लाह की ख़ुशी के लिये नहीं, बल्कि दिखावे के लिये, और वह इस गुमान में हो कि मेरे पास नेकियों का भण्डार है. मगर जब सख़्त ज़रूरत का वक़्त यानी क़यामत का दिन आए, तो अल्लाह तआला उन कर्मों को अप्रिय करदे. उस वक़्त उसको कितना दुख और कितनी मायूसी होगी. एक रोज़ हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने सहाबए किराम से फ़रमाया कि आप की जानकारी में यह आयत किस बारे में उतरी है. हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि ये उदाहरण है कि एक दौलतमंद व्यक्ति के लिये जो नेक कर्म करता हो, फिर शैतान के बहकावे से गुमराह होकर अपनी तमाम नेकियों को ज़ाया या नष्ट कर दे. (मदारिक व ख़ाज़िन)

(19) और समझो कि दुनिया फ़ानी, मिटजाने वाली और आक़िबत आनी है.

सूरए बक़रह – सैंतीसवाँ रूकू

ऐ ईमान वालो अपनी पाक कमाइयों में से कुछ दो (1)
और उसमें से जो हमने तुम्हारे लिये ज़मीन से निकाला(2)
और ख़ास नाक़िस (दूषित) का इरादा न करो कि दो तो उसमें से (3)
और तुम्हें मिले तो न लोगे जब तक उसमें चश्मपोशी न करो  और जान रखो कि अल्लाह बे-परवाह सराहा गया है शैतान तुम्हें अन्देशा (आशंका) दिलाता(4)
मोहताजी का और हुक्म देता है बेहयाई का (5)
और अल्लाह तुमसे वादा फ़रमाता है बख़्शिस  (इनाम) और फ़ज़्ल  (कृपा) का  (6)
और अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है अल्लाह हिकमत  (बोध) देता है (7)
जिसे चाहे और जिसे हिकमत मिली उसे बहुत भलाई मिली और नसीहत नहीं मानते मगर अक़्ल वाले और तुम जो खर्च करो (8)
या मन्नत मानो(9)
अल्लाह  को उसकी ख़बर है(10)
और जालिमों का कोई मददगार नहीं अगर खैरात खुलेबन्दों दो तो वह क्या ही अच्छी बात है और अगर छुपा कर फक़ीरों को दो ये तुम्हारे लिये सबसे बेहतर है.  (11)
और उसमें तुम्हारे कुछ गुनाह घटेंगे और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है उन्हें राह देना तुम्हारे ज़िम्मे अनिवार्य नहीं  (12)
हाँ अल्लाह राह देता है जिसे चाहता है. और तुम जो अच्छी चीज़ दो तो तुम्हारा ही भला हे (13)
और तुम्हें ख़र्च करना मुनासिब नहीं मगर अल्लाह की मर्ज़ी चाहने के लिये और जो माल दो तुम्हें पूरा मिलेगा और नुक़सान न दिये जाओगे उन फ़क़ीरों के लिये जो ख़ुदा की राह में रोके गए(14)
ज़मीन में चल नहीं सकते (15)
नादान उन्हें तवन्गर (मालदार) समझे बचने के सबब  (16)
तू उन्हें उनकी सूरत से पहचान लेगा, (17)
लोगों से सवाल नहीं करते कि गिड़गिड़ाना पड़े और तुम जो ख़ैरात करो अल्लाह उसे जानता है(273)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – सैंतीसवाँ रूकू

(1) इससे रोज़ी के लिये कोशिश करने की अच्छाई और तिजारत के माल में ज़कात साबित होती है (ख़ाज़िन व मदारिक). यह भी हो सकता है कि आयत नफ़्ल सदक़े और फ़र्ज़ सदक़े दोनों को लागू हो.  (तफ़सीरे अहमदी)

(2) चाहे वो अनाज हों या फल या खानों से निकली चीज़ें.

(3) कुछ लोग ख़राब माल सदक़े में देते थे, उनके बारे में यह आयत उतरी. सदक़ा वुसूल करने वाले को चाहिये कि वह बीच का माल ले, न बिल्कुल ख़राब न सब से बढ़िया.

(4) कि अगर ख़र्च करोगे, सदक़ा दोगे तो नादार या दरिद्र हो जाओगे.

(5) यानी कंजूसी का, और ज़कात या सदक़ा न देने का, इस आयत में यह बात है कि शैतान किसी तरह कंजूसी की ख़ूबी दिमाग़ में नहीं बिठा सकता. इसलिये वह यही करता है कि ख़र्च करने से नादारी और दरिद्रता का डर दिलाकर रोके. आजकल जो लोग ख़ैरात को रोकने पर उतारू हैं, वो भी इसी एक बहाने से काम लेते हैं.

(6) सदक़ा देने पर और ख़र्च करने पर.
(7) हिकमत से या क़ुरआन व हदीस व फ़िक़्ह का इल्म मुराद है, या तक़वा या नबुव्वत.  (मदारिक व ख़ाज़िन)

(8) नेकी में, चाहे बदी में.

(9) फ़रमाँबरदारी की या गुनाह की, नज़्र आम तौर से तोहफ़ा और भेंट को बोलते हैं और शरीअत में नज़्र इबादत और रब की क़ुर्बत की चाहे है. इसीलिये अगर किसी ने गुनाह करने की नज़्र की तो वह सही नहीं हुई. नज़्र ख़ास अल्लाह तआला के लिये होती है और किसी वली के आस्ताने के फ़क़ीरों को नज़्र पूरा करने का साधन ख़याल करे, जैसे किसी ने यह कहा, ऐ अल्लाह मैं ने नज़्र मानी कि अगर तू मेरा ये काम पूरा करा दे तो मैं उसे वली के आस्ताने के फ़क़ीरों को खाना खिलाऊंगा या वहाँ के ख़ादिमों को रूपया पैसा दूँगा या उनकी मस्जिद के लिये तेल या चटाई वग़ैरह हाज़िर करूंगा, तो यह नज़्र जायज़ है. (रद्दुल मोहतार)

(10) वह तुम्हें इसका बदला देगा.

(11) सदक़ा चाहे फ़र्ज़ हो या नफ़्ल, जब सच्चे दिल से अल्लाह के लिये दिया जाए और दिखावे से पाक हो तो चाहे ज़ाहिर कर के दें या छुपाकर, दोनों बेहतर हैं. लेकिन फ़र्ज़ सदक़े का ज़ाहिर करके देना अफ़ज़ल है, और नफ़्ल का छुपाकर. और अगर नफ़्ल सदक़ा देने वाला दूसरों को ख़ैरात की तरग़ीब देने के लिये ज़ाहिर करके दे तो यह ज़ाहिर करना भी अफ़ज़ल है. (मदारिक)

(12) आप ख़ुशख़बरी देने वाले और डर सुनाने वाले और दावत देने वाले बनाकर भेजे गए हैं आपका फ़र्ज़ लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने पर पूरा हो जाता है. इस से ज़्यादा कोशिश और मेहनत आप पर लाज़िम नहीं. इस्लाम से पहले मुसलमानों की यहूदियों से रिश्तेदारियाँ थीं. इस वजह से वो उनके साथ व्यवहार किया करते थे. मुसलमान होने के बाद उन्हें यहूदियों के साथ व्यवहार करना नागवार होने लगा और उन्होंने इसलिये हाथ रोकना चाहा कि उनके ऐसा करने से यहूदी इस्लाम की तरफ़ आएं. इस पर ये आयत उतरी.

(13) तो दूसरों पर इसका एहसान न जताओ.
(14) यानी वो सदक़ात जो आयत “वमा तुनफ़िक़ू मिन ख़ैरिन” (और तुम जो अच्छी चीज़ दो) में ज़िक्र हुए, उनका बेहतरीन मसरफ़ वह फ़क़ीर है जिन्हों ने अपने नफ़्सों को जिहाद और अल्लाह की फ़रमाँबरदारी पर रोका. यह आयत एहले सुफ़्फ़ा के बारे में नाज़िल हुई. उन लोगों की तादाद चार सौ के क़रीब थी. ये लोग हिजरत करके मदीनए तैय्यिबह हाज़िर हुए थे, न यहाँ उनका मकान था, न परिवार, न क़बीला, न उन हज़रात ने शादी की थी. उनका सारा वक़्त इबादत में जाता था, रात में क़ुरआने करीम सीखना, दिन में जिहाद के काम में रहना. आयत में उनकी कुछ विशेषताओं का बयान है.

(15) क्योंकि उन्हें दीनी कामों से इतनी फ़ुर्सत नहीं कि वो चल फिर कर रोज़ी रोटी की भाग दौड़ कर सकें.

(16) यानी चूंकि वो किसी से सवाल नहीं करते इसलिये न जानने वाले लोग उन्हें मालदार ख़याल करते हैं.

(17) कि मिज़ाज में तवाज़ो और इन्किसार है, चेहरों पर कमज़ोरी के आसार हैं, भूख से रंगत पीली पड़ गई है.

सूरए बक़रह – अड़तीसवाँ रूकू

वो जो अपने माल ख़ैरात करते हैं रात में और दिन में छुपे और ज़ाहिर (1)
उनके लिए उनका नेग है उनके रब के पास उनको न कुछ अन्देशा हो न कुछ ग़म वो जो

सूद खाते हैं (2)
क़यामत के दिन न खड़े होंगे मगर जैसे खड़ा होता है वह जिसे आसेब  (प्रेतबाधा) ने छू कर मख़बूत (पागल) बना दिया हो (3)
यह इसलिये कि उन्होंने कहा बेअ  (विक्रय) भी तो सूद ही के समान है, और अल्लाह ने हलाल किया बेअ को और हराम किया सूद तो जिसे उसके रब के पास से नसीहत आई और वह बाज़ (रूका) रहा तो उसे हलाल है जो पहले ले चुका (4)
और उस का काम ख़ुदा के सुपुर्द है (5)
और जो अब ऐसी हरकत करेगा तो वह दोज़ख़ी है, वो इस में मुद्दतों रहेंगे (6)
अल्लाह हलाक करता है सूद को (7)
और बढ़ाता है ख़ैरात को (8)
और अल्लाह को पसन्द नहीं आता कोई नाशुक्रा बड़ा गुनहगार बेशक वो जो ईमान लाए और  अच्छे काम किये और  नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी उनका नेग उनके रब के पास है और  न उन्हें कुछ अन्देशा (डर) हो न कुछ ग़म ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और छोड़ दो जो बाक़ी  रह गया है सूद,  अगर मुसलमान हो (9)
फिर अगर ऐसा न करो तो यक़ीन कर लो अल्लाह और अल्लाह के रसूल से लड़ाई का (10)
और अगर तुम तौबह करो तो अपना अस्ल माल लेलो न तुम किसी को नुक़सान पहुंचाओ (11)
न तुम्हें नुक़सान हो   (12)
और अगर क़र्जदार तंगी वाला है तो उसे मोहलत दो आसानी तक और कर्ज़ उस पर बिल्कुल छोड़ देना तुम्हारे लिये और भला है अगर जानो (13)
और डरो उस दिन से जिसमें अल्लाह की तरफ़ फिरोगे और हर जान को उसकी कमाई पूरी भर दी जाएगी और उन पर जुल्म न होगा (14)(281)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – अड़तीसवाँ रूकू

(1) यानी ख़ुदा की राह में ख़र्च करने का बहुत शौक़ रखते हैं और हर हाल में ख़र्च करते रहते है. यह आयत हज़रत अबूबक्र सिद्दीक रदियल्लाहो अन्हो के हक़ में नाज़िल हुई, जबकि आपने ख़ुदा की राह में चालीस हज़ार दीनार ख़र्च किये थे, दस हज़ार रात में और दस हज़ार दिन में, और दस हज़ार छुपाकर और दस हज़ार ज़ाहिर में. एक क़ौल यह है कि यह आयत हज़रत मौला अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो के बारे में नाज़िल हुई, जबकि आपके पास फ़क़त चार दरहम थे और कुछ न था. आपने इन चारों को ख़ैरात कर दिया. एक रात में, एक दिन में, एक छुपा कर, एक ज़ाहिर में. आयत में रात की ख़ैरात को दिन की ख़ैरात पर, और छुपवाँ ख़ैरात को ज़ाहिर ख़ैरात पर प्राथमिकता दी गई है. इसमें इशारा है कि छुपाकर देना ज़ाहिर करके देने से अफ़ज़ल है.

(2) इस आयत में सूद के हराम होने और सूद खाने वालों के बुरे परिणाम का बयान है. सूद को हराम फ़रमाने में बहुत सी हिकमतें हैं. उनमें से कुछ ये है कि सूद में जो ज़ियादती ली जाती है वह माली मुआवज़े में माल की एक मात्रा का बिना बदल और एवज़ के लेना है. यह खुली हुई नाइन्साफ़ी है. दूसरे, सूद का रिवाज तिजारतों को ख़राब करता है कि सूद खाने वाले को बे मेहनत माल का हासिल होना तिजारत की मशक़्कतों और ख़तरों से कहीं ज़्यादा आसान मालूम होता है और तिजारतों में कमी इन्सानी समाज को हानि पहुंचाती है. तीसरे, सूद के रिवाज से आपसी व्यवहार को नुक़सान पहुंचता है कि जब आदमी सूद का आदी हो जाता है तो वह किसी को क़र्ज़े हसन से मदद करना पसन्द नहीं करता. चौथे, सूद से आदमी की तबीयत में जानवरों की सी बेरहमी और कठोरता पैदा हो जाती है और सूद ख़ोर अपने क़र्ज़दार की तबाही और बर्बादी की इच्छा करता रहता है. इसके अलावा भी सूद में और बड़े बड़े नुक़सान हैं और शरीअत ने इससे जिस तरह हमें रोका है, वह अल्लाह की ख़ास हिकमत से है. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने सूद खाने वाले और उसके काम करने वाले और सूद का काग़ज़ लिखने वाले और उसके गवाहों पर लानत की और फ़रमाया, वो सब गुनाह में बराबर हैं.

(3) मानी ये हैं कि जिस तरह आसेब अर्थात भूत प्रेत का शिकार सीधा खड़ा नहीं हो सकता, गिरता पड़ता चलता है, क़यामत के दिन सूद खाने वाले का ऐसा ही हाल होगा कि सूद से उसका पेट बहुत भारी और बोझल हो जाएगा और वह उसके बोझ से गिर पड़ेगा. सईद बिन जुबैर रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि यह निशानी उस सूदख़ोर की है जो सूद को हलाल जाने.

(4) यानी सूद हराम होने से पहले जो लिया, उस पर कोई पकड़ नहीं.

(5) जो चाहे हुक्म फ़रमाए, जो चाहे हराम और मना करे. बन्दे पर उसकी आज्ञा का पालन लाज़िम है.

(6) जो सूद को हलाल जाने वह काफ़िर है. हमेशा जहन्नम में रहेगा, क्योंकि हर एक हरामें क़तई का हलाल जानने वाला क़ाफ़िर है.

(7) और उसको बरकत से मेहरूम करता है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला उससे न सदक़ा क़ुबूल करे, न हज, न जिहाद, न और भलाई के काम.

(8) उसको ज़्यादा करता है और उसमें बरकत फ़रमाता है. दुनिया में और आख़िरत में उसका बदला और सवाब बढ़ाता है.

(9) यह आयत उन लोगों के बारे में नाज़िल हुई जो सूद के हराम होने के आदेश उतरने से पहले सूद का लैन दैन करते थे, और उनकी भारी रक़में दूसरों के ज़िम्मे बाक़ी थीं. इसमें हुक्म दिया गया कि सूद के हराम हो जाने के बाद पिछली सारी माँगे और सारे उधार छोड़ दिये जाएं और पहला मूक़र्रर किया हुआ सूद भी अब लेना जायज़ नहीं.

(10) किसकी मजाल कि अल्लाह और उसके रसूल से लड़ाई की कल्पना भी करे. चुनान्चे उन लोगों ने अपनी सूदी मुतालिबे और माँगे और उधार छोड़ दिये और यह अर्ज़ किया कि अल्लाह तआला और उसके रसूल से लड़ाई की हम में क्या ताक़त. और सब ने तौबह की.

(11) ज़्यादा लेकर.

(12) मूल धन घटा कर.

(13) क़र्जदार अगर तंगदस्त या नादार हो तो उसको मोहलत देना या क़र्ज़ का कुछ भाग या कुल माफ़ कर देना बड़े इनाम का कारण है. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जिसने तंगदस्त को मोहलत दी या उसका क़र्ज़ा माफ़ किया, अल्लाह तआला उसको अपनी रहमत का साया अता फ़रमाएगा, जिस रोज़ उसके साए के सिवा कोई साया न होगा.

(14) यानी न उसकी नेकियाँ घटाई जाएं न बुराईयाँ बढ़ाई जाएं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि यह सबसे आख़िरी आयत है जो हुज़ूर पर नाज़िल हुई इसके बाद हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इक्कीस रोज़ दुनिया में तशरीफ़ फ़रमा रहे और एक क़ौल के अनुसार नौ रातें, और एक में सात. लेकिन शअबी ने हज़रत इब्ने अब्बास से यह रिवायत की, कि सब से आख़िर में आयतें “रिबा” नाज़िल हुई.

सूरए बक़रह – उन्तालीसवाँ रूकू

ऐ ईमान वालों जब तुम एक निश्चित मुद्दत तक किसी दैन का लेन देन करो (1)
तो उसे लिख लो (2)
और चाहिये कि तुम्हारे दरमियान कोई लिखने वाला ठीक ठीक लिखे (3)

और लिखने वाला लिखने से इन्कार न करे जैसा कि उसे अल्लाह ने सिखाया है (4)
तो उसे लिख देना चाहिये और जिस पर हक़ आता है वह लिखता जाए और अल्लाह से डरो जो उसका रब है और हक़ में से कुछ रख न छोड़े फिर जिस पर हक़ आता है अगर बे – अक़्ल या कमज़ोर हो या लिखा न सके (5)
तो उसका वली  (सरपरस्त) इन्साफ़ से लिखाए और दो गवाह कर लो अपने मर्दों में से (6)
फिर अगर दो मर्द न हों (7)
तो एक मर्द और दो औरतें, ऐसे गवाह जिनको पसन्द करो (8)
कि कहीं उनमें एक औरत भूले तो उस एक को दूसरी याद दिला दे और गवाह जब बुलाए जाए तो आने से इन्कार न करें (9)
और इसे भारी न जानो कि दैन छोटा है या बड़ा उसकी मीआद तक लिखित कर लो यह अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा इन्साफ़ की बात है, इस में गवाही ख़ूब ठीक रहेगी और यह उससे क़रीब है कि तुम्हें शुबह न पड़े मगर यह कि कोई सरेदस्त  (तात्कालिक) का सौदा हाथों हाथ हो तो उसके न लिखने का तुम पर गुनाह नहीं (10)
और जब क्रय विक्रय करो तो गवाह को (या न लिखने वाला ज़रर दे न गवाह) (12)
और जो तुम ऐसा करो तो यह तुम्हारा फ़िस्क़ (दुराचार) होगा और अल्लाह से डरो और अल्लाह तुम्हें सिखाता है और अल्लाह सब कुछ जानता है और अगर तुम सफ़र में हो (13)
और लिखने वाला न पाओ (14)
तो गिरौ हो क़ब्ज़े में दिया हुआ (15)
और अगर तुम में एक को दूसरे पर इत्मीनान हो तो वह जिसे उसने अमीन (विश्वस्त) समझा था (16)
अपनी अमानत अदा करदे  (17)
और अल्लाह से डरो जो उसका रब है और गवाही न छुपाओ (18)
और जो गवाही छुपाएगा तो अन्दर से उसका दिल गुनाहगार है (19)
और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है (283)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – उन्तालीसवाँ रूकू

(1) चाहे वह दैन मबीअ हो या समन. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इससे बेअए सलम मुराद है. बैअए सलम यह है कि किसी चीज़ को पेशगी क़ीमत लेकर बेचा जाए और मबीअ मुश्तरी को सुपुर्द करने के लिए एक मुद्दत तय कर ली जाए. इस बैअए के जवाज़ के लिये जिन्स, नौअ, सिफ़त, मिक़दार, मुद्दत औ मकाने अदा और मूल धन की मात्रा, इन चीज़ों का मालूम होना शर्त है.

(2) यह लिखना मुस्तहब है, फ़ायदा इसका यह है कि भूल चूक और क़र्ज़दार के इन्कार का डर नहीं रहता.

(3) अपनी तरफ़ से कोई कमी बेशी न करे, न पक्षों में से किसी का पक्षपात या रिआयत.

(4) मतलब यह है कि कोई लिखने वाला लिखने से मना न करे जैसे कि अल्लाह तआला ने उसको वसीक़ा लिखने का इल्म दिया. उसके साथ पूरी ईमानदारी बरतते हुए, बिना कुछ रद्दो बदल किये दस्तावेज़ लिखे. यह लिखना एक क़ौल के मुताबिक़ फ़र्ज़े किफ़ाया है और एक क़ौल पर ऐन फर्ज़, उस सूरत में जब उसके सिवा कोई लिखने वाला न पाया जाए. और एक क़ौल के अनुसार मुस्तहब है, क्योंकि इसमें मुसलमान की ज़रूरत पूरी होने और इल्म की नेअमत का शुक्र है. और एक क़ौल यह है कि पहले यह लिखना फ़र्ज़ था, फ़िर “ला युदार्रो कातिबुन” से स्थगित हुआ.

(5) यानी अगर क़र्ज़ लेने वाला पागल और मंदबुद्धि वाला हो या बच्चा या बहुत ज़्यादा बूढ़ा हो या गूंगा होने या ज़बान न जानने की वजह से अपने मतलब का बायान न कर सकता हो.

(6) गवाह के लिये आज़ाद होना, बालिग़ होना और मुसलमान होना शर्त है. काफ़िरों की गवाही सिर्फ काफ़िरों पर मानी जाएगी.

(7) अकेली औरतों की गवाही जायज़ नहीं, चाहे वो चार क्यों न हों, मगर जिन कामों पर मर्द सूचित नहीं हो सकते जैसे कि बच्चा जनना, ऐसी जवान लड़की या औरत होना जिसका कौंवार्य भंग न हुआ हो और औरतों के ऐब, इसमें एक औरत की गवाही भी मानी जाती है. बड़े जुर्मो की सज़ा या क़त्ल वग़ैरह के क़िसास में औरतों की गवाही बिल्कुल नहीं मानी जाएगी. सिर्फ़ मर्दो की गवाही मानी जाएगी. इसके अलावा और मामलों में एक मर्द और दो औरतों की गवाही भी मानी जाएगी. (तफ़सीरे अहमदी).

(8) जिनका सच्चा होना तुम्हें मालूम हो और जिनके नेक और शरीफ़ होने पर तुम विश्वास रखते हो.

(9) इस आयत से मालूम हुआ कि गवाही देना फ़र्ज़ है. जब मुद्दई गवाहों को तलब करे तो उन्हें गवाही का छुपाना जायज़ नहीं. यह हुक्म बड़े गुनाहों की सज़ा के अलावा और बातों में है. लेकिन हुदूद में गवाह को ज़ाहिर करने या छुपाने का इख़्तियार है, बल्कि छुपाना अच्छा है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जो मुसलमान की पर्दा पोशी करे, अल्लाह तआला दुनिया और आख़िरत में उसके ऐबों और बुराईयों पर पर्दा डालेगा. लेकिन चोरी में माल लेने की गवाही देना वाजिब है, ताकि जिसका माल चोरी गया है उसका हक़ नष्ट न हो. गवाह इतनी ऐहतियात कर सकता है कि चोरी का शब्द न कहे. गवाही में केवल इतना ही कह दे कि यह माल अमुक व्यक्ति ने लिया.

(10) चूंकि इस सूरत में लेन देन होकर मामला ख़त्म हो गया और कोई डर बाक़ी न रहा, साथ ही ऐसी तिजारत और क्रय विक्रय अधिकतर जारी रहती है. इसमें किताब यानी लिखने और गवाही की पाबन्दी भी पड़ेगी.

(11) यह मुस्तहब है, क्योंकि इसमें एहतियात है.

(12) “युदार्रो” में हज़रत इब्ने अब्बास के मुताबिक़ मानी ये हैं कि दोनों पक्ष कातिबों और गवाहों को हानि नहीं पहुंचाएं, इस तरह कि वो अगर अपनी ज़रूरतों में मशगूल हों तो उन्हें मजबूर करें और उनके काम छुड़ाएं या लिखाई का वेतन न दें या गवाह को सफ़र ख़र्च न दें, अगर वह दूसरे शहर से आया है. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो का क़ौल “युदार्रो” में यह है कि लिखने वाले और गवाह क़र्ज़ लेने वाले और क़र्ज़ देने वाले, दोनों पक्षों को हानि न पहुंचाएं. इस तरह कि फ़ुरसत और फ़राग़त होने के बावुजूद बुलाने पर न आएं, या लिखने में अपनी तरफ़ से कुछ घटा बढ़ा दें.

(13) और क़र्ज़ की ज़रूरत पेश आए.

(14) और वसीक़ा व दस्तावेज की लिखाई का अवसर न मिले तो इत्मीनान के लिये.

(15) यानी कोई चीज़ क़र्ज़ देने वाले के क़ब्जे़ में गिरवी के तौर पर दे दो. यह मुस्तहब है और सफ़र की हालत में रहन या गिरवी इस आयत से साबित हुआ. और सफ़र के अलावा की हालत में हदीस से साबित है. चुनांचे रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मदीनए तैय्यिबह में अपनी ज़िरह मुबारक यहूदी के पास गिरवी रखकर बीस साअ जौ लिये. इस आयत से रहन या गिरवी रखने की वैधता और क़ब्ज़े का शर्त होना साबित होता है.

(16) यानी क़र्ज़दार, जिसको क़र्ज़ देने वाले ने अमानत वाला समझा.

(17) इस अमानत से दैन मुराद है.

(18) क्योंकि इसमें हक़ रखने वाले के हक़ का नुक़सान है. यह सम्वोघन गवाहों को है कि वो जब गवाही के लिये तलब किये जाएं तो सच्चाई न छुपाएं और एक क़ौल यह भी है कि सम्वोधन क़र्ज़दारों को है कि वो अपने अन्त:करण पर गवाही देने में हिचकिचाएं नहीं.

(19) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से एक हदीस है कि बड़े गुनाहों में सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शरीक करना और झूठी गवाही देना और गवाही को छुपाना है.

सूरए बक़रह – चालीसवाँ रूकू

अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और अगर तुम ज़ाहिर करो जो कुछ(1)
तुम्हारे जी में है या छुपाओ, अल्लाह तुम से उसका हिसाब लेगा (2)
तो जिसे चाहे बख्श़ेगा (3)
और जिसे चाहे सज़ा देगा (4)
और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर  (सर्व – सक्षम) है रसूल ईमान लाया उसपर जो उसके रब के पास से उस पर उतरा और ईमान वाले सब ने माना (5)
अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को (6)
यह कहते हुए कि हम उसके किसी रसूल पर ईमान लाने में फ़र्क़ नहीं करते (7)
और अर्ज़ की कि हमने सुना और माना (8)
तेरी माफ़ी हो ऐ रब हमारे और तेरी ही तरफ़ फिरना है अल्लाह किसी जान पर बोझ नहीं डालता मगर उसकी ताक़त भर, उसका फ़ायदा है जो अच्छा कमाया और उसका नुक़सान है जो बुराई कमाई.  (9)
ऐ रब हमारे हमें न पकड़ अगर हम भूले और (10)
या चूकें, ऐ रब हमारे और हम पर भारी बोझ न रख जैसा तूने हम से अगलों पर रखा था, ऐ रब हमारे और हम पर वह बोझ न डाल जिसकी हमें सहार न हो और हमें माफ़ फ़रमादे और बख़्श दे और हम पर मेहर कर, तू हमारा मौला है तू काफ़िरों पर हमें मदद दे (286)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – चालीसवाँ रूकू
(1) बुराई.

(2) इन्सान के दिल में दो तरह के ख़्याल आते हैं, एक वसवसे के तौर पर. उनसे दिल का ख़ाली करना इन्सान की ताक़त में नहीं. लेकिन वह उनको बुरा जानता है और अमल में लाने का इरादा नहीं करता. उनको हदीसे नफ़्स और वसवसा कहते है. इस पर कोई पकड़ नहीं. बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत के दिलों में जो वसवसे गुज़रते हैं, अल्लाह तआला उस वक़्त तक उन पर पकड़ नहीं करता जब तक वो अमल में न लाए जाएं या उनके साथ कलाम न करें. ये वसवसे इस आयत में दाख़िल नहीं. दूसरे वो ख़्यालात जिनको मनुष्य अपने दिल में जगह देता है और उनको अमल में लाने का इरादा करता है. कुफ़्र का इरादा करना कुफ़्र है और गुनाह का इरादा करके अगर आदमी उस पर साबित रहे और उसका इरादा रखे लेकिन उस गुनाह को अमल में लाने के साधन उसको उपलब्ध न हों और वह मजबूरन उसको न कर सके तो उससे हिसाब लिया जाएगा. शेख़ अबू मन्सूर मातुरीदी और शम्सुल अइम्मा हलवाई इसी तरफ़ गए हैं. और उनकी दलील आयत ” इन्नल लज़ीना युहिब्बूना अन तशीउल फ़ाहिशतो ” और हज़रत आयशा की हदीस, जिसका मज़मून यह है कि बन्दा जिस गुनाह का इरादा करता है, अगर वह अमल में न आए, जब भी उसपर पकड़ की जाती है. अगर बन्दे ने किसी गुनाह का इरादा किया फिर उसपर शर्मिन्दा हुआ और तौबह की तो अल्लाह उसे माफ़ फ़रमाएगा.

(3) अपने फ़ज़्ल से ईमान वालों को.

(4) अपने इन्साफ़ से.

(5) ज़ुजाज ने कहा कि जब अल्लाह तआला ने इस सूरत में नमाज़, ज़कात, रोज़े, हज की फ़र्ज़ियत और तलाक़, ईला, हैज़ और जिहाद के अहकाम और नबियों के क़िस्से बयान फ़रमाए, तो सूरत के आख़िर में यह ज़िक्र फ़रमाया कि नबिये करीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और ईमान वालों ने इस तमाम की तस्दीक़ फ़रमाई और क़ुरआन और उसके सारे क़ानून और अहकाम अल्लाह की तरफ़ से उतरने की तस्दीक़ की.

(6) ये उसूल और ईमान की ज़रूरतों के चार दर्जे हैं (1) अल्लाह पर ईमान लाना, यह इस तरह कि अक़ीदा रखे, और तस्दीक़ करे कि अल्लाह एक और केवल एक है, उसका कोई शरीक और बराबर नहीं. उसके सारे नामों और सिफ़ात पर ईमान लाए और यक़ीन करे और माने कि वह जानने वाला और हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है और उसके इल्म और क़ुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं है. (2) फ़रिश्तों पर ईमान लाना. यह इस तरह है कि यक़ीन करे और माने कि वो मौजूद हैं, मासूम हैं, पाक हैं, अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अहकाम और पैग़ाम लाने वाले हैं. (3) अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना, इस तरह कि जो किताबें अल्लाह तआला ने उतारीं और अपने रसूलों पर वहीं के ज़रिये भेजीं, बेशक बेशुबह सब सच्ची और अल्लाह की तरफ़ से हैं और क़ुरआने करीम तबदील, काट छाँट, रद्दो बदल से मेहफ़ूज़ है, और अल्लाह के आदेशों और उसके रहस्यों पर आधारित है. (4) रसूलों पर ईमान लाना, इस तरह कि ईमान लाए कि वो अल्लाह के भेजे हुए हैं जिन्हें उसने अपने बन्दों की तरफ़ भेजा. उसकी वही के अमीन है, गुनाहों से पाक, मासूम हैं, सारी सृष्टि से अफ़ज़ल हैं. उनमें कुछ नबी कुछ नबियों से अफ़ज़ल हैं.

(7) जैसा कि यहूदियों और ईसाइयों ने किया कि कुछ पर ईमान लाए और कुछ का इन्कार किया.

(8) तेरे हुक्म और इरशाद को.

(9) यानी हर जान को नेक कर्म का इनाम और सवाब मिलेगा और बुरे कर्मों का अज़ाब होगा. इसके बाद अल्लाह तआला ने अपने मूमिन बन्दों को दुआ मांगने का तरीक़ा बताया कि वो इस तरह अपने परवर्दिगार से अर्ज़ करें.

(10) और ग़लती या भूल चूक से तेरे किसी आदेश के पालन से मेहरूम रहें.

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