Tafseer Surah al-ankabut From Kanzul Imaan

29 – सूरए अन्कबूत

29 – सूरए अन्कबूत

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بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ الم
أَحَسِبَ النَّاسُ أَن يُتْرَكُوا أَن يَقُولُوا آمَنَّا وَهُمْ لَا يُفْتَنُونَ
وَلَقَدْ فَتَنَّا الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۖ فَلَيَعْلَمَنَّ اللَّهُ الَّذِينَ صَدَقُوا وَلَيَعْلَمَنَّ الْكَاذِبِينَ
أَمْ حَسِبَ الَّذِينَ يَعْمَلُونَ السَّيِّئَاتِ أَن يَسْبِقُونَا ۚ سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ
مَن كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ اللَّهِ فَإِنَّ أَجَلَ اللَّهِ لَآتٍ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ
وَمَن جَاهَدَ فَإِنَّمَا يُجَاهِدُ لِنَفْسِهِ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَغَنِيٌّ عَنِ الْعَالَمِينَ
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُكَفِّرَنَّ عَنْهُمْ سَيِّئَاتِهِمْ وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَحْسَنَ الَّذِي كَانُوا يَعْمَلُونَ
وَوَصَّيْنَا الْإِنسَانَ بِوَالِدَيْهِ حُسْنًا ۖ وَإِن جَاهَدَاكَ لِتُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلَا تُطِعْهُمَا ۚ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُدْخِلَنَّهُمْ فِي الصَّالِحِينَ
وَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ آمَنَّا بِاللَّهِ فَإِذَا أُوذِيَ فِي اللَّهِ جَعَلَ فِتْنَةَ النَّاسِ كَعَذَابِ اللَّهِ وَلَئِن جَاءَ نَصْرٌ مِّن رَّبِّكَ لَيَقُولُنَّ إِنَّا كُنَّا مَعَكُمْ ۚ أَوَلَيْسَ اللَّهُ بِأَعْلَمَ بِمَا فِي صُدُورِ الْعَالَمِينَ
وَلَيَعْلَمَنَّ اللَّهُ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَيَعْلَمَنَّ الْمُنَافِقِينَ
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آمَنُوا اتَّبِعُوا سَبِيلَنَا وَلْنَحْمِلْ خَطَايَاكُمْ وَمَا هُم بِحَامِلِينَ مِنْ خَطَايَاهُم مِّن شَيْءٍ ۖ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ
وَلَيَحْمِلُنَّ أَثْقَالَهُمْ وَأَثْقَالًا مَّعَ أَثْقَالِهِمْ ۖ وَلَيُسْأَلُنَّ يَوْمَ الْقِيَامَةِ عَمَّا كَانُوا يَفْتَرُونَ

सूरए अन्कबूत मक्का में उतरी, इसमें 69 आयतें, 7 रूकू हैं,
– पहला रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए अन्कबूत मक्के में उतरी. इस में सात रूकू, उन्हत्तर आयतें, नो सौ अस्सी कलिमें, चार हज़ार एक सौ पैंसठ अक्षर हैं.

अलिफ, लाम मीम{1} क्या लोग इस घमण्ड में हैं कि इतनी बात पर छोड़ दिये जाएंगे कि कहें, हम ईमान लाए और उनकी आज़माइश न होगी(2){2}
(2) तकलीफ़ों की सख़्ती और क़िस्म क़िस्म की तकलीफ़ें और फ़रमाँबरदारी के ज़ौक़ और ख़्वाहिशात के त्याग और जान और माल के बदल से उनके ईमान की हक़ीक़त ख़ूब ज़ाहिर हो जाए और मुख़लिस मूमिन और मुनाफ़िक़ में इमतियाज़ ज़ाहिर हो जाए. ये आयत उन हज़रात के हक़ में नाज़िल हुई जो मक्कए मुकर्रमा में थे और उन्होंने इस्लाम का इक़रार किया तो असहाबे रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म) ने उन्हें लिखा कि सिर्फ़ इक़रार काफ़ी नहीं जब तक कि हिजरत न करो. उन साहिबों ने हिजरत की और मदीने का इरादा करके रवाना हुए. मुश्रिकीन ने उनका पीछा किया और उन से जंग की. कुछ हज़रात उनमें से शहीद हो गए, कुछ बच गए. उनके हक़ में ये दो आयतें नाज़िल हुई. और हज़रत इब्ने अब्बास (रदियल्लाहो तआला अन्हुमा) ने फ़रमाया कि उन लोगों से मुराद सलमा बिन हिशाम और अय्याश बिन अबी रबीआ और वलीद बिन वलीद और अम्मार बिन यासिर वग़ैरह है जो मक्कए मुकर्रमा में ईमान लाए. और एक क़ौल यह है कि यह आयत हज़रत अम्मार के हक़ में नाज़िल हुई जो ख़ुदा-परस्ती की वजह से सताए जाते थे और कफ़्फ़ार उन्हें सख़्त तकलीफ़ें देते थे. एक क़ौल यह है कि ये आयतें हज़रत उमर (रदियल्लाहो तआला अन्हो) के ग़ुलाम हज़रत महजेअ बिन अब्दुल्लाह के हक़ में नाज़िल हुई जो बद्र में सबसे पहले शहीद होने वाले हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन के बारे में फ़रमाया कि महजेअ शहीदों के सरदार हैं और इस उम्मत में जन्नत के दरवाज़े की तरफ़ पहले वो पुकारे जाएंगे. उनके माता पिता और उनकी पत्नी को उनका बहुत दुख हुआ तो अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल की फिर उनकी तसल्ली फ़रमाई.

और बेशक हमने उनसे अगलों को जांचा(3)
(3) तरह तरह की परीक्षाओं में डाला. उनमें से कुछ वो हैं जो आरे से चीड़ डाले गए. कुछ लोहे की कंघियों से पुरजे-पुरजे किये गए. और सच्चाई और वफ़ादारी की जगह मज़बूत और क़ाइम रहे.

तो ज़रूर अल्लाह सच्चों को देखेगा और ज़रूर झूठों को देखेगा(4){3}
(4) हर एक का हाल ज़ाहिर फ़रमा देगा.

या ये समझे हुए हैं वो जो बुरे काम करते हैं (5)
(5) शिर्क और गुनाहों में फँसे हुए हैं.

कि हम से कहीं निकल जाएंगे(6)
(6) और हम उनसे बदला न लेंगे.

क्या ही बुरा हुक्म लगाते हैं {4} जिसे अल्लाह से मिलने की उम्मीद हो(7)
(7) उठाने और हिसाब से डरे या सवाब की उम्मीद रखे.

तो बेशक अल्लाह की मीआद ज़रूर आने वाली है(8)
(8) उसने सवाब और अज़ाब का जो वादा फ़रमाया है ज़रूर पूरा होने वाला है. चाहिये कि उसके लिये तैयार रहे. और नेक कार्य में जल्दी करे.

और वही सुनता जानता है(9){5}
(9) बंदों की बात चीत और कर्मों को.

और जो अल्लाह की राह में कोशिश करे(10)
(10) चाहे दीन के दुश्मनों से लड़ाई करके या नफ़ृस और शैतान की मुख़ालिफ़त करके और अल्लाह के हुक्म की फ़रमाँबरदारी पर साबिर और क़ाईम रह कर.

तो अपने ही भले को कोशिश करता है(11)
(11) इस का फ़ायदा और पुण्य पाएगा.

बेशक अल्लाह बेपरवाह है सारे जगत से(12) {6}
(12) इन्सान और जिन्नात और फ़रिश्ते और उनके कर्मों और इबादतों से उसका हुक्म और मना फ़रमाना बंदों पर रहमत और करम के लिये हैं.

और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये हम ज़रूर उनकी बुराइयाँ उतार देंगे(13)
(13) नेकियों की वजह से.

और ज़रूर उन्हें उस काम पर बदला देंगे जो उनके सब कामों में अच्छा था(14){7}
(14) यानी अच्छे कर्म पर.

और हमने आदमी को ताकीद की अपने माँ बाप के साथ भलाई की(15)
(15) एहसान और अच्छे बर्ताव की यह आयत और सूरए लुक़मान और सूरए अहक़ाफ़ की आयतें सअद बिन अबी वक़्क़ास रदियल्लाहो तआला अन्हो के हक़ में और इब्ने इस्हाक़ के मुताबिक़ सअद बिन मालिक ज़ोहरी के हक़ में नाज़िल हुई. उनकी माँ हमन्ना बिन्ते अबी सुफ़्यान बिन उमैया बिन अब्दे शम्स थीं. हज़रत सअद अगलों और पहलों मे से थे. और अपनी माँ के साथ अच्छा बर्ताव करते थे. जब आप इस्लाम लाए तो आप की माँ ने कहा कि तूने ये क्या नया काम किया? ख़ुदा की क़सम! अगर तू इससे बाज़ न आया तो मैं खाऊँ न पियूँ यहाँ तक कि मर जाऊँ और तेरी हमेशा के लिये बदनामी हो. और माँ का हत्यारा कहा जाए. फिर उस बुढिया ने भूख हड़ताल कर दी. और पूरे एक दिन-रात न खाया न पिया और नह साए में बैठी. इससे कमज़ोर हो गई. फिर एक रात-दिन और इसी तरह रही. तब हज़रत सअद उसके पास आए और आप ने उससे फ़रमाया कि ऐ माँ, अगर तेरी सौ जानें हों और एक-एक करके सब ही निकल जाएं तो भी मैं अपना दीन छोड़ने वाला नहीं. तू चाहे खा, चाहे मत खा.जब वो हज़रत सअद की तरफ़ से निराश हो गई कि ये अपना दीन छोड़ने वाले नहीं तो खाने पीने लगी. इसपर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल फ़रमाई और हुक्म दिया कि माता-पिता के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए. और अगर वो कुफ़्र का हुक्म दे, तो न माना जाए.

और अगर वो तुझ से कोशिश करें कि तू मेरा शरीक ठहराए जिसका तुझे इल्म नहीं तो तू उनका कहा न मान(16)
(16) क्योंकि जो चीज़ मालूम न हो , उसको किसी के कहे से मान लेना तक़लीद है. इस का मतलब ये हुआ की असलियत में मेरा कोई शरीक नहीं हैं, तो ज्ञान और तहक़ीक़ से तो कोई भी किसी को मेरा शरीक मान ही नहीं सकता. ये नामुमकिन है. रहा तक़लीद के तौर पर बग़ैर इल्म के मेरे लिये शरीक मना लेना, ये बहुत ही बुरा है. इसमें माता-पिता की हरगिज़ बात न मान. ऐसी फ़रमाँबरदारी किसी मख़लूक़ की जाईज़ नहीं जिस में ख़ुदा की नाफ़रमानी हो.

मेरी ही तरफ़ तुम्हारा फिरना है तो मैं बता दूंगा तुम्हें जो तुम करते थे(17){8}
(17) तुम्हारे किरदार का फल देकर.

और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये, ज़रूर हम उन्हें नेकों में शामिल करेंगे(18){9}
(18) कि उनके साथ हश्र फ़रमाएंगे और सालेहीन से मुराद अंबिया और औलिया हैं.

और कुछ आदमी कहते हैं हम अल्लाह पर ईमान लाए फिर जब अल्लाह की राह में उन्हें कोई तकलीफ़ दी जाती है(19)
(19)यानी दीन की वजह से कोई तकलीफ़ पहुंचती है जैसे कि काफ़िरों का तकलीफ़ पहुंचाना.

तो लोगों के फ़ित्ने को अल्लाह के अज़ाब के बराबर समझते हैं(20)
(20) और जैसा अल्लाह के अज़ाब से डरना चाहिए या ऐसा ख़ल्क़ के द्वारा पहुंचाए जाने वाली तकलीफ़ से डरते हैं. यहाँ तक कि ईमान छोड़ देते हैं और कुफ्र को स्वीकार लेते हैं. ये हाल मुनाफ़िक़ों का है.

और अगर तुम्हारे रब के पास से मदद आए(21)
(21) मिसाल के तौर पर मुसलमानों की जीत हो और उन्हें दौलत मिले.

तो ज़रूर कहेंगे हम तो तुम्हारे ही साथ थे(22)
(22) ईमान और इस्लाम में और तुम्हारी तरह दीन पर डटे हुए थे. तो हमें इस में शरीक करो.

क्या अल्लाह ख़ूब नहीं जानता जो कुछ जगत भर के दिलों में है(23){10}
(23) कुफ़्र या ईमान.

और ज़रूर अल्लाह ज़ाहिर कर देगा ईमान वालों को (24)
(24) जो सच्चाई और भलाई के साथ ईमान लाए और बला और मुसीबत में अपने ईमान और इस्लाम पर साबित और क़ाईम रहे.

और ज़रूर ज़ाहिर कर देगा मुनाफ़िक़ो(दोग़लों) को(25) {11}
(25) और दोनों गिरोहों को नतीजा देगा.

और काफ़िर मुसलमानों से बोले, हमारी राह पर चलो और हम तुम्हारे गुनाह उठा लेंगे,(26)
(26) मक्के के काफ़िरों ने क़ुरैश के मूमिनों से कहा था कि तुम हमारा और हमारे बाप दादा का दीन स्वीकार करो. तुम को अल्लाह की तरफ़ से जो मुसीबत पहुंचेगी उसके हम जिम्मेदार हैं और तुम्हारे गुनाह हमारी गर्दन पर, यानी अगर हमारे तरीक़े पर रहने से अल्लाह तआला ने तुम को पकड़ा और अज़ाब किया तो तुम्हारा अज़ाब हम अपने ऊपर ले लेंगे. अल्लाह तआला ने उन्हें झूठा क़रार दिया.

हालांकि वो उनके गुनाहों में से कुछ न उठाएंगे, बेशक वो झूटे हैं {12} और बेशक ज़रूर अपने(27)
(27) कुफ्र और गुनाहों के.

बोझ उठाएंगे, अपने बोझों के साथ और बोझ(28)
(28) उनके गुनाहों के, जिन्हें उन्होंने गुमराह किया और सही रास्ते से रोका. हदीस शरीफ़ में है जिस ने इस्लाम में कोई बुरा तरीक़ा निकाला उसपर उस बुरा तरीक़ा निकालने का गुनाह भी है और क़यामत तक जो लोग उस पर अमल करें उनके गुनाह भी. बग़ैर इसके कि उनपर ये उन के गुनाह के बोझ से कुछ भी कमी हो(मुस्लिम शरीफ़)

और ज़रूर क़यामत के दिन पूछे जाएंगे जो कुछ बोहतान उठाते थे(29) {13}
(29) अल्लाह तआला उनके कर्मों और ग़लत इल्ज़ामों सब का जानने वाला है लेकिन यह सवाल धिक्कार के लिये है.

29 – सूरए अन्कबूत- दूसरा रूकू

29 – सूरए अन्कबूत- दूसरा रूकू

وَلَقَدْ أَرْسَلْنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوْمِهِ فَلَبِثَ فِيهِمْ أَلْفَ سَنَةٍ إِلَّا خَمْسِينَ عَامًا فَأَخَذَهُمُ الطُّوفَانُ وَهُمْ ظَالِمُونَ
فَأَنجَيْنَاهُ وَأَصْحَابَ السَّفِينَةِ وَجَعَلْنَاهَا آيَةً لِّلْعَالَمِينَ
وَإِبْرَاهِيمَ إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاتَّقُوهُ ۖ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ
إِنَّمَا تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا وَتَخْلُقُونَ إِفْكًا ۚ إِنَّ الَّذِينَ تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّهِ لَا يَمْلِكُونَ لَكُمْ رِزْقًا فَابْتَغُوا عِندَ اللَّهِ الرِّزْقَ وَاعْبُدُوهُ وَاشْكُرُوا لَهُ ۖ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ
وَإِن تُكَذِّبُوا فَقَدْ كَذَّبَ أُمَمٌ مِّن قَبْلِكُمْ ۖ وَمَا عَلَى الرَّسُولِ إِلَّا الْبَلَاغُ الْمُبِينُ
أَوَلَمْ يَرَوْا كَيْفَ يُبْدِئُ اللَّهُ الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيدُهُ ۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرٌ
قُلْ سِيرُوا فِي الْأَرْضِ فَانظُرُوا كَيْفَ بَدَأَ الْخَلْقَ ۚ ثُمَّ اللَّهُ يُنشِئُ النَّشْأَةَ الْآخِرَةَ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
يُعَذِّبُ مَن يَشَاءُ وَيَرْحَمُ مَن يَشَاءُ ۖ وَإِلَيْهِ تُقْلَبُونَ
وَمَا أَنتُم بِمُعْجِزِينَ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاءِ ۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللَّهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ

और बेशक हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा तो वह उनमें पचास साल कम हज़ार बरस रहा (1)
(1) इस तमाम मुद्दत में क़ौम को तौहीद और ईमान की दावत जारी रखी और उनकी तकलीफ़ों पर सब्र किया इसपर भी वह क़ौम बाज न आई, झुटलाती रही.

तो उन्हें तूफ़ान ने आ लिया और जो ज़ालिम थे(2){14}
(2) तूफ़ान में डूब गए. इसमें नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तसल्ली दी गई है कि आप से पहले नबियों के साथ उनकी क़ौमों ने काफ़ी सख़्तियाँ की हैं. हज़रत नूह अलैहिस्सलाम पचास कम हज़ार बरस दावत फ़रमाते रहे और इस लम्बे समय में उनकी क़ौम के बहुत थोड़े लोग ईमान लाए, तो आप कुछ ग़म न करें क्योंकि अल्लाह के करम से आपकी थोड़े समय की दावत से बेशुमार लोग ईमान से बुज़ु्र्गी हासिल कर चुके हैं.

तो हमने उसे(3)
(3) यानी हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को.

और किश्ती वालों को(4)
(4) जो आप के साथ थे उनकी संख्या 78 (अठहत्तर) थी आधे मर्द और आधी औरतें, इनमें हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के बेटे साम और हाम और याफ़िस और उनकी बीबियाँ भी शामिल हैं.

बचा लिया और उस किश्ती को सारे जगत के लिये निशानी किया(5){15}
(5) कहा गया है कि वह किश्ती जूदी पहाड़ पर लम्बे समय तक बाक़ी रही.

और इब्राहीम को(6)
(6) याद करो.

जब उसने अपनी क़ौम से फ़रमाया कि अल्लाह को पूजो और उसे डरो उसमें तुम्हारा भला है अगर तुम जानते{16} तुम तो अल्लाह के सिवा बुतों को पूजते हो और निरा झूट गढ़ते हो(7)
(7) कि बूतों को ख़ुदा का शरीक कहते हो.

बेशक वो जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पूजते हो तुम्हारी रोज़ी के कुछ मालिक नहीं तो अल्लाह के पास रिज़्क़ ढूंढो (8)
(8) वही रिज़्क़ देने वाला है.

और उसकी बन्दगी करो और उसका एहसान मानो, तुम्हें उसी की तरफ़ फिरना है(9){17}
(9) आख़िरत में.

और अगर तुम झुटलाओ(10)
(10) और मुझे न मानो तो इसमें मेरा कोई नुक़सान नहीं. मैंने राह दिखा दी, चमत्कार पेश कर दिये. मेरा कर्तव्य पूरा हो गया इसपर भी अगर तुम न मानो.

तो तुमसे पहले कितने ही गिरोह झुटला चुके हैं(11)
(11)  अपने नबियों को जैसे कि आद, नूह और समूद की क़ौमें . उनके झुटलाने का अन्जाम यही हुआ कि अल्लाह तआला ने उन्हे हलाक किया.

और रसूल के ज़िम्मे नहीं मगर साफ़ पहुंचा देना{18} और क्या उन्होंने न देखा अल्लाह किस तरह सृष्टि की शुरूआत फ़रमाता है(12)
(12) कि पहले उन्हें नुत्फ़ा बनाता है फिर बंधे हुए ख़ून की सूरत देता है, फिर गोश्त का टुकड़ा बनाता है. इस तरह एक के बाद एक चरणों में उनकी बनावट पूरी करता है.

फिर उसे दोबारा बनाएगा (13)
(13) आख़िरत में मरने के बाद उठाए जाने वक़्त.

बेशक यह अल्लाह को आसान है(14){19}
(14) यानी पहली बार पैदा करना और मरने के बाद फिर दोबारा बनाना.

तुम फ़रमाओ ज़मीन में सफ़र करके देखो(15)
(15) पिछली क़ौमों के शहरों और निशानों को कि…

अल्लाह कैसे पहले बनाता है (16)
(16) मख़लूक़ को, कि फिर उसे मौत देता है.

फिर अल्लाह दूसरी उठान उठाता है(17)
(17) यानी जब यह यक़ीन से जान लिया कि पहली बार अल्लाह तआला ही ने पैदा किया तो मालूम हो गया कि इस ख़ालिक़ यानी पैदा करने वाले का सृष्टि को मौत के बाद दोबारा पैदा करना कुछ भी मजबूरी की बात नहीं है.

बेशक अल्लाह सब कुछ कर सकता है {20} अज़ाब देता है जिसे चाहे (18)
(18) अपने न्याय से.

और रहम फ़रमाता है जिस पर चाहे(19)
(19) अपने करम और मेहरबानी से.

और तुम्हें उसी की तरफ़ फिरना है{21} और न तुम ज़मीन में(20)
(20) अपने रब के.

क़ाबू से निकल सको और न आसमान में(21)
(21) उससे बचने और भागने की कहीं मजाल नहीं. या ये मानी हैं कि न ज़मीन वाले उसके हुक्म और मर्ज़ी से कहीं भाग सकते हैं, न आसमान वाले.
और तुम्हारे लिये अल्लाह के सिवा न कोई काम बनाने वाला और मददगार {22}

29 – सूरए अंन्कबूत- तीसरा रूकू

29 – सूरए अंन्कबूत- तीसरा रूकू

وَالَّذِينَ كَفَرُوا بِآيَاتِ اللَّهِ وَلِقَائِهِ أُولَٰئِكَ يَئِسُوا مِن رَّحْمَتِي وَأُولَٰئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ
فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهِ إِلَّا أَن قَالُوا اقْتُلُوهُ أَوْ حَرِّقُوهُ فَأَنجَاهُ اللَّهُ مِنَ النَّارِ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ
وَقَالَ إِنَّمَا اتَّخَذْتُم مِّن دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا مَّوَدَّةَ بَيْنِكُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ ثُمَّ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُ بَعْضُكُم بِبَعْضٍ وَيَلْعَنُ بَعْضُكُم بَعْضًا وَمَأْوَاكُمُ النَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّاصِرِينَ
۞ فَآمَنَ لَهُ لُوطٌ ۘ وَقَالَ إِنِّي مُهَاجِرٌ إِلَىٰ رَبِّي ۖ إِنَّهُ هُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ وَآتَيْنَاهُ أَجْرَهُ فِي الدُّنْيَا ۖ وَإِنَّهُ فِي الْآخِرَةِ لَمِنَ الصَّالِحِينَ
وَلُوطًا إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ إِنَّكُمْ لَتَأْتُونَ الْفَاحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنْ أَحَدٍ مِّنَ الْعَالَمِينَ
أَئِنَّكُمْ لَتَأْتُونَ الرِّجَالَ وَتَقْطَعُونَ السَّبِيلَ وَتَأْتُونَ فِي نَادِيكُمُ الْمُنكَرَ ۖ فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهِ إِلَّا أَن قَالُوا ائْتِنَا بِعَذَابِ اللَّهِ إِن كُنتَ مِنَ الصَّادِقِينَ
قَالَ رَبِّ انصُرْنِي عَلَى الْقَوْمِ الْمُفْسِدِينَ

और वो जिन्होंने मेरी आयतों और मेरे मिलने को न माना(1)
(1) यानी कु़रआन शरीफ़ और मरने के बाद ज़िन्दा किये जाने पर ईमान न लाए.

वो हैं जिन्हें मेरी रहमत की आस नहीं और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है(2){23}
(2) इस नसीहत के बाद फिर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के वाक़ए का बयान फ़रमाया जाता है कि जब आपने अपनी क़ौम को ईमान की दावत दी और तर्क क़ायम किये और नसीहतें फ़रमाई.

तो उसकी क़ौम को कुछ जवाब बन न आया मगर ये बोले उन्हें क़त्ल कर दो या जला दो(3)
(3) यह उन्होंने आपस में एक दूसरे से कहा या सरदारों ने अपने अनुयाइयों से. बहरहाल कुछ कहने वाले थे, कुछ उस पर राज़ी होने वाले थे, सब सहमत. इसलिये वो सब क़ायल लोगों के हुक्म में हैं.

तो अल्लाह ने उसे(4)
(4) यानी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को, जबकि उनकी क़ौम ने आग में डाला.

आग से बचा लिया (5)
(5) उस आग को ठण्डा करके और हज़रत इब्राहीम के लिये सलामती बनाकर.

बेशक उसमें ज़रूर निशानियाँ हैं ईमान वालों के लिये (6) {24}
(6) अजीब अजीब निशानियाँ. आग का इस बहुतात के बावुजूद असर न करना और ठण्डा हो जाना और उसकी जगह गुलशन पैदा हो जाना और यह सब पल भर से भी कम में होना.

और इब्राहीम ने(7)
(7) अपनी क़ौम से.

फ़रमाया तुम ने तो अल्लाह के सिवा ये बुत बना लिये हैं जिनमें तुम्हारी दोस्ती यह दुनिया की ज़िन्दगी तक है (8)
(8) फिर टूट जाएगी और आख़िरत में कुछ काम न आएगी.

फिर क़यामत के दिन तुम में एक दूसरे के साथ कुफ़्र करेगा और एक दूसरे पर लानत डालेगा(9)
(9) बुत अपने पुजारियों से बेज़ार होंगे और सरदार अपने मानने वालों से और मानने वाले सरदारों पर लअनत करेंगे.

और तुम सब का ठिकाना जहन्नम है(10)
(10) बुतों का भी और पुजारियों का भी. उनमें सरदारों का भी और उनके फ़रमाँबरदारों का भी.

और तुम्हारा कोई मददगार नहीं(11){25}
(11) जो तुम्हें अज़ाब से बचाए. और जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम आग से सलामत निकले और उसने आपको कोई हानि न पहुंचाई.

तो लूत उस पर ईमान लाया(12)
(12) यानी हज़रत लूत अलैहिस्सलाम ने यह चमत्कार देखकर आपकी रिसालत की तस्दीक़ की. आप हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सबसे पहले तस्दीक़ करने वाले हैं. ईमान से रिसालत की तस्दीक़ ही मुराद है क्योंकि अस्ल तौहीद का अक़ीदा तो उन्हें हमेशा
से हासिल है इसलिये कि नबी हमेशा ही ईमान वाले होते हैं और कुफ़्र का उनके साथ किसी हाल में तसव्वुर नहीं किया जा सकता.

और इब्राहीम ने कहा मैं (13)
(13) अपनी क़ौम को छोड़ कर.

अपने रब की तरफ़ हिजरत करता हूँ (14)
(14) जहाँ उसका हुक्म हो. चुनांन्चे आपने ईराक़ प्रदेश से शाम की तरफ़ हिजरत की. इस हिजरत में आपके साथ आपकी बीबी सारा और हज़रत लूत अलैहिस्सलाम थे.

बेशक वही इज़्ज़त व हिकमत (बोध) वाला है {26} और हमने उसे(15)
(15) हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के बाद.

इस्हाक़ और यअक़ूब अता फ़रमाए और हमने उसकी औलाद में नबुव्वत(16)
(16) कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बाद जितने नबी हुए सब आपकी नस्ल से हुए.

और किताब रखी(17)
(17) किताब से तौरात, इन्जील, ज़ुबूर और क़ुरआन शरीफ़ मुराद हैं.

और हमने दुनिया में उसका सवाब उसे अता फ़रमाया (18)
(18) कि पाक सन्तान अता फ़रमाई. पैग़म्बरी उनकी नस्ल में रखी, किताबें उन पैग़म्बरों को अता कीं जो उनकी औलाद में हैं और उनको सृष्टि में सबका प्यारा और चहीता किया कि सारी क़ौमें और दीन वाले उनसे महब्बत रखते हैं और उनकी तरफ़ अपनी निस्बत पर गर्व करते हैं और उनके लिये संसार के अन्त तक दुरूद मुक़र्रर कर दिया. यह तो वह है जो दुनिया में अता फ़रमाया.

और बेशक आख़िरत में वह हमारे ख़ास समीपता के हक़दारों में है(19){27}
(19) जिनके लिये बड़े ऊंचे दर्जे हैं.

और लूत को निजात दी जब उसने अपनी क़ौम से फ़रमाया तुम बेशक बेहयाई का काम करते हो कि तुमसे पहले दुनिया भर में किसी ने न किया(20){28}
(20)इस बेहयाई की व्याख्या इससे अगली आयत में बयान होती है.

क्या तुम मर्दों से बुरा काम करते हो और राह मारते हो(21)
(21) राहगीरों को क़त्ल करके, उनके माल लूट कर, और यह भी कहा गया है कि वो लोग मुसाफ़िरों के साथ बुरा काम करते थे यहाँ तक कि लोगों ने उस तरफ़ से गुज़रना भी बन्द कर दिया था.

और अपनी मजलिस (बैठक) में बुरी बात करते हो(22)
(22) जो समझदारी के ऐतिबार से बुरा और मना है जैसे गाली देना, बुरी बातें कहना, ताली और सीटी बजाना, एक दूसरे के कंकरियाँ मारना, रास्ता चलने वालों पर पत्थर वग़ैरह फैंकना, शराब पीना, हंसी उड़ाना, गन्दी बातें करना, एक दूसरे पर थूकना वग़ैरह नीच कर्म जिनकी क़ौमे लूत आदी थी. हज़रत लूत अलैहिस्सलाम ने इसपर उनको मलामत की.

तो उसकी क़ौम का कुछ जवाब न हुआ मगर यह कि बोले हम पर अल्लाह का अज़ाब लाओ अगर तुम सच्चे हो(23) {29}
(23) इस बात में कि ये बुरे काम हैं और  ऐसा करने वाले पर अज़ाब उतरेगा. यह उन्होंने हंसी के अन्दाज़ में कहा. जब हज़रत लूत अलैहिस्सलाम को उस क़ौम के सीधी राह पर आने की कुछ उम्मीद न रही तो आपने अल्लाह की बारगाह में—

अर्ज़ की ऐ मेरे रब मेरी मदद कर(24)
(24) अज़ाब उतारने के बारे में मेरी बात पूरी करके.

इन फ़सादी लोगों पर(25){30}
(25) अल्लाह तआला ने आपकी दुआ क़ुबूल फ़रमाई.

29 – सूरए अन्कबूत- चौथा रूकू

29 – सूरए अन्कबूत- चौथा रूकू

وَلَمَّا جَاءَتْ رُسُلُنَا إِبْرَاهِيمَ بِالْبُشْرَىٰ قَالُوا إِنَّا مُهْلِكُو أَهْلِ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ ۖ إِنَّ أَهْلَهَا كَانُوا ظَالِمِينَ
قَالَ إِنَّ فِيهَا لُوطًا ۚ قَالُوا نَحْنُ أَعْلَمُ بِمَن فِيهَا ۖ لَنُنَجِّيَنَّهُ وَأَهْلَهُ إِلَّا امْرَأَتَهُ كَانَتْ مِنَ الْغَابِرِينَ
وَلَمَّا أَن جَاءَتْ رُسُلُنَا لُوطًا سِيءَ بِهِمْ وَضَاقَ بِهِمْ ذَرْعًا وَقَالُوا لَا تَخَفْ وَلَا تَحْزَنْ ۖ إِنَّا مُنَجُّوكَ وَأَهْلَكَ إِلَّا امْرَأَتَكَ كَانَتْ مِنَ الْغَابِرِينَ
إِنَّا مُنزِلُونَ عَلَىٰ أَهْلِ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ رِجْزًا مِّنَ السَّمَاءِ بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ
وَلَقَد تَّرَكْنَا مِنْهَا آيَةً بَيِّنَةً لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ
وَإِلَىٰ مَدْيَنَ أَخَاهُمْ شُعَيْبًا فَقَالَ يَا قَوْمِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَارْجُوا الْيَوْمَ الْآخِرَ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْأَرْضِ مُفْسِدِينَ
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَأَصْبَحُوا فِي دَارِهِمْ جَاثِمِينَ
وَعَادًا وَثَمُودَ وَقَد تَّبَيَّنَ لَكُم مِّن مَّسَاكِنِهِمْ ۖ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطَانُ أَعْمَالَهُمْ فَصَدَّهُمْ عَنِ السَّبِيلِ وَكَانُوا مُسْتَبْصِرِينَ
وَقَارُونَ وَفِرْعَوْنَ وَهَامَانَ ۖ وَلَقَدْ جَاءَهُم مُّوسَىٰ بِالْبَيِّنَاتِ فَاسْتَكْبَرُوا فِي الْأَرْضِ وَمَا كَانُوا سَابِقِينَ
فَكُلًّا أَخَذْنَا بِذَنبِهِ ۖ فَمِنْهُم مَّنْ أَرْسَلْنَا عَلَيْهِ حَاصِبًا وَمِنْهُم مَّنْ أَخَذَتْهُ الصَّيْحَةُ وَمِنْهُم مَّنْ خَسَفْنَا بِهِ الْأَرْضَ وَمِنْهُم مَّنْ أَغْرَقْنَا ۚ وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلَٰكِن كَانُوا أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ
مَثَلُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِن دُونِ اللَّهِ أَوْلِيَاءَ كَمَثَلِ الْعَنكَبُوتِ اتَّخَذَتْ بَيْتًا ۖ وَإِنَّ أَوْهَنَ الْبُيُوتِ لَبَيْتُ الْعَنكَبُوتِ ۖ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ
إِنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا يَدْعُونَ مِن دُونِهِ مِن شَيْءٍ ۚ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
وَتِلْكَ الْأَمْثَالُ نَضْرِبُهَا لِلنَّاسِ ۖ وَمَا يَعْقِلُهَا إِلَّا الْعَالِمُونَ
خَلَقَ اللَّهُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ بِالْحَقِّ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَةً لِّلْمُؤْمِنِينَ

और जब हमारे फ़रिश्ते इब्राहीम के पास ख़ुशख़बरी लेकर आए(1)
(1) उनके बेटे और पोते हज़रत इस्हाक़ और हज़रत यअक़ूब अलैहिस्सलाम का.

बोले हम ज़रूर इस शहर वालों को हलाक करेंगे(2)
(2) उस शहर का नाम सदूम था.

बेशक इसके बसने वाले सितमगर हैं {31} कहा(3)
(3) हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने.

इसमें तो लूत है(4)
(4) और लूत अलैहिस्सलाम तो अल्लाह के नबी और बुज़ुर्गी वाले बन्दे हैं.

फ़रिश्ते बोले हमें ख़ूब मालूम है जो कुछ इसमें है, ज़रूर हम उसे (5)
(5) यानी लूत अलैहिस्सलाम को.

और उसके घरवालों को निजात देंगे मगर उसकी औरत को, कि वह रह जाने वालों में है(6){32}
(6) अज़ाब में.

और जब हमारे फ़रिश्ते लूत के पास(7)
(7) ख़ूबसूरत मेहमानों की शक़्ल में.

आए उनका आना उसे नागवार हुआ और उनके कारण दिल तंग हुआ(8)
(8) क़ौम के कर्म और हरकतों और उनकी नालायक़ी का ख़याल करके, उस वक़्त फ़रिश्तों ने ज़ाहिर किया कि वो अल्लाह के भेजे हुए हैं.

और उन्होंने कहा न डरिये(9)
(9) क़ौम से.

और न ग़म कीजिये(10)
(10) हमारा, कि क़ौम के लोग हमारे साथ कोई बेअदबी और गुस्ताख़ी करें. हम फ़रिश्ते हैं. हम लोगों को हलाक करेंगे और…

बेशक हम आपको और आप के घर वालों को निजात देंगे मगर आप की औरत, वह रह जाने वालों में है{33} बेशक हम उस शहर वालों पर आसमान से अज़ाब उतारने वाले हैं बदला उनकी नाफ़रमानियों का{34} बेशक हमने उससे रौशन निशानी बाक़ी रखी अक़्ल वालों के लिये(11){35}
(11)  हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि वह रौशन निशानी क़ौमे लूत के वीरान मकान हैं.

मदयन की तरफ़, उनके हम क़ौम शुऐब को भेजा तो उसने फ़रमाया ऐ मेरी क़ौम अल्लाह की बन्दगी करो और पिछले दिन की उम्मीद रखो(12)
(12) यानी क़यामत के दिन की, ऐसे काम करके जो आख़िरत के सवाब का कारण हों.

और ज़मीन में फ़साद फ़ैलाते न फिरो {36} तो उन्होंने उसे झुटलाया तो उन्हें ज़लज़ले ने आ लिया तो सुब्ह अपने घरों में घुटनों के बल पड़े रह गए(13){37}
(13) मुर्दे बेजान.

और आद और समूद को हलाक फ़रमाया और तुम्हें (14)
(14) ऐ मक्का वालो.

उनकी बस्तियां मालूम हो चुकी है(15)
(15) हजर और यमन में जब तुम अपनी यात्राओ  में वहाँ से गुज़रते हो.

और शैतान ने उनके कौतुक (16)
(16) कुफ़्र और गुनाह.

उनकी निगाह में भले कर दिखाए और उन्हें राह से रोका और उन्हें सूझता था(17){38}
(17) समझ वाले थे. सत्य और असत्य में फ़र्क़ कर सकते थे लेकिन उन्होंने अक़्ल और न्याय से काम न लिया.

और क़ारून और फ़िरऔन और हामान को(18)
(18) अल्लाह तआला ने हलाक फ़रमाया.

और बेशक उनके पास मूसा रौशन निशानियां लेकर आया तो उन्होंने ज़मीन में घमण्ड किया और वो हमसे निकल कर जाने वाले न थे(19) {39}
(19) कि हमारे अज़ाब से बच सकते.

तो उनमें हर एक को हमने उसके गुनाह पर पकड़ा, तो उनमें किसी पर हमने पथराव भेजा(20)
(20) और वह क़ौमें लूत थी जिनको छोटे छोटे पत्थरों से हलाक किया गया जो तेज़ हवा से उनपर लगते थे.

और उनमें किसी को चिंघाड़ ने आ लिया(21)
(21) यानी क़ौमे समूद कि भयानक आवाज़ के अज़ाब से हलाक की गई.

और उनमें किसी को ज़मीन में धंसा दिया(22)
(22) यानी क़ारून और उसके साथियों को.

और उनमें किसी को डुबो दिया(23)
(23) जैसे क़ौमे नूह को और फ़िरऔन और उसकी क़ौम को.

और अल्लाह की शान न थी कि उनपर ज़ुल्म करे(24)
(24) वह किसी को बिना गुनाह के अज़ाब में नहीं जकड़ता.

हाँ वो ख़ुद ही (25)
(25) नाफ़रमानियाँ करके और कुफ़्र और सरकशी इख़्तियार करके.

अपनी जानों पर ज़ुल्म करते थे {40} उनकी मिसाल जिन्हों ने अल्लाह के सिवा और मालिक बना लिये हैं  (26)
(26) यानी बुतों को मअबूद ठहराया है, उनके साथ उम्मीदें जोड़ रखी हैं और हक़ीक़त में उनकी लाचारी और बेइख़्तियारी की मिसाल यह है कि जो आगे ज़िक्र फ़रमाई जाती है.

मकड़ी की तरह है, उसने जाले का घर बनाया(27)
(27) अपने रहने के लिये, न उससे गर्मी दूर हो न सर्दी. न धूल मिट्टी और बारिश, किसी चीज़ से हिफ़ाज़त. ऐसे ही बुत हैं कि अपने पुजारियों को न दुनिया में नफ़ा पहुंचा सकें न आख़िरत में कोई नुक़सान पहुंचा सकें.

और बेशक सब घरों में कमज़ोर घर मकड़ी का घर(28)
(28) ऐसे ही सब दीनों में कमज़ोर और निकम्मा दीन बुत परस्तों का है. हज़रत अली मुरतज़ा रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है आपने फ़रमाया अपने घरों से मकड़ी के जाले दूर करों, ये दरिद्रता का कारण होते हैं.

क्या अच्छा होता अगर जानते(29){41}
(29) कि उनका दीन किस क़द्र निकम्मा है.

अल्लाह जानता है जिस चीज़ की उसके सिवा पूजा करते हैं(30)
(30) कि वह कुछ हक़ीक़त नहीं रखती.

और वही इज़्ज़त और बोध वाला है (31){42}
(31) तो समझदार को कब उचित है कि इज़्ज़त व हिकमत वाले क़ादिर और मुख़्तार की इबादत छोड़कर बेइल्म बेइख़्तियार पत्थरों की पूजा करे.

और ये मिसालें हम लोगों के लिये बयान फ़रमाते हैं, और उन्हें नहीं समझते मगर इल्म वाले(32){43}
(32)  यानी उनके हुस्न और गुण और उनके नफ़े और फ़ायदे और उनकी हिकमत का इल्म वाले समझते हैं जैसा कि इस मिसाल ने मुश्रिक और ख़ुदा परस्त का हाल ख़ूब अच्छी तरह ज़ाहिर कर दिया और फ़र्क़ खोल दिया. कुरैश के काफ़िरों ने व्यंग्य के तौर पर कहा था कि अल्लाह तआला मक्खी और मकड़ी की उपमाएं देता है. और इसपर उन्होंने हंसी बनाई थी. इस आयत में उनका रद कर दिया गया कि जो जाहिल हैं, उदाहरण और उपमा की हिकमत को नहीं जानते, मिसाल का उद्देश्य समझाना होता है और जैसी चीज़ हो उसकी शान ज़ाहिर करने के लिये वैसी ही मिसाल पेश करना हिकमत का तक़ाज़ा है तो बातिल और कमज़ोर दीन के झूट के इज़हार के लिये यह मिसाल बहुत ही नफ़ा देने वाली है. जिन्हें अल्लाह तआला ने अक़्ल और इल्म अता फ़रमाया वो समझते हैं.

अल्लाह ने आसमान और ज़मीन हक़ बनाए, बेशक उसमें निशानी है(33)मुसलमानों के लिये{44}
(33) उसकी क़ुदरत और हिकमत और उसकी तौहीद और एक होने पर दलील क़ायम करने वाली.

पारा बीस समाप्त

29 – सूरए अन्कबूत- पाचवाँ रूकू

इक्कीसवां पारा – उत्लु-मा-ऊहिया

اتْلُ مَا أُوحِيَ إِلَيْكَ مِنَ الْكِتَابِ وَأَقِمِ الصَّلَاةَ ۖ إِنَّ الصَّلَاةَ تَنْهَىٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنكَرِ ۗ وَلَذِكْرُ اللَّهِ أَكْبَرُ ۗ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا تَصْنَعُونَ
۞ وَلَا تُجَادِلُوا أَهْلَ الْكِتَابِ إِلَّا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ إِلَّا الَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْهُمْ ۖ وَقُولُوا آمَنَّا بِالَّذِي أُنزِلَ إِلَيْنَا وَأُنزِلَ إِلَيْكُمْ وَإِلَٰهُنَا وَإِلَٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ ۚ فَالَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يُؤْمِنُونَ بِهِ ۖ وَمِنْ هَٰؤُلَاءِ مَن يُؤْمِنُ بِهِ ۚ وَمَا يَجْحَدُ بِآيَاتِنَا إِلَّا الْكَافِرُونَ
وَمَا كُنتَ تَتْلُو مِن قَبْلِهِ مِن كِتَابٍ وَلَا تَخُطُّهُ بِيَمِينِكَ ۖ إِذًا لَّارْتَابَ الْمُبْطِلُونَ
بَلْ هُوَ آيَاتٌ بَيِّنَاتٌ فِي صُدُورِ الَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ ۚ وَمَا يَجْحَدُ بِآيَاتِنَا إِلَّا الظَّالِمُونَ
وَقَالُوا لَوْلَا أُنزِلَ عَلَيْهِ آيَاتٌ مِّن رَّبِّهِ ۖ قُلْ إِنَّمَا الْآيَاتُ عِندَ اللَّهِ وَإِنَّمَا أَنَا نَذِيرٌ مُّبِينٌ
أَوَلَمْ يَكْفِهِمْ أَنَّا أَنزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ يُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَرَحْمَةً وَذِكْرَىٰ لِقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ

(सूरए अन्कबूत जारी)
– पाचवाँ रूकू

ऐ मेहबूब, पढ़ो जो किताब तुम्हारी तरफ़ वही की गई(1)
(1) यानी क़ुरआन शरीफ़ कि उसकी तिलावत भी इबादत है और उसमें लोगों के लिये अच्छी बातें और नसीहतें भी और आदेश और अदब और अच्छे व्यवहार की तालीम भी.

और नमाज़ क़ायम फ़रमाओ, बेशक नमाज़ मना करती है बेहयाई और बुरी बात से(2)
(2) यानी शरीअत की मना की हुई बातों से. लिहाज़ा जो शख़्स नमाज़ का पाबन्द होता है और उसे अच्छी तरह अदा करता है, नतीजा यह होता है कि एक न एक दिन वह उन बुराईयों को त्याग देता है जिनमें जकड़ा हुआ था. हज़रत अनस रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि एक अनसारी जवान सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ नमाज़ पढ़ा करता था और बहुत से बड़े गुनाह किया करता था. हुज़ूर से उसकी शिकायत की गई. फ़रमाया, उसकी नमाज़ किसी दिन उसे उन बातों से रोक देगी. चुनांन्चे बहुत ही क़रीब के ज़माने में उसने तौबह की और उसका हाल बेहतर हो गया. हज़रत हसन रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि जिस की नमाज़ उसको बेहयाई और अवैध बातों से न रोके वह नमाज़ ही नहीं.

और बेशक अल्लाह का ज़िक्र सब से बड़ा(3)
(3) कि वह सबसे बढ़कर फ़रमाँबरदारी है. तिरमिज़ी की हदीस में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, क्या मैं तुम्हें न बताऊं वह अमल जो तुम्हारे कर्मों में बेहतर और रब के नज़दीक़ सबसे पाकीज़ा, सबसे ऊंचे दर्जे का और तुम्हारे लिये सोना चांदी देने से बेहतर और जिहाद में लड़ने और मारे जाने से बेहतर है. सहाबा ने अर्ज़ किया, बेशक या रसूलल्लाह. फ़रमाया, वह अल्लाह तआला का ज़िक्र है. तिरमिज़ी ही की एक दूसरी हदीस में है कि सहाबा ने हुज़ूर से दरियाफ़्त किया था कि क़यामत के दिन अल्लाह तआला के नज़्दीक किन बन्दों का दर्जा ऊंचा है. फ़रमाया, बहुत ज़्यादा ज़िक्र करने वालों का. सहाबा ने अर्ज़ किया, और ख़ुदा की राह में जिहाद करने वाला. फ़रमाया, अगर वह अपनी तलवार से काफ़िरों और मुश्रिकों को यहाँ तक मारे कि तलवार टूट जाए और वह ख़ून में रंग जाए जब भी ज़िक्र करने वालों का दर्जा़ ही उससे बलन्द है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने इस आयत की तफ़सीर यह फ़रमाई है कि अल्लाह तआला का अपने बन्दों को याद करना बहुत बड़ा है और एक क़ौल इसकी तफ़सीर में यह है कि अल्लाह तआला का ज़िक्र बड़ा है बेहयाई और बुरी बातों से रोकने और मना करने में.

और अल्लाह जानता है जो तुम करते हो {45}  और ऐ मुसलमानों किताबियों स न झगड़ों मगर बेहतर तरीक़े पर(4)
(4) अल्लाह तआला की तरफ़ उसकी आयतों से दावत देकर और हुज्जतों पर आगाही करके.

मगर वो जिन्हों ने उनमें से ज़ुल्म किया (5)
(5) ज़ियादती में हद से गुज़र गए, दुश्मनी इख़्तियार की, नसीहत न मानी, नर्मी से नफ़ा न उठाया, उनके साथ सख़्ती करो और एक क़ौल यह है कि मानी ये हैं  कि जिन लोगों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तकलीफ़ दी या जिन्होंने अल्लाह तआला के लिये बेटा और शरीक बताया, उनके साथ सख़्ती करो. या ये मानी हैं ज़िम्मी जिज़िया अदा करने वालों के साथ अच्छे तरीक़े से व्यवहार करो. मगर जिन्होंने ज़ुल्म किया और ज़िम्मे से निकल गए और जिज़िया को मना किया उनसे व्यवहार तलवार के साथ है, इस आयत से काफ़िरों के साथ दीनी कामों में मुनाज़िरा करने का जवाज़ यानी वैद्यता साबित होती है और ऐसे ही इल्मे कलाम यानी तर्क-वितर्क की विद्या सीखने का जवाज़ भी.

और कहो (6)
(6) किताब वालों से, जब वो तुम  से अपनी किताबों का कोई मज़मून बयान करें.

हम ईमान लाए उसपर जो हमारी तरफ़ उतरा और जो तुम्हारी  तरफ़ उतरा और हमारा तुम्हारा एक मअबूद है और हम उसके समक्ष गर्दन रखे हैं(7){46}
(7) हदीस शरीफ़ में है कि जब एहले किताब तुम से कोई मज़मून बयान करें तो तुम न उनकी तस्दीक़ करो, न उन्हें झुटलाओ, यह कह दो कि हम अल्लाह तआला और उसकी किताबों और उसके रसूलों पर ईमान लाए. तो अगर वह मज़मून उन्होंने ग़लत बयान किया है तो तुम उसकी तस्दीक़ के गुनाह से बचे रहोगे और अगर वह मज़मून सही था तो तुम उसे झुटलाने से मेहफ़ूज़ रहोगे.

और ऐ मेहबूब यूंही तुम्हारी तरफ़ किताब उतारी(8)
(8) क़ुरआने पाक, जैसे उनकी तरफ़ तौरात वग़ैरह उतारी थीं.

तो वो जिन्हें हमने किताब अता फ़रमाई(9)
(9) यानी जिन्हें तौरात दी जैसे कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम और उनके साथी. यह सूरत मक्के में उतरी और हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम और उनके साथी मदीने में ईमान लाए. अल्लाह तआला ने इससे पहले उनकी ख़बर दी. यह ग़ैबी ख़बरों में से है. (जुमल)

उसपर ईमान लाते हैं, और कुछ उनमें से हैं(10)
(10) यानी मक्का वालों में से.

जो उस पर ईमान लाते हैं, और हमारी आयतों से इनकारी नहीं होते मगर काफ़िर(11){47}
(11) जो कुफ़्र में बहुत सख़्त हैं. जहूद उस इन्कार को कहते हैं जो सब कुछ जान लेने के बाद हो, यानी जान बूझ कर मुकरना और वाक़िआ भी यही था कि यहूदी ख़ूब पहचानते थे कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह तआला के सच्चे नबी है और क़ुरआन सच्चा है. यह सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने दुश्मनी में इन्कार किया.

और इस(12)
(12) क़ुरआन के उतरने.

से पहले तुम कोई किताब न पढ़ते थे और न अपने हाथ से कुछ लिखते थे यूं होता(13)
(13) यानी आप लिखते पढ़ते होते.

तो बातिल (असत्य) वाले ज़रूर शक लाते(14){48}
(14) यानी एहले किताब कहते कि हमारी किताबों में आख़िरी ज़माने के नबी की विशेषता यह लिखी है कि वो उम्मी होंगे, न लिखेंगे, न पढ़ेंगे, मगर उन्हें इस शक का मौक़ा ही न मिला.

बल्कि वो रौशन आयतें हैं उनके सीनों में जिनको इल्म दिया गया(15)
(15) ज़मीर “हुवा” यानी वह क़ुरआन के लिये है. उस सूरत में मानी ये हैं कि क़ुरआने करीम वो रौशन आयतें हैं जो उलमा और हाफ़ज़ों के सीनों में मेहफ़ूज़ हैं. रौशन आयत होने के ये मानी कि वह खुले चमत्कार वाली हैं और ये दोनों बातें क़ुरआन शरीफ़ साथ ख़ास हैं, और कोई ऐसी किताब नहीं जो चमत्कार हो और न ऐसी कि हर ज़माने में सीनों में मेहफ़ूज़ रही हो. और हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने “हुवा” की ज़मीर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जोड़ कर आयत के ये मानी बयान किये कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उन रौशन आयतों के साहिब हैं जो उन लोगों के सीनों में मेहफ़ूज़ हैं जिन्हें एहले किताब में से इल्म दिया गया क्योंकि वो अपनी किताबों में आपकी नअत और सिफ़ात पाते हैं. (ख़ाज़िन)

और हमारी आयतों का इनकार नहीं करते मगर ज़ालिम(16){49}
(16) यानी दुश्मनी रखने वाले यहूदी कि चमत्कारों के ज़ाहिर होने के बाद जान बूझकर दुश्मनी से इन्कारी होते हैं.

और बोले(17)
(17) मक्के के काफ़िर.

क्यों न उतरीं  कुछ निशानियाँ उनपर उनके रब की तरफ़ से(18)
(18) जैसे हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम की ऊंटनी और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की लाठी और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के लिये आसमान से खाना उतरना.

तुम फ़रमाओ निशानियाँ तो अल्लाह ही के पास हैं (19)
(19) हिकमत के अनुसार जो चाहता है उतारता है.

और मैं तो यही साफ़ डर सुनाने वाला हूँ(20){50}
(20) नाफ़रमानी करने वालों को अज़ाब का, और इसी का मुझे हुक्म दिया गया है इसके बाद अल्लाह तआला मक्का के काफ़िरों के इस क़ौल का जवाब इरशाद फ़रमाता है.

और क्या यह उन्हें बस नहीं कि हमने तुम पर किताब उतारी जो उनपर पढ़ी जाती है(21)
(21) मानी ये हैं कि क़ुरआने करीम एक चमत्कार है. पहले नबियों के चमत्कार से ज़्यादा भरपूर और सम्पूर्ण, और निशानियों से सच्चाई चाहने वालों को बेनियाज़ करने वाला क्योंकि जब तक ज़माना है, क़ुरआन शरीफ़ बाक़ी रहेगा और दूसरे चमत्कारों की तरह ख़त्म न होगा.
बेशक इसमें रहमत और नसीहत है ईमान वालों के लिये {51}

29 – सूरए अन्कबूत- छटा रूकू

29 – सूरए अन्कबूत- छटा रूकू

قُلْ كَفَىٰ بِاللَّهِ بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ شَهِيدًا ۖ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۗ وَالَّذِينَ آمَنُوا بِالْبَاطِلِ وَكَفَرُوا بِاللَّهِ أُولَٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ
وَيَسْتَعْجِلُونَكَ بِالْعَذَابِ ۚ وَلَوْلَا أَجَلٌ مُّسَمًّى لَّجَاءَهُمُ الْعَذَابُ وَلَيَأْتِيَنَّهُم بَغْتَةً وَهُمْ لَا يَشْعُرُونَ
يَسْتَعْجِلُونَكَ بِالْعَذَابِ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةٌ بِالْكَافِرِينَ
يَوْمَ يَغْشَاهُمُ الْعَذَابُ مِن فَوْقِهِمْ وَمِن تَحْتِ أَرْجُلِهِمْ وَيَقُولُ ذُوقُوا مَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ
يَا عِبَادِيَ الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ أَرْضِي وَاسِعَةٌ فَإِيَّايَ فَاعْبُدُونِ
كُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ ۖ ثُمَّ إِلَيْنَا تُرْجَعُونَ
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُبَوِّئَنَّهُم مِّنَ الْجَنَّةِ غُرَفًا تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ نِعْمَ أَجْرُ الْعَامِلِينَ
الَّذِينَ صَبَرُوا وَعَلَىٰ رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ
وَكَأَيِّن مِّن دَابَّةٍ لَّا تَحْمِلُ رِزْقَهَا اللَّهُ يَرْزُقُهَا وَإِيَّاكُمْ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ
وَلَئِن سَأَلْتَهُم مَّنْ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَسَخَّرَ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ لَيَقُولُنَّ اللَّهُ ۖ فَأَنَّىٰ يُؤْفَكُونَ
اللَّهُ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ وَيَقْدِرُ لَهُ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
وَلَئِن سَأَلْتَهُم مَّن نَّزَّلَ مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَأَحْيَا بِهِ الْأَرْضَ مِن بَعْدِ مَوْتِهَا لَيَقُولُنَّ اللَّهُ ۚ قُلِ الْحَمْدُ لِلَّهِ ۚ بَلْ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ

तुम फ़रमाओ, अल्लाह बस है मेरे और तुम्हारे बीच गवाह(1)
(1) मेरी रिसालत की सच्चाई और तुम्हारे झुटलाने का, चमत्कारों से मेरी ताईद फ़रमाकर.

जानता है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, और वो जो बातिल (असत्य) पर यक़ीन लाए और अल्लाह के इन्कारी हुए वही घाटे में हैं{52} और तुमसे अज़ाब की जल्दी करते हैं(2)
(2) यह आयत नज़र बिन हारिस के बारे में उतरी जिसने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा था कि हमारे ऊपर आसमान से पत्थरों की बारिश कराइये.

और अगर एक ठहराई मुद्दत न होती(3)
(3) जो अल्लाह तआला ने निर्धारित की है और उस मुद्दत तक अज़ाब में विलम्ब फ़रमाना अल्लाह तआला की मर्ज़ी की बात है.

तो ज़रूर उनपर अज़ाब आ जाता (4)
(4) और विलम्ब न होता.

और ज़रूर उनपर अचानक आएगा जब वो बेख़बर होंगे {53} तुम से अज़ाब की जल्दी मचाते हैं, और बेशक जहन्नम घेरे हुए काफ़िरों को  (5){54}
(5) उस से उनमें का कोई भी न बचेगा.

जिस दिन उन्हें ढाँपेगा अज़ाब उनके ऊपर और उनके पाँव के नीचे से और फ़रमाएगा चखो अपने किये का मज़ा(6){55}
(6) यानी अपने कर्मों की जज़ा.

ऐ मेरे बन्दो जो ईमान लाए बेशक मेरी ज़मीन फैली हुई है तो मेरी ही बन्दगी करो (7){56}
(7) जिस धरती पर आसानी से इबादत कर सको. मानी ये हैं कि जब मूमिन को किसी प्रदेश में अपने दीन पर क़ायम रहना और इबादत करना दुशवार हो तो चाहिये कि वह ऐसे प्रदेश की तरफ़ हिजरत कर जाए जहाँ आसानी से इबादत कर सके, और दीन के कार्मों में कठिनाइयाँ पेश न आएं. यह आयत ग़रीब और कमज़ोर मुसलमानों के हक़ में उतरी. जिन्हें मक्का में रहकर ख़तरे और तकलीफ़ें थीं और अत्यन्त परेशानी में थे. उन्हें हुक्म दिया गया कि मेरी बन्दगी तो लाज़िम है, यहाँ रह कर न कर सको तो मदीना शरीफ़ को हिजरत कर जाओ़, वह लम्बा चौड़ा प्रदेश है और वहाँ अम्न है.

हर जान को मौत का मज़ा चखना है(8)
(8) और इस नश्वर संसार को छोड़ना ही है.

फिर हमारी ही तरफ़ फिरोगे(9){57}
(9) सवाब और अज़ाब और कर्मों की जज़ा के लिये, तो ज़रूरी है कि हमारे दीन पर क़ायम रहो और अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिये हिजरत करो.

और बेशक जो ईमान लाए और अच्छे काम किये ज़रूर हम उन्हें जन्नत के बालाख़ानों {अटारियों} पर जगह देंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी हमेशा उनमें रहेंगे, क्या ही अच्छा अज्र काम वालों का(10){58}
(10)  जो अल्लाह तआला की फ़रमाँबरदारी करे.

वो जिन्होंने सब्र किया(11)
(11) सख़्तियों पर और किसी सख़्ती में अपने दीन को न छोड़ा, मुश्रिकों की तकलीफ़ सहन की हिजरत इख़्तियार करके दीन के लिये अपना वतन छोड़ना गवारा किया.

और अपने रब ही पर भरोसा रखते हैं(12){59}
(12) सारे कर्मों में.

और ज़मीन पर कितने ही चलने वाले हैं कि अपनी रोज़ी साथ नहीं रखते(13)
(13) मक्कए मुकर्रमा में मूमिनों को मुश्रिक लोगा रात दिन तरह तरह की यातनाएं देते रहते थे.सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे मदीनए तैय्यिबह की तरफ़ हिजरत करने कोफ़रमाया तो उनमें से कुछ ने कहा कि हम मदीना शरीफ़ कैसे चले जाए, न वहाँ हमारा घर, न माल, कौन हमें खिलाएगा, कौन पिलाएगा. इसपर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि बहुत से जानवर ऐसे हैं जो अपनी रोज़ी साथ नहीं रखते, इसकी उन्हें क़ुव्वत नहीं और न वो अगले दिन के लिये कोई ज़ख़ीरा जमा रखते हैं जैसे कि पशु हैं, पक्षी हैं.

अल्लाह रोज़ी देता है उन्हें और तुम्हें(14)
(14) तो जहाँ होगे, वहीं रोज़ी देगा. तो यह क्या पूछता कि हमें कौन खिलाएगा, कौन पिलाएगा. सारी सृष्टि को रिज़्क़ देने वाला अल्लाह है, कमज़ोर और ताक़तवर, मुक़ीम और मुसाफ़िर सब को वही रोज़ी देता है.

और वही सुनता जानता है(15) {60}
(15) तुम्हारे कथनों और तुम्हारे दिल की बातों को. हदीस शरीफ़ में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, अगर तुम अल्लाह तआला पर भरोसा करो जैसा चाहिये तो वह तुम्हें ऐसी रोज़ी दे जैसी पक्षियों को देता है कि सुब्ह भूखे ख़ाली पेट उठते हैं, शाम को पेट भरे वापस होते हैं. (तिरमिज़ी)

और अगर तुम उनसे पूछो(16)
(16) यानी मक्के के काफ़िरों से.

किसने बनाए आसमान और ज़मीन और काम में लगाए सूरज और चांद तो ज़रूर कहेंगे अल्लाह ने, तो कहाँ औंधे जाते हैं(17){61}
(17) और इस इक़रार के बावुजूद किस तरह अल्लाह तआला की तौहीद से इन्कार करते हैं.

अल्लाह कुशादा करता है रोज़ी अपने बन्दों में जिसके लिए चाहे और तंगी फ़रमाता है जिसके लिये चाहे बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है {62} और जो तुम उनसे पूछो किसने उतारा आसमान से पानी तो उसके कारण ज़मीन ज़िन्दा कर दी मरें पीछे, ज़रूर कहेंगे अल्लाह ने(18)
(18) इसके इक़रारी हैं.

तुम फ़रमाओ सब ख़ूबियाँ अल्लाह को, बल्कि उनमें अक्सर बेअक्ल हैं (19) {63}
(19) कि इस इक़रार के बावुजूद तौहीद के इन्कारी हैं.

29 – सूरए अन्कबूत- सातवाँ रूकू

29 – सूरए अन्कबूत- सातवाँ रूकू

وَمَا هَٰذِهِ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلَّا لَهْوٌ وَلَعِبٌ ۚ وَإِنَّ الدَّارَ الْآخِرَةَ لَهِيَ الْحَيَوَانُ ۚ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ
فَإِذَا رَكِبُوا فِي الْفُلْكِ دَعَوُا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ فَلَمَّا نَجَّاهُمْ إِلَى الْبَرِّ إِذَا هُمْ يُشْرِكُونَ
لِيَكْفُرُوا بِمَا آتَيْنَاهُمْ وَلِيَتَمَتَّعُوا ۖ فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ
أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّا جَعَلْنَا حَرَمًا آمِنًا وَيُتَخَطَّفُ النَّاسُ مِنْ حَوْلِهِمْ ۚ أَفَبِالْبَاطِلِ يُؤْمِنُونَ وَبِنِعْمَةِ اللَّهِ يَكْفُرُونَ
وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا أَوْ كَذَّبَ بِالْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُ ۚ أَلَيْسَ فِي جَهَنَّمَ مَثْوًى لِّلْكَافِرِينَ
وَالَّذِينَ جَاهَدُوا فِينَا لَنَهْدِيَنَّهُمْ سُبُلَنَا ۚ وَإِنَّ اللَّهَ لَمَعَ الْمُحْسِنِينَ

और यह दुनिया की ज़िन्दगी तो नहीं मगर खेल कूद(1)
(1) कि जैसे बच्चे घड़ी भर खेलते हैं, खेल में दिल लगाते हैं फिर उस सब को छोड़कर चल देते हैं, यही हाल दुनिया का है. बहुत जल्दी इसका पतन होता है और मौत यहाँ से ऐसा ही अलग कर देती है जैसे खेल वाले बच्चे अलग हो जाते हैं.

और बेशक आख़िरत का घर ज़रूर वही सच्ची ज़िन्दगी है(2)
(2) कि वह ज़िन्दगी पायदार है, हमेशा की है. उसमें मौत नहीं. ज़िन्दगी कहलाते के लायक़ वही है.

क्या अच्छा था अगर जानते (3) {64}
(3) दुनिया और आख़िरत की हक़ीक़त, तो नश्वर संसार को आख़िरत की हमेशा रहने वाली ज़िन्दगी पर प्राथामिकता न देते.

फिर जब किश्ती में सवार होते हैं (4)
(4)  और डूबने का डर होता है तो अपने शिर्क और दुश्मनी के बावुजूद बुतों को नहीं पुकारते, बल्कि..

अल्लाह को पुकारते हैं एक उसी पर अक़ीदा (विश्वास) लाकर (5)
(5) कि इस मुसीबत से निजात वही देगा.

फिर जब वह उन्हें ख़ुश्की की तरफ़ बचा लाता है(6)
(6)  और डूबने का डर और परेशानी जाती रहती है, इत्मीनान हासिल होता है.

जभी वो शिर्क करते लगते हैं(7){65}
(7) जिहालत के ज़माने के लोग समन्दरी सफ़र करते वक़्त बुतों को साथ ले जाते थे. जब हवा मुख़ालिफ़ चलती और किश्ती ख़तरे में आती तो बुतों को पानी में फैंक देते और या रब, या रब, पुकारने लगते और अम्न पाने के बाद फिर उसी शिर्क की तरफ़ लौट जाते.

कि नाशुक्री करें हमारी दी हुई नेअमत की(8)
(8) यानी इस मुसीबत से निजात की.

और बरतें(9)
(9) और इससे फ़ायदा उठाएं, मूमिन और नेक बन्दों के विपरीत कि वो अल्लाह तआला की नेअमतों के सच्चे दिल के साथ आभारी रहते हैं और जब ऐसी सूरत पेश आती है और अल्लाह तआला उससे रिहाई देता है तो उसकी फ़रमाँबरदारी में और ज़्यादा लीन हो जाते हैं. मगर काफ़िरों का हाल इससे बिल्कुल मुख़्तिलिफ़ है.

तो अब जानना चाहते हैं(10){66}
(10) नतीजा अपने चरित्र अपने व्यवहार का.

और क्या उन्होंने (11)
(11) यानी मक्के वालों ने.

यह न देखा कि हमने(12)
(12) उनके शहर मक्कए मुकर्रमा की.

हुर्मत (इज़्ज़त) वाली ज़मीन पनाह बनाई(13)
(13) उनके लिये जो उसमें हों.

और उनके आस पास वाले लोग उचक लिये जाते हैं(14)
(14) क़त्ल किये जाते हैं, गिरफ़्तार किये जाते हैं.

तो क्या बातिल (असत्य) पर यक़ीन लाते है(15)
(15) यानी बुतों पर.

और अल्लाह की दी हुई नेअमत से(16)
(16) यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से और इस्लाम से कुफ्र करके.

नाशुक्री करते हैं {67} और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूट बांधे(17)
(17) उसके लिये शरीक ठहराए.

या हक़ (सत्य) को झुटलाए (18)
(18) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत और क़ुरआन को न माने.

जब वह उसके पास आए, क्या जहन्नम में काफ़िरों का ठिकाना नहीं (19) {68}
(19) बेशक सारे काफ़िरों का ठिकाना जहन्नम ही है.

और जिन्हों ने हमारी राह में कोशिश की ज़रूर हम उन्हें अपने रास्ते दिखा देंगे(20)
(20) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि मानी ये हैं कि जिन्हों ने हमारी राह में कोशिश की हम उन्हें सवाब की राह देंगे. हज़रत जुनैद ने फ़रमाया जो तौबह में कोशिश करेंगे, उन्हें सच्चाई की राह देंगे. हज़रत फ़ुजैल बिन अयाज़ ने फ़रमाया जो इल्म की तलब में कोशिश करेंगे, उन्हें हम अमल की राह देंगे. हज़रत सअद बिन अब्दुल्लाह ने फ़रमाया, जो सुन्नत क़ायम करने में कोशिश करेंगे, हम उन्हें जन्नत की राह दिखा देंगे.

और बेशक अल्लाह नेकों के साथ है(21){69}
(21)  उनकी मदद और नुसरत फ़रमाता है.

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